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लेख
होइहै वही जो राम रचि राखा || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
18 मिनट
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प्रश्नकर्ता: मन में हमेशा एक ऐसा विचार आता है, मतलब कई बार; पिछले बार कई बार पढ़ा उसके हिसाब से, कि अगर कहते हैं, "होइहै वही जो राम रचि राखा", तो क्या मतलब ये अध्यात्म में ऐसा मानें कि आत्मा-परमात्मा अलग रहे बहुकाल? तो ये ऐसा होता ही है मतलब ये? तो ये होना ही है, साइकल (चक्र) ही है ऐसा? क्या मतलब निकालें उसका?

आचार्य प्रशांत: ऐसा है। यहाँ पर जिस अर्थ में आत्मा और परमात्मा की बात की गई है, आत्मा मन है और परमात्मा सत्य है। वैदिक-भाषा में अगर इसको देखेंगे तो यहाँ जिसको आत्मा कहा गया है वो मन है और जिसको परमात्मा कहा गया है वो आत्मा है। ठीक है? उपनिषदों में आत्मा-परमात्मा दो नहीं होते, एक ही होते हैं; आत्मा ही होती है, आत्मा के अलावा कोई परम-आत्मा नहीं होती। आत्मा ही परम है, तो अब परम-आत्मा क्या होगी? ये वैसी ही बात हो जाएगी जैसे कोई कहे सत्य और परम-सत्य; सत्य जब है ही, तो परम-सत्य क्या होगा? एक ही है।

लेकिन चूँकि आम-आदमी की ये आदत बन जाती है कि वो मन के साथ ही पहचान बना लेता है, वो मन को ही 'मैं' समझने लगता है, तो आम बोलचाल की भाषा में मन का ही नाम पड़ जाता है आत्मा। और फ़िर हम आत्मा को लेकर इस तरह की बातें भी करने लग जाते हैं कि "मेरी आत्मा बेचैन है, आत्मा तड़प रही है”, या “आत्मा की शांति के लिए ऐसा काम करना है”, या “मेरी आत्मा ऐसा कह रही है।“ अब निश्चित रूप से ये सारी बातें औपनिषदिक-आत्मा के बारे में तो नहीं कही जा रहीं, क्योंकि वो तो अकर्ता है और स्वयंभू है और पूर्ण है। आत्मा यदि सत्य है, तो सत्य तड़प कैसे सकता है? कह रहे हैं कि आत्मा की शांति के लिए कुछ करना है, आत्मा यदि सत्य है तो सत्य अशांत कैसे हो गया भाई? कि अब उसे तुम शांत करोगे। तो यहाँ आपने आत्मा-परमात्मा के विषय में जिज्ञासा की है; सर्वप्रथम ये समझना ज़रूरी है कि वो जिज्ञासा मन और आत्मा के बारे में है।

अब कह रहे हैं कि "राम रचि राखा। ये किसने कर दिया कि मन आत्मा से अलग हो गया? राम ने ये खेल रचा ही क्यों? ऐसा हो ही क्यों गया कि मन आत्मा से अलग हो गया?” मन की जो भौतिक अभिव्यक्ति है, उसका नाम है जीव। ठीक है? और जीव के सामने खड़ा है संसार। और आत्मा का ही दूसरा नाम है, हमने जैसा कहा था, सत्य। तो घूम-फिर कर आपका प्रश्न ये है कि “ये संसार है ही क्यों?” क्योंकि जब संसार है तभी तो जीव में और आत्मा में, मन में और सत्य में दूरी है न? दुनिया ही ना होती, जीव ही ना होता, तो कोई द्वैत ही ना होता, कोई दूरी ही ना होती। आप पूछ रहे हैं कि “ये दुनिया है ही क्यों?” क्योंकि आप हैं। कौन कह रहा है कि दुनिया है? आप ही तो कह रहे हैं, क्योंकि आप हैं। हम ही हैं ये कहने वाले कि ये दुनिया है, हमें ही ये प्रश्न उठ रहा है कि “ये दुनिया क्यों है? दुनिया क्या है?” ये जानने के लिए उस तक जाना होता है जो ये पूछ रहा है कि “दुनिया क्यों है?” उससे पूछना होता है कि “तू कौन है? क्योंकि दुनिया को देख तो तू ही रहा है, तेरे अलावा तो कोई है ही नहीं गवाही देने वाला कि कोई है भी! तू ना हो तो कोई ना बोल पाए कि दुनिया है। तो तू बता, तू कौन है? तू कौन है जो दुनिया को अपने-आप से अलग देखता है? तू दुनिया को अपने-आप से अलग देखता है तो निश्चित रूप से दुनिया तेरी ही वजह से है, और तू ना हो तो फ़िर दुनिया भी नहीं होगी।“

मिल गया दुनिया का कारण, कौन है वो? जो दुनिया को देख रहा है वही दुनिया का प्रक्षेपण कर रहा है; यहाँ तक कह सकते हैं, हालाँकि बात पूर्णतया शुद्ध नहीं होगी, कि “वही दुनिया का कारण है।“ जो दुनिया का दृष्टा है वही दुनिया का कारण है। अब कारण-कारण में भी फ़र्क होता है। आप अगर शास्त्रों में जाएँगे तो निमित्त-कारण, उपादेय-कारण, कई तरह के कारण बताएँगे। लेकिन अभी मोटी-मोटी बात यही समझ लीजिए कि जो दुनिया को देख रहा है और जो दुनिया के विषय में प्रश्न कर रहा है कि ये दुनिया है ही क्यों, आप उससे पूछिए, “तू क्यों है? क्योंकि तू ना होता तो दुनिया ही नहीं होती।“ तो अब ये सवाल दुनिया के बारे में नहीं रह गया है, अब ये सवाल हमारे बारे में हो गया है, “हम क्यों हैं?”

अब हम कौन हैं? जब आप कहते हैं कि “हम क्यों हैं”, तो हम हैं कौन? हम एक बेचैनी या छटपटाहट हैं, वो क्यों है? जैसे-जैसे आप अपने विषय में जिज्ञासा करते जाएँगे, वैसे-वैसे अपने विषय में 'अस्ति' का भ्रम मिटता जाएगा। ये 'मैं' पना जितना मिटता जाएगा, दुनिया उतनी ही मिटती जाएगी। क्या दुनिया विलुप्त होती जाएगी? आप दीवार की ओर देखेंगे, दीवार दिखाई नहीं देगी? नहीं, दीवार दिखाई देगी, किसको दिखाई देगी? आँखों को दिखाई देगी; आपके लिए दीवार अर्थहीन होती जाएगी। अहं के लिए कोई भी चीज़ अर्थहीन नहीं होती, अहं के लिए हर चीज़ अर्थपूर्ण होती है, फिर वो पूछता है, “ये चीज़ क्या है? ये चीज़ क्यों है?” क्योंकि उस चीज़ में उसको कुछ अर्थ दिखाई देता है। अर्थ का मतलब समझते हैं? उसी अर्थ से आता है स्वार्थ। अहं को हर चीज़ में रुचि और उत्सुकता होती है, क्योंकि कोई भी चीज़ उसको लगता है कि उसकी अपूर्णता को भरने में सहायक हो सकती है। दुनिया को इसी दृष्टि से देखता है, "मैं अहं हूँ, मेरे सामने दुनिया है, ये दुनिया मेरे काम की चीज़ है”, या “ये दुनिया मेरे लिए ख़तरा है।" जैसे-जैसे आप अहं के बारे में जिज्ञासा करते जाते हैं, भीतर जाते जाते हैं, वैसे-वैसे अहं की शुद्धि होती जाती है। अब उसके लिए दुनिया मात्र एक तथ्य है, अब वो इस भ्रम से भी निजात पा गया कि दुनिया जड़ है और वो चेतन है; अब वो और दुनिया एक हो गए। तो अब बताइए, दुनिया बची कहाँ?

अहं के मिटने का अर्थ होता है कि अहं और दुनिया एक हो गए, अहं और संसार एक हो गए; या तो दोनों को जड़ मान लिया, या दोनों को चेतन देख लिया, तो अब दुनिया बची ही नहीं। प्रश्न बहुत बड़ा था; पता चल गया कि प्रश्नकर्ता ही प्रश्न है, प्रश्नकर्ता में प्रवेश करना ही प्रश्न का समाधान है।

प्र२: अब तक जितना मैंने बदलने की कोशिश की है, और कर रहा हूँ - जब मैं फर्स्ट-ईयर (प्रथम-वर्ष) में था, तब कॉलेज (महाविद्यालय) में एडमिशन (दाखिला) लेने से पहले मैं एक अष्टावक्र-गीता खरीद लिया था। और वहाँ पर एडमिशन लेने के बाद फ़िर, उससे पहले मैं काफ़ी वो बुक (किताब) पढ़ा। तो वहाँ पर जब मेरे दोस्त ने देखा तो कहा कि "तू क्या पढ़ रहा है?" फ़िर उसके बाद उसने मुझे एक सच्ची-रामायण, पेरियार का, एक पी.डी.एफ. मुझे दिखलाया था। फिर उसे जब मैं पढ़ा, तो जितना पहले मैं सोचता था भगवान राम के बारे में, बाकी जितना भी ऐसा उसमें लिखा गया है, उसको पढ़ने के बाद मुझे भी ये समझ में आया कि सचमुच ये जो लिखा है पेरियार ने, वो सही ही लिखा है। पर फिर भी मैं जो अष्टावक्र का किताब पढ़ता रहता था, उसकी तरफ़ मेरा ज़्यादा; मैं काफी स्पिरिचुअल (आध्यात्मिक) गुरु का भी सर्च (खोज) मारा टेक्स्ट (मूल-पाठ) गूगल पर। तो ओशो का मैं काफ़ी ऑडियो सुनते रहता था, रमन-महर्षि का भी मैं वीडियो (चलचित्र) देखते रहता था। और आपका तो मैं २०१९ से शुरू किया था वीडियो देखना, उसके पहले मैं नहीं देखता था। लेकिन अभी इतना, जैसे कि चार सालों में इतना नॉलेज (ज्ञान) इकट्ठा हो गया है, सब-कुछ, कि अभी भी मैं कंपनी में जब मैं काम करता हूँ तो मैनेजर (प्रबंधक) को समझाने लगता हूँ तो दो-दो, तीन-तीन घण्टे उनको समझा देता हूँ। लेकिन अभी जैसे कि कहीं कोई अनुभव, जैसे ये लगता है कि ये ख़ुद हमें अभी शोभा नहीं दे रहा है, ये ज्ञान हम बाँट रहे हैं तो। अभी ख़ुद अनुभव मुझे जैसे परमात्मा का नहीं हुआ है, ये कैसे?

आचार्य: चार साल में इतना पढ़कर, इतना सुनकर ये ज्ञान इकट्ठा करा है तुमने कि परमात्मा का अनुभव करना है? क्या करोगे परमात्मा को, भोगोगे?

प्र२: नहीं आचार्य जी, भोगने की बात नहीं है।

आचार्य: फ़िर?

प्र२: ह्रदय से थोड़ा लगता है ऐसा, जैसे कि ये अशांति कैसे मिटे? कभी-कभी ऐसा लगता भी है कि...

आचार्य: भाई! तुमने आजतक जिस भी चीज़ का अनुभव करा है, तुमने उसका क्या करा है, उस चीज़ का? अनुभव करके तुमने उसका क्या करा है? भोग ही तो करा है न? तुम्हें दिख नहीं रहा, परमात्मा का अनुभव भी करने की ये जो बड़ी प्रचलित माँग है, ये क्या होती है? हमें परमात्मा को भी भोगना है।

अच्छा ये बताओ, मान लो सौ जने हैं जो ये कह रहे हैं, "परमात्मा का अनुभव चाहिए।" इनको आश्वस्ति दे दी जाए कि “परमात्मा का अनुभव मृत्यु-तुल्य कष्ट देता है, एकदम दर्दनाक होता है, चीखें मारोगे, गिर पड़ोगे, भीतर अदृश्य खून की धाराएँ बहेंगी”, तो सौ में से कितने लोग बचेंगे जो कहेंगे कि "अभी-भी अनुभव करना है"?

प्र: एक भी नहीं।

आचार्य: एक-आध कोई बचे तो बचे, सनकी हर जगह होते हैं, अठ्ठानबे-निन्यानबे तो भाग ही जाएँगे। इसका मतलब जब तुम परमात्मा का अनुभव खोज रहे हो तो वहाँ भी खोज क्या रहे हो? सुख ही तो खोज रहे हो। तो ये तो वही पुरानी सुख की चाह है न? कोई मिठाई की दुकान पर खोज रहा है, कोई कह रहा है कि, "मुझे अध्यात्म के रास्ते से चाहिए परमात्मा का अनुभव।" और परमात्मा के अनुभव से तुम्हारी अपेक्षाएँ भी होती हैं, उम्मीदें भी होती हैं। ये उम्मीद तो बिलकुल नहीं होती कि परमात्मा का अनुभव होगा और तुम बिलकुल रोने, चिल्लाने, गरजने, चिंघाड़ने लगोगे, ये तो नहीं होता न? छवि तो है ही, कि परमात्मा का अनुभव होगा तो अपूर्व शांति उतरेगी, "आहाहा! क्या न मज़ा आएगा!" और मज़ा ही नहीं आएगा, उसके बाद हम हक़दार हो जाएँगे अपने नाम के साथ ‘परम-पूज्य’ की उपाधि लगाने के।

भाई! छोटा-मोटा थोड़े ही है, ‘परमात्मा’ का अनुभव हुआ है!

"तुम हो कौन? तुमने क्या अनुभव कर लिया है? तुम इटली घूम आए!”

“तुमने क्या अनुभव किया है? तुमने एफ़िल-टावर का अनुभव किया है!”

“तुमने क्या किया है? तुम चाँद पर हो आए!”

“हम? परमात्मा!”

“है कोई मैदान में? आओ, सामने आओ!"

करोगे क्या तुम परमात्मा के अनुभव का, बताओ न मुझको! और कहाँ पर अष्टावक्र ने कहा है कि "परमात्मा का अनुभव"? एक श्लोक दिखा दो, एक श्लोक दिखा दो जहाँ पर मुनि अष्टावक्र परमात्मा के अनुभव की बात कर रहे हों, पूरी अष्टावक्र-संहिता में। आज रात ले लेना पूरी, कल मेरे सामने आ जाना।

वही पुरानी तलाश! वही पुराने तरीके! कोई तरह-तरह के व्यंजनों के अनुभव लेना चाहता है, कोई जगह-जगह घूमने के अनुभव लेना चाहता है, कोई तरह-तरह की फ़िल्में देखने के अनुभव लेना चाहता है, कोई पचास तरीके के स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क में आने के अनुभव लेना चाहता है; उसी कामना का विस्तार है, कि “अब तो मुझे परमात्मा का अनुभव भी चाहिए।“ और मज़ेदार बात ये है कि कई धुरंधर ऐसे होते हैं जिन्हें ये अनुभव हो भी जाता है, वो कहते हैं, "मुझे हो भी गया।" सत्य का अनुभव? क्या तुमने शास्त्रों का पाठ करा है अगर तुम्हें लग रहा है कि सत्य अनुभव का विषय हो सकता है! सत्य अनुभव का विषय हो सकता है क्या? तो फिर परमात्मा का अनुभव क्यों पूछ रहे हो? सत्य वो है जो किसी के अनुभव में आ ही नहीं सकता। जो कोई कहे कि उसे सत्य का अनुभव हुआ है, वो या तो अज्ञानी है या धूर्त है, या दोनों है। क्यों इन चक्करों में पड़ रहे हो?

सत्य का अनुभव नहीं होता, अब समझो; सत्य की कृपा से जीवन के रोज़मर्रा के अनुभवों का झूठ देखा जाता है।

सच का ‘अनुभव’ नहीं होता; सब ‘अनुभवों’ का झूठ देखा जाता है।

और अगर झूठ देख पा रहे हो सब अनुभवों का, तो इसको कहते हैं सच की कृपा। पर उस कृपा के फलस्वरूप तुम्हें सच नहीं दिख जाएगा, तुम्हें दिखेगा क्या? झूठ दिखेगा; और यही तो कृपा है, कि पहले झूठ में फँसे रहते थे, अब झूठ दिखने लग गया। सच की कृपा से सच नहीं दिखता, वो दिखने की वस्तु ही नहीं है, वो मन, वचन, कर्म, सब इन्द्रियों के पार का है, उसे तुम कहाँ से छू लोगे? उसका कोई चिंतन-मनन भी नहीं हो सकता, उसका कहाँ से तुम अनुभव कर लोगे? हाँ, उसके सामने अगर अहं नमित रहे — और ये भी उसी की कृपा से होगा अगर वो नमित है तो — उसकी कृपा से अगर अहं नमित है तो जीवन का झूठ दिखना शुरू हो जाता है।

समझ में आ रही है बात?

ठीक ऐसे जैसे रौशनी होती है। किसी ने रौशनी देखी है आजतक? कोई है ऐसा जिसने आजतक रौशनी देखी हो? आप रौशनी देख ही नहीं सकते; आप हमेशा वो पदार्थ देखते हो जिससे रौशनी परावर्तित होकर आ रही है। तो रौशनी नहीं दिखती है; रौशनी की अनुकम्पा से दुनिया दिखती है। जब सवेरा हो जाता है तो आपको रौशनी थोड़े ही दिखती है, आप ये थोड़े ही कहोगे कि "मुझे रौशनी दिख रही है"; रौशनी हुई है तो दुनिया दिख रही है। रौशनी एक मौजूदगी है, रौशनी एक उपस्थिति है, जिसको सीधे-सीधे कभी नहीं जाना या अनुभव किया जा सकता। हाँ, उसकी अनुकम्पा से बाकी सब-कुछ अनुभव हो जाता है, सच्चे-सच्चे, यथार्थ तरीके से। रौशनी ना हो तो सारे अनुभव आपके कैसे होंगे? दर्दनाक; चलोगे, ठोकर खाओगे, रौशनी नहीं है न! रौशनी होती है तो सब अनुभव फिर साफ़, सच्चे, विवेक-पूर्ण होने लग जाते हैं, पुराने अनुभवों से निजात मिल जाती है; ये होती है सत्य की कृपा। सत्य की कृपा के अभिलाषी हो, बहुत अच्छी बात है; पर अगर सत्य के अनुभव के अभिलाषी हो, तो ये बड़े अहंकार-पूर्ण मन की माँग है। मन कह रहा है, "मैं इतना बड़ा हो गया कि अब मैं सच का ही अनुभव कर आऊँगा।“

सत्य के आगे झुकते हैं, उसे अनुभव में लाने की कोशिश नहीं करते।

फ़िर दोहरा रहा हूँ, सच के आगे झुका जाता है, उसे अनुभव में लाने की कोशिश नहीं की जाती, क्योंकि सारे अनुभव इन्द्रियगत और मानसिक होते हैं। सत्य ना तो इन्द्रियों की चीज़ है, ना मन की चीज़ है; वो एक समर्पण है, किसके सामने? ये भी नहीं पूछा जाता; बस ये देख लेते हैं कि कुछ है जो हमसे बहुत, बहुत बड़ा है, इतना बड़ा है कि उसका माप भी नहीं लिया जा सकता, एकदम असीम है, उसके आगे झुकना पड़ेगा ही। उसकी मौजूदगी का प्रमाण क्या है? उसकी मौजूदगी का प्रमाण ये है कि जब हम झुके होते हैं तो दुनिया का यथार्थ दिखने लगता है, उसकी मौजूदगी का प्रमाण ये है कि जब झुके होते हैं तो अशांति मिटने लग जाती है; ये उसकी मौजूदगी का प्रमाण है।

उसकी मौजूदगी का भी कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होता, उसकी मौजूदगी का भी परोक्ष प्रमाण होता है। प्रत्यक्ष का तो मतलब हो जाएगा ‘प्रति-अक्ष’, आँखों के सामने। आँखों के सामने सच कभी आएगा ही नहीं! तुम्हारी आँखें सब-कुछ देख सकती हैं सच के अलावा। तो फिर संतों-फ़कीरों ने कहा कि “तुम्हारी आँखें जो कुछ देखती हैं सब झूठ है, क्योंकि सच कभी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता।“ सच कभी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। जानने वाले और आगे गए हैं, कहो तो बताऊँ, बताऊँ? सच परोक्ष भी नहीं हो सकता, क्योंकि जो प्रत्यक्ष है वही तो कभी परोक्ष होता है; जो प्रत्यक्ष है वही परोक्ष हो सकता है। परोक्ष मतलब जो आँखों से हट कर है, प्रत्यक्ष माने जो आँखों के सामने है। तो जिन्होंने जाना, जैसे आदि शंकराचार्य थे, उन्होंने कहा, "ना प्रत्यक्ष है ना परोक्ष है, फ़िर भी बहुत करीब है", तो कहा, "अपरोक्ष है।" तो सत्य की अनुभूति को भी लेकर के उन्होंने क्या कहा? ‘अपरोक्ष-अनुभूति’। अनुभूति तो है, पर वो ऐसी अनुभूति है जिसका अक्ष से कोई लेना-देना नहीं है; ना प्रत्यक्ष, ना परोक्ष। तो फ़िर वो अनुभूति होती किसको है? किसी को भी नहीं होती। जब तुम वो हो जाओगे जो कुछ भी नहीं है, तो तुम्हें जो भी अनुभव होंगे वो सब सत्य के हैं। सवाल ये है कि तब तुम्हें अनुभव होंगे ही क्यों, क्योंकि तब अनुभावक होने के लिए कोई बचा ही नहीं! जब कुछ ना बचे तो जो अनुभव है उसे सत्य का अनुभव कहते हैं; ना अनुभोक्ता बचा ना अनुभव बचा, अब जो अनुभव हुआ वो सत्य का अनुभव है। बताओ, चाहिए?

(प्रश्नकर्ता ना 'हाँ' कहते हैं और ना 'नहीं')

अच्छा कर रहा है, 'हाँ' बोलेगा तो भी गड़बड़ है और 'ना' बोलेगा तो भी गड़बड़ है; क्योंकि 'हाँ' बोलने वाला कोई होगा, 'ना' बोलने वाला भी कोई होगा। सच का अनुभव तो बेटा, सही में यही है जो अभी दर्शा रहे हो- मौन; होंठों का नहीं, भीतर भी मौन उतर गया बिलकुल। कोई बचा ही नहीं सत्य के अनुभव की कामना करने वाला, सब-कुछ मिट गया, तब तुम कह सकते हो कि अपरोक्ष-अनुभूति हुई, पर तब कहेगा ही कौन? तब ये सब कहने-सुनने में रुचि किसकी रही? कौन आएगा फिर कहने? बताओ न! खाली घर से हवा बह गई। खाली घर, जिसकी खिड़कियाँ भी खुलीं, जिसके दरवाज़े भी खुले, उससे हवा बह-बह कर गुज़र रही है। बोलो, कौन कहेगा कि, "मैं हवा के मज़े ले रहा हूँ"? कौन कहेगा कि, "मैं हवा का अनुभव ले रहा हूँ"? बोलो! हमारे घर आमतौर पर बंद होते हैं न? खिड़कियाँ भी बंद, दरवाज़े भी बंद। जब घर ऐसा हो जाए कि खिड़कियाँ भी खुली हुईं हैं, दरवाज़े भी खुले हुए हैं और भीतर रहने वाला कोई नहीं, और पूरे जगत की हवा बह रही है भीतर से, पूरे आकाश की हवा बह रही है, तो सत्य और तुम एक हो गए; ये सत्य की अनुभूति है। अब सत्य और तुम एक हो गए, अब घटाकाश और महाकाश एक हो गए; ये सत्य की अनुभूति है। लेकिन अब बताने कौन आएगा कि सत्य की अनुभूति हो गई? बोलो, कौन आएगा बताने? घर में तो कोई है ही नहीं, अब क्या करें? जब तक घर में कोई है, तो जो है उसको भौतिक अनुभव ही होंगे। क्या है? भौतिक अनुभव। और ये कोई लाज-शर्म की बात नहीं है कि आपको भौतिक अनुभव होते हैं। उन भौतिक अनुभवों में ही विवेक-पूर्वक तथ्य और अतथ्य को देखते चलो, सार और असार को देखते चलो। दुनिया के ही जो अनुभव हो रहे हैं न, इन पर ही कड़ी नज़र रखो, इनमें सच और झूठ क्या है ये पता करते चलो; बस यही काफ़ी है। जो असीम है, जो अज्ञेय है, वो तुम्हारे ज्ञान में कहाँ से आने वाला है?

और अष्टावक्र-गीता बस एक बार पढ़ो और अच्छे-से पढ़ो। ये क्या तुम चार साल में ज्ञान इकट्ठा करके लाए हो? अगर उस पूरे ज्ञान का निचोड़ ये है कि परमात्मा का अनुभव चाहिए, तो कूड़ा है ज्ञान; फेंको उसे, मानो कि कुछ नहीं जानता हूँ। अभी तुम्हारी साधना यही है कि अपने ज्ञान से निवृत्त हो जाओ, पूरे ज्ञान को एक तरफ़ कर दो, जैसे कुछ नहीं जानता, बिलकुल अनजान, और फ़िर एक बार उठाओ अष्टावक्र-गीता; भीतर क्रांति होगी।

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