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लेख
गुरु ने पठाया नियामत लाना || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
23 मिनट
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गुरु ने पठाया चेला नियामत लाना||टेक||

पहली नियामत आटा लाना, ग्राम नगर के पास न जाना|

कुता पिसा छाड़ीयाँ के चेला, झोली भर के लाना||१||

दूसरी नियामत जल ले आना, कुआँ बावली के पास न जाना|

नदी नाला बचाय के चेला, तुम्बा भर के लाना||२||

तीसरी नियामत कालिया लाना, जीव जन्तु के पास न जाना|

मूवा जीवा छाड़ी के चेला, हांड़ी भर के लाना||३||

चौथी नियामत लकड़ी लाना, जंगल झाड़ के पास न जाना|

गीली सूखी बचाय के चेला, गाँठी बाँध के लाना||४||

कहि कबीर सुनो भाई साधो, यह पद है निर्बाना|

जो यह पद का अर्थ लगावैं, सोई संत सुजाना||५||

~ संत कबीर

वक्ता: यह कभी मत भूला करो, कि जो बात कही जा रही है किससे कही जा रही है| अभी तुमने कहा कि जो असली है, वो तुम्हारे पास है इसीलिए तुम्हें कुछ और संसार से लाने की ज़रूरत नहीं है| बहुत गड़बड़ हो जाएगी अगर ये बात बोलोगे तो| कबीर जब तुमसे कह रहे हैं संसार से कुछ लेकर के मत आना, तो वो ये नहीं कह रहे हैं कि, ‘’असली तुम्हारे पास है, इसलिए तुम्हें संसार से कुछ लाने की ज़रूरत नहीं है’’; अर्थ का अनर्थ कर दिया है तुमने| कबीर किससे बात कर रहे हैं? कबीर तुमसे बात कर रहे हैं ना| तुम क्या हो? कौन है जो ये शब्दों को सुन रहा है? तुम हो इतना सा पात्र, तुम हो इतना सा पात्र और तुम क्या बोल रहे हो बार-बार, ‘’जो असली है, वो मेरे पास है तो इसीलिए मुझे किसी और की ज़रूरत नहीं|’’ जो असली है, जो पूर्ण है, वो तुम्हारे इतने से पात्र में है? तुम देख रहे हो अहंकार कैसे एक ऊँची से ऊँची बात को भी अपने साधन के लिए इस्तेमाल कर लेता है| अब तुम्हें कबीर को सुनने की भी क्या ज़रूरत है, असली तो तुम्हारे ही पास है, तुम्हीं में से किसी एक ने कहा ना कि ‘’असली तो मेरे पास है ही, तो मुझे कुछ चाहिए नहीं|’’ फिर तुम्हें किसी को सुनने की क्या ज़रूरत है अगर असली तुम्हारे पास पहले से ही है?

असली तुम्हारे पास नहीं है ,तुम असली के पास हो|

दोनों बातो का अंतर समझो| वो तुममें नहीं समाया हुआ है, तुम उस में समाए हुए हो| वो तुमसे नहीं है, तुम उससे हो| पर तुमने बड़ी खतरनाक बात कर दी, तुमने कहा, ‘’असली मेरे पास है|’’ अगर असली तुम्हारे पास है, तो ध्यान से देखो असली उस सब का हिस्सा ही होगा, जो तुम्हारे पास है| तुम्हारे पास क्या-क्या है? तुम्हारे पास विचार है, रुपैया है, पैसा है, तुम्हारे रिश्ते हैं, तुम्हारी चीजें हैं, घर-द्वार हैं, असली इन सब में है? तुम्हारे पास तो ये सब हैं, तो तुमने कैसे कह दिया कि, ‘’असली मेरे पास पहले से है?’’ जब तुमसे कहा जाता है तुम्हारे पास क्या है? तो तुम क्या बताते हो क्या है तुम्हारे पास? एक नाम है, संसार है, पैसे हैं, इज्ज़त है, रिश्ते हैं यही सब तो है तुम्हारे पास|

इनको तुम कहना चाहते हो कि ये सब परमात्मा है? जब तुम कहते हो, ‘’वो मेरे पास है,’’ तो ये गहरे अहंकार की बात हो जाती है और जब तुम कहते हो, ‘’मैं उसके पास हूँ, ‘’ तो ये गहरे समर्पण की बात हो जाती है|’’ दोनों का अंतर करना सीखो| ये नहीं किया, तो तुम सारी बातों का अनर्थ कर दोगे, कबीर को भी इस्तेमाल कर लोगे सिर्फ़ अपने आप को चौड़ा करने के लिये| ये बात समझ में आई है? तुम्हारी हस्ती उससे है, उसकी हस्ती तुमसे नहीं है| नहीं, फिर तो बहुत आसान हो जाएगा तुम्हारे लिये अपनी हर बात को जस्टिफाई करना “वो मेरे पास है, मैं जो कर रहा हूँ वही ठीक है|’’ दूसरी बात जो तुमने कही कि, ‘’गुरुता रहे गुरु को छोड़ देना है, गुरु कितना भी आकर्षक लगता है उसे छोड़ देना है|’’ कौन है जो गुरु को छोड़ेगा? जो स्वयं आत्मा हो गया हो, जो स्वयं गुरु हो गया हो सिर्फ़ उसे हक़ है ये कहने का कि, ‘’और किसी की आवश्यकता नहीं,’’ सिर्फ़ उसे हक़ है| और कह कौन रहा है ये बात?

श्रोता: अहंकार|

वक्ता: अभी कह कौन रहा है ये बात? क्या आत्मा बोल रही है? अहंकार बोल रहा है| अहंकार को तो बड़ी सुविधा दे दी तुमने, गलत सुविधा दे दी| और ऐसे ही वक्तव्यों की तलाश में रहता है अहंकार कि ‘’देखिये, आखिरी बात तो ये है कि ज्ञान को भी छोड़ देना है, आखिरी बात तो ये है कि ये भी छोड़ देना है, वो भी छोड़ देना है|’’ जो छोड़ेगा उसको तुम जानते हो क्या? तुम वो हो? तुम्हें उसका ज़रा भी पता है? वो जो छोड़ने वाला होगा वो कैसा होगा? वो ये बात ही नहीं करेगा कि, ‘’छोड़ देना है|’’ बात करने में कौन रुचि दिखा रहा है?

श्रोता: अहंकार|

वक्ता: जिसकी अभी छोड़ने की अवस्था ही नहीं है| जिसके लिये अभी बहुत ज़रूरी है कि पकड़ के रखे, कि कबीर अगर गा रहे हों तो, बिलकुल सर झुका दो कबीर के पाओ में| जिसको अभी ये ज़रूरत है कि ये नाम ही ना ले कि कहीं छूट ना जाए| जिसको अभी ये ज़रूरत है कि अगर उससे कह दिया जाए कि, ‘’तुम्हें एक दिन कबीर को छोड़ना पड़ेगा,’’ तो वो रो पड़े, आँखों में आंसू आ जाए| कहे, ‘’ये आपने कह कैसे दिया कि, छोड़ना पड़े,’’ जिसको अभी ये ज़रूरत है, वो बड़े ठाठ के साथ कह रहा है “देखिये आखिरी बात तो ये है सब कुछ छोड़ देना चाहिये| कौन अष्टावक्र? कौन कबीर? कौन रिभु? हम सब को छोड़ देंगे” तुम छोड़ोगे? तुम्हें अभी पकड़ के रखना है| तुम तो वो हो, जो पकड़ के नहीं रख पा रहा है, जिससे छूट-छूट जा रहा है| तुम छोड़ने की क्या बात कर रहे हो? तुम्हारी हालत तो अभी ये है कि तुम चाहते भी हो तो भी याद रख नहीं पाते और इस हालत में तुमने खूब सुविधा जुटाई कि यह कह दो, ‘’याद रखा नहीं है क्यूंकि दखिये आखिरी कदम होता है कि आखिरी सहारे को भी छोड़ दो” छोड़ने को तुम वैसे तैयार बैठे हो| तुमने पकड़ा कब है? तुमने पाया कब है जो तुम छोड़ने की बात कर रहे हो?

तुमने कबीर को पा लिया है? जो तुम अभी से बात कर रहे हो कि छोड़ देंगे? लेकिन छोड़ने में बहुत रुचि है क्यूंकि मन उधर को लग नहीं रहा इसलिए जल्दी से बोल दिया “छोड़ देंगे|’’ ‘’पकड़ना है,’’ ये याद नहीं है, उनसे जानना है, उनसे सीखना है, शरणागत होना है, ये नहीं याद है| ये जल्दी से बोल देते हो कि, ‘’छोड़ देंगे|’’ तुम वो नहीं हो, जिसे अभी छोड़ने की बात करनी चाहिए| हाँ, अहंता को बहुत मज़ा आता है, ये कल्पना करने में कि, ‘’मैं अब वो हो गया, जो छोड़ सकता है|’’ बड़ा बड़प्पन है ना ये कहने में “कि देखिए, अब तो मुझे आखिरी सहारे की भी ज़रूरत नहीं, अब मैं छोड़ सकता हूँ|’’ कितना अच्छा लगता है, कहने में कि नहीं? तो तुमने झट से ये बोल दिया| तुम्हारा मन ऐसा होना चाहिए जो ये बात सुन के कॉप जाए कि ‘’छोड़ना|’’ ईमानदार रहो ना, अभी तुम्हारी हालत नहीं है छोड़ने की, जब छोड़ने की हालत आयेगी तब तुम, तुम नहीं रहोगे| तुम अभी जो हो उसके लिए छोड़ने जैसा वक्तव्य, ज़हर समान है| और जो छोड़ता है, उसका तुमसे कोई रिश्ता नहीं, तुम वो हो नहीं| बहुत दूर है वो तुमसे; बहुत-बहुत दूर है|

बात आ रही है समझ में क्या कह रहा हूँ? भाई देखो ना, कितना प्यारा शोर्ट कट मिल गया है – आखिरी कदम क्या है? छोड़ दो| तो जब आखिरी कदम छोड़ना ही है तो?

श्रोता : पकड़ने की भी क्या ज़रूरत|

वक्ता: तो पकड़ने की भी क्या ज़रूरत है| तुम देख नहीं रहे हो तुम्हारा मन कैसी चाल चल रहा है| ”जब अंत में जा के छोड़ ही देना है तो अभी फिर ये सब क्या बात होती रहती है कि ये पढ़ो, ये जानो, ये गीत गाओ और ये समझो| जब आखिर में ये सब छोड़ ही देना है, तो अभी क्यों पकड़ रहे हैं?” तुम्हें नहीं छोड़ देना है, तुम्हें पकड़ना है| और जितनी जान है, उससे पकड़ना है जैसे डूबता हुआ पकड़ता है ना सहारे को, वैसे पकड़ना है| भूल के भी ये विचार मन में ना लाओ, ये शब्द जबान पर मत लाओ कि, ‘’जरूरत नहीं है|’’ इससे ज्यादा तुम्हें किसी अन्य की ज़रूरत नहीं| देखो परम सत्य को संकेतों में कहा गया है, एक तरह से आवृत्त करके रखा गया, छुपा के| उसकी वजह थी, उसकी वजह यही थी कि ऊँची से ऊँची बात जब ऐसे कान में पड़ जाती है, जो अभी उसको सुनने को तैयार नहीं है, तो वो उसका खूब दुरुपयोग करता है और अपना खूब नुकसान कर लेता है|

समझ रहे हो? फिर इसीलिए तुमको आंशिक बातें बोली जाती हैं, फिर इसीलिए तुमको खिलौने दिए जाते हैं| अब एक तरफ तो ये बात दुर्भाग्य पूर्ण है कि तुम्हें खिलौने दिए जाएँ, कि तुम्हें पूरी बात ना बताई जाए| दूसरी ओर ये भी तथ्य है कि अगर तुमको सत्य दे दिया गया, तो वो ऐसी आग है कि तुम उससे खुद को ही जला लोगे| जैसे बच्चे के हाथ में बम दे दिया गया हो; वो अपना ही नुकसान कर लेगा| और कुछ वैसा ही अभी होता दिखा, कि तुमको एक बात बताई गयी और उससे तुम अपना ही नुकसान करने को तैयार हो गये तुरंत| और कुछ याद रहे ना रहे, ये तुमने पकड़ लिया|

अहंकार तो ये माने बैठा ही है पहले से कि, ‘’मुझमें सब ठीक है, मुझमें कोई दिक्कत नहीं है|’’ उसे तुम्हारे ज़रा से समर्थन की ज़रूरत है कि तुम कह दो “हाँ,हाँ तू बिलकुल ठीक है|’’

अहंकार में परमात्मा नहीं बसता है, हाँ, परमात्मा की माया है अहंकार|

ये दोनों बातें बिलकुल अलग-अलग हैं इनको समझना;

संसार से सत्य नहीं उपजता है, सत्य का नाच है संसार|

दोनों में पहला कौन है, केन्द्रीय कौन है, मूल कौन है ये भूल मत जाना| तुमने तो गंगा ही उलटी बहा दी कि वो मेरे भीतर है| तुम्हारे भीतर नहीं है| तुम क्या हो? तुम हाड-माँस के पुतले हो| तुम क्या हो? तुम विकारों के पिंड हो| तुम्हारे भीतर थोड़ी बसता है वो| तुम उसके भीतर बसते हो| इसी को समर्पण कहते है, मैं उसके भीतर हूँ|’’ जब तुम कहते हो, ‘’वो मेरे भीतर है,’’ तो बड़ा कौन हो गया?

श्रोता: ‘मैं’|

वक्ता: और जब तुम कहते हो, ‘’मैं उसमें समाया हुआ हूँ, तब तुमने किसकी सत्ता जानी?’’

श्रोता: उसकी|

वक्ता: तो सावधान रहना| ये भूल मत कर बैठना| नहीं तो अहंकार ने परमात्मा का प्रशय दे दिया| ”ये अहंकार नहीं है, ये परमात्मा है| ये मेरी आवाज थोड़ी है; अहंकार की आवाज नहीं परमात्मा की आवाज़ है, वो बोलता है मेरे भीतर से|” बड़ी सुविधा हो गयी|

परमात्मा तुम्हारे ‘मैं’ की बढोत्री का नाम नहीं है, ‘मैं’ के विगलन का नाम है|

जिसको तुम बोलते हो ‘मैं’, जब वो पूरा हटता है तब जो विराट शेष रहता है, तब जो असीमित ‘मैं’ आता है, वो परमात्मा है| क्षुद्रता को ही अगर बचाने लग गये, तो विराट को कैसे पाओगे? तुच्छ को ही व्रहद समझ लिया तो, व्रहद कभी प्रकट ही नहीं होगा| अब गौर करना कबीर ने जो कहा, उसमें तुमने अपनी ओर से जो जोड़ा, जाओ मन से पूछो, ‘’काहे को जोड़ा?’’ जाओ पूछो|

वक्ता: बेटा, मन तैयार बैठा है! बेटा, मन के आगे कौन? कबीर| कबीर नहीं टिक पाएँगे, मन के आगे! मन ऐसा है कि सौ कबीर को पछाड़ दे| वो अपने से बड़ी सत्ता किसी की मानता ही नहीं है| इतनी बार कबीर तुम्हें और क्या सिखाते रहते हैं? क्या सिखाते रहते हैं? ‘माया तो ठगनी बड़ी,’ ठगलीन है| और खूब हँस रहे होंगे कह रहे होगे “मैं ही सिखाता हूँ, माया ठगनी बड़ी और मेरे ही पदों को गाते समय ठग लिए गये|’’ वो बता के थोड़ी आएगी, ‘’ हेलो, माया कालिंग |’’ वो अपना परिचय देके थोड़ी आयेगी, ‘’ नॉक- नॉक, माया हियर |’’ वो ऐसे ही आती है, धीरे से कहीं से सरक आती है, पता भी नहीं चलता| हालत अभी है, माया जैसा नचाती है, नाच बैठते हो, और कह क्या रहे हो? दावा क्या कर रहे हो?

श्रोता: माया को छोड़ दिया|

वक्ता: यहाँ पेड़ो में इधर-उधर, हँस-हँस के बावली हो रही होगी|

वक्ता: एक ही बात सीखो! मन पर दबाव पड़ रहा है और वो बैचेन है, छटपटा रहा है, भाग के निकल जाना चाहता है और ये खतरे का लक्षण है| अभी तो सावधान कर सकता हूँ, पर हमेशा तो कोई नहीं रहेगा पकड़ने के लिए, तो थोड़ा सा सतर्क रहना| जब दिख जाए कि चूहा भागने के लिए बेताब है, तो समझ जाना चाहिए कि अब वो कुछ भी करेगा, कही भी छलांग मारेगा, कुछ भी कुतर देगा| चूहा है ना, ये बेताब है छटपटा रहा है, उसके चारों तरफ तुमने दीवार खड़ी की है, एक कबीर की दीवार है, एक रिभु की दीवार है, एक तरफ रमण को खड़ा कर दिया है, शाम को बुल्लेशाह भी आ जाएँगे| अब वो घिर गया, वो छटपटा रहा है, भागूँ कैसे? कुछ भी करेगा, सतर्क रहो|

श्रोता : माया, गुरु से भी बचाती है?

वक्ता: कितनी बार कहा है जहाँ से रौशनी आ रही होगी, माया सबसे पहले तुम्हारे लिए वो दरवाजा बंद करेगी| जहाँ से रोशनी आ रही है, माया सबसे पहले, तुम्हारे लिए वही दरवाजा बंद करेगी ना?

श्रोता: और फिर रोशनी को डिफीट कर देगी आखिरी में|

वक्ता: और वो खुद तो आके नहीं बंद करेगी| अपने हाथो बंद करेगी? वो तुम्हारा ही चित्त ऐसा कर देगी कि तुम खुद ही वो दरवाजा बंद कर दोगे| इसी को तो कहा गया है *‘*विनाश काले, विपरीत बुद्धि’| ‘जापे हरि विपदा दीन्ही, ताकि मति पहले हर लीनी’, वो बड़े मज़ेदार तरीके से कहा गया है| कहा है कि, ‘’वो अपने उपर दोष लेता ही नहीं; कि मैंने कष्ट दिया किसी को|’’ उसको जिसे कष्ट देना होता है, पहले उसका दिमाग खराब कर देता है या ये कह दो कि जिसका दिमाग ख़राब होता है, उसे ही कष्ट मिलता है| ऐसे भी कह लो कि भेजा ख़राब होने का ही दूसरा नाम कष्ट है|

श्रोता: इसीलिए इस कैंप में तो मैं आपके आस-पास थोड़ा सा रहने की कोशिश कर रह रही हूँ| पर इससे पहले कितना डर लगता था| कोशिश करती थी कि दूर-दूर ही रहूँ|

वक्ता: जिन, जिन को मुझसे डर लगा है वो उसी डर के हाथों साफ़ हुए है|

श्रोता: डर भी सही शब्द नहीं है|

वक्ता: हाँ, मैं समझ रहा हूँ, समझ रहा हूँ|

श्रोता: मैं देखती थी, कुछ-कुछ बच्चे हैं, जो बहुत ज़्यादा सर के पास रहते हैं| मुझे लगता था कितनी आसानी से ये सर के पास रहते हैं, कितना अच्छा लगता है पर मैं कोशिश करती थी, मुझसे नहीं होता था तब|

श्रोता: जैसे हमने अभी इस्तेमाल किया वो हम में है, हम पूरे हैं, लेकिन ये भी तो है ये परम, अल्टीमेट ये हमारे लिए अभी शब्द हैं, अभी उतरे नहीं है, हम समझ पाए नहीं है| इसलिए बड़ा लूज्ली इस्तेमाल हो जाता है इनका|

वक्ता: हाँ, बिलकुल तुम लोग जब कई बार करते हो तो मैं बताता हूँ उसकी जो उसकी एक्सैक्ट फीलिंग होती है, वो क्या होती है| जैसे कि तुम्हें पता भी ना हो, तुम्हारे सामने कोई बहुत साफ़ ऊँचा आदमी खड़ा हो और मुझे दिख रहा है कि तुम अनजाने में ही उसकी बेइज्ज़ती किये जा रहे हो| उसे फ़र्क नहीं पड़ता, वो बोलेगा नहीं लेकिन…

श्रोता: सर एक उदाहरण माइंड में आया कि जैसे कभी-कभी होता नहीं है कि किसी की बी.ऍम.डब्लू खड़ी रहती है, और हम उसके सामने खड़े होकर फोटो खिंचा रहे हैं|

(सब हँसते है)

वक्ता: अरे, वहाँ तो तुमने फिर भी उसकी कुछ औकात रखी, अपनी गिराई| फोटो खिंचाते हो तो तुम अपने को छोटा बनाते हो| बहुत फिज़िकल चीज़ होती है जिस समय, जिस क्षण में थोड़ा भी रीअलाइज़ करते हो — पूरा नहीं कह रहा हूँ, थोड़ा भी रीअलाइज़ करते हो — ना ‘*दा इम्मेंसिटी व्हाट यू आर टॉकिंग ऑफ़, देन दा बॉडी इटसेल्फ शिवर्स*’ इट्स अ फिजिकल फीलिंग, इट्स सो प्रेजेंट इन योर एन्टायर सिस्टम| दा माइंड, इवन दा फ़िज़िकल मेकनिज्म एक्सपीरिएंसेस इट, इट इज हैप्पनिंग| मैं ये नहीं कह रहा हूँ, तुम ज़बरदस्ती अब उसको कहो इट इज़ हैप्पनिंग, इट इज़ हैप्पनिंग, आई ऍम एक्सपीरिएंसिंग इट, इट जस्ट हैपेंस| उसके साथ लूज़ली नहीं बात की जाती, खिलवाड़ नहीं किया जाता है| कोई मर्यादा की बात नहीं है, कि बात है कि नहीं किया जाता|

श्रोता: औकात नहीं है|

वक्ता: हाँ, मतलब नहीं करते हो, जब रीअलाइज़ करते हो, तो करोगे नहीं| यू आर टॉकिंग ऑफ़ समथिंग बिग्गर देन बिग्गेस्ट |

श्रोता: सर, हम इतना ज़्यादा छोर ढूंढने के आदि होते हैं कि जब मैडिटेशन अगर कोई इंसान करे तो ऐसा लगता है अँधेरे के अंदर अँधेरा, अँधेरे के अंदर अँधेरा एक डार्कनेस जो अंतहीन है, मतलब वो चले जा रहा है और अचानक से उसमें घबराहट हो जाती है कि, ‘’कहाँ जा रहा है ये, कितने अंदर तक जा रहा है और फिर बेचैनी बिकॉज़ वहाँ पर भी छोर नहीं दिखती है तो..

श्रोता: सर आज सुबह मैं सोच रहा था कि जो भी कुछ भी है मैं अपने बारे में जो सोचता हूँ, दूसरों के बारे में सोचता हूँ, जो दूसरों से सुनता हूँ, सब बेमतलब है| जो आन्सर्स मैं ओशो से, आपसे सुनता हूँ, सब बेमतलब है जो भी कुछ है सब बेमतलब ही बेमतलब है और इस टाइम मैं सोच रहा था वो भी अहंकार की चाल है या एक्चुअली में सब बेमतलब है क्यूंकि मेरे को ये ही लग रहा था कि कहीं न कहीं सब बेमतलब ही है, जो भी मेरे फीलिंग्स डिज़ायर्स है, जो भी दूसरों से सुन रहा हूँ|

वक्ता: देखो, जो तुम कह रहे हो ठीक यही बात अभी रिभु गीता में पढ़ोगे कि ये सब नहीं है, लेकिन दो जगह है, जहाँ से ये तुम कह सकते हो कि कुछ नहीं है| एक तो ये कि विराट है, उसको देखा और फिर समझ आ गया कि बाकी सब कुछ मूल्यहीन है| समझ में आ रही है बात?

श्रोता: नहीं, कोशिश कर रहा हूँ|

वक्ता: कुछ इतना बड़ा दिख गया है कि बाकि सब कुछ ना बराबर हो गया है| एक तो ये है कि सत्य के सामने भ्रम फिर नहीं है, तो नहीं यहाँ से आया| कहाँ से? सत्य के सम्मुख भ्रम नहीं है| सूरज है तो अँधेरा?

श्रोता: नहीं है|

वक्ता: ये एक नेति-नेति है| और दूसरी ये है और वो भी ठीक है, वो गलत नहीं है कि अँधेरा है तो बिलकुल तथ्य है ये बात, कि अँधेरा है तो, सूरज नहीं है| अब तुम देख लो तुम्हें किसको नहीं बोलना है| अंतर समझ पा रहे हो? एक बात होती है कि प्रकट हो गया सूरज अब जितने अँधेरे के भूत थे, वो सब नहीं हैं| अंधेरो की परछाईयाँ, अंधेरों के भ्रम वो सब?

श्रोता(सब एक साथ): नहीं है|

वक्ता: और दूसरा ये है कि मैं ऐसे अँधेरे में जी रहा हूँ कि सूरज नहीं है और तुम्हारी बात गलत नहीं है, बात अभी बिलकुल ठीक कह रहे हो| किसको नहीं बोलना है, अब तुम ये देख लो|

श्रोता: एक छोटा सा उदाहरण है, एक जो बच्चा पेड़ पर चढ़ा होता है और बस वो कहीं ऐसी ब्रांच में होता है, जो उसे नहीं पकडनी चाहिए थी, कोई और पकड़नी चाहिए थी| और उसका पापा उससे कहता है, ‘’वो मत पकड़ो’’ और इतने में वो गिर जाता है| उसने ये तो बताया नहीं कि कौन सी पकड़ो|

वक्ता: देखो, क्या होता है| जब तुम किसी छोटी चीज़ को पकड़ कर बैठे होते हो ना, तो तुम्हारा बड़ा स्वार्थ जुड़ जाता है, ये कहने में कि बड़ा है ही नहीं क्यूंकि तुम्हें अपने उस छोटे को बचाना है, अपनी छोटी सी दुनिया को बचाना है; किसी भी तरीके से बचाना है| बड़ा स्वार्थ जुड़ जाता है, ये कहने में कि नहीं है और उस समय पर सबसे मुश्किल काम ये होता है कि कैसे तुम्हें बड़े का दर्शन कराया जाए| क्यूंकि मन ही मन तुम जानते हो बड़ा दिखा तो छोटा छिना| अब तुम खुद ही सहयोगी नहीं रहोगे कि दिखाया जाए, तुम्हारा ही समर्थन नहीं रहेगा| जैसे कि मरीज़ का ही समर्थन, इस बात को ना हो कि उसका इलाज है| अब मरीज़ का बड़ा मुश्किल है| तुम खुद ही कुछ न कुछ ऐसी तरकीब निकालोगे कि छोटा हट ना जाए| क्षुद्रता हट ना जाए, बड़ा आने के रास्ते ब्लॉक करोगे| अब कल तुमने इतनी बड़ी रीडिंग करी है, जिसमें साफ़-साफ़ था, एक पूरी हैडिंग ही थी ‘*दा लुक*’| वहाँ बैठने का, जहाँ से कोई संपर्क नहीं हो सकता है, कोई तुक नहीं हो सकता है, पर ये मन की साजिश है, पता है, यहाँ सामने आओगे तो दिक्कत होगी| ये वहाँ बैठी है, कह दिया, ‘’हाँ अब सामने आने में कोई दिक्कत नहीं है|’’ वहाँ बैठना कुछ भी और नहीं है पर इतनी भी सतर्कता नहीं है अपने प्रति की जान पाए कि माया खेल-खेल रही है| कल इतना लम्बा पढ़ा है ना उसका कोई अर्थ नहीं है, कुछ समझे नहीं कुछ जाना नहीं|

कुछ ऐसा भी नहीं है कि अचानक से मैंने बोलना शुरू कर दिया है, ‘’बोलते बोलते भी अब पंद्रह बीस मिनट हो रहे हैं|’’ तुम ज़रा भी अगर अपने मित्र हो, तुम ज़रा सा अगर अपने आप को समर्थन दो तो तुम वहाँ छुपोगे थोड़ी पीछे और मैं दोहरा रहा हूँ: माया बोल के नहीं आएगी कि, ‘’मैं माया हूँ|’’ वो तो ऐसे ही रहेगी छोटी-छोटी बातों में इधर-उधर, छुप जाओ| ‘ माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय, भागता के पाछे पड़े, सम्मुख भागे सोये’ | माया है उसका प्रमाण ही ये है कि वो सत्य से भागेगी| उसकी पीठ के पीछे रहेगी हमेशा और जो मिल नहीं रहा है, जो छगम है, जो भागा जा रहा उसके पीछे-पीछे भागेगी| किसी तरह उसको हासिल कर लूँ, ये हासिल कर लूँ, वो हासिल कर लूँ तरक्की-पैसा, ये, वो, खुशियाँ उनको हासिल कर लूँ| ‘भगता के पीछे पड़े सम्मुख भागे सोये|’ जो सम्मुख है, उससे बचेगी, उससे भागेगी ‘माया छाया एक सी’, माया और छाया दोनों की प्रक्रति एक जैसी है| छाया हमेशा सूरज से विपरीत चलती है, छाया कभी सूरज की तरफ़ नहीं देखोगे| जहाँ प्रकाश है, छाया उससे उल्टी भागेगी| ‘माया-छाया एक सी’, इन्हीं जरा-जरा सी बातों में तो सतर्क रहना होता है ना| जिंदगी कोई बड़ी बातों का नाम नहीं होती है, ये हम कितनी बार चर्चा कर चुके हैं|

कोई बैंड बाजा बजा के ये कहने नहीं आयेगा कि अब बड़ी घटना घटने जा रही है, आप सब सावधान हो जाएँ| चूकें ना, बड़ा मौका आ रहा है फाइनल एग्जाम है, इसको मत मिस करिएगा भले ही आपने पूरा सेमेस्टर आपने बर्बाद किया हो| जिंदगी में ऐसा नहीं होता, जिंदगी में जो मैकेनिज्म है, वो बड़ा निरंतर और गतिशील है| वहाँ लगातार-लगातार परीक्षा है, प्रतिपल और हर पल एक छोटा सा होता है, उसकी क्या सत्ता है और उसके अलावा किसी की सत्ता नहीं है| हर पल बहुत ज़रा सा होता है, उसको चूके तो सब चूका और उसको चूकना बड़ा आसान है, क्यों? इतना सा तो है चूक गए पर जब चूकते हो तो ये पूंछ लो, ‘’इस इतने से के अलावा जिंदगी में है क्या|’’ ‘’ये तो है इतना ही सा है,’’ बात बिलकुल ठीक है, पर इस इतने से के अलावा जिंदगी में और है क्या| इसको चूका तो बचा क्या?

श्रोता: सर, आपने एक बार कहा था कि माया भी फिज़िकल पार्ट है, तो माय कहाँ है फिर?

वक्ता: माया किसके लिए है? ये मत पूछो क्यों है, माया कोई वस्तु नहीं है कि वो है ही| माया किसके लिए है ये पूछो ना? सबके लिए नहीं है माया| माया का अगर अपना कोई वजूद होता, तो सबके लिये होता ना, नहीं होता| बात समझो क्या कह रहा हूँ, माया अगर वास्तव में कुछ होती, तो सब के लिए होती| माया किसके लिए है?

श्रोता: चालाक मन के लिये|

वक्ता: बस उसी का नाम माया है| ये मत पूंछो माया क्यों है, सवाल पूंछो माया किसके लिये है| जो भ्रमित है, सोया हुआ है, अहंकार युक्त है, बस उसके लिये है वरना है ही नहीं| माया है कहाँ? माया है कहाँ?

श्रोता: राजा को राजा बनाये रखना ही माया है|

वक्ता: सपना किसके लिये है?

श्रोता (सब एक साथ): जो सो रहा है|

वक्ता: अब तुम पूछो सपना क्यों है? सपना क्यों है? सपने में बहुत कुछ चल रहा है, तुम पूंछो सब क्यों है सब क्यों है किसके लिए है?

श्रोता (सब एक साथ): जो सो रहा है|

वक्ता: जिस क्षण जगे, उस क्षण सपना नहीं है, माया नहीं है|

~ ‘शब्द-योग सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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