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लेख
गुलामी और डर हैं क्योंकि लालच है
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: दबाव तो आप तभी बर्दाश्त करते हो जब उसमें मुनाफा दिख रहा हो। मुनाफा जिसको चाहिए वो वही है जो सोचता है कि अभी कुछ कमी है।

सत्र के आरंभ में ही हमने कहा था कि अहंता की परिभाषा ही यही है कि वो हमेशा कुछ-न-कुछ कम पाती है, उसे कहीं कुछ-न-कुछ खोट नज़र आती है। जहाँ कमी दिखेगी, जहाँ अपूर्णता दिखेगी, वहाँ लालच का आना लाज़मी है। अब कोई भी तुम्हारा मालिक बन सकता है। जो भी तुमको ये आश्वासन दे देगा कि, "जिस चीज़ की तुम्हारी ज़िन्दगी में कमी है वो मैं पूरी कर दूँगा" वो ही तुम्हारी नकेल पकड़ लेगा।

फिर तुम कहोगे उसने तुमपर दबाव डाल दिया है। दबाव कोई किसी पर नहीं डाल सकता। तुम जबतक स्वयं न चुनो गुलामी तब तक कोई तुम्हें गुलाम बना नहीं सकता और आगे सुनना, कि तुम जब भी चुनोगे गुलामी ही चुनोगे। चुनना ही गुलामी है। अपनी नज़र में तो हर कोई मुक्ति ही चुन रहा होता है। आज तक किसी ने जानते-बूझते गुलामी नहीं चुनी। हम सब होशियार लोग हैं। हम गुलामी यदि चुनते भी हैं तो एक माध्यम की तरह, हम कहते हैं, “आज गुलामी चुन लो, इसके माध्यम से कल बड़ी आज़ादी मिल जाएगी”।

हम बड़े अक्लमंद हैं, हम बड़ी योजनाएँ जानते हैं। चुनतेले (चुनने वाले) हमीं हैं, फिर हम कहते हैं, “ये क्यों हो रहा है?” याद रखना अगर कुछ भी ऐसा हो रहा है, सूत्र की तरह पकड़ लो इसको, जीवन में अगर कुछ भी ऐसा हो रहा है जो कष्ट का कारण बन रहा है तो तुमने उसको चुना है। और जीवन में जो भी है जो तुम्हें मुक्ति देना चाहता है, आराम देना चाहता है, वो तुम्हारे बावजूद है। तुम्हारा बस चलता तो तुमने उसको कब का मिटा दिया होता, तुम्हारा बस चलता तो या तो तुम भाग गए होते या उसे भगा दिया होता। तो जब भी कुछ बुरा लगे पूछा ही मत करो, जान जाया करो, “मेरी ही करतूत है, मैंने ही किया होगा।“ और जब भी कहीं विश्राम मिले तब भी पूछ्ना ही मत, कहना, “ बड़ा चमत्कार है, मेरे रहते मुझे विश्राम मिल गया।“

शिकायतें तो वही करे न जिसने कुछ किया हो। तुम कहते हो, “नहीं साहब, भुगत रहे हैं इसलिए शिकायत कर रहे हैं।“ कर्ता हुए बिना भोक्ता कैसे हो गए तुम? तुम भुगत रहे हो इसी से प्रमाणित हो जाता है कि पहले तुमने कुछ किया ज़रूर था, जो करेगा वही तो भुगतेगा। तो शिकायत ही प्रमाणित करती है कि कहीं पर तुम बनकर बैठे थे राजा, कि “ मैं हूँ सिंहासन पर, मेरा काम है निर्णय लेना”। खूब अपने जीवन पर आदेश पारित कर रहे थे। “अब ये होना चाहिए, अब ऐसा करेंगे, चलो अब वहाँ ज़मीन खरीदते हैं, चलो अब उससे दोस्ती बढ़ाते हैं, चलो अब उससे दुश्मनी करते हैं, चलो अब फलानी जगह नौकरी करें, चलो वहाँ जाकर ब्याह कर लें।“ ये सब कर आए, तब तो तुम्हीं राजा थे, अब कहते हो, “ जीवन, हाय जीवन!”

पर अभी भी निवृत्ति बहुत आसान है, वही मत रहे आओ जिसने करा था। समझो इस बात को, भुगतता वही है जो करता है, वही मत रहे आओ जिसने करा था, भुगतना बंद हो जाएगा। अगर भुगत रहे हो इसका मतलब अभी भी वही हो जो कर रहा था। पुराना जितना किया-धरा है सब साफ़ हो जाएगा, सारे कर्म से मुक्ति मिल जाएगी, बस वही मत रहे आओ जिसने किया था।

मुक्ति के लिए तुम्हें बदलना नहीं है, तुम्हें मिटना है। “मैं वो हूँ ही नहीं जिसने किया था। जब मैं हूँ ही नहीं जिसने किया था तो मैं क्यों भुगतूँ?” जब तक तुम दावा करते रहोगे, “ साहब मैंने ही तो किया था”, तब तक कर्मों का जो फल है वो भी फिर तुम्हें ही आकर पड़ता रहेगा। पर तुम्हें अपने करने में बड़ा अभिमान है, “हमारी पसंद थी साहब इसलिए किया था!”

मान लो न साफ़-साफ़ कि तुमने नहीं किया था, हो गया था धीरे से।

गुसलखाने में फिसल जाते हो तो कहते हो क्या कि “हमने किया था”? जीवन हमारा ऐसे ही है, गुसलखाने में फिसलना। नंग-धड़ंग, धड़ाम, चित पड़े हुए हैं। फिर कहते हो कि “चुनाव किया है”? हाँ? गौर से अगर आप देखेंगे तो जीवन में वो सब कुछ जो बड़ा-बड़ा लगता है, जो पारिभाषिक लगता है, जिसने जीवन की दिशाएँ ही उलट-पुलट दीं, वो सब कुछ गुसलखाने में फिसलने जैसा ही तो है। कहीं जा रहे थे, फिसल गए, अब पूरा खानदान चल पड़ा है। पप्पू पूछ रहा है, “ पापा, हम कहाँ से आए?” उसका सच्चा जवाब एक ही है, “ बेटा, गुसलखाने में फिसल गए थे, उस दिन ना फिसलते तो ये पूरा खानदान ही ना खड़ा होता।“

(श्रोता हँसते हुए)

अब उसके साथ तुमने अपना कर्ता-भाव जोड़ रक्खा है, उसके साथ तुमने अपना होना जोड़ रक्खा है, उसके साथ पूरी पहचान जोड़ रक्खी है। "हम हैं कौन? 'पप्पू के पापा'।" सीधे-सीधे हाथ जोड़ लो, माफ़ी माँग लो, हो गया।

बाज़ार में जा रहे थे, मन ख़राब था, किसी से लड़ लिए, अब क्यों मुकदमे-बाजी में पड़े हुए हो? गुस्सा तुमने किया था वास्तव में या बस हो गया था? जवाब दो। बस हो गया था न? अगर हो गया था तो पल्ला झाड़ लो उससे, कह दो कि “भाई पता नहीं क्यों, कैसे, हो गया था, हमें करनी ही नहीं है मुकदमे-बाजी। न हमने गुस्सा किया था, न हमें मुकदमा करना है।“ मुकदमा तो तब करें न जब गुस्सा हमने किया हो। जब कर्म ही नहीं हमारा तो कर्मफल पर क्या दावा? बात ख़तम।

प्रश्नकर्ता: लेकिन फिर रिपीट (दुहराना) हो जाता है।

आचार्य: तो फिर हाथ झाड़ लो। गुसलखाने हैं ही ऐसे।

(सभाजन हँसते हैं)

फिसलोगे तुम बार-बार, बस कोई फिसलना…

श्रोतागण: आखिरी न हो।

आचार्य: जो पूरी संरचना है गुसलखानों की और तुम्हारे तलवों की, ये है ही इस तरह कि जब ये दोनों मिलेंगे तो करीब-करीब एक रासायनिक प्रक्रिया होगी। जिसमें आवाज़ भी उठेगी, जिसमें ऊर्जा भी बहेगी, जिसमें चोट भी लगेगी।

अतीत से और कोई मुक्ति नहीं हो सकती; हाथ जोड़ कर माफ़ी माँग लो, “धोखे से हो गया था, मुकदमा वापस लेता हूँ, तुम भी वापस लेलो।“ और वो न ले वापस, तब भी कहे कि “नहीं, सज़ा भुगतो, उस दिन बाज़ार में गुस्सा करा था तो अब सज़ा भुगतो।“ तो सज़ा से गुज़र जाओ।

कह दो कि “जब हम करने वाले नहीं थे तो सज़ा से गुज़रने वाले भी तो हम नहीं हो सकते। जिसने किया था वो सज़ा भुगत रहा है, उसे भुगतने दो, हम मौज ले रहे हैं।“

अब पप्पू है तो पप्पू के पापा भी होंगे, पप्पू के पापा को झेलने दो पप्पू को, तुम ज़रा हट कर खड़े हो जाओ। अपने लालच को तलाशो। दासता से, बेड़ियों से, दबाव से मुक्त होना है तो औज़ार मत तलाशो, ताकत मत तलाशो। लालच तलाशो, लालच कहाँ है। क्या पाने की उम्मीद में अभी भी अटके हुए हो?

कर्म हमेशा कर्मफल की उम्मीद में होता है, कर्ता जी ही नहीं सकता बिना उम्मीद के। कर्ता से मुक्त होना है तो उम्मीद से मुक्त होना ही पड़ेगा। उम्मीद तलाशो, कहाँ है लालच? जहाँ लालच है वहाँ जानलो "यहीं है, यहीं फँसा हुआ हूँ", और आगे बढ़ जाओ।

प्र: वो लालच हटेगा कैसे?

आचार्य: ये देखकर कि वो लालच ही बेड़ियाँ हैं, बेड़ियाँ बूरी लगती हैं अगर तो लालच भी बुरा लगेगा। उससे कुछ मिल रहा हो तो वो बना रहे।

प्र: ऐसे तो हमारे पास जो कुछ भी है वो सभी लालच है।

आचार्य: ठीक है।

प्र: किस-किस को हटाएँ?

आचार्य: तुम चुनोगे किस-किस को हटाना है? जिन्हें हटना है वो खुद हट जाएँगे, तुम पकड़ना बंद करो।

तुमने पंद्रह-बीस तरीके के दस्ताने हाथों में पहन रखे हों, फिर तुम कहो कि “इसमें पता नहीं चल रहा है असली कौन-सा है, नकली कौन-सा है, अपना कौन-सा है, बेगाना कौन-सा है।“ तुम तो उतारते चलो, जब तक दस्ताने होंगे उतरते रहेंगे, जब हाथ आ जाएगा उतरना बंद हो जाएगा।

जो पराए हैं वो तो खुद ही उतरने के इच्छुक हैं, तुम कोशिश कर-करके उनको पकड़े रहते हो। जो अपने हैं वो अपने-आप हटेंगे ही नहीं। तुम कितनी ही कोशिश कर लो हाथ उतारने की, हाथ थोड़ी उतर जाएगा दस्ताने की तरह। जो उतर सकता है उसे उतर जाने दो। जो अपना है, जो आत्यंतिक है, जो हार्दिक है, वो कभी खो नहीं सकता।

तो ये सवाल ही मत पूछो कि “क्या पकड़ें, क्या छोड़ें?” तुम तो सिर्फ़ छोड़ो। जो तुम्हारा अपना है वो तो वैसे भी नहीं छूटेगा, तो तुम तो सिर्फ़ छोड़ो।

कमरे में झाड़ू मारती हो तो ये शक भी हो जाता है कभी कि कहीं ऐसा ना हो कि दीवारें भी झाड़ू मार कर निकाल दो? अरे झाड़ू मारोगे तो कचरा ही तो बाहर जाएगा, दीवारें थोड़े ही चली जाएँगी, ज़मीन थोड़े ही चली जाएगी। तो चुनाव थोड़े ही करना है कि चुन-चुन कर झाड़ू मारें, तुम तो मारो, हपक कर मारो, सारा कूड़ा बाहर कर दो, जो बचेगा वो सफ़ाई है।

प्र: कूड़ा तो रोज़ ही आता है।

आचार्य: तो रोज़ मारो, रोज़ कई काम करते हो। जहाँ कहीं भी मलिनता है वहाँ मल की सफाई भी रोज़ ही होती है। तो झाड़ू मारने में क्या परहेज़ है? कुछ करने के लिए ही नहीं झाड़ू मारना होता।

घर में आप खाना बनाती हैं? जो गंदे बर्तन होते हैं उनमें खाना बना लेती हैं? पहले उन्हें क्या करती हैं?

प्र: साफ़।

आचार्य: साफ़। और बात यहाँ खत्म नहीं हो जाती। बर्तन साफ़ करके रख दिए, साफ़ बर्तन रखे हुए हैं, एक- हफ़्ते के बाद आप कैंप से लौटीं। अब आप उन्हीं बर्तनों में खाना बनाएँगी?

प्र: नहीं।

आचार्य: तो अब साफ़ बर्तन को क्यों धो रही हैं?

प्र: वो गंदे हो गए दोबारा।

आचार्य: बिना कुछ करे भी गंदगी आ जाती है, कोई ज़रूरी नहीं है कि आपने गंदगी को आमंत्रित किया हो। रक्खे-रक्खे भी धूल पड़ जाती है, सफ़ाई रोज़ आवश्यक है। रक्खे-रक्खे गंदा हो जाएगा। जो रोज़ सफ़ाई की प्रक्रिया से गुज़रने को तैयार न हो, उसे फिर मलिनता का दंड भुगतना होगा।

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