आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
ज्ञानी वो जिसके लिए अब कुछ भी आफ़त नहीं है
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
9 मिनट
120 बार पढ़ा गया

क्व निरोधो विमूढस्य यो निर्वन्धं करोति वै।

स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदासावकृत्रिमः।।

~ अष्टावक्र गीता (अध्याय 18 श्लोक 41)

अनुवाद: जो आग्रह करता है, उस मूर्ख का चित्त निरुद्ध कहाँ है? आत्मा में रमण करने वाले धीर पुरुष का चित्त तो सदैव स्वाभाविक रूप से निरुद्ध ही रहता है ॥ 41॥

आचार्य प्रशांत: मन के निरोध की कोशिश वैसे ही है जैसे मैं चल-चल के रुकने की कोशिश करूं। मन को रोकने की कोशिश वैसी ही है जैसी कि मैं खुब सोचूं कि कैसे न सोचा जाए। मन को रोकने की कोशिश वैसे ही है जैसे कोई कुत्ता अपनी दुम को पकड़ने की कोशिश करे और लगातार चक्करों में घूमता रहे। मन को रोकने की कोशिश वैसे ही है जैसे मैं कोयला लेकर के किसी दीवार को साफ़ करने की कोशिश करूं।

हम क्यों भूल जाते हैं कि कोशिश करने वाला कौन है?

हम क्यों भूल जाते हैं कि हर कोशिश के पीछे उसके वृत्ति अपने आप को ही क़ायम रखने की है। कृपा करके यह कतई ना भूलिए कि मन जब ये भी कह रहा हो कि मुझे विलीन होना है, तब वो ये कह कर के ज़िन्दा रहना चाहता है। जब मन ये भी कहता है कि मैं समर्पित होना चाहता हूँ, मैं घुल जाना चाहता हूँ, मैं खत्म हो जाना चाहता हूँ। तो वो आपसे यही कह रहा होता है कि समर्पित होकर ज़िन्दा रहना है। अब घुल कर के बचे रहना है। अब विलीन होकर भी अस्तित्व में रहना है।

मन किसी भी बात के लिए प्रस्तुत हो जाएगा यदि उससे उसे बचे रहने में सहायता मिलती है। वो ज़बरदस्त बहरूपिया है, वो कोई भी रूप ले सकता है। वो भक्त का रूप भी ले लेगा। अगर भक्त बनकर मन को बचे रहने में मदद मिलती है तो वो भक्त तुरंत बन जाएगा। मन की क्षमता ऐसी है कि वह ना कुछ का भी रूप ले लेगा। शून्यता के पुजारी होते हैं ना, उनका मन शून्य की उपासना करता है। उनका मन कहता है कि अब हम शून्य रूपी हो गए। कितना मज़ेदार शब्द है ज़रा ग़ौर करिए। अब हम शून्य रूपी हो गए। तो मन अपने प्रयोजनों के लिए शून्य का रूप भी रख लेगा। मन अपने प्रयोजनों के लिए अष्टावक्र गीता का अध्याय अठारह पूरा पढ़ डालेगा। ज़बरदस्त अहंकारी मन था। पूरा अठारहवां अध्याय पढ़ा और जाकर के बोला घर में, जानते हो अब मैं कौन हूँ? जिसने अठारहवां अध्याय पढ़ लिया है और पूर्ण निरंकार को पा लिया है। अष्टावक्र भी मन की भेंट चढ़ गए।

मन का मुँह इतना बड़ा है और पेट में इतनी भूख है कि वह सब कुछ खा लेता है और सब कुछ पचा लेता है। तो मन को कोई एतराज़ नहीं है। आप मोक्ष की कोशिश कर रहे हैं, मन कहेगा बेशक आओ, मोक्ष की कोशिश करते हैं। और मन कहेगा कुछ समय बाद कि मेरी कोशिशों के फलस्वरुप मोक्ष प्राप्त भी हो गया। अब मैं कौन हूँ? मैं मोक्ष प्राप्त मन हूँ। और मेरे सामने अब दो सितारे लगाओ। क्योंकि मैं अब मोक्ष प्राप्त मन हूँ। तो जिसको अष्टावक्र फूल कह रहे हैं, मूढ़ कह रहे हैं उसकी डिफाइनिंग करैक्टेरिस्टिक्स उसका पारिभाषिक गुण ही यही है कि वो सोचता है कि मेरे करने से मिलेगा। उसका कोशिश पर बड़ा ज़ोर है। वो बिल्कुल भूल जाता है कि हर कोशिश मन की ही है। और मन सिर्फ़ यह कोशिश करता है अपने आप को बचाए रखने की।

क्या कह रहे हैं अष्टावक्र, मूढ़ कौन? जो कोशिश करता है। भले ही वह कोई भी कोशिश हो। जो आपका साधारण संसारी है, वो कोशिश करता है कि संसार से कुछ पा लूँ। और जो आपका ये तथाकथित ज्ञानी है ये कोशिश करता है कि संसार से बाहर कुछ है, उसको पा लूँ।

व्यापारी लगा हुआ है इस संसार को जीतने में। पुजारी लगा हुआ है किसी और संसार को जीत लेने में। हैं दोनों बराबर के मूढ़। दोनों बिल्कुल बराबर की मूढ़ता कर रहे हैं। क्योंकि दोनों ही मन का उपयोग करके, मन को शांत करना चाहते हैं। अब इसी बात को आगे बढ़ाइए तो ये भी स्पष्ट हो जाएगा कि अष्टावक्र जिसको प्राज्ञ कहते हैं, वो कौन हुआ? अष्टावक्र जिसको बुद्धिमान कहते हैं, वो कौन हुआ? वह, वो हुआ जिसने करना छोड़ दिया। जिसने जीवन के प्रति अपने सारे प्रतिरोध छोड़ दिए हैं। जिसका मन न पकड़ने को आतुर है, न छोड़ने को आतुर है। जिसको न संसार चाहिए, न मुक्ति। जिसको न मोह चाहिए, न मोक्ष। जो मोह से भी मुक्त है और मोक्ष से भी मुक्त है। जो मन की सारी कारगुज़ारीयों से मुक्त हैं। मन से मुक्त और जीवन में मस्त।

प्रश्नकर्ता: अगर ये तीसरे टाइप की डिग्री बन गई मन की कि मैं तो मोक्ष से भी मुक्त हूँ, मोह से भी मुक्त हूँ। तो ये कैसे पता लगे की ये एक चाल है मन की। अब प्रश्न पूछने में भी शक हो रहा है कि...

आचार्य: वो मुक्ति से भी मुक्त हो जाता है। उसको मुक्ति की भी कामना नहीं है। और दावेदारी में भी उसको रस नहीं है। वो अति साधारण हो जाता है। वो बिल्कुल ही साधारण हो जाता है।

देखो मन को आफ़तें चाहिए। आफ़तों से लड़ने में मन ताक़त पाता है। तुम बड़ी आसानी से दुनिया को ही एक आफ़त घोषित कर सकते हो। तुम कह सकते हो दुनिया डरावनी चीज़ है, मुझे इससे मुक्त होना है। और तुमने बहुत अच्छा काम कर दिया है, मन के लिए उसको एक आफ़त मिल गई है। अब वो लड़ेगा दुनिया से। वो बात-बात में त्याग की और सन्यास की कोशिश करेगा।

प्राज्ञ वो है जिसकी जिंदगी से आफते हट गई। उसके लिए कुछ अब आफ़त-वाफ़त है ही नहीं। उसकी जिंदगी तुच्छता हट गई है। एक गहरी रजिस्टेंसलेसनेस (प्रतिरोध कम होना) आ गई है। तुच्छता नहीं रजिस्टेंसलेसनेस ! फ़िर इस रजिस्टेंसलेसनेस में जो होना होता है, सो होता है।

ठीक है?

इस रजिस्टेंसलेसनेस में जो होना होता है, सो होता है, उसी को अष्टावक्र कह रहे हैं स्पॉन्टेनियस एंड पेरेन्नियल (सहज और बारहमासी)। बिना तुम्हारे मांगे और तुम्हारी बड़ी-से-बड़ी उम्मीद से ज़्यादा। स्पॉन्टेनियस एंड पेरेन्नियल। पर बहुत-बहुत निर्भय मन चाहिए ऐसा हो जाने के लिए जो अपनी सारी स्ट्राइविंग, कर्ता भाव छोड़ दे और प्रस्तुत हो जाए कि अब जैसा है वैसा है। कोई बात नहीं, कोई आफ़त नहीं आ गई। जो होगा सो होगा।

प्र: सर, ये जो हम बात कर रहे हैं इसके लिए अध्याय 18 में इक्कीसवाँ जो श्लोक हैं, उसमें एक बहुत अच्छी इमेज बताई है।

निर्वासनो निरालंबः

स्वच्छन्दो मुक्तबन्धनः।

क्षिप्तः संस्कारवातेन

चेष्टते शुष्कपर्णवत्॥१८- २१॥

ज्ञानी कामना, आश्रय और परतंत्रता आदि के बंधनों से सर्वथा मुक्त होता है। प्रारब्ध रूपी वायु के वेग से उसका शरीर उसी प्रकार गतिशील रहता है जैसे वायु के वेग से सूखा पत्ता ॥२१॥

~ अष्टावक्र गीता

आचार्य: काफ़ी डरावनी छवि है अहंकार के लिए। बड़ा सुंदर लगता है जब उदाहरण देते हैं कि वाइसमैन का जीवन खिले फूल की तरह होता है। मन को अच्छा लगता है, खिला हुआ फूल। और जब ये छवि सामने आती है कि सही बात तो ये है कि वह एक झड़े हुए पत्ते की तरह है, जिसको नियति की हवाएं जहां चाहे उड़ा ले जाती हैं। तो मन बड़ा घबराता है कहता है ऐसे कैसे हो जाऊं? कभी कैजुअलिटी (कारणत्व) उठा के यहाँ पटक रही है, कभी वहाँ पटक रही है। कभी इधर ले जा रही है, कभी उधर। अरे! मेरा कुछ है ही नहीं क्या? कि जिधर हवाएं बहाए ले जा रही है पत्ता उधर ही जा रहा है।

फ़िर हमारी जो आध्यात्मिक शिक्षा है, वो भी शुरू यहीं से होती है कि अपने जीवन की पतवार अपने हाथ में लो। परिस्थितियों को अपने पर हावी मत होने दो। ऐसे मत हो जाओ कि जिधर हवाओं का रुख है, उधर को तुम भी उड़ लिए। लेकिन सच यही है कि अस्तित्व से एक ये जो व्यक्ति है, ये ऐसा ही होता है। कम्पलीट रजिस्टेंसलेसनेस

हवा चली, उड़ लिए। गहरी श्रद्धा है। हवा मुझसे अलग नहीं। जिस भी जगह गिरूंगा, वो मुझसे अलग नहीं। मैं किसी परायी दुनिया में नहीं हूँ। जो हवा चला रहा है, वही मेरी भी देखभाल कर लेगा। और मैं तो कुछ ज़्यादा ही शब्दों का प्रयोग कर रहा हूँ अभी, वो इतना भी नहीं सोचता। वो इतना भी नहीं सोचता कि जो हवा चला रहा है, वो मेरी भी देखभाल कर लेगा। कहने भर के लिए कह रहा हूँ। वो तो बस उड़ जाता है। चली हवा, उड़ लिया।

पूछो कारण क्यों उड़ लिए?

वो कहेगा, ये शब्द ही कैसा है, कारण? क्यों हो कारण? जो भी कारण है, वो मुझसे बाहर का है। वो अस्तित्वगत है। है कैजुअलिटी पर वह कारण मेरा मानसिक नहीं है। हवा का कारण हो सकता है। मेरे बहे जाने का कोई कारण नहीं है। परिस्थितियां क्यों ऐसी है उसके कारण खोजे जा सकते हैं। हम ऐसे क्यों है उसका कोई कारण नहीं खोजा जा सकता।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें