आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
हर परिस्थिति में सम कैसे रहें? || (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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एवं देहद्वयादन्य आत्मा पुरुष ईश्वरः। सर्वात्मा सर्वरूपश्चसर्वातीतोऽहमव्ययः।।

इस प्रकार आत्मा पुरुष या ईश्वर स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों प्रकार के शरीरों से भिन्न है। अतः मैं सर्वात्मा, सर्वरूप, अविनाशी और सबसे परे हूँ।

~ अपरोक्षानुभूति (श्लोक ४०)

आचार्य प्रशांत: (प्रश्न पढ़ते हुए) शंकराचार्य के श्लोक को उद्धृत किया है, “आत्मा स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों प्रकार के शरीरों से भिन्न है। मैं सर्वात्मा, सर्वरूप, अविनाशी और सबसे परे हूँ।” कह रहे हैं, “समझाएँ।”

जो सर्वरूप है, वही सब रूपों से परे हो सकता है। बात ज़ाहिर है! उसने किसी एक रूप से संबंध बैठा लिया होता तो सर्वरूप कैसे होता? जिसका किसी रूप से कोई लेना-देना नहीं, उसके अनंत रूप हैं। जिसका एक-दो रूपों से लेना-देना है, उसके एक-ही-दो रूप हैं। तुम अपने एक-दो रूपों को इतनी गंभीरता से ले लेते हो कि बाकी सारी संभावनाएँ ख़त्म कर देते हो।

“सर्वात्मा, सर्वरूप, अविनाशी और सबसे परे हूँ।” सर्वात्मा क्यों? क्योंकि आत्मा सदा एक है, भेद सारे व्यक्तित्व के तल पर हैं। जहाँ व्यक्तित्व ही ख़त्म, वहाँ शून्यता है, खाली आकाश है। शून्य और शून्य में, आकाश और आकाश में अंतर नहीं होता; व्यक्ति और व्यक्ति में अंतर होता है। आत्मा व्यक्ति का विलोप है। विलुप्ति और विलुप्ति में अंतर थोड़े ही होता है! यहाँ कुछ गंदा पड़ा था, वहाँ कुछ गंदा पड़ा था, ये दोनों जगहें अलग-अलग थीं। यहाँ भी साफ़ हो गया, वहाँ भी साफ़ हो गया, अब बताओ क्या भेद है? बोलो! कुछ नहीं न?

आत्मा और आत्मा तो छोड़ दो, जब तुम सो जाते हो तब भी सारे भेद मिट जाते हैं। स्त्री सो रही है और पुरुष सो रहा है, बताओ दोनों की आंतरिक अवस्था में कोई भेद बचा? ज्ञानी सो रहा है और मूढ़ सो रहा है, बताओ दोनों में कोई भेद बचा? भेद सारे कहाँ हैं? भेद सारे मिश्रित चेतना में हैं, अशुद्ध चेतना में हैं। भेद वृत्तियों और विचारों में हैं। वृत्तियाँ, विचार जहाँ थमे, वहाँ सारे भेद भी मिटे। जब सोने-भर से अभेद की तुमको झलक मिल जाती है, तो सोचो समाधि में क्या होगा! सोच ही नहीं पाओगे; वो सोचने से तो अच्छा है तुम सो ही जाओ, ज़्यादा झलक मिल जाएगी। और याद रखना, जो आनंद सोने में है, वो कहीं और नहीं। इसीलिए अमीर-से-अमीर आदमी की अगर नींद छीन लो, तो वो कहता है, “मेरी सारी दौलत ले लो, नींद लौटा दो!”

ये जो नींद की कीमत है, ये वास्तव में समाधि की, अभेद की कीमत है। नींद तुमको सुकून देती ही इसीलिए है क्योंकि नींद में कुछ भी खंडित, विभाजित, भेदयुक्त नहीं होता, नींद एकरस है। नींद में कुछ है ही नहीं, तो किसी की परवाह नहीं करनी। नींद में कुछ है ही नहीं, तो कोई ज़िम्मेदारी नहीं। तुम अपनी सारी ज़िंदगी, सारी दौलत, सारा ज्ञान क़ुर्बान करने को तैयार हो जाओगे, अगर उसके बदले में तुम्हें गहरी, गाढ़ी, शुद्ध नींद मिलती हो। समझाने के लिए ऐसा भी कह सकता हूँ कि नींद के शुद्धतम प्रकार को ही समाधि कहते हैं। और नींद की कीमत कितनी है ये तुम जानते हो। जिनको न आती हो नींद, उनसे पूछना, वो तुम्हें बताएँगे नींद की कितनी कीमत है! समझाने वाले इसीलिए इशारा कर गए हैं। वो कहते हैं कि दिन ऐसा बिताओ कि रात में नींद तुरंत आ जाए। ये समझ लो जीवन के उद्देश्य की ओर इशारा है, कि जीवन ऐसा जियो कि तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो सको। ऐसी ज़िंदगी जियो कि नींद आ जाए। दिन ऐसा बिताओ कि नींद आ जाए। यही अभेद की दशा है। उस अभेद की दशा को 'आत्मा' कहा गया है। वो अभेद की दशा तुम्हारी असली दशा है, क्योंकि उसी के दीवाने हो तुम, और उसमें नहीं रहते तो परेशान रहते हो।

पूछने वाले पूछते हैं कि “फिर करें क्या? जब तक जीव हैं तब तक नींद तो टूटेगी!” तो उनको समझाने के लिए सुधी जन कह गए हैं, “जागृत सुषुप्ति, जागृत समाधि।” जब आँख खुली हो, तब भी भीतर कुछ सोया हुआ रहे। जब आँख खुली हो, तब भी भीतर अभेद की दशा बनी रहे। आँखें लगातार क्या दिखाती रहें? भेद। और भीतर लगातार क्या बना रहे? अभेद। तुम ऐसे हो गए हो कि “कुछ भी दिखे, हम निरंतर हैं!” निरंतर समझते हो? जहाँ कोई अंतर नहीं आता। “कुछ भी दिखे, हम निरंतर हैं!” आत्मा-मात्र ही निरंतर है। अच्छा दिखा, बुरा दिखा, पसंद का दिखा, नापसंद का दिखा; भीतर कुछ है जिसे कोई फ़र्क पड़ता नहीं। जीत मिल गई, हार मिल गई; भीतर कुछ है जिसे फ़र्क पड़ता नहीं। वो सोया हुआ है। जैसे सोते आदमी को तुम पचास-करोड़ दे दो, उसे कोई फ़र्क पड़ता नहीं! और सोते आदमी के तुम पचास-करोड़ लूट लो, उसे कोई फ़र्क पड़ता नहीं! तो जानने वालों ने समझाया है कि ऐसे ही जियो तुम - बाहर-बाहर जगे रहो, भीतर-भीतर सोए रहो। बाहर-बाहर जगे रहो, किसी तरह आँख खुली हुई है, और भीतर-भीतर मामला ठप्प है; न सुनाई पड़ रहा है, न दिखाई पड़ रहा है, न समझ में आ रहा है। समझे?

और क्या है, समझाने के लिए इसमें?

“आत्मा स्थूल, सूक्ष्म, दोनों प्रकार के शरीरों से भिन्न है।” वो तो है ही, क्योंकि स्थूल में भी भिन्नता है और सूक्ष्म में भी भिन्नता है। चीज़ें भी अलग-अलग हैं। स्थूल माने? ये (कप उठाते हुए)। जिसका त्वचा अनुभव कर सके सो स्थूल, और जिसका मन-मात्र अनुभव करता हो वो सूक्ष्म। चीज़ें भी अलग-अलग हैं और विचार भी अलग-अलग हैं; तो हर जगह भेद-ही-भेद है, और आत्मा में अभेद है। तो आत्मा स्थूल, सूक्ष्म, सबसे भिन्न है। चीज़ें भी परेशान करेंगी, क्योंकि वहाँ पर कुछ-न-कुछ चल रहा है। और जिस भी चीज़ से नाता जोड़ोगे, वो अपने साथ झमेला ले कर आएगी। और मन भी परेशान करता है, क्योंकि वहाँ विचार चल रहे हैं। जिस भी विचार को पकड़ोगे, वो अपने साथ एक फ़ौज ले कर आएगा। आत्मा उनसे स्वभावतः भिन्न ही है। 'आत्मा' को ही शंकर 'पुरुष' भी कह रहे हैं।

“सर्वात्मा, सर्वरूप, अविनाशी और सबसे परे हूँ।” सुंदर बात है न! सब-कुछ तभी चल सकता है, सब-कुछ तभी मिल सकता है, जब जो कुछ तुम्हें मिल रहा हो उससे तुम्हें कुछ मतलब न हो, उससे ज़रा तुम परे हो, अस्पर्शित हो, निस्पृह हो। जितना ज़्यादा चाहोगे, उतना कम मिलेगा; और जितना कम चाहोगे, उतनी बरसात हो जाएगी। जो तुम चाहते हो, वो तुम्हें मिलता ही इसीलिए नहीं क्योंकि तुम उसे चाहते हो। चाह-चाह कर लुटे जा रहे हो! चाहत से परे हो जाओ, सारी चाहतें पूरी हो जाएँगी।

श्रोता: “बिन माँगे मोती मिले...”

आचार्य: “...माँगे मिले न भीख।” और भीख के अलावा कुछ माँगा जाता नहीं। मोती तो वो जिसकी माँग की नहीं जा सकती, तो माँग अगर तुम कर रहे हो तो भीख की ही कर रहे होओगे।

अब ये अजीब बात है! पहले तो माँग भीख की कर रहे हो, और भीख की भी माँग पूरी होती नहीं। अरे बाप रे! क्या दुर्गति है! तुम मोती माँग रहे होते और न मिलता तो हम कहते, “चलो, विश्वविजयी होने निकले थे, बड़ा अभियान था, असफल हो गए।” पर माँगने ही क्या निकले? भीख, और वो भी? (मिली नहीं) जाओ डूब मरो! और दूसरी तरफ़ वो बैठे हैं जो कुछ माँग नहीं रहे थे, उन पर मोती बरस रहे थे, कोई न्योछावर कर रहा था। कह रहे थे, “तुमने कुछ माँगा नहीं, इसीलिए मोती झड़ेंगे तुम पर।” गड़बड़ हो गई!

त्रयमेवं भवेन्मिथ्या गुणत्रयविनिर्मितं। अस्य दृष्टा गुणातीतो नित्यो ह्येकश्चिदात्मकः।।

“इस प्रकार सत्, रज और तम, इन तीनों गुणों से उत्पन्न हुई ये तीनों अवस्थाएँ मिथ्या हैं, किन्तु इन तीनों का दृष्टा गुणों से परे नित्य एक और चित्स्वरूप है।”

~ अपरोक्षानुभूति (श्लोक ५८)

आचार्य: (प्रश्न पढ़ते हुए) जिस श्लोक पर आधारित प्रश्न है, श्लोक पढ़े देता हूँ - “इस प्रकार सत्, रज, तम, इन तीन गुणों से उत्पन्न हुई ये तीनों अवस्थाएँ मिथ्या हैं, किन्तु इन तीनों का दृष्टा गुणों से परे नित्य एक और चित्स्वरूप है।” तो कह रहे हैं, “ये तीन अवस्थाएँ क्या हैं? क्या हम एक समय एक ही अवस्था से आइडेंटिफाइड रहते हैं, या पल-पल बदलते रहते हैं, एक से दूसरी और फिर तीसरी?”

बदलते ही रहते हैं।

किन तीन अवस्थाओं की बात हो रही हैं? कौन-सी तीन अवस्थाएँ हैं?

प्रश्नकर्ता: जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति।

आचार्य: तो वो तो बदलती ही रहती हैं न!

कभी जग रहे हो, कभी सो रहे हो, और कभी सोने में भी सपनों में तैर रहे हो। तो ये तीन अवस्थाएँ हैं, और ग्रंथों ने इन तीन अवस्थाओं में तुमको बिलकुल तीन अलग-अलग व्यक्ति माना है, यहाँ तक कि तीनों अवस्थाओं में तुम्हारे तीन अलग-अलग नाम दे दिए हैं। जो जागृत है उसका अलग नाम है, जो स्वप्न में है उसका अलग नाम है, और जो सुषुप्ति में है उसका अलग नाम है। तो इतना भेद करा है। कहा है, “तुम तो भेदों में जीते हो। तुम्हारी हालत बदली, तुम ही बदल गए।” ये तो फिर भी बहुत स्पष्ट और प्रामाणिक बदलाव है जो आता है, तुम जानते ही हो कि जगा हुआ आदमी और सोता हुआ आदमी बहुत अलग है। लेकिन जब तुम एक अवस्था के भीतर भी होते हो, मान लो जागृत अवस्था है, तब भी देख लो कि तुममें कितने बदलाव आते रहते हैं!

हमारी चेतना विशुद्ध चेतना नहीं है, हमारी चेतना आश्रित चेतना है। विशुद्ध चेतना आत्मनिर्भर चेतना होती है, मुक्त चेतना होती है; वो मात्र चेतना होती है। आश्रित चेतना जो देखती है उस पर आश्रित हो जाती है, उस पर अवलंबित हो जाती है, उससे आसक्त हो जाती है। शुद्ध चेतना जो कुछ भी देखती रहे, अपनी देखी हुई वस्तुओं से अस्पर्शित रहती है। अशुद्ध चेतना 'अ' देखती है तो 'अ' समान हो जाती है और 'ब' देखती है तो 'ब' समान हो जाती है। हमारी चेतना अशुद्ध है। हाँ? हम फल देखते हैं तो भूख उठ आती है, हम धन देखते हैं तो लोभ उठ आता है; चेतना बदल जाती है, चेतना आश्रित हो जाती है। शुद्ध चेतना उनकी, जो जो कुछ भी देखते रहें, दृश्यों के मध्य मुक्त रहें, अवलंबित न रहें।

ठीक है? तो हम लगातार बदलते ही रहते हैं।

जैसे पूछा है कि “हम एक हैं या लगातार बदलते रहते हैं?” हम लगातार बदलते ही रहते हैं। इसीलिए तो घड़ी है। घड़ी और क्या बता रही है? कि तुम लगातार बदल रहे हो। बुद्धों के जीवन की घड़ी समाप्त हो जाती है, उनकी घड़ी फिर बस बाहर-बाहर चलती है, भीतर कोई घड़ी चलती नहीं; भीतर वो कहाँ बैठ गए अब? जहाँ उनकी गद्दी है, जहाँ असली जगह है, वहाँ बैठ गए। उस जगह को क्या बोलते हैं? इतनी बार तो दोहराया! क्या बोलते हैं? आत्मा! वहाँ घड़ी चलती नहीं, तो वहाँ कोई बदलाव होता नहीं।

अब ये सारा जो सत्, रज, तम, जागृत, सुषुप्ति, स्वप्न का खेल है, ये कहाँ-कहाँ चलता है? ये प्रकृति में चलता है। ये प्रकृति में खेल चल रहा है; हम कालातीत हो गए, हम अकाल-मूरत हो गए। बाहर-बाहर उम्र बढ़ती रहेगी, बाहर-बाहर खेल चलता रहेगा, साहब भीतर सो रहे हैं। साहब का एक ही काम है, क्या? सोना! यही तो साहबी के ठाठ हैं - बाहर खेल चल रहा है, भीतर साहब चिल !

प्र२: आचार्य जी, ये तीनों जो अवस्थाएँ हैं, उसमें जैसे अभी एक केस (मामले) में आपने बोला कि बाहर से आँख खुली हुई है लेकिन अंदर से नींद चल रही है। तो ये दोनों में तो आती नहीं, फॉल नहीं करती, तो तीसरी बचती है जागृति। तो जागृति का मतलब फिर किस तरीके से?

आचार्य: जागृति की अशुद्ध अवस्था है; कुछ नहीं है, जागृति की ही अशुद्ध अवस्था है। ये खुली आँखों से सपने लेने, इस तरह की कोई बात है।

प्र२: इसमें संतों के लिए अभी बोला कि वो बाहर-बाहर से देख रहे होते हैं और अंदर से चिल * । तो फिर तो ये ऊँची अवस्था हुई? ये संतों के भी यही कुछ * मैच कर रहा है।

आचार्य: वो भीतर से चिल हो तब न! संत बाहर-बाहर देख रहे हैं, भीतर वो आत्मा में स्थापित हैं, भीतर उनके कुछ हिल-डुल नहीं रहा।

यहाँ तो तरक़ीब दूसरी है। यहाँ तो तरक़ीब ये चल रही है कि बाहर से कुछ ऐसा भीतर प्रवेश न कर जाए जो मुझे अचल कर दे, जो भीतर के हिलने-डुलने को समाप्त कर दे, इसलिए मैं बाहर वाले को बाधित कर दूँगी, ब्लॉक कर दूँगी। बाहर वाले को रोका इसलिए जा रहा है ताकि भीतर नाच चलता रहे।

समझ रहे हो बात को?

संतों का मामला ऐसा होता है कि बाहर नाच चल रहा है और भीतर शांति है। और जब आप सत्संग में सो जाते हो तो आप क्या कर रहे हो? कि भीतर नाच चलता रहे, इसीलिए आप बाहर का दरवाज़ा बंद कर देते हो, कि संत भीतर न घुस आए! वो भीतर घुस आया तो नाच बंद कर देगा भाई! संत अगर भीतर घुस आया तो भीतर का नाच बंद कर देगा, तो आप उसी को बंद कर दिए। (आँखों की ओर इशारा करते हुए) ये दरवाज़ा है न, यही दरवाज़ा है; आप दरवाज़ा क्या कर देते हो? बंद कर देते हो। वो भीतर आया, तो ये भीतर जो रक्स चल रहा है ये बंद करना पड़ेगा। तो ये बंद हो, इससे पहले हम ये (आँख) बंद कर देते हैं, “जा! तुझे सुनूँगी ही नहीं।”

प्र२: जागृति में अभी आया कि वो अशुद्ध जागृति है। वैसे ही चेतना कभी शुद्ध चेतना, कभी अशुद्ध चेतना है। जागृति-चेतना एक हैं या अलग-अलग हैं?

आचार्य: जागृति चेतना की एक अवस्था है।

प्र१: सुषुप्ति और...?

आचार्य: ये तीनों ही चेतना की अवस्था हैं।

जो अशुद्धि में जी रहा है, उसकी चेतना की सारी अवस्थाएँ अशुद्ध होंगी। इसका प्रमाण ये है कि अगर वो सपना भी देखेगा तो सपने में भी वो वही चीज़ें देखेगा जो उसे चाहिए और खुश हो लेगा। जिन चीज़ों की वो जीवन में कमी अनुभव करता है उनको वो कहाँ देख लेगा? सपने में, और खुश हो लेगा। और जिन चीज़ों से वो डरता है उनको भी सपने में देख लेगा, क्योंकि उनसे भी आकर्षण तो होता ही है; और फिर वहाँ पर वो खौफ़ में भी रह लेगा। तो वो न सिर्फ़ जागृति में बल्कि स्वप्न में भी भेद देखता चलेगा, और वो सारे भेद वो अपने अनुसार देखेगा; प्रक्षेपित भेद हैं। वो जहाँ कहीं भी जो कुछ भी देख रहा है, वो उसी के साथ नाता जोड़ रहा है, आश्रित होता जा रहा है। वो सपने पर भी आश्रित है। लोग हैं, जो माहौल तैयार करते हैं कि एक खास तरह का सपना आए।

एक सज्जन थे, उनके पुत्र की मृत्यु हो गई। उनको किसी ने आ कर के शिक्षा दी, कि “तुम ऐसा-ऐसा करो तो सपने में तुम्हारा बेटा तुमसे मिलने आएगा। बेटे की तस्वीर सामने लगा लो, जहाँ उसकी मृत देह रखी गई थी उसी जगह पर बिस्तर बिछा लो अपना, सपने में बेटा मिलने आएगा।” अब हम सपने पर भी आश्रित हैं, अब हम सपने की भी बाट जोह रहे हैं। ये अशुद्ध चेतना है, ये जो कुछ देखती है उसी से नाता बैठाती है, और जिससे इसका नाता बैठा है उसी को वो देखना चाहती है; मुर्गी-अंडा! मुर्गी-अंडा!

प्र२: आचार्य जी, अशुद्ध चेतना का एक पॉज़िटिव (सकारात्मक) रूप क्रिएटिविटी (सर्जनशीलता) भी तो है!

आचार्य: (असहमति जताते हुए) प्रोजेक्शन क्रिएटिविटी नहीं होता, प्रक्षेपण सृजनात्मकता नहीं होती। प्रक्षेपण का तो मतलब ही है कि तुम्हारे पास जो पहले से है, तुम उसी को बाहर फेंक रहे हो।

मेरे भीतर कामुकता भरी है, मैं स्त्री का चित्र बना रहा हूँ, मैं कैसा चित्र बनाऊँगा? क्रिएटिव चित्र बनाऊँगा? हाँ, दिखने में यही लगेगा कि क्रिएटिव है, क्योंकि मैं उसको कुछ ऐसा बना दूँगा जो बहुत ही मस्त, मतवाला, वास्तव में विकृत होगा। तो यही कहेंगे कि “जैसा इसने दिखाया स्त्री को, वैसा तो कोई दिखा ही नहीं सकता था!” पर वास्तव में मैंने किया क्या है? मैंने अपने ही भीतर की गंदगी दीवार पर उकेर दी है। तो ये प्रक्षेपण है, ये सृजनात्मकता नहीं है, ये प्रक्षेपण है। प्रोजेक्शन समझते हो न? “है इधर, और रच रहा हूँ उधर।” ज़्यादातर चीज़ें, जिनको हम क्रिएटिविटी के नाम से जानते हैं, उनमें क्रिएटिविटी कुछ नहीं है। क्रिएटिविटी का अर्थ समझना! क्रिएटिविटी मात्र क्रिएटर में होती है; जो सर्जक है, मात्र उसमें होती है। और सर्जक तो एक ही है, कौन? वो (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) या जे (हृदय की ओर इशारा करते हुए)।

जो इसके (हृदय के) साथ रहे, सो क्रिएटिव ! भले ही तुम उसके कामों को क्रिएटिव मानो कि न मानो। कबीर चल भी रहे हैं तो क्रिएटिविटी है, भले ही तुम उसकी परिभाषा ऐसे न दो। नानक सो भी रहे हैं तो क्रिएटिविटी है। कृष्ण की साँस भी क्रिएटिव है। और ये सब जो बैठे हुए हैं तमाम कंपनियों में, दफ़्तरों में, कोर्पोरेशंस में, वहाँ क्रिएटिविटी-डिपार्टमेंट होते हैं, इनोवेशन-लैब होती हैं; वो बड़े-से-बड़ा भी काम कर दें तो वो क्रिएटिव नहीं हैं, वो सिर्फ़ प्रोजेक्टेड हैं। तुम वही कर रहे हो जो तुम करना चाहते हो। प्रमाण इसका ये है कि अगर जूता बनाने वाली कम्पनी है, तो वो तुमको किसी और क्षेत्र में थोड़े ही क्रिएटिव होने देगी! तुमसे कहेगी, “ फ़्लाई फ़्री इन द स्काई ऑफ़ क्रिएटिविटी एंड गिव अस बेटर शूज़ !” (सृजनात्मकता के आकाश में उड़ो और हमें बेहतर जूते दो) ये कौन-सी क्रिएटिविटी है जो पहले से ही तय है? निश्चित रूप से ये सिर्फ़ प्रक्षेपण है। तुम्हें जूते चाहिए तो तुम जूते ही तैयार करोगे, और क्या करोगे! हाँ, जूतों का तुम कोई ज़्यादा आधुनिक, परिष्कृत रूप तैयार कर लोगे।

प्र१: जो लोग संसार में जाते हैं और वो अपने-आप को बोलते हैं कि “हम तो जहाँ जाते हैं, हर जगह एडजस्ट हो जाते हैं। हमें ये भी अच्छा लगता है, हमें वो भी अच्छा लगता है।” तो संसार में जाते हैं तो 'अ' के पास गए तो अशुद्ध चेतना से 'अ' हो गए। फिर किसी सत्संग में भी जा कर बैठ गए, तो 'ब'-से हुए, तो वहाँ भी एडजस्ट हो गए। फिर वहीं से किसी तीसरे-चौथे सत्संग में भी चले जाते हैं तो 'अ', 'ब', 'स', सब होता रहता है वैसे ही। तो अशुद्ध चेतना ही फिर...?

आचार्य: अशुद्ध चेतना हर अशुद्ध जगह पर समायोजित हो जाती है, एडजस्ट हो जाती है। वो नकली सत्संगों में जितनों में जाएँगे, सबमें वो समायोजित हो जाएँगे, असली गुरु के सामने बैठेंगे तो उछल कर भगेंगे।

अगर कोई ये कह रहा है, “मैं तो जहाँ जाता हूँ वहीं पर एडजस्ट हो जाता हूँ,” तो अभी उसका वास्ता किसी...

प्र१: ऐसे नहीं कहते, कि “ एडजस्ट हो जाते हैं”, ऐसे बोलते हैं कि “सबकी टीचिंग्स (शिक्षाएँ) तो एक ही हैं, उस एक की हैं!”

आचार्य: वो अगर उन्हें सबकी टीचिंग्स एक लग रही हैं, तो उन्हें अभी कोई असली टीचर मिला नहीं है। जो असली टीचर मिलेगा वो सारा फ़ितूर निकाल देगा, ऐसी मार मारेगा। फिर नहीं कह पाएँगे कि “ एडजस्ट हो गए”, फिर भागते नज़र आएँगे।

आप अगर हर जगह एडजस्ट कर ले जा रहे हो, तो इसका मतलब है कि आप कहीं पर भी केंद्रित नहीं हो, कोई एक मालिक है नहीं आपका। समझो बात को! हर चीज़ से अछूता रह जाना और हर चीज़ की ग़ुलामी स्वीकार कर लेना एक ही बात थोड़े ही होती है भाई! “मैं कहीं भी हूँ मैं आत्मस्थ हूँ, मैं कहीं भी हूँ मैं शांत हूँ” - ये एक बात है; और “मैं जहाँ का हूँ मैं वहीं का हो गया” - ये बिलकुल दूसरी बात है।

भक्त कहता है, “मैं कहीं भी हूँ मैं वहाँ का हूँ, इसीलिए मुझे फ़र्क नहीं पड़ता कि मैं कहाँ हूँ!” भक्त का वक्तव्य समझो! “मैं कहीं भी हूँ, मैं वास्तव में कहाँ हूँ? मैं वहाँ हूँ, मैं उस तल पर हूँ जहाँ अभेद है, मैं आत्मा में हूँ।” भक्त कह रहा है, “मैं कहीं भी हूँ, मैं वास्तव में यहाँ (शिव की प्रतिमा की ओर इशारा करते हुए) हूँ, तो मुझे फ़र्क ही नहीं पड़ता कि मैं कहाँ हूँ! मेरे लिए जहाँ हूँ, सब जगहें एक बराबर हुईं।” और ये जो दूसरे तरह का जीव होता है, ये क्या बोलता है? कि “मैं जहाँ कहीं भी हूँ, वहीं का ग़ुलाम हूँ, तो मुझे फ़र्क ही नहीं पड़ता कि मैं कहाँ हूँ!”

फ़र्क दोनों को नहीं पड़ता, पर दोनों की हस्ती में ज़मीन-आसमान का अंतर है। एक कह रहा है, “मैं जहाँ कहीं भी हूँ, इनका (शिव का) ग़ुलाम हूँ”, दूसरा कह रहा है, “मैं जहाँ कहीं भी हूँ, उसी जगह का ग़ुलाम हूँ।” फ़र्क दोनों को ही नहीं पड़ता कि कहाँ पर हैं, पर दोनों बातों में अंतर बहुत ज़्यादा है।

प्र१: ये जैसे अभी आपने कहा कि वो केंद्रित नहीं हैं एक जगह, तो उसी से मिलते-जुलते ऐसे लोग भी मिलते हैं जो अलग-अलग कई कल्ट्स को बिलॉन्ग करते हैं, और वो जिन गुरुओं को फॉलो करते रहे हैं, जिन टीचर्स को, वो इतने केंद्रित हुए कि वो रुक ही गए। वो नए को कुछ देख ही नहीं पाते हैं, उनके लिए आसान, सहज नहीं होता नया सुनना।

आचार्य: यहाँ (शिव की प्रतिमा की ओर इशारा करते हुए) केंद्रित होने का अर्थ होता है शांति में केंद्रित होना। यहाँ (शिव की प्रतिमा की ओर इशारा करते हुए) केंद्रित होने का वास्तविक अर्थ है कहीं केंद्रित न होना। और जब तुम दुनिया की किसी एक चीज़ से आसक्त हो जाते हो; और ऐसी आसक्तियाँ होती हैं, कि किसी चीज़ से ऐसे आसक्त हुए कि बाकी सब चीज़ों के प्रति वैरागी हो गए; ऐसे लोग होते हैं, बिलकुल होते हैं। ऐसा कुछ समय के लिए होता है आमतौर पर, कि कोई बला ऐसा सर चढ़ कर बोली, ऐसा जादू किया, कि उसके ख़ुमार में बाकी सब-कुछ भूल गया! ऐसा होता है। पर ऐसा जब भी होगा, वो तुम्हें और ज़्यादा हलचल दे देगा, और बेचैनी दे देगा; उसमें शांति नहीं है।

प्र१: फिर अगर इन पर आएँ, शिव पर आएँ, तो इन्हीं को गाने और करने वाले जिस तरह के भजन हैं, वो चेतना को शुद्ध रूप तक नहीं पहुँचा सकते। वो लेकिन प्रचलित बहुत हैं, ऋषिकेश में बजते रहेंगे।

आचार्य: तो शिव शिव के भजन थोड़े ही हैं! शिव ने थोड़े ही वो भजन रचे हैं! ये ऋषिकेश में जो पाश्चात्य आवाज़ में ये जो भजन बजते रहते हैं शिव के नाम पर, वो शिव ने रचे हैं क्या? तुम शिव के नाम पर कुछ भी हुड़दंग करो, तो?

ऋषिकेश में तो शिव का पूरा एक तमाशा ही चल रहा है, जिसको देखो वही “शिवा! शिवा! शिवा! शिवा!” कर रहा है। ये तो हुड़दंग है। ये आत्मघाती है और शिवत्व का अपमान भी है।

प्र: और इसी में वो बात ऐड (जुड़) हो गई कि वो मान-अपमान से परे है।

आचार्य: वो मान-अपमान से परे है, पर तुमने अगर उसका अपमान किया तो तुम्हें बहुत सज़ा मिलेगी। आसमान तक तुम्हारा थूक नहीं पहुँचता, पर तुम आसमान की ओर मुँह कर के थूकोगे तो तुम्हें बहुत सज़ा मिलेगी।

प्र३: जैसे जिसने परम् तत्व का ज़रा-सा भी स्वाद चखा हो वो तो किसी भी चीज़ में डिविनिटी (दिव्यता) निकाल लेगा। जैसे गाना भद्दा भी बना हो तो उसमें से वो कुछ डिवाइन (दिव्य) निकाल लेगा।

आचार्य: तुम निकाल लेते हो हर चीज़ में डिवाइन ? “हम निकाल लेते हैं” माने कौन निकाल लेता है?

प्र३: जो, जिसने टेस्ट किया हो।

आचार्य: तो अपनी बात करो न, तुम दूसरों के सवाल क्यों पूछ रहे हो? “दूसरा कोई है जो गानों में कुछ डिवाइन निकाल लेता है! दूसरा कोई है जिसने टेस्ट करा है!” अपनी बात करो न!

प्र३: मेरा सवाल ये था कि हम कौन होते हैं उसको जज करने वाले? क्योंकि हम इंटरप्रेट तो अपने हिसाब से ही करते हैं।

आचार्य: तुम तो करते ही हो जज * । अपनी बात करो न! होते हो, नहीं होते हो; मैं बोल दूँ, “नहीं करो!” तुम रुक जाओगे? तो फिर? अपनी बात करो न, कि “बड़ी मजबूरी है! मेरा तो खेल चल ही रहा है।” हाँ मैंने कह दिया, “बिलकुल * जज मत करो”, तो? अब देखो अपनी मजबूरी! कुछ भी तुमसे कह दिया जाए, तुम उस पर अमल थोड़े ही कर सकते हो!

मैंने कह दिया, “हाँ बिलकुल, हर गाने का एक दैवीय अर्थ होता है” तुम निकाल लोगे? यहाँ बैठ कर भी निकालना मुश्किल पड़ेगा, और यहाँ से छोड़ दूँ, तब तो कतई ना निकालो; खासतौर पर गाना महबूबा ने भेजा हो तो। वो बैठ कर के अपने महीन होंठों से गुनगुना रही है – “दिलबर! दिलबर!” तुम कहोगे, “ये ब्रह्म के लिए गा रही है”? ईर्ष्या हो जाएगी तुम्हें ब्रह्म से। तुम्हारी प्रेमिका कह रही हो, “दिलबर! दिलबर!” तुम कहोगे, “मेरे लिए थोड़े ही गा रही है, दिलबर तो एक ही होता है, कौन? वो (ऊपर की ओर इशारा करते हुए)।” बोल पाओगे?

तुम काल्पनिक सवाल बहुत ज़्यादा करते हो! तुम हो या अपनी कल्पना-मात्र हो? किसी दिन ऐसा न हो कि सपना टूटे और तुम ही मिट जाओ! तीन-चौथाई सवाल तुम शुरू करते हो 'अगर' से; ‘यदि’, ‘किन्तु’, ‘परन्तु’, “मान लीजिए।” क्यों मान लूँ? शुरू करेगा सवाल – “मान लीजिए!” मैं कह रहा हूँ, “थम! मैं नहीं मान रहा।”

प्र४: जैसे जब हम घर जाते हैं, जैसे मैं जाता हूँ घर, तो जो घर वाले हैं - जिनको स्वजन बोलते हैं या ब्रदर एन्ड सिस्टर (भाई और बहन) - तो अब जब उनके साथ हमारा फिर, जैसे मेरा मतभेद हो जाएगा इस चक्कर में, क्योंकि उनकी अंडरस्टैंडिंग (समझ) अलग है।

आचार्य: “उनकी अंडरस्टैंडिंग अलग है!” अठारह-बीस तरह की अंडरस्टैंडिंग होती हैं, है न? क्यों?

तुम चुनाव वगैरह लड़ लो, सबको खुश रखोगे। कोई पगला, कोई उपद्रवी, कोई अपराधी, जो भी तुम्हारे सामने आएगा, बोलोगे, “सबकी अंडरस्टैंडिंग हैं, अलग-अलग हैं!” तो फिर तो नॉट-अंडरस्टैंडिंग कुछ होता ही नहीं, बस अलग-अलग अंडरस्टैंडिंग होती हैं! और इस तरह का मत भी खूब चल रहा है दुनिया में, ये पूरा एक सम्प्रदाय ही है, जो कहता है, “ यू सी, वी ऑल आर डिफरेंट, एंड आई डोंट एग्री विथ यू ! (देखो, हम सब अलग-अलग हैं, और मैं आपसे सहमत नहीं हूँ) हमारे थॉट्स ही तो हमारी इंडिविजुअलिटी हैं!” मिलेंगे, बाज़ार में खूब यही मिलेंगे। और ख़ासतौर पर आजकल की लिबरल शिक्षा से जो निकल रहे हैं, उनका तो यही है, धर्म ही उनका यही है, कि “ माय अंडरस्टैंडिंग इज़ डिफरेंट फ्रॉम योर अंडरस्टैंडिंग ! (मेरी समझ तुम्हारी समझ से अलग है) हैं! एंड इफ़ यू इन्सिस्ट दैट देयर इज़ वन अंडरस्टैंडिंग, देन यू आर अ फंडामेंटलिस्ट !” (और अगर आप दृढ़ता से कहते हैं कि मात्र एक ही समझ होती है, तो आप एक कट्टरपंथी हैं)

ये कुछ भी नहीं है, तुम डरे हुए हो! तुम्हारी हिम्मत नहीं है घोषणा कर पाने की कि “सच एक है, और ये बाकी जितनी बातें हैं, बकवास हैं!” वही सवाल भी पूछ रहे हो, कि “घर जाऊँगा, मतभेद हो जाएगा तो मैं क्या करूँगा? पीट देंगे, घर से निकाल देंगे, गाली दे देंगे। कोई आँसू बहा देगा तो मुझे समझ में ही नहीं आएगा मैं क्या करूँ!” ये किस तल के सवाल कर रहे हो? बस यही हुआ है न, योग कर-कर के बाँह मज़बूत कर ली है, दिल चूजे जैसा है; काया मज़बूत हो गई है, भीतर माया है।

और बनो तुम; क्या-क्या बन रहा था ये सुबह? मोर! सब-कुछ ये बनना जानता है, इंसान बनने के अलावा ये सब जानता है, मोर बनना जानता है, साँप बनना जानता है; सब अभी बन कर दिखा देगा। मयूरासन कर देगा, शवासन कर देगा, सर्पासन कर देगा, सिंह बन जाएगा। अभी ऐसे यूँ करेगा और “हा!” इतना बड़ा मुँह खोलेगा और बोलेगा, “देखो, मैं सिंह हो गया!” और अभी घर वाले आ जाएँगे तो सिंह चूहा हो गया, मूषक-आसन लगा दिया।

प्र५: आचार्य जी, जब हम औरों को लाना चाहते हैं पर वो रेज़िस्ट (विरोध) करते हैं, तो यही सोचें कि अभी वो समय नहीं आया है जब वो आएँगे?

आचार्य: मैं भी तो लोगों को लाना चाहता हूँ, सब रेज़िस्ट करते हैं, तुमने भी किया था। वही करो फिर जो मैंने किया। पहली बार के बाद याद है न? फिर वही करो जो मैंने किया; दम लगाओ, जान लगाओ, प्रेम फैलाओ, कभी सहलाओ।

प्र५: मैंने उनसे पूछा, “आपको मुझमें कुछ फ़र्क़ लगा क्या?” कहते हैं, “नहीं, मुझे कुछ नहीं लगा।"

आचार्य: जब दर्शन करना चाहिए, तब दर्पण माँझत रहिए। जब दर्पण लागी काई, तब दर्श कहाँ से पाई।।

~ संत कबीर

“जब दर्पण लागी...?”

श्रोता: “...काई।“

आचार्य: “...तो दरस कहाँ से पाई।”

और दर्पण पूरा ही काला हो गया हो, तो उसके सामने सिंह खड़ा हो कि चाहे चूहा खड़ा हो, उसे कुछ फ़र्क लगेगा? जिस दर्पण में बिलकुल ही काई लग गई हो, उसके सामने तुम भगवान को खड़ा कर दो, और चाहे भगोड़े को खड़ा कर दो, वो कहेगा, “हमें कोई फ़र्क नहीं लगता!”

फ़र्क पता चलना, भेद पता चलना तो विवेकियों के लिए है न! जो भेद कर पाए, वही कहलाता है विवेकी। जिनमें विवेक ही नहीं, उन्हें क्या फ़र्क पता चलेगा! या जो सिर्फ़ तुम्हारी देह देखते हों, उन्हें क्या फ़र्क पता चलेगा! कहेंगे, “पहले भी स्त्री थी, अभी-भी स्त्री है, क्या फ़र्क आ गया?” उन्हें इससे आगे दिखता ही नहीं, तो क्या फ़र्क करेंगे!

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