आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
हम ज़िंदा हैं क्या? || (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, आपका एक वीडियो देखा जिसमें आप बता रहे थे कि शरीर की औकात राख भर की है। ये तो हमें भी पता है कि एक दिन मरना है। पर मौत के डर से क्या जीवन का आनंद लेना छोड़ दिया जाए?

आचार्य प्रशांत: अरे नहीं, क्या गज़ब कह दिया! तुम लो न आनंद। तुम्हारी शक्ल पर पुता हुआ है आनंद। तुम लेते चलो। कह रहे हैं, "आचार्य जी ये तो हम भी जानते हैं कि एक दिन मर जाना है। आप बार-बार मौत काहे याद दिलाते हो? कोई वीडियो आता है, 'ये है शरीर की औकात।' कभी वीडियो आता है, 'औकात राख की, बात लाख की'।" वहीं से आया है ये कमेंट।

कह रहे हैं, "ये सब बातें मत किया करो। ये हम जानते हैं मर जाना है। अभी तो मज़े ले लेने दो।" भाई अध्यात्म परम मज़े की बात है। अध्यात्म इसलिए है क्योंकि तुम मज़ा ले नहीं पा रहे। तुम्हारी शक्ल मनहूस है। तुम मज़े ले रहे होते तो बेचारे ऋषियों-मुनियों को क्या पड़ी थी कि इतने मोटे-मोटे ग्रंथ तुम्हारे लिए छोड़ कर जाते? तुम क्या सोचते हो ऋषि कौन होता है? ऋषि वो होता है जिसको ज़बरदस्त मज़े मारने हैं। वो ज़बरदस्त मज़ा हम जानते ही नहीं। तो हमको लगता है कि ऋषि तो मज़े लेता नहीं। वो बहुत बड़े मज़े लेता है। कईयों ने बोला था न, "मैं परम अय्याश हूँ।"

अध्यात्म परम अय्याशी का विज्ञान है। वो ऐसे मज़े लेता है कि उसने अपनी अवस्था के लिए उस शब्द को भी छोड़ दिया जिस शब्द का इस्तेमाल हम अपनी प्रसन्न अवस्था को वर्णित करने के लिए करते हैं। हम जब खुश होते हैं, प्रसन्न होते हैं तो हम उसे कह देते हैं प्रमोद। हम कह देते हैं खुशी, हर्ष, पुलक। ये सब बोल देते हैं न। उन्होंने कहा, "हम जो अनुभव करते हैं वो तुम्हारी खुशी से इतनी दूर की और इतनी ऊँची बात है कि हम उस शब्द का भी इस्तेमाल नहीं कर सकते जिस शब्द का तुम इस्तेमाल करते हो।" तो तुम कहीं नहीं पढ़ोगे कि फलाने ऋषि इतनी तपस्या करने के बाद बड़े प्रसन्न हो गए। वो कहेंगे ही नहीं प्रसन्न हो गए। वो कहते हैं कि वो समाधिस्त हो गए, कहेंगे कि आत्मस्त हो गए, ब्रह्मस्त हो गए, आनंदित हो गए। विलीन हो गए, युक्त हो गए, आरूढ़ हो गए। ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।

तुमने कभी सोचा, तुम कभी जब खुश होते हो तो बोलते हो, "मैं आरूढ़ हो गया"? बोलते हो? वो जब खुश होते हैं तो बोलते हैं, "अब हम युक्त हो गए।" युक्त हो गए माने योग हो गया। तुम्हारी खुशी का मतलब होता है भुक्ति। भुक्ती माने भोग हो गया। उनकी खुशी का मतलब होता है युक्ति। युक्ति माने योग हो गया। सोचो तो कि उन्होंने शब्द भी काहे को दूसरे पकड़ लिए? अपनी ऊँची हालत को दर्शाने के लिए, क्योंकि वो हालत हमारी हालत से बहुत ज़्यादा ऊँची है। हमारा एक रुपये का मज़ा उनका करोड़ का मज़ा। और उनका करोड़ का मज़ा इसीलिए है क्योंकि उन्हें वो बातें याद हैं जो बातें मैं तुम्हें याद दिलाता हूँ और जिनको याद करके तुम्हें मिर्ची लगती है। जिन बातों से तुम्हें मिर्ची लगती है कि "आचार्य जी मज़ा ना खराब किया करो यार। हम मज़े मार रहे थे, बीच में आकर तुमने बता दिया कि शरीर श्मशान में जाएगा, आग लगेगी, ये हो जाएगा। कैसी बात कर रहे हो? यहाँ हम शरीर को ही घिस-घिस कर मज़े ले रहे थे, तुमने बता दिया कि, 'घिस क्या रहे हो इसे? राख हो जाना है'।"

मेरी जिन बातों से दिक्कत हो रही है न, वही बातें अगर याद रख लोगे तो महा मज़ा मिलेगा। मैं आपका मज़ा छीनना नहीं चाह रहा हूँ। आपके छोटे मज़े से आगे का बहुत बड़ा मज़ा देना चाह रहा हूँ। आप कहेंगे "नहीं, हम बड़े त्यागी संतोषी जीव हैं, हम कम में गुज़ारा करते हैं। हम मितव्ययी हैं। और आचार्य जी आप ही ने एक दिन वो कोई श्लोक उद्धृत करा था न, 'संतोषम परम् सुखम।' हम तो छोटा वाला, थोड़ा वाला ही मज़ा चाहते हैं।" अच्छा ठीक है छोटे वाले, थोड़े वाले मज़े से भी मुझे कोई आपत्ति नहीं होती अगर तुम्हें थोड़ा भी मज़ा मिल रहा होता। कुल मिला-जुला कर हमारी हालत ये है कि थोड़ा तो मिलता है मज़ा और उसके बाद बहुत बड़ी मिलती है सज़ा। तो जब तुम ये भी कहते हो कि तुम्हें थोड़ा मज़ा मिल रहा है तो मैं पूरी तस्वीर देखता हूँ और उस पूरी तस्वीर में होता है थोड़ा सा मज़ा, बहुत सारी सज़ा। तो कुल मिला करके क्या मिल रहा है तुम्हें, मज़ा कि सज़ा?

श्रोतागण: सज़ा।

आचार्य: तो तुम्हें तो थोड़ा मज़ा भी नहीं मिल रहा है, सज़ा मिल रही है। उसी सज़ा को देख करके कहा करता हूँ कि मौत याद रखो। जिन्हें मौत याद रह गई उनका जीवन एक अतीव पुलक से भर जाता है। बड़ी अद्भुत मुक्ति है मौत के स्मरण में। और कोई नहीं याद रखता। जिसको मौत याद रहेगी वो वैसे जियेगा ही नहीं जैसे हम जीते हैं। और हमारे सब कष्टों का मूल हमारी जीवन शैली में ही है न। जीवन के पीछे हमारी जैसी धारणाएँ हैं उसी में तो हमारे सब दुःख-दर्द छुपे हुए हैं न?

हमें मौत याद रहेगी तो हम वैसे करेंगे जैसे हम करते हैं? ऐसे खाएँगे, ऐसे पियेंगे, ऐसे लड़ेंगे-झगड़ेंगे, ऐसे समय नष्ट करेंगे? हमें नहीं याद रहता। डरा नहीं रहा हूँ। कि नुन्नू सो जा नहीं तो मौत आ जाएगी। जगा रहा हूँ। मेरे कहने से थोड़े ही मौत आएगी। चलो मैं नहीं बोलता कि मौत आएगी। मैं कहूँ, "नुन्नु सोता रह मौत नहीं आएगी।" मौत तो तब भी आएगी। क्या पता तुम्हें आए उससे पहले मुझे आ जाए। कोई नहीं जानता किसको पहले आएगी। तो डराने की बात नहीं है।

मौत कोई धमकी थोड़े ही होती है। धमकी में तो अनिश्चितता होती है। किसी ने धमकी दी है, पता नहीं वो चीज़ हो ना हो, करे ना करे, मौत तो सुनिश्चित है। एकदम साफ़-सफ़ाई की ईमानदार बात है, आनी है। और मज़ेदार इसलिए है, रोमांचक इसलिए है क्योंकि ये नहीं पता कि कब आनी है। आएगी तो, पता नहीं कब आएगी। तो मतलब इसका ये है कि कभी भी आ सकती है। अब जब कभी भी आ सकती है तो लगातार चौकन्ने रहो न भाई। अगर ये पता ही होता कि कम-से-कम दो साल तो नहीं आएगी, तो भी दो साल सो लेते।

क्या पता कब आ जाए, चौकन्ने रहो। कभी भी आ सकती है, खेल ख़त्म हो जाए। खेल ख़त्म हो जाए इससे पहले खेल के मज़े ले लो। आप कहोगे, "यही तो हम करते हैं, मज़े लेते हैं।" नही! नहीं! नहीं! तुम मज़े ऐसे लेते हो जैसे कि तुम्हारे पास दो-हज़ार साल हैं। मैं कह रहा हूँ कि मज़े ऐसे लो कि जैसे तुम्हारे पास सिर्फ़ दो पल हैं। बहुत अंतर है। जब तुम दो-हज़ार साल वाले मज़े लेते हो तो जानते हो तुम क्या करते हो? तुम मज़े को कल पर स्थगित कर देते हो। तुम कहते हो, "मेरे पास दो-हज़ार साल हैं, मैं मज़ा कल ले लूँगा न।" तुम सारे वो काम करते हो जो भविष्योन्मुखी होते हैं। करते हो कि नहीं?

उसको सकाम कर्म कहते हैं, कि काम आज करूँगा अंजाम कल मिलेगा बढ़िया वाला। और जब तुम जानते हो कि कल का कुछ पता नहीं तो निष्काम कर्म आ जाता है। कहते हो, "अब तो जो कर रहे हो उसी के मज़े ले लो, अंज़ाम के आने तक पता नहीं हम बचेंगे कि नहीं बचेंगे।" ये तो बड़ा घाटे का सौदा हो जाएगा न, कि सारा काम किसके लिए किया? अंजाम के लिए और अंज़ाम आने तक बचे ही नहीं। तो अपना अधिकार किस पर है? अपना अधिकार बस इस क्षण पर है। इतना पक्का है कि अभी ज़िंदा हूँ। अगले ही पल का कुछ पता नहीं। जब अभी ज़िंदा हूँ तो मज़े कब लेने हैं? अभी, माने सकाम कर्म नहीं कर सकते।

सकाम कर्म जानते हो न? सकाम कर्म माने क्या? कि मेहनत करो न, आगे कुछ मिलेगा फल बढ़िया वाला। अपनी जो साधारण इच्छाएँ होती हैं, ये ऐसे ही होती हैं न; अभी करो आगे पाओ।

तो एक बार तुम मौत को याद रख लेते हो उसके बाद तुम अपनी कामनाओं पर नहीं चल सकते। क्योंकि सारी कामनाएँ भविष्य उन्मुखी हैं। जहाँ कामना है, वहाँ भविष्य अनिवार्य है। बात आ रही है समझ में?

जिसको मृत्यु याद है वो इसी क्षण वो पाना चाहेगा जो ऊँचे-से-ऊँचा है। कल पर वो उसको टाल नहीं सकता। हममें से कोई यहाँ ऐसा है जो ठीक इसी पल उच्चतम को पा लेना चाहता हो? जाँचना है तो ऐसे जाँच लो कि कौन है जो ठीक इसी पल उच्चतम मूल्य अदा करने के लिए तैयार है। क्योंकि अगर इसी पल वो चाहिए जो ऊँचे-से-ऊँचा है तो इसी पल क्या करना पड़ेगा? ऊँचे-से-ऊँची क़ीमत भी देनी पड़ेगी। फिर ये नहीं चलेगा कि ये ले लो, ये छोटी वाली किश्त ले लो न। फिर छोटी वाली किश्त का भुगतान नहीं करोगे अभी। फिर कहोगे, "जो कुछ है मेरा जितना है अभी इसे अभी लो न। अभी दूँगा पूरा तभी तो अभी माल मिलेगा पूरा।" भविष्य पर नहीं टालोगे फिर।

जो अभी पूरा दे देता है वो अभी पूरा मुक्त हो गया क्योंकि जो चीज़ तुम पकड़े बैठे हो, जो चीज़ तुम देना छोड़ना नहीं चाहते वही तो बोझ-बंधन है। जिसने अभी पूरा भुगतान कर दिया उसको तत्काल मिल गया। क्या मिल गया? भुगतान से मुक्ति। अब आगे भुगतान नहीं करना पड़ेगा न भाई। जितना था अभी दे दिया। लो भाई पूरा लो। पूरा देने से उससे कुछ नहीं मिल जाएगा जिसको भुगतान कर रहे हो। उससे कुछ नहीं मिल जाएगा। पूरा दे करके क्या मिल जाएगा? भुगतान से ही मुक्ति मिल जाएगी। गठरी सर पर रख कर घूम रहे थे, दे दी। अब कुछ नहीं देना, हो गया ख़त्म। जल्दी-से-जल्दी खाता बंद करो। इसी को कहते हैं कर्म चक्र से बाहर आना; खाता बंद करो, *क्लोज द अकाउंट*। जब तक वो खाता खुला हुआ है तब तक तुम कल को सर पर लादे घूमोगे। क्योंकि अभी तो खाता खुला हुआ है, अभी तो किश्तें बंधी हुई हैं। निपटाते चलो किश्त, निपटाते चलो, पता नहीं कितनी लंबी किश्तें हैं। एकमुश्त भुगतान करो, खेल ख़त्म।

कहेंगे, "आचार्य जी! इतना है नहीं, एकमुश्त कैसे दे दें?" भग! है नहीं! यहाँ रूपय-पैसे की बात हो रही है? तुम ये बोलो कि तुम्हारे पास अभी-अभी चालीस लाख नहीं है पूरा तुम्हारा कर्ज़ा निपटाने को तो मैं बिलकुल मान लूँगा। ज़्यादातर लोगों के पास नहीं होंगे चालीस लाख कि एकमुश्त निपटा दें। पर यहाँ बात स्थूल धन जमा कराने की नहीं हो रही है। यहाँ बात क्या दे देने की हो रही है? भीतर जो सूक्ष्म बंधन पकड़े बैठे हो। उनको तो एकमुश्त ही पटक सकते हो कि नहीं पटक सकते हो? वहाँ तो कोई नहीं तुमको रोक रहा। वहाँ तो कोई नहीं रोक रहा न। उनका तो एकमुश्त त्याग कर सकते हो? उसी को भुगतान कह रहा हूँ। आ रही है बात समझ में?

मौत को याद रखने के ये फ़ायदे हैं। मौत याद रखने के ये लाभ हैं। "जल्दी करो रे, जल्दी करो।" और जल्दी क्या करो? बेवकूफियाँ नहीं। जो ऊँचे-से-ऊँची चीज़ है वो जल्दी-से-जल्दी करो। जो महत्वपूर्ण-से-महत्वपूर्ण है वो जल्दी करो। मान लो तुम्हें पता हो कि एक ही दिन है जीने के लिए, तो क्या करोगे? जाकर पड़ोसी से गाली-गलौज करोगे? उस्तरा लेकर पीठ खुजाओगे? क्या करोगे? ये सारे काम में समय बिताओगे या वो काम करोगे जो अति-महत्वपूर्ण है? बोलो, जल्दी बोलो।

जो अति महत्वपूर्ण है वो करोगे न? मौत याद रखने का ये फ़ायदा होता है। सिर्फ़ वो करते हो जो एकदम आवश्यक है, बाकी जो फ़िजूल की झंझट है उनको एकदम किनारे कर देते हो।

अभी तो लगता है हम बिलकुल चिरंजीवी हैं। तो चिरंजीवी महाराज क्या करते हैं? दिन में आठ घण्टे उस्तरे पर धार रखते हैं, फिर दो घण्टे खुजाते हैं। ऐसे करके दिन बीत रहा है। मैं स्थूल उस्तरे की बात नहीं कर रहा, ये जो भीतर मन में तमाम तरह की कैंचियाँ, खुरपियाँ और फावड़े हैं उनकी बात कर रहा हूँ। हम और क्या करते हैं? दिन भर उन्हीं को तो चमकाते रहते हैं। या तो उनको चमका रहे हैं या तो उनको चला रहे हैं। याद ही नहीं कि कल ही तो मरना है।

अच्छा कल कैसे नहीं मरना है? तुम अपने दिन की परिभाषा बदल दो तो कल ही मरना है। तुमसे किसने कह दिया कि दिन चौबीस घण्टे का ही होना चाहिए? दिन अगर हज़ार घण्टे का है, अगर चौबीस-हज़ार घण्टे का दिन है तो कौन है जो कल नहीं मर रहा है? बताओ। दिन चौबीस-लाख घण्टे का है तो कौन है जो आज नहीं मर रहा?

क्यों सोचते हो कि तुम्हारे पास वक़्त है? वक़्त के पास तुम हो। वो तुम्हें कभी भी उछाल देगा। तुम्हारे पास नहीं है वक़्त। तुम्हें लग रहा है, "मेरी जेब में है न वक़्त। मोबाइल में है", निकाला और वक़्त देखा। तुम वक़्त की जेब में हो। ऐसे (आराम से) निकालता है, और उछाल देता है।

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