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लेख
घूँघट के पट खोल रे || आचार्य प्रशांत (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
21 मिनट
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वक्ता: मन जब भी विचार करता है कि धन्यवाद देना है, प्रेम उठता है। तो मन को उसको एक नाम देना ही पड़ेगा। यह तो कहा ही गया है कि तुम ही हो माता, पिता तुम ही हो और यह भी कहा गया है ‘पिया’। जो मन पिया शब्द का प्रयोग कर रहा है वह ऐसा मन है जिसको अपने रोज़ के काम धंधों की व्यर्थता समझ में आ गयी है, जो एक प्रकार की बेचैनी में जी रहा है, एक अधूरेपन का एहसास है उसको, कुछ कमी है, कुछ खटक रहा है, दुनिया रूखी लगती है दुनिया से जो भी मिला है वो अपूर्ण लगता है। पहले जिसको प्रेम समझता था वो भ्रम है, आसक्ति है यह उसको दिख गया है। जो झूठा है, जो प्रेम नहीं है वह दिख गया है, जो सच्चा है उसकी तलाश है और जो वास्तविक प्रेम है उसकी प्यास है। तब जो रूप है जिसको मन प्रयोग करता है वो है पति का, प्यारे का, पिया का। यह प्रेम का भूखा मन है। जो मन बोध का भूखा होगा वह प्रेम नहीं कहेगा, पिया नहीं कहेगा, वह कहेगा, ‘अँधेरा दूर होगा’, वो कहेगा, ‘सत्य के दर्शन हो जाएंगे’ और यह एक दूसरे प्रकार का मन है । यह मन हम सबके भीतर होता है। शास्त्रीय तौर पर इसको स्त्री का मन माना गया है, पर स्त्री हम सबके भीतर है। कबीर ने कहा है कि जब तक शरीर दो हैं तब तक प्रेम हो कैसे सकता है और यह बहुत भूखा मन है। यह छोटे मोटे प्रेम से राज़ी ही नहीं होता, इसे पूरा चाहिए। यह कहता ही नहीं है की दो चार टुकड़े दाल दो और मैं मान जाऊंगा, यह कहता है पूरा चाहिए, इसीलिए यह जो सांसारिक रिश्ते है इनसे इसका पेट भरता नहीं, इसे पूरा चाहिए। संसार में भी पिया होते हैं, प्रियजन होते हैं, पति होते हैं, यह उनको यह मानता नहीं है।

“कबीरा रेख सिंदूर की काजल किया न जाए, तन में मन में पिया बसे दूजा कौन समाए”

यह जो प्रीतम है जिसके लिए सिंदूर डालती हूँ और जिसके लिए काजल लगाती हूँ यह छोटा है, यह तुच्छ है। इसके लिए कहाँ जगह बचेगी? दिख गया कि यह उस परम के समक्ष कुछ भी नहीं है। यह मुझे क्या देगा यह खुद भिखारी है। आपको इसमें जाना चाहिए कि संतो ने उसे, परम को, अक्सर पति के रूप में देखा है। पिता रूप में कम देखा गया है, पति रूप में ज़्यादा देखा गया है। क्यों? आपको पूछना होगा। यह प्रेम का भूखा मन है और प्रेम का मतलब होता है एक हो जाना, यह डूब जाना चाहता है। य़ह परम को पति के रूप में देखता है ।

प्रेम की तलाश हम सबको है। कोई नहीं होगा ऐसा जो यह कह सके की छक कर के पी लिया। कोई नहीं कहेगा की जितना चाहिए था उतना मिल गया प्रेम, अब चाहिए ही नहीं। दुनिया और दुनिया के लोग हमें जितना भी प्रेम दें, वह कम ही पड़ता है और जो मिला भी होता है, मैं यह गहराई से जानता है कि वो शर्तों पर मिला है। वो शर्तें आज पूरी होनी बंद हो जाएं तो प्रेम की धारा बंद हो जाएगी, तो वह प्रेम कोई वास्तविक प्रेम है ही नहीं। बेशर्त, अखंड, वृहद प्रेम की प्यास सबके मन में है। कोई कितना दावा कर ले कि मुझे जितना मिलना था मिल गया, नहीं मिला नहीं है। मिला नहीं है और इसका आपको एहसास भी है कि मिला नहीं है इसीलिए जीवन बड़ा बेचैन रहता है। यह जो मन है यह जान जाता है की मिला तो नहीं है और जगत से मिलने की संभावना भी नहीं है। जगत के स्रोत तक जाना पड़ेगा, उस परम तक जाना पड़ेगा तब यह मिल सकता है। तब यह अपनी सारी प्रेम की प्यास उस परम की ओर मोड़ देता है। कहता है, ‘इधर-उधर का क्या अपनाना तुम ही मेरे हो जाओ। दो चार रुपया क्या माँगना तुम जो सबसे बड़े धनी हो तुम ही मेरे हो जाओ।

अच्छा, संतो ने उसे धनी नाम से भी सम्बोधित किया हैकि यह दो-चार रूपए की भीख क्या मांगता रहता कि तुम प्यार दे दो, थोड़ा सा तुम दे दो। जहाँ से परम प्रेम मिलेगा हम वहां जाएंगे, मिलेगा तो उसी से पूरा खज़ाना जिसके पास है। हम तो उसी के पास जाएंगे। ठीक है? जिसने ही उसके पास जाने की कोशिश की उसने जाना कि पास जाना तो बड़ा ही सरल है क्योंकि वह सदा उपलब्ध है। वह अपनी सारी सम्पदा के साथ खड़ा है कि ले लो, लूट लो। जितना चाहिए उतना ले लो। जितना मन में आए लिए जाओ। मै ही तैयार नहीं हूँ, मैंने ही घूंघट डाल रखा है। घूंघट क्या ? घूंघट वह जो आपकी आँखों को सीधा-सीधा देखने न दे। जो प्रकट सत्य को आपसे छुपा दे उसका नाम है ‘घूंघट’। उसी का नाम है ‘पर्दा’। वही पर्दा है जो हमारी आँखों पर पड़ा है। यह अहंकार का पर्दा है। जिसको भी हम देखते हैं उसको हम अहंकार के फ़िल्टर के माध्यम से देखते है, वह ही घूंघट है। उसी को कह रह हैं कबीर के ‘घूंघट के पट खोल तुझे पिया मिलेंगे’। अहंकार हटाओ आँखों के सामने से पिया सामने खड़े हैं। ‘तू पिया से ही लज्जा रही है? तूने घूंघट किसके लिए ओढ़ रखा है? तू यह शर्म किस से कर रही है’?

कबीर ही हैं जो कह रहे हैं, ‘नदी किनारे मैं खड़ी ज्यों जल मैला होए, मै मैली पिया उजले मिलन कहाँ से होए’। नदी सामने बह रही है, नदी है जीवन । नदी किनारे मे खड़ी हूँ जैसे पानी ही मैला है, मै नदी मे तैयार नहीं हूँ कूदने के लिए। और अक्सर हम में से जो लोग पानी में कूदने के लिए तैयार नहीं होते हैं उनका तर्क यहीं होता है की पानी में कोई दोष है। आगे कबीर कह रहे हैं कि मैं मैली, पिया ऊजले मिलन कहाँ से होए? मे मैली हूँ, पूरा पूरा एहसास है कि अरे मे मैली हूँ, पिया साफ़ है, मिलन होगा कहाँ से। मिलन नहीं हो रहा है तो उसके लिए तो मेरा मैल ही ज़िम्मेदार है न। मेरा मैल, मेरा घूंघट बड़ी ईमानदारी की बात है यह। कुछ नहीं मिल रहा है अगर तो किसी और को दोष न देना। तुम खड़े हो नदी के किनारे, तुम इंकार करते हो, तुम बहने से इंकार करते हो। पिया सामने खड़े हैं घूंघट तुम ङाल के खड़े हो और दोष दे रहे हो कि जीवन से मुझे कुछ नहीं मिला। जीवन सदा प्रस्तुत रहा है, शर्तें तुमने सामने रखीं हैं, तुमने कहा है कि ये गड़बड़ है, ये नहीं चाहिए, वो चाहिए। तुमने कभी ध्यान से देखा भी नहीं है। तुम्हारी आँखों में कीचड़ है तुमने उसे जल का कीचड़ मान लिया है कि नदी गन्दी है।

‘नदी किनारी मैं खड़ी ज्यों जल मैला होए, मैं मैली पिया ऊजरे मिलान कहाँ से होए’। तो मिलन नहीं हो रहा है तो उसकी एक ही वजह है कि मिलन तो उन्ही में हो सकता है जो कुछ-कुछ एक जैसे हो। रोशनी का और अँधेरा का कहाँ मिलन होगा और कैसे होगा? कुछ तो पिया जैसे हो जाओ न तब मिलन हो जाएगा। देखो पिया की ओर के वह कैसे हैं? वो दिए जा रहा है दिए जा रहा है, जो तुम्हारे जीवन में है वह उससे मिला है और उसे तुमसे किसी धन्यवाद की भी अपेक्षा नहीं है। तुम कभी बोल दो वह अलग बात है, वह भी तुम कभी बोलते नहीं। प्रार्थना भी जो तुम करते हो झूठी होती है। वह भी एक आचरण होती है कि सुबह उठ कर प्रार्थना कर दी, वह फिर भी दिए जा रहा है। तो वह ऐसा है कि जिसके पास इतना है कि वो लुटाए जा रहा है और तुम कैसे हो जो पा-पा कर भी भिखारी रहता है और जिसके मुख से धन्यवाद का एक शब्द भी नहीं निकलता। तुम्हारा मिलन कैसे होगा पिया से जब इतना अंतर है। वह वृहद है और तुम अपनी क्षुद्रताओं में सीमित हो। उस पर कोई अंतर नहीं पड़ता यदि पूरा अस्तित्व ही मिट जाए । आज प्रलय आ जाए उस पे कोई अंतर नहीं पड़ता, और तुम्हारे दो रूपए खो जाएं तो तुम घर सर पर उठा लेते हो। तुम्हारे जीवन में क्षुद्रताएँ भरी ही हुई हैं। उसने मुझे ऐसी नज़र से देख दिया, उसने मेरी दाल में नमक ज़्यादा डाल दिया। तुम्हारा जीवन इन बातों से भरा हुआ है और वह ऐसा है कि सब बना भी रहा है, सब मिटा भी रहा है। प्रति क्षण पृथ्वी जैसे हज़ारों गृह मिट रहे हैं, बन रहे हैं उसे कोई अंतर नहीं पड़ रहा, और तुम्हारे आँचल पर दाग़ लग जाता है तो तुम चिल्लाना शुरू कर देते हो। उसके लिए कहीं कुछ गम्भीर है ही नहीं और तुम्हारे लिए ज़िन्दगी बड़ी गम्भीर है, तनाव युक्त है। तो मिलन होगा कैसे पिया से?

कबीर ही कहते हैं कि “जो तू चाहे मुक्त को छोड़ दे सब आस, मुक्त जैसा ही हो रहे सब कुछ तेरे पास”। उसको चाहते हो तो उसके जैसे हो जाओ। जो उससे मिलने का इच्छुक हो, उसे उस जैसा होना पड़ेगा। वह निर्गुण है, हो जाओ न निर्गुण। वह निर्विशेष है और तुम विशेष होना चाहते हो। कहीं बैठो तुम्हे ज़रा सा मान-सम्मान न मिले, तुम रूठ जाते हो। और उसके मंदिर तुम रोज़ तोड़ते रहो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह कहता है, ‘तुम तोड़ क्या रहे हो? मैं कोई उस मंदिर में रहता हूँ ? रोज़ तोड़ो क्या अंतर पड़ेगा?’ तुम लगातार होने के लिए इच्छुक हो और होना का अर्थ इतना ही होता है कि सीमित होना, वह पूरी तरह मिट जाने के लिए भी राज़ी है और पूरा-पूरा बट जाने के लिए भी राज़ी है। वह लगातार पूरी तरह मिट जाने के लिए भी राज़ी है और वह इतना है कि पूरी तरह बटा भी हुआ है। वह सबको मिला हुआ है। तुम न मिटने को राज़ी हो न बटने को राज़ी हो। मन इतना छोटा है की वो बाँट नहीं सकता और अहंता की भावना इतनी तीव्र है की मिट नहीं सकते, तो मिलन कहाँ से हो पिया से? यही सब घूंघट है इसी को कबीर कह रहे हैं कि हटाओ ।

‘घट-घट में तेरे साईं बसे हैं, कटु वचन मत बोल रे’। कटु वचन मत बोलो किसी को, मत बोलो की तुम अभागे हो। अभागे वगहरा कुछ नहीं हो। आँख बंद करे बैठे हो बस। ‘घट-घट में तोरे साईं बसत हैं’, घट मतलब जो भी कुछ दिखाई दे रहा है। शरीर को भी घट बोलते हैं, जगत को भी घट बोलते हैं । एक एक कण में वही तो बसा हुआ है और कौन है? द एसेंस ऑफ़ एवरीथिंग। तुझे अगर दिख नहीं रहा अंधे तो दोष उसका है क्या? वह तो लगातार सामने बसा हुआ है न? जिधर देखेगा उधर ही वह है। उसके बाद भी पिया तुझे मिल नहीं रहे तो दोष किसका है? एक दूसरे मौके पर कबीर ऐसा कुछ कहते हैं कि अरी बाँवरी मिलने निकली है पिया से और तूने इतने घूंघट कर रखे हैं। पिया से ऐसे मिला जाता है इतने घूंघट कर के इतने परदे रख के? ये क्या तू लाज में बैठी है? और लाज का अर्थ यही है, सांसारिकता। संसार ने ही तो लाज सिखाई है न? छोटा बच्चा तो निर्लज्ज होता है। वह तो नंगा घूमेगा, वो नहीं बोलेगा की मुझे अपनी इज़्ज़त की बड़ी परवाह है कि कोई मुझे दो गंदे शब्द न बोल दे। हमें जिन-जिन चीज़ों की परवाह है हमने जो कुछ गम्भीरता से लिया है, वही हमारी ज़िन्दगी का बोझ है, वही हमें ज़िन्दगी में बेचैन कर के रखेगा। यहाँ पर कोई बहुत दूर की बात नहीं हो रही है, बिल्कुल सीधी बात है क्योंकि बेचैनी तो हर पल है ही ना? तो कोई यह तर्क न दे की यह सब तो आध्यात्मिक बातें हैं, इनका रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी से क्या लेना देना। इनका बहुत लेना देना है क्योंकि हम रोज़ मर रहे हैं। तिल तिल करके घुटते तो तुम रोज़ हो ना या नहीं घुटते? और कैसा लगता है जब बड़ी से बड़ी मुक्ति में भी बंधन दिखाई देता है ? कैसा लगता है जब प्रेम का गहनतम पल भी दूरी लिए होता है? उससे ज़्यादा ज़हरीला कुछ और हो सकता है? उससे ज़्यादा गिरी हुई कोई और अनुभूति हो सकती है? कि ऊंचे से ऊंचा जो मैं पा सकता था, वह मेरे सामने है और उसके बाद भी बड़ी बेचैनी है। जिस बड़ी से बड़ी जगह घूमने जा सकता था वहां पहुंच गया और वहां पहुँच कर भी दिल रो रहा है। इससे बुरा कुछ हो सकता है? जिस प्रेमी से मिलने की बड़ी तलाश थी वह मिल गया अब उसके मिलने के बाद भी बेचैनी बनी ही हुई है। इससे बुरा कुछ हो सकता है? तो यह किसी और दुनिया-जहान की बातें नहीं हैं कि यह तो आध्यात्मिक बातें हैं। यह अभी की बात हो रही है। ठीक है? पूछ लीजियेगा अपने आप से कुछ भी ऐसा होता है जो आखिरी हो, जिसके मिल जाने पर ऐसा लगता है की अब और नहीं चाहिए? और अगर तुम्हें अभी और चाहिए तो इसका मतलब भूखे ही रहे ना? कभी इतना मिलता है कि तुम कहो और नहीं चाहिए? प्यार हो, आनंद हो, हो सत्य हो, रुपया हो, पैसा हो। कुछ भी कभी इतना मिलता है की तुम कहो कि अब आगे इसके कुछ भी और न मिले तो भी हम पूरे हैं । कभी ऐसा होता है? कभी नहीं होता ना? रहते तो हमेशा भूखे ही हो?

श्रोता १: सर, दुःख में सब कहते हैं की और नहीं चाहिए ।

वक्ता: जब दुःख गहरा होता है तब तुम्हें और सारा क्या चाहिए?

श्रोता १: सुख।

वक्ता: यह वह लोग हैं जो परम सुख के अभिलाषी हैं। यह वही तो बता रहे हैं न कि तुम्हारे उन पलों में तो दुःख है ही जहाँ दुःख दिख रहा है, जहाँ आप कह रहे हो बहुत दुःख है तब तो दुःख है ही, जब आप दावा करते हो सुख है तब भी दुःख है और यह देख पाने के लिए बड़ी संवेदनशीलता चाहिए। जो आम आदमी है वह कहता तो है कि नहीं-नहीं अभी तो बड़े सुख का मौसम चल रहा है, उसकी आँखें सूनी हैं उसको दिखाई भी नहीं पड़ता है। वह मुख से चिल्ला रहा होगा खुशिया-खुशियां और हाथ एक जेब पर होगा कि रूपए कितने खर्च हो रहे है। अगर इतने ही खुश हो गए होते तो क्या हाथ जेब पर होता? मुख से तो चिल्ला रहा होगा कि प्यार मिल गया, प्यार मिल गया और जो मिल गया है उसका बैकग्राउंड चेक भी करा रहा होगा । मैंने सुना है की आज कल शादी की उम्र में आ कर लडके-लड़कियाँ अपना फेसबुक प्रोफाइल डिलीट कर देते हैं क्योंकि वो बड़ा अच्छा तरीका है तुम्हारे इतिहास के बारे में सब कुछ जानने का।

श्रोता १: डिलीट कर दिया इसका मतलब कुछ गड़बड़ तो था?

वक्ता: तो आप घुस रहे हो और आपका फूलों से स्वागत किया जा रहा है और आप से कहा जा रहा है की स्वागत और वहां कोई पीछे बैठ के आपकी जासूसी कर रहा है। हमारी दुनिया तो ऐसी है। गहरे से गहरी आत्मीयता में भी शक छुपा रहता है। बहुत गहरी आत्मीयता है पर शक छुपा रहेगा। कोई ही पति होगा जिसने कभी न कभी अपनी पत्नी का मोबाइल न चेक किया हो और कोई ही पत्नी होगी जिसने अपने पति का मोबाइल न चेक किया हो, एक ही बात है और बच्चों का मोबाइल चेक करना तो आम बात है । वहाँ पर तो हक़ भी लगता है की यह ग़लत राह निकल जाएंगे इसलिए चेक करो ।

श्रोता २: आज कल तो एंड्राइड फ़ोन में माँ बाप व्हाटस अप्प पर चेक करते हैँ कि कितनी रात तक चैटिंग की ।

वक्ता: हाँ। तो यह(प्रेमी) वो आदमी है जो कहता है कि नहीं यह आधा-अधूरा नहीं चलेगा और यह तो आधा भी नहीं, यह तो दो टुकड़े हैं यह नहीं चलेंगे। पूरा चहिये और पूरा इस पिया से तो मिल नहीं सकता, यह तो बहुत तुच्छ है, पूरा तो उस पिया से ही मिलेगा। यहाँ वाला पिया तब आकर्षित होता है जब आप घूँघट डालते हो, वहाँ वाला पीया तब आकार्षित होता है जब आप घूँघट हटाते हो। दोनों में अंतर यही है। और घूँघट डालो क्योंकि यह आपको जानता ही नहीं, यह आपको बस घूँघट के रूप मे ही जानता है। बात को समझियेगा, ध्यान दीजियेगा। रिश्तेदार आपको कहाँ जानते हैँ? आपके घूंघटो को ही तो जानते हैं। घूँघटों को ही नाम दे रखा है कि ‘आप फलां व्यक्ति हो’ और वह वहाँ वाला जो है वह कहता है कि एक-एक कर सब घूँघट हटाओ, जब बिल्कुल बच्चे जैसे हो जाओगे तब हम तुम्हे मिल जाएँगे। दुनिया के सम्बन्ध कहते हैं घूँघट डालो, नकली चेहरे पहनो, वह कहता है सारे हटाओ नकली तब मै मिलूंगा। यहाँ पर तो जितने हैं उनके सामने अगर आपने असली चेहरे दिखा दिया, तो कुछ बचेगा नही। यहां तो घूँघट का घूँघट से सम्बन्ध है। यह दुनिया तो गाती ही है कि ‘पर्दे मे रहने दो, पारदा न उठाओ पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा’ और वहाँ वाला पीया कहता है, ‘पर्दे रहने मत दो सारे हटा दो’। अब आप देख लीजिये आपको कहाँ जाना है। क्या ऐसा है नहीं? आप ईमानदारी से देखिये। कितने परदे ऐसे हैं जो आप हटा ही नहीं सकते। आपको अच्छे से पता है इन मुद्दों पर चर्चा मुझे करनी ही नहीं है। आपके प्यारे से प्यारे सम्बन्ध होंगे पर उनसे कुछ बातोँ की चर्चा ही नही कर सकते आप। उन पर्दो का होना बहुत ज़रूरी है। उन मुद्दों को आपने छेड़ दिया तो आग लग जाऐगी। बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। क्या ऐसा नहीं है? क्या वाकई पर्दे हट सकते हैं? तो हमारे जो सम्बन्ध हैं, वह तो घूँघट के ही सम्बन्ध हैँ। रिश्ता क़ायम ही तब तक है जब तक आप सरे घूँघट नहीं हटाते। जिस दिन आपने सोच लिया कि आओ उन मुद्दों पर बात करते हैं, रिश्ता ही खत्म हो जाना है। रिश्ता ही नकली है, झूठा है, घूँघट का है। एक कबीर यह देख लेता है तब वह कहता है कि घूँघट के पट खोल, हक तुम्हारा इंतेज़ार कर रहा है।

अगला दोहा है, ‘धन जोबन का गर्व न कीजिए झूठा इसका मोल’।

यह तो समझ आ ही रहा होगा? झूठा इसलिए है की उतनी ही उसकी हैसियत है जीतनी दूसरे दे दें। आज अगर आर. बी. आई. कह दे कि हज़ार रूपए के नोट की कोई मान्यता नहीं है, तो उसी पल आपका वह धन बेकार हो जाएगा। कोई भी ऐसा धन है क्या आपके पास जिसको अगर दूसरे मान्यता न दें तब भी रहेगा? कोई ऐसा धन बताइएगा? आप कहेंगे कि ‘मैं जो हूँ, वह मेरा धन है’। वह क्या धन है? मैं सुन्दर हूँ। तुम सुन्दर हो यह कैसे पता? दूसरों की ही नज़र से तो देखा है न अपने आप को? आज अगर दूसरे कहना बन्द कर् दे कि तुम सुन्दर हो क्या तुम फिर भी सुन्दर रहोगी? इसलिए कबीर ने धन को और जौबन को साथ रखा है कि इनका गर्व न किया करो। यह दोनों दूसरे द्वारा दी गयी मान्यताएं हैं। छोटा बच्चा पैदा होता है तब क्या वह कह सकता है कि मै सुन्दर हूँ या मै कुरूप हूँ? माँ भरती है उसके मन में की तू सुन्दर है या तू कुरूप है। और एक देश में, एक संस्कृति में जो सुन्दर माना जाता है, वह दूसरे में नहीं माना जाता। तो आप सुन्दर हो या नहीं हो यह बात ही मन से निकाल दो क्यूँकि जब आप यह बात मन से निकालोगे कि सुन्दरता जैसा कुछ होता है, तभी यह बात भी आपके अन्दर से निकलेगी कि ‘मैं कुरूप हूँ’। जिसने भी अपने आप को सुन्दर कहा उसने खुद को यह निमंत्रण दे दिया है परेशानी का। यह जो सुंदरता है, यह हमेशा नहीं रहेगी, झुर्रियां पड़ने लगेंगी। तो अगर आज सुन्दर हो तो कल कुरूप होना पड़ेगा। जिसे कुरूप होने से बचना है वो यह मानना छोड़ दे कि वह सुन्दर है।

आगे है ‘जाके जतन से रँग महल में पिया पाओ अनमोल रे’। यही जो संसार है इसी को कबीर रँग महल कहते हैँ और यह उनका बड़ा प्यारा शब्द है। एक नहीं कई बार उन्होंने इसका प्रयोग किया है कि ‘यह रंग महल है’। ऐसा रंग महल जो अपने आप में बस दिखाई पड़ता है कुछ खास है नहीं, लेकिन उस रंग महल के केन्द्र में उसका एक मालिक बैठा है, उसी को वह पिया कहते हैं। कबीर कह रहे हैं कि रंग महल में आये हो तो यह दीवारों और दरवाज़ों को ही क्यों छूते रहते हो? किसी महल में आप जाओ और वहाँ की दीवारोँ और कालीनों और झाड़-फानूस को देख कर आप आकर्षित हो रहे हो यह क्या बेवकुफी है? वहाँ केन्द्र में राजा बैठा है जिसकी हस्ती से यह महल है, थोड़ा उसके करीब जाओ न।

‘सूने मंदिर दिया जला के आसान से मत ङोल रे’। याद रखियेगा ‘सूना मंदिर’ बोला है। यानि जहां कुछ नहीं है, न मूर्ति, न कल्पना, कुछ नहीं है। मंदिर ऐसा जो एकदम खाली जगह हो और खाली ऐसा के बस देखने से ही खाली नहीं बल्कि जहाँ तुम भी खाली हो जाओ, ऐसा मन्दिर। वहाँ दिया जलाओ और अपने आसन पर बैठे रहो। सूने मंदिर जो दिया जलता है वो हम हैं। मध्य में रोशनी और बाहर जो कुछ है उसकी निरर्थकता पता होना। सूने मन्दिर का यह अर्थ है कि जो मन्दिर का केन्द्र है वहां प्रकाश है, वहाँ आप हैं, वहाँ बोध है, वह असली आप हैं और बाहर-बाहर जो है वह खाली है वहाँ भीड़ नही भर रखी है। तो जीवन के लिए बड़ा बढ़िया चित्र खींचा है देखिये उसको। सूना मन्दिर जिसके मध्य में ज्योति जल रही है, बाहर कोई भीड़ नहीं है और साफ़ इतने, भगवत्ता इतनी कि जैसे मन्दिर। ‘आसन से मत डोल रे, तू ज्योति है; तू मध्य में ही रह, इधर-उधर डोल मत। इधर-उधर जो हो रहा है वह अपने आप होगा तुम अपना आसन पकका रखो’।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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