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लेख
ज्ञान और बोध में अंतर || (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
20 मिनट
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प्रश्नकर्ता: बोध क्या है? अबोध कौन है और आत्मबोध कब प्राप्त होता है?

आचार्य प्रशान्त: भाषा की मजबूरी यह है कि उसे वो सब भी कहना पड़ जाता है जो कहा नहीं जा सकता और जिसे कहने की चेष्टा भी नहीं करनी चाहिए। उसमें खूबसूरती तो है पर ख़तरा भी उतना ही गहरा है। खूबसूरती इसीलिए है क्योंकि आदमी के मन से निकली भाषा ने ये स्वीकार तो किया कि आदमी के मन से आगे कुछ है। और ख़तरा यह है कि आदमी के मन से यदि भाषा निकली है, यदि शब्द निकला है तो वो कभी भी ये मानने को उत्सुक हो सकता है कि बात मन की ही तो है, मन से आगे की नहीं।

समझिएगा, दो शब्द हैं — ज्ञान और बोध। दोनों का अन्तर देखना है। ज्ञान की बात नहीं की जा सकती बिना उसको देखे जिसे ज्ञान चाहिए। जो ज्ञान का संग्रह करता है। कौन है वो? किसे ज्ञान चाहिए? क्यों ज्ञान चाहिए? और ज्ञान संगृहीत होने से उसे फायदा क्या होता है?

देखिए हम कोई दूर दराज़ की, किसी और दुनिया की बात नहीं कर रहे हैं। हम हमारे-आपके दैनिक जीवन की बात कर रहे हैं। इसमें कोई ऐसी बात नहीं है जो किसी विशिष्ट उपलब्धी से आती हो। जो मैं कह रहा हूंँ वो आपको भी पता है, बस इस मौके पर उसे कहने का दायित्व मेरा है इसलिए कह रहा हूँ। मैं आपसे ऐसा कुछ नहीं कह रहा हूँ जो नया है और इस कारण सिर्फ़ मैं कह सकता हूँ। एक-एक बात जो मैं कह रहा हूंँ, वो आप जानते हैं।

तो किसे ज्ञान चाहिए और क्यों ज्ञान चाहिए? ज्ञान माने जानना। कौन जानना चाहता है?

प्र: लोग जानना चाहते हैं।

आचार्य: हम ही हैं जो जानना चाहते हैं। और हम क्यों और कब जानना चाहते हैं?

प्र: जब मन में कोई सवाल उठता है तो उसका जवाब ढूँढने के लिए, जिज्ञासा के लिए।

आचार्य: जिज्ञासा उठने का अर्थ दो-तरफा होता है। पहला तो यह कि मुझे नहीं पता है। ये बौद्धिक तल हुआ जिज्ञासा का। मुझे नहीं पता है। और इस बौद्धिक तल से नीचे जिज्ञासा का एक अस्तित्त्वगत तल होता है। वो कहता है चूँकि मुझे नहीं पता है इसीलिए मैं अधूरा रह गया। बौद्धिक तल पर जो बात है वो तथ्यगत है। वो ठीक है। आपको ज्ञान नहीं है, आपको इस वक़्त उदाहरण के लिए ज्ञान नहीं है कि उस पर्दे के पीछे क्या है। ठीक? और करोड़ों-खरबों अन्य बातें हैं जिनका आपको ज्ञान नहीं है, ठीक है? ये तथ्य हुआ। इसके नीचे एक और तल है जिसपर जिज्ञासा कहती है कि नहीं पता इस कारण कुछ खोट रह गई, कोई कमी रह गई। इस एहसास से जिज्ञासा में त्वरा आती है। जिज्ञासा को ऊर्जा, गति मिलती है, "जानो, जल्दी जानो।" इस भावना से जिज्ञासा अब सिर्फ़ जिज्ञासा नहीं खौफ़ बन जाती है। नहीं जाना तो कुछ छूट जाएगा और साथ-ही-साथ यदि जान लिया तो कुछ उपलब्धी हो जाएगी, कुछ बढ़ जाएगा। देखा नहीं है ज्ञान को हम कितना महत्व देते हैं। "जान लूँगा तो कहीं पहुंँच जाऊंँगा।"

नहीं जानता यहांँ तक ठीक था, यहांँ तक बात तथ्यपरख थी पर उसके नीचे जो एक तल और है वो है जिज्ञासा का इंजन , वहाँ बैठा है ईंधन, वहाँ से आती है जिज्ञासा में ऊर्जा, शक्ति। समझ रहे हो न बात को?

नहीं है, यहांँ तक बात ठीक है। तुम जैसे हो यह प्रकट होना, यह भासित होना ठीक है कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है चाहे ज्ञान हो, चाहे कोई और सामाग्री हो। पर उसके पीछे एक भावना और भी रहती है कि नहीं है तो कुछ छूट गया, कोई कमी रह गई, कुछ ओछापन रह गया, कुछ हीनता रह गई। यह ज्ञान का संसार है, यह ज्ञान की पूरी प्रक्रिया है।

ज्ञान का अर्थ ही है: कुछ पा लेना और मन में उसका संग्रह कर लेना। ज्ञान को एक चीज़ मानिए। क्या मानिए? चीज़, वस्तु। जैसे आप दूसरी चीज़ों को ले ले कर घर में रखते हो और उनको घर में रखने के कारण प्रसन्नता का अनुभव करते हो, संतुष्टि सी लगती है। ठीक उसी तरह ज्ञान है, एक चीज़ जो आपने ली और मन के गोदाम में ले जा कर रख दी। उसको हम गोदाम भले ही कह रहे हैं पर वो भी उतना ही सुसज्जित कमरा है जैसे कि हमारे घरों में होते हैं। आपका अतिथि गृह होता है, उसको आप कितना सजा कर रखते हो न घर में? समझ लीजिए मन भी एक घर है, बल्कि कहिए कि मन ही घर है। और वहाँ पर भी आप सजाते हो।

बाहर भी जो चीज़ें दिखाई पड़ती हैं, मन के लिए वो अंततः ज्ञान ही है। चीज़ें भी आप इसीलिए ला रहे हो ताकि वो ज्ञान में परिणित हो सकें। कुछ हो आपके घर में जिसका आपको ज्ञान ना हो तो उसके होने से आपको कोई लाभ होगा? वस्तु को भी अंततः विचार ही बनना है। विचार ही है जो आपको तथाकथित संतुष्टि देता है। वस्तु का होना भर आपको संतुष्टि नहीं दे पाएगा। वस्तु आपके बगल में रखी हो और आप सो रहे हों बेहोश, तो क्या आपको कोई संतुष्टि मिलती है? संतुष्टि तब मिलती है जब आप उस वस्तु का विचार करें। आप जग भी रहे हों वो वस्तु आपकी आँखों के सामने भी हो लेकिन कुछ और है जो आपके ज़हन पर छाया हुआ है, आप उस चीज़ के बारे में खयाल ही नहीं कर पा रहे तो आपको क्या उस वस्तु से कोई लाभ मिलेगा? नहीं मिलेगा। वस्तु को भी विचार ही बनना है।

असंतुष्टि भी विचार है और संतुष्टि भी विचार है। ये ज्ञान का खेल है। ज्ञान का मतलब ही यही है, "मैं नहीं जानता और ना जानने से कुछ क्षुद्रता रह गई, ना जानने के कारण जीवन में कुछ कमी रह गई।"

बोध क्या है? बोध वो स्थिति है — कोई और बेहतर शब्द नहीं है भाषा में इसीलिए स्थिति कहना पड़ रहा है — बोध वो स्थिति है, जिसमें आपको ये तो पता है कि आप नहीं जानते या कि आपके पास नहीं है पर उसके कारण आपके होने पर, आपकी सत्ता पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। दूसरे शब्दों में बोध वो स्थिति है जिसमें आप जानते हैं कि आप जानते हैं पर उस जानने से आपकी सत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है; आपको पता है आप नहीं जानते, आप जैसे हैं वैसे हैं; आपको पता है आप जानते हैं, आप जैसे हैं वैसे हैं; आपको पता है आपके पास नहीं है, आप जैसे हैं वैसे हैं। आपको पता है आपके पास है, आप जैसे हैं वैसे हैं। आपको ये तक एहसास हो गया है कि बहुत कुछ है जो आपको ये भी नहीं पता कि आपको नहीं पता, बहुत कुछ है जो आप जानते भी नहीं कि हासिल किया जा सकता है, और ये सब जानने के बाद भी आप जैसे हैं वैसे हैं।

बोध का अर्थ है ज्ञान अपनी जगह रहे, आपके मर्म को मलिन ना कर पाए। ज्ञान समझ गए थे न क्या है? ज्ञान का अर्थ है: अपने से बाहर का संसार चाहे फिर वो वस्तु हो या विचार। यही ज्ञान है। ज्ञान का अर्थ है: मैं हूंँ संसार है, संसार है उसमें से कुछ पाया जा सकता है, उसमें कुछ गँवाया जा सकता है। विचार है, विचार ये अहसास करा सकता है कि कुछ पता है। विचार ये भी कुछ अहसास करा सकता है कि कुछ नहीं पता है। बोध का अर्थ है - वस्तु, विचार, संसार, ये सब अपनी-अपनी जगह हैं, अपना खेल खेल रहे हैं। हम इनसे अस्पर्शित हैं - ये बोध है।

ख़्याल रखिएगा बोध उस वाक्य का नाम नहीं है जो मैंने अभी कहा। बोध कोई भावना नहीं है। बोध कोई विचार नहीं है। बोध का इतना ही अर्थ है कि सब पता होते हुए भी और सब ना पता होते हुए भी हम जैसे हैं वैसे हैं। हमारी हस्ती ना विचार पर आधारित है, ना वस्तुओं पर आश्रित है। इसका ये अर्थ बिलकुल भी नहीं है कि विचार से मेरा कोई लेना-देना ही नहीं। इसका ये भी अर्थ नहीं है कि वस्तुओं का परित्याग करना है। सोच रहे हैं — सोचना हमेशा उद्देशपूर्ण होता है — सोच रहे हैं, सोचना जिस सीमित उद्देश के लिए था सोच वो सीमित उद्देश हासिल कर लेगी। और कभी-कभी नहीं भी कर पाएगी। हासिल करें चाहे ना करें, हम जैसे हैं वैसे हैं।

बाहर चल रहा है एक अद्भुत प्रपंच और उसमें आप कुछ हासिल करने के लिए प्रयासरत हैं। कभी-कभी आप हासिल कर लेंगे। अक्सर हासिल नहीं भी कर पाएंँगे। हासिल करें या ना करें आप जैसे हैं वैसे हैं। बोध का अर्थ है विचार की सीमा को जान लेना, विचार को उद्दंड, स्वच्छंद ना होने देना। विचार को पूरा हक़ है मन की सीमा में, विचार की सीमा में दौड़-धूप करने का, कूद लगाने का। पर विचार को ये दुस्साहस ना करने देना कि वो वहांँ जा करके आसीत हो जाए जहांँ वो जा ही नहीं सकता — ये बोध है।

बोध का अर्थ ज्ञान की समाप्ति नहीं है, बोध का अर्थ है कि जैसे तुम्हें हज़ार चीज़ों का ज्ञान है वैसे तुम्हें ये भी ज्ञान रहे कि ज्ञान सीमित है। ज्ञान के ज्ञान को सीमित जान लेना बोध है। बोध कोई विशिष्ट ज्ञान नहीं। कभी आप ये ना कह पाओगे कि आपको किसी बात का बोध है। बात का बोध है फिर तो ज्ञान हो गया। ज्ञान का हमेशा एक विषय होता है, बोध का कोई विषय नहीं होता। बोध तो स्वयं को देखता है। ज्ञान सदा संसार को देखता है। ज्ञान को विषय मिल जाएगा, बोध को विषय कहांँ से आएगा? आत्मज्ञान हो सकता है, आत्मबोध जैसा कुछ होता नहीं। आत्मबोध का अर्थ इतना ही है कि आत्मज्ञान अब नमित हो गया है। आत्मज्ञान उस तक पहुंँचने की, उस पर हाथ रखने की अब कोशिश नहीं कर रहा जिस तक ना पहुंँचा जा सकता है, ना जिसको स्पर्श किया जा सकता है। आत्मज्ञान अपने-आपमें बड़ी बात है।

आत्मज्ञान में जिस आत्म की बात हो रही है वो अहंता है। आत्मज्ञान का अर्थ है देखना कि अहंकार किन-किन रूपों में रोज़ हमारे सामने आता है। कैसे हमारी गतिविधियांँ संचालित करता है — मैं क्या करता हूंँ, मैं क्यों करता हूंँ, मैं कैसे करता हूंँ। और ये कोई ठहर करके किसी विशेष समय, किसी विशेष कक्ष में की जाने वाली गतिविधि नहीं है। आत्मज्ञान में आपको गतिविधि देखनी है। गतिविधि को तो तभी देख पाओगे न जब गति हो। ठहर कर के देखने लग गए तो गति कहांँ से देखोगे? दौड़ते हुए हिरण को यदि देखना है तो हिरण को रोक कर थोड़े ही देखोगे। जीवन प्रवाह है। जीवन गतिमान है। जीवन को यदि देखना है तो प्रवाह को ही देखना पड़ेगा न। प्रवाह को रोक करके कैसे देखोगे? नदी को देखना चाहते हो तो बांध जाओगे क्या? तो इसीलिए आत्मज्ञान के लिए सहज बहते जीवन को बिना किसी व्यवधान के देखना होता है। तुमने उसके लिए अगर एक अलग समय निकाला, उसको एक अलग क्रिया का ही नाम दे दिया तो अनर्थ कर दिया।

सुबह से शाम तक प्रतिक्षण अवसर है आत्मज्ञान का। और आत्मज्ञान हो ही रहा है क्योंकि अनुभव हो रहा है। और अनुभव ही तो आत्मज्ञान है। जो अनुभव हो रहे हैं उनके प्रति ईमानदार रहना जागरुक रहना और झूठ ना बोलना और अपने-आपको इस छल में ना रखना कि अनुभव हुआ नहीं। या फिर हो गया तो उसका दमन कर दिया। यही आत्मज्ञान है।

आत्मज्ञान कुछ विशेष नहीं। आत्मज्ञान जो हो ही रहा है निरंतर हो रहा है। बस उसको स्वीकार कर लो उसको जानते रहो। आत्मज्ञान जब भी होगा अपने साथ एक कमी के अहसास का ख़तरा ले कर के आएगा। सुबह देखोगे अपने-आप को कि उठना था छह बजे, उठे सात बजे। अच्छा नहीं लगेगा। फिर देखोगे कि आठ बजे नाश्ता करना था। जैसा नाश्ता चाहते थे वैसा मिला नहीं, अच्छा नहीं लगेगा। फिर देखोगे कि नाश्ते में कुछ विशेष सुस्वाद मिल गया तो मन बिलकुल खुश हो गया। पाओगे बहुत अच्छा लग गया। आत्मज्ञान जहांँ कहीं भी होगा, वहांँ पर यह कमी का, बढ़त का अहसास लगातार बना रहेगा।

दिनभर में अपनी चेष्टाओं को जब भी देखोगे तो ये भी तो देखोगे न कि अहसास हुआ कि कुछ नहीं है तो उसके पीछे भागे। चेष्टा का और अर्थ क्या होता है? और इसके विपरीत ये भी देखोगे कि कुछ जब पा लिया तो कैसे फूले-फूले फिरे। आत्मज्ञान हमेशा अपने साथ ये अहसास लेकर के ज़रूर आएगा। ज्ञान को होने देना बिना इस अहसास के — ये आत्मबोध है। घटनाएंँ घट रही हैं पर घटनाएंँ मात्र घटनाएंँ हैं — ये आत्मबोध है। विचार, विचार की सीमा में है — यही आत्मबोध है।

फिर दोहरा रहा हूंँ — आत्मबोध को मत समझ लेना कि जैसे तुमने कुछ खास जान लिया है। इस तरह की बातें मत कहने लग जाना कि फलाने व्यक्ति को आत्मबोध हो गया है। आत्मबोध माने कुछ होता ही नहीं। आत्मबोध का अर्थ सिर्फ़ इतना होता है कि जो कुछ हो रहा था वो अब नहीं होता। पहले बहुत कुछ होता था। पहले लगता था कि कुछ छिन गया तो जान चली गई। अब ऐसा लगता नहीं, ये आत्मबोध है। पहले कमरा खूब भरा हुआ था, बड़ी गंदगी थी, अब गंदगी है नहीं, ये आत्मबोध है। पहले कमरा था क्योंकि दीवारें थी, अब दीवारें हैं नहीं खुला आकाश है, ये आत्मबोध है। आत्मबोध कुछ विधायक नहीं, कुछ विशिष्ट नहीं। तयशुदा तरीके से, एफिरमेटिव तरीके से उसके बारे में कुछ कहना नादानी होगी।

हांँ, आत्मज्ञान ज़रूर होता है, बिलकुल देखो। आत्मज्ञान होता है और उसको शब्दों में बयांँ भी किया जा सकता है और करना भी चाहिए। तुम किसी को बता सकते हो कि अभी अभी तुमने क्या देखा। तो आत्मबोध क्या हुआ? जितनी ईमानदारी से बता रहे हो वो आत्मबोध है। क्या बता रहे हो वो आत्मज्ञान है। पर जितनी निर्भीकता से, जितनी स्पष्टता से, जितनी ईमानदारी से बता रहे हो वो आत्मबोध है। ज्ञान का विषय होता है, ईमानदारी का थोड़े ही कोई विषय होता है। ईमानदारी तो अपनी बात होती है हृदय की, वो किसी से संबंधित थोड़े ही होती है कि उसका कोई विषय होगा।

जानिए देखिए संसारी हैं हम, जीव हैं हम, पर जो भी जान रहे हैं, देख रहे हैं उनको एहसासों के ही तल पर रखिए, उनको आत्मा तक मत उठा दीजिए। अब मज़ेदार बात ये है कि आत्मा तक आप उठा वैसे भी नहीं सकते हैं। क्योंकि ये दो तल ज़मीन और आसमान हैं। इनको आप मिला वैसे भी नहीं सकते हैं। आप कल्पना करेंगे कि आपने मिला दिया है। आप कल्पना करेंगे कि आपने कुछ पैसे हासिल कर लिए हैं तो आपमें कुछ बढ़ौतरी हो गई है। ये कल्पना ही आदमी का दुःख है। और जो ये कल्पना कर रहा है कि कुछ पैसे हासिल कर लेने से उसमें कुछ बढ़ौतरी हो गई है निश्चित ही वो ये कल्पना करेगा कि कुछ गँवा देने से उसमें कुछ हीनता आ गई है। यही आदमी का दुःख है।

दो-तीन बातें कहीं, हम उनको समझ लें कि ज्ञान में हमेशा द्वैत होता है। ज्ञान में आप और संसार हैं। ज्ञान हमारे लिए मात्र तथ्य नहीं होता, ज्ञान हमारे लिए हमारी हस्ती पर एक निर्णय होता है। कुछ है आपके पास तो आप बढ़ा हुआ अनुभव करते हैं। "ज़मीन है मेरे पास, प्रतिष्ठा है मेरे पास, मेरे गले में मोटा हार है सोने का।" आपको ऐसा लगता है ज्यों आप ही कीमती हो गए हों। हार नहीं कीमती है, आपको लगता है ज्यों आपकी ही कीमत में इज़ाफ़ा हो गया हो। ज्ञान अपने साथ ही ख़तरा लेकर के आता है। बोध का अर्थ है: ज्ञान रहे ज्ञान के साथ जुड़ी हुई ये भावना ना रहे। बोध का अर्थ है: आप स्वयं में रहें। इसीलिए आपको शास्त्र सिखा गए हैं — बोधो अहम्, तुम बोध मात्र हो।

बोध का अर्थ ये नहीं है कि मैं आत्मा हूंँ, या मैं ये हो गया हूंँ, वो हो गया हूंँ। बोध का अर्थ कुछ भी नही है। कोई भी वाक्य बोध की प्रस्तुति नहीं कर पाएगा। जो कुछ भी कहोगे वो ज्ञान के ही क्षेत्र में आएगा। बस इतना जान लेना कि ज्ञान, ज्ञान है। ज्ञान का तिरस्कार नहीं करना है। ज्ञान को छोड़ भी नहीं देना है। संसार से भाग भी नहीं जाना है। संसार का खेल है, चल रहा है। बस ये मत मान लेना कि संसार इतना बड़ा है कि तुममें कुछ जोड़-घटा सकता है। संसार जो है सो है। तुम संसार से ज़्यादा बड़े हो।

यहाँ कोई घटना घट जाए, यहांँ कोई वस्तु हासिल हो जाए, तुम्हें ऊंँचे-से-ऊंँचा विचार मिल जाए, तुम्हारी अनंतता में वो कुछ जोड़ नहीं पाएगा। तुम्हें बड़ा-से-बड़ा नुकसान हो जाए, तुम्हारी स्मृति विलुप्त हो जाए, तुम भूलने लग जाओ, तुमने जो कुछ भी अर्जित किया था किताबों से उसका लोप होने लग जाए, तब भी तुम्हारी विशालता में कोई कमी नहीं आ जाएगी। इस सहज विश्वास में जीना ही बोधयुक्त जीवन है। जो बोध में जीता है, ज्ञान उसका कुछ ना बना पाता है, ना बिगाड़ पाता है। वो ज्ञान का मालिक होता है, ज्ञान उसका मालिक नहीं हो जाता। अब आप ज्ञान को इस्तेमाल करोगे अपने रोज़मर्रा के जीवन के लिए। अब ज्ञान आपका इस्तेमाल नहीं करेगा।

मैं दूसरी-तीसरी बार बोल रहा हूंँ: आत्म बोध का अर्थ आत्मा का बोध नहीं होता। आत्मा का कुछ नहीं हो सकता, ना ज्ञान ना बोध। आत्मा में जी सकते हो। आत्मा में जीने का अर्थ है अपने में जीना। और अपने में जीने का अर्थ ये नहीं है कि दूसरों से या दुनिया से कटे-कटे रहना। दूसरों के भी साथ रहना, दुनिया के भी साथ रहना पर किसी का ग़ुलाम ना बन जाना। ये है अपने में जीना। 'ग़ुलाम ना बन जाना' का अर्थ ये नहीं है कि उनका मालिक बन जाना। ना मालिक बन जाना, ना ग़ुलाम बन जाना, एक स्वस्थ संबंध बस।

आत्मबोध कब प्राप्त होता है प्रश्न था। कभी नहीं प्राप्त होता। ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान की प्राप्ति भी होती है, ज्ञान की विलुप्ति भी होती है। आत्मबोध की कोई भी प्राप्ति नहीं होती। जो आए-जाए सो ज्ञान। जो आए-जाए सो विचार, सो संसार। बोध ना आता है, ना जाता है, उसकी क्या प्राप्ति! कुछ है ही नहीं तो कैसे प्राप्त करोगे? खाली जगहें प्राप्त की जाती हैं क्या? वस्तुएंँ प्राप्त की जाती हैं। बादल आते हैं, आकाश थोड़े ही आता है। बादल आते हैं तो जाते भी हैं। प्राप्त नहीं करना है, कोशिश भी नहीं करना प्राप्त करने की।

बहुत घूम रहे हैं जिन्हें आत्मा प्राप्त करनी है। जिन्हें बोध प्राप्त करना है। जिन्हें आत्मबोध प्राप्त करना है। प्राप्त करना ही तो बीमारी है। इस प्रयास में मत लग जाना कि हासिल करना है। ज्ञान करो हासिल। इतनी किताबें हैं पुस्तकालय हैं, विश्वविद्यालय हैं। दुनिया भर के तमाम अन्य साधन हैं, खूब ज्ञान प्राप्त करो। पर ज्ञान के मध्य में रहते हुए भी आत्मस्थ रहो, यही बोध है। ज्ञान तुम्हारी सहज निर्मलता पर एक धब्बा ना बन जाए। तुम्हारे एक आंतरिक सूनापन, भोलापन कायम रहे। ज्ञान तुम्हें बुद्धिमान होने का, चतुर चालाक होने का दंभ ना दे दे। और अज्ञानता कहीं तुम्हें हीनभावना से ना भर दे। यही बोध है।

अबोध कौन है? अबोध वो है जो ज्ञानी है। ज्ञान रखो, ज्ञानी मत बन जाना। जो ज्ञानी हो गया वो अपने-आपको बोध से विमुख कर लेता है। हमारी भाषा बड़ी ऊटपटाँग है, हम भोलेपन के लिए अबोध शब्द का इस्तेमाल कर लेते हैं। कह देते हैं 'अबोध शिशु', ग़लत बात है। शिशु तो पूरे बोध में जीता है। तुम उसको कुछ ख़ास कीमती कपड़े पहना दो, वो प्रफुल्लित नहीं हो जाएगा। तुम उसको किसी पांँच सितारा होटल की रोटियांँ लाकर के दे दोगे, उसे कोई विशेष आनंद नहीं आ जाएगा। उसे तो मिट्टी से खेलना है। उसके लिए तो गली का कुत्ता ही बड़े हर्ष की बात है, जा कर उससे ही लिपट जाएगा। शिशु के लिए विचार, संसार, और ज्ञान बहुत कम महत्व रखते हैं। वो तो पहले ही बोध में जी रहा है। बस कुछ शारीरिक वृत्तियांँ हैं उनके अलावा तो वो सहज समाधि में है ही। उसको अबोध क्यों बोल रहे हो? उसको तो बोधवंत बोलो।

अबोध हम हैं क्योंकि हमने अपने-आपको बोध से जुदा मान लिया है। अबोध वो जिसे ये ज्ञान हो जाए कि बोध हासिल करने की, प्राप्त करने की बात है। जैसा कि इस प्रश्न में इंगित है। जो कोई पूछने लग जाए कि बोध हासिल कैसे करना है, वो अबोध ही तो हुआ न। क्योंकि हासिल करने का ख़्याल ही तब आएगा जब पहले ये लगे की गँवा दिया है। गँवा दिया बोध तो हो गए अबोध। बोध हमारी सहजता है, बोध हमारा हृदय है। अबोध हुआ जा ही नहीं सकता। चमत्कारों में चमत्कार है कि मनुष्य अपने-आपको अबोध मान लेता है। मनुष्य अपने-आपको बोधहीन मान लेता है। जो कुछ भी जीवन में केंद्रीय है वो सहज है। आप यहांँ किसी मिशन पर नहीं आए हो, कि कुछ बड़ी गहरी बात आपको हासिल करनी है।

जीवन खेल है, खोज नहीं है। और ये दो बहुत अलग-अलग दृष्टियाँ हैं, जीवन को खेल की तरह देखना और जीवन को खोज की तरह देखना। जो जीवन में खोज रहा है, फिर आत्मा को भी खोजेगा, स्वयं को खोजेगा, सार को खोजेगा, बोध को खोजेगा। जो खेल रहा है वो अपनी खोज को ज्ञान तक सीमित रखेगा, वो कहेगा, "ज्ञान खोजा जा सकता है।" ज्ञान खोजना लुका छिपी की तरह है। पोकेमोन गो , खोज लो। पर बोध खोजना ऐसा है जैसे प्रेमी को खोज रहे हो, वो साथ है। प्रेमी है तो साथ ही होगा। जो साथ नहीं, वो प्रेमी ही नहीं। शिशु को अबोध ना कहें, उसके तो चरण स्पर्श करें। अंततः आपको भी अपना शिशुत्व हासिल करना है। यहाँ जो बहुत बड़े-बड़े ज्ञानी हैं, वो हैं अबोध। हम सब जैसे, किसी तीसरे की बात नहीं कर रहे।

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