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लेख
हम कैसे जानें 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या'? || तत्वबोध पर (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। तत्व विवेक की परिभाषा में कहा गया है कि, "आत्मा सत्य है, उससे भिन्न सब मिथ्या है, ऐसा दृढ़विश्वास ही तत्व विवेक है।"

मेरा सवाल यह है कि सिर्फ़ आत्मा को ही सत्य समझना क्या साधना की एक उच्च अवस्था पर पहुँचने के बाद ही हो सकता है? तो क्या तब तक सिर्फ़ बुद्धि के स्तर पर ही ख़ुद को ऐसा विश्वास दिलाना होगा? अगर हाँ, तो कहीं यह अंधविश्वास तो नहीं होगा? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: आत्मा सत्य है, उससे भिन्न जो है, सब मिथ्या है, यह विवेक की परिभाषा दी गुरु शंकराचार्य ने। अब सत्य क्या है, इसका तो तुम्हें कुछ पता नहीं, क्योंकि जो सत्य है, वह परिभाषानुसार ही ना मन में आता है, ना बुद्धि में आता है, ना इंद्रियों में आता है, ना नाम में आता है, ना रूप में आता है, ना कल्पना में आता है, ना शब्द में आता है। तो सत्य का तो तुम्हें कुछ पता नहीं, तो परिभाषा का जो पहला हिस्सा है, उसको तो बस तुम सादर प्रणाम ही कर सकते हो।

क्या है पहला हिस्सा?

आत्मा सत्य है।

तुम इस बात को देखोगे और कहोगे कि, "इस बात को परखने की तो अभी मुझमें सामर्थ्य ही नहीं, पर गुरुदेव ने कही है यह बात, तो मैं इस बात को सादर प्रणाम कर लेता हूँ। इससे ज़्यादा मैं इस कथन के बारे में ना तो कुछ कह सकता हूँ और ना इस कथन का उपयोग कर सकता हूँ।"

अब कथन के उतरार्द्ध पर आओ, दूसरे हिस्से पर। क्या है दूसरा हिस्सा?

जगत मिथ्या है।

अब यह बात ज़रा तुम्हारे पहुँच और पकड़ की है। इसका परीक्षण कर सकते हो। इसका परीक्षण कर डालो कि जगत मिथ्या है, कि नहीं है। मिथ्या को कैसे परिभाषित कर रहे हैं? कह रहे हैं, जो बदलता रहे, जो भरोसे का ना हो, जो धोखा दे दे, जो दिखे कुछ और सामने कुछ और आए, या आज है, कल नहीं, जिसका कभी पूरा पता ना लग पाए, जो कहाँ से आया, इसकी कुछ ख़बर ना लगे, जो किधर को जाएगा, इस पर कुछ पकड़ ना बने, वह सब है मिथ्या।

तो ठीक है, जगत को परख लो। जगत को जितना परखते जाओगे, उतना तुम्हें यह प्रमाणित होता जाएगा कि जगत निःसंदेह मिथ्या ही है। क्योंकि जैसा दिखता है, वैसा तो बिलकुल भी नहीं है; जो चीज़ जैसी प्रतीत होती है, उससे तो सर्वदा भिन्न ही है। और जब कोई चीज़ बड़ी दिखाई दे, तो यह ना समझ लेना कि बड़ी दिख रही है तो छोटी ही होगी, जो चीज़ जैसी दिखती है, वैसी तो नहीं ही होती, वह अपने विपरीत जैसी भी नहीं होती। चीज़ जैसी है, वैसी भी नहीं है और जैसी है, उसके विपरीत भी नहीं है। न जाने वह क्या है!

जिसकी जितनी सूक्ष्म होगी बुद्धि, वह उतना ज़्यादा अनिश्चय में जीयेगा, क्योंकि किसी बात पर भी आसानी से ठहर नहीं पाएगा। वह सस्ते निष्कर्ष नहीं निकाल पाएगा, वह यह नहीं कह पाएगा कि, "मैं जान गया कि सूरज क्या है और चाँद क्या है और इंसान क्या है और ब्रह्मांड क्या है।" वह कहेगा, “जितना देखता जा रहा हूँ, उतना यही दिखाई दे रहा है कि मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा। जगत तो मिथ्या ही है।”

जब तुम कहने लग जाते हो, साफ़-साफ़ देखने लग जाते हो कि जगत तो मिथ्या ही है, तब जो तुम्हें ताक़त दे रहा होता है मिथ्या को मिथ्या देखने की, उसका नाम है सत्य। समझना, जो जगत को बार-बार कह रहा है कि जगत मिथ्या है, उसे यह विचार भी तो सताएगा न कि अगर सब कुछ मिथ्या है, तो मेरा जगत को मिथ्या कहना भी तो मिथ्या ही हुआ? लेकिन उसे एक बात का पूरा भरोसा है कि, "बाकी सब चीज़ें मिथ्या हो सकती हैं, लेकिन अगर मुझे दिख रहा है साफ़-साफ़ कुछ, तो कहीं कोई आख़िरी चीज़ है जो मिथ्या नहीं है। अगर कहीं कोई आख़िरी चीज़ भी ना होती जो मिथ्या ना होती, तो फिर मैं कैसे कह पाता कि कुछ मिथ्या है?"

सब नकली है, यह कह पाने के लिए देखने वाले को तो असली होना चाहिए न? सब सो रहे हैं, यह कह पाने के लिए देखने वाले को तो जगा हुआ होना चाहिए न? सब मिथ्या है, यह कह पाने के लिए कहीं-न-कहीं तो सत्य होना चाहिए न? तो जब तुम जानने लगते हो और जितनी गहराई से जानने लगते हो कि जगत मिथ्या है, उतना ही यह स्पष्ट होता जाता है, परोक्ष रूप से यह स्पष्ट होता जाता है कि तुम्हें सत्य की प्राप्ति हो रही है।

प्रत्यक्षतः तुम्हें बस यही पता चल रहा है कि जगत मिथ्या है, लेकिन जब आमने-सामने यह घटना घट रही है कि हर चीज़ का झूठ पकड़ में आ रहा है, तब पीछे-पीछे यह घटना घट रही है कि सत्य उद्घाटित होता जा रहा है। उसका उद्घाटन इसमें है कि वह झूठ के झूठ का उद्घाटन कर देता है।

'सच मिला', यह कब बोलोगे? जब झूठ पकड़ में आने लगे। तुम सोच रहे थे कि बड़ी रोशनी है, बड़ी रोशनी है, जबकि बात यह थी कि आँखें बंद थीं और तुम सपने ले रहे थे। आँखें खुलीं तो पाया अँधेरा है। यह बड़ी मज़ेदार बात है, अँधेरे ने यह प्रमाणित किया कि तुम्हारी आँखों में अभी रोशनी है, और उजाला, तुम्हारी कल्पनाओं का उजाला इसी बात का प्रमाण था कि तुम्हारी आँखों में रोशनी नहीं है। कई बार रोशनी अँधेरे का प्रमाण होती है और अँधेरा रोशनी का प्रमाण बन जाता है।

अगर तुम इतना भी देख पा रहे हो कि अँधेरा है, तो इसका मतलब क्या है? कि तुमने देखना सीख लिया। अगर तुम इतना भी देखने लग जाओ कि 'अवधू अंधाधुंध अंधियारा', तो इसका मतलब है कि तुमने देखना सीख लिया।

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