आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
घर का माहौल ठीक नहीं तो कुछ ठीक नहीं || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
6 मिनट
49 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। सत्संग और शिविर वाला माहौल घर पर ख़ुद को कैसे दे सकते हैं? क्या ऐसा संभव है क्योंकि जहाँ भी मैं रहता हूँ, चाहे घर पर, स्कूल में, कॉलेज में या ऑफिस में वहाँ पर आसपास वाले दूसरे तरीक़े से जीवन जी रहे होते हैं।

आचार्य प्रशांत: ज़िद चाहिए और कुछ नहीं। सुर चढ़नी चाहिए, सुर समझते हो? श्रुति में एक बड़ा सुन्दर शब्द आता है—धृति। क्या ? धृति। उसका एक अर्थ तो होता है धैर्य और दूसरा अर्थ होता है जिद, हठ। वास्तव में दोनों एक ही हैं धैर्य भी एक तरह का हठ ही है। हठ होना चाहिए।

ये मत पूछो कि घर को शिविर में कैसे बदले या शिविर का माहौल घर तक भी कैसे चला जाए। अड़चन क्या है? कर डालो। कर डालो ना। ये जहाँ बैठे हो, ये कोई मंदिर की तरह बनायी गई है जगह है? ये क्या है? घर ही तो है किसी का। हमने क्या बना दिया इसको? बना ही तो दिया है, ऐसा ये बना हुआ नहीं था, हमने इसे बना डाला। अब बनाने के लिए जो भी श्रम करना था, जो भी क़ीमत अदा करनी थी हमने करी।

तीन दिन के लिए हो सकता है तो तीस दिन के लिए भी हो सकता है फिर तीन सौ पैंसठ दिन के लिए भी हो सकता है। उसके लिए घर गिराना थोड़ी पड़ता है, या गिराना पड़ता है? यहाँ हम क्या कर रहे हैं, बुल्डोजर लेकर आये हैं? पहले इस जगह को गिरा दिया, फिर मलबे पर बैठकर के हमने कहा कि अब होगी वार्ता, ऐसा कुछ कर रहे हैं? बदल दिया, बदल जाता है ।

विचार अच्छा होता है सच तक पहुँचाने के लिए, विचार अच्छा होता है व्यर्थ विचारों को काटने के लिए। भ्रम से मुक्ति दिलाने के लिए विचार अच्छा है, पर एक बार कोई बात समझ में आ जाए तो तुम उसके बाद भी विचार ही विचार करते रहो, ये बेईमानी है।

समझ में आ गई अगर कोई बात तो अब जाकर के उसको परिणित करो ना। अब विचार नहीं चाहिए, कार्य चाहिए। जो भी कुछ समझ में आया है उसे कार्यान्वित करो। भाई कितना मुश्किल होता है घर में एक जगह को स्टडी (पुस्तकालय) बना देना? कहो! तो क्यों नहीं कर सकते? सब कमाई इधर-उधर तो जाती ही रहती है, पचास जगह उड़ती है।

पचास हज़ार में, एक लाख में एक सुन्दर लाइब्रेरी (पुस्तकालय) घर पर ही बना लोगे और पैसा है तो दो-चार लाख ख़र्च कर लो। चारों दीवारों पर बस रैक जैसा कुछ लगाना है, ये दीवारें ही सेल्फ (अलमीरा) बन जाएँगी, नहीं कर सकते?

कह रहे हो शिविर जैसा माहौल चाहिए, शिविर में यही तो होता है न कि ऊँचाई की संगत करते हो। शिविर में काहे के लिए आये हैं आप? ज़िंदगी तो चल ही रही थी, यहाँ किसलिए आये? कह रहे हैं, "ज़रा कुछ ऊँचा हो, कुछ दिन ऊँचाई के संगत में गुज़ारें," इसीलिए आते हो न?

जिनको आप ऊँचा बोलते हो वो हमेशा उपलब्ध नहीं होते शारीरिक तौर पर। दुर्भाग्य की बात है लेकिन ऐसा ही है। लेकिन वो किस रूप में उपलब्ध होते हैं हमेशा? उनकी किताबें हैं न या जैसे मैंने बोला था वीडियो है न। तो आज की जो स्टडी हो उसमें किताबों की रैक के अलावा एक चीज़ और होनी चाहिए। क्या? एक टीवी स्क्रीन होनी चाहिए ।

आप अगर यहाँ बैठे हैं तो निश्चित रूप से आपके पास इतने भी संसाधन हैं कि आप एक अच्छा टीवी दीवार पर लगवा सकते हैं। वो जो सीरियल देखने वाला टीवी है वो जहाँ लगा है, लगा रहे, उसको निकाल कर लाने की ज़रूरत नहीं है । एक नया टीवी लगवा दीजिए भाई, इतना भी महँगा नहीं आता।

वो एक कमरा केंद्र बन जाएगा जहाँ से बदलाव चारों तरफ़ फैलेगा, सबसे पहले आपके घर में आएगा, फिर बाहर भी आएगा।

जिस घर में किताबें नहीं वो घर जीने लायक़ है? बिल है वो, दड़बा है वो, खोह है, घोसला बोल लो उसको, घरौंदा बोल लो, घर मत बोलना। आज के समय में देवालय का अर्थ पुस्तकालय हो होगा। कितबों से अगर आपका नाता नहीं तो कैसा घर है आपका!

घर माने क्या? जहाँ विलासिता के सब समान हैं? बहुत बड़ा फ्रिज ख़रीदकर लिया है, तीन मंजिला फ्रिज, आने लगे हैं। मुझे मोबाइल के लिए एक तार ख़रीदना था तो आज मैं गया, वहाँ पर तीन मंजिल का फ्रिज रखा हुआ था। उसके साथ में वो सीढ़ी भी देते हैं। इसीलिए है पैसा? कि पहले तो घर ख़रीदो, फिर घर में इस तरह के अय्याशियों के चीज़ रखो। एक लाइब्रेरी (पुस्तकालय) नहीं बना सकते, वहीं बैठ जाया करो, हो गया शिविर।

ये तो देखो विरल सौभाग्य की बात होती है कि किसी जीते-जागते आदमी से बात हो जाए। जो आज जी रहा है वो भी कल नहीं जी रहा होगा। तो हाथ में अंततः क्या बचने वाला है? किताबें ही तो। उनके साथ समय गुज़ारिए, वही शिविर का केंद्र होगा आपका। जब आप एक किताब को पढ़ रहें हैं तो वास्तव में वो सत्संग है।

उतनी ही गंभीरता, उतनी ही निष्ठा, उतनी ही श्रद्धा से पढ़िए जैसे अभी यहाँ बैठकर सुन रहे हैं।

वो कोई हल्की चीज़ नहीं है, मज़ाक की चीज़ नहीं है कि किताब भी पढ़ रहे हैं और साथ-ही-साथ मोबाइल भी देख रहे हैं और चुन्नू पाँव पकड़ कर झूल रहा है आपका। नहीं! यहाँ ले आए हैं चुन्नू को? जैसे यहाँ पर चुन्नू मौजूद नहीं है वैसे ही जब आप किताबों के साथ हों तो चुन्नू को कुछ देर के लिए बाहर छोड़ दें।

चुन्नू को भी और चुन्नू की अम्मा को भी। या फिर उसको साथ लेकर अंदर आयें और कहें कि "मैं पढ़ूँगा, तू भी पढ़ और यहाँ कोई बात नहीं होगी, धनियाँ-मिर्ची नहीं कर देना यहाँ पर।"

अब बताओ ये कितना मुश्किल काम है। घर गिराना पड़ेगा इसके लिए?

एक हज़ार किताबों की सूची चाहिए हो पढ़ने लायक़, मुझसे माँग लो। कितना मुश्किल काम है? ना मैं कह रहा हूँ कि घर तोड़ो दो, ना मैं कह रहा हूँ कि नौकरी छोड़ दो।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें