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लेख
गँवार स्वैग! || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: अभी कुछ दिनों पहले की बात है, संस्था के पास बहुत सारे ई-मेल आते रहते हैं कि हमें आचार्य जी का साक्षात्कार करना है या उनसे बात करनी है, तो कुछ समय से ऐसे ई-मेल्स आने लगे हैं जहाँ पर परिचय ही यही होता है कि 'जी मैं पढ़ाई छोड़ा हुआ हूँ।' मतलब, वो इस बात को भी इस तरीक़े से बताते हैं जैसे कोई बताता है कि 'मैं यहाँ का पूर्व-छात्र हूँ, मैं ये हूँ, वो हूँ;' वो बताते हैं, 'हम ड्रॉप-आउट हैं।' और इसी को अपना सम्मान का प्रतीक समझते हैं। तो ये दिखाने में कि मैंने पढ़ाई को लात मार दी, इसमें ये कहाँ का स्वैग (ग़ुरूर) आ गया है आजकल?

आचार्य प्रशांत: ये गँवार स्वैग है। और इसने भारत को पूरी तरह से अपने गिरफ़्त में ले लिया है, 'मुझे इसी बात का स्वैग है कि मैं गँवार हूँ।' जिस बात पर पहले लाज आती थी कि अनपढ़ हैं, अशिक्षित हैं, गँवार हैं; वो अब स्वैग की बात हो गयी है। 'देखो, मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ पर आज मेरे पास कितनी ताक़त है। मेरा यू.एस.पी. (ख़ासियत) ही यही है कि मैं बिलकुल पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, लेकिन फिर भी देखो मैं कहाँ पहुँच गया।' तो ज्ञान का अपमान!

और वहाँ तक आप पहुँच कैसे गए? क्योंकि जिन्होंने आपको वहाँ तक पहुँचाया वो भी सब अज्ञानी ही हैं। ख़ासतौर पर सत्ता में तो ये होता है न कि जो आपको अपने जैसा लगता है, आप उसी को वोट दे देते हो। यही काम अध्यात्म में, ‘आय हैव नेवर रेड ऐनी बुक, आय हैव नेवर रेड ऐनी स्क्रिप्चर’ (मैंने कभी कोई पुस्तक नहीं पढ़ी हैं, मैंने कभी कोई ग्रंथ नहीं पढ़ा है)। ये बात गौरव की हो गयी? ये बात शर्म की होनी चाहिए न? अगर कुछ पढ़ा नहीं है तो जाओ, पढ़ो। जाओ, दो-तीन साल की छुट्टी लो, मुँह छुपा करके कहीं पढ़ाई करो।

लेकिन ये बात बड़ी—वही, जो बोला, बैज ऑफ ऑनर है ये, कि मैंने तो कुछ पढ़ा नहीं है। बात यहाँ तक पहुँच गयी, जो थोड़े-बहुत पढे-लिखे भी हैं वो अपनी शिक्षा को छुपाते हैं। मान लीजिए वो आठवीं-दसवीं पास होगा तो कहेगा 'नहीं, मैं बिलकुल निरक्षर हूँ,' क्योंकि निरक्षर होने में जो जलवा है, जो स्वैग है—बोल दे कि दसवीं फेल हैं तो न इधर के न उधर के, इससे अच्छा बोलो कि मैं बिलकुल ही इल्लिटरेट (अशिक्षित) हूँ।

वही चीज़ उसमें, एंटेरप्रेन्योरशिप (उद्यमिता) में, कि 'मैं तो ड्रॉप-आउट हूँ।' पॉलिटिक्स (राजनीति) में भी यही। देखिए, भारत की ज़्यादा आबादी बहुत पढ़ी-लिखी नहीं है, कहने को साक्षरता दर पचहत्तर-अस्सी प्रतिशत पहुँच रही है, पर कैसे हैं हमारे स्कूल (विद्यालय) और कैसे हैं उसमें से निकले हुए साक्षर लोग, हम जानते हैं।

तो कुल मिला-जुलाकर के जो ईफेक्टिव लिटरेसी (वास्तविक साक्षरता) है वो तो है ही बहुत छोटी, बहुत कम। तो जो हमारे राजनेता होते हैं, उनको भी ये बताते हुए बड़ा गौरव होता है कि 'नहीं, मैं देखो, ऐसे ही हूँ।' स्पिरिचुअल लीडर्स (आध्यात्मिक गुरु) भी ये बता रहे हैं कि 'मैं तो कुछ पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, मैं तो ऐसे ही हूँ।' एंटेरप्रेन्योर्स (उद्यमी) भी खड़े हो जाते हैं, 'मैं भी देखिए पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, मैं ड्रॉप-आउट हूँ।'

सच्चाई ये है कि आज के समय में भी सौ लोग यदि किसी भी क्षेत्र में सफ़ल हैं तो उसमें से निन्यानवे लोग अपनी शिक्षा की बदौलत ही सफ़ल हैं। लेकिन हम साज़िश करते हैं, जो एक व्यक्ति होता है जो अशिक्षित होते हुए भी सफ़ल हो गया होता है किसी कारण से, किसी संयोग से, या मान लो प्रतिभा से, तो हम उसका फुग्गा फुलाकर उसको उदाहरण बना देते हैं, हम कहते हैं, 'ये देखो, ये है।' अरे भाई, ये एक बेपढ़ा इंसान सफ़ल हो गया, पर ये भी तो बताओ कि हज़ार में से नौ सौ निन्यानवे लोग जो पढ़े-लिखे नहीं होते, वो असफ़ल ही होते हैं।

आप सोशल मीडिया पर जाएँ, वहाँ इन्फ़्लुएनसर्स (प्रभावक) हैं, वो लगातार शिक्षा का ही अपमान कर रहे होते हैं। वो कहते हैं, 'क्या रखा है पढ़ने-लिखने में, पढ़ने-लिखने वालों का कुछ नहीं होता, तुम मेरे साथ आओ, मैं तुमको धंधा करना सिखाएगा।' ये कौन-सा धंधा है जो अशिक्षित लोग ही बेहतर कर सकते हैं भाई? ये जो गँवार स्वैग है ये इतना बढ़ गया है कि—पहले ऐसा हुआ करता था कि जिन लोगों को अंग्रेजी नहीं आती थी, वो बेचारे हीन भावना में रहते थे थोड़ी। और मैंने बहुत बोला भी, हिन्दी के पक्ष में, हिन्दी के सम्मान को बढ़ाने के लिए। पर वो सब जैसे पुरानी बातें हो गयी हैं, इधर पाँच-सात साल में ही बहुत बदल गया है माहौल। अभी स्थिति ये है कि आप अगर अंग्रेजी में बात कर रहे हैं तो एक व्यक्ति जिसे अंग्रेजी नहीं आती है—और ये कोई बहुत गौरव की बात तो नहीं है कि अंग्रेजी नहीं आती है—वो आपको धमका के बोलेगा, 'हिन्दी में बोल!'

पहले एक प्रकार की बुराई थी कि आपके सामने किसी ने अंग्रेजी बोल दी तो आप दब जाते थे, वो एक तरह की बुराई थी। अभी बिलकुल एक दूसरे तरह की बुराई खड़ी हो गयी है कि 'हम तो गँवार हैं और यही हमारी उपलब्धि है और हमसे तुम गँवरई के अलावा किसी और भाषा में बात करोगे तो हम तुम्हें मारेंगे। हमारी ताक़त ही यही है कि हम गँवार हैं। तुम चूँकि पढ़े-लिखे, सभ्य आदमी हो तो तुम्हें शालीनता दिखानी पड़ेगी। हम तो गँवार हैं तो हम शालीनता दिखाते नहीं, तो हम तो कुछ भी कर सकते हैं, हमसे डर के रहना।'

और जितने भी थोड़े सभ्य-सुसंस्कृत लोग हैं, आज वो गँवारों से डरे हुए हैं। तरह-तरह से उसको प्रोत्साहन दिया जा रहा है, अभद्रता-अशालीनता को। जैसे घोषणा की जा रही हो कि पढ़ाई-लिखाई से मिल क्या जाना है, शिक्षा से हो क्या जाता है, विज्ञान से लाभ ही क्या है।

तो हाथ में होगा एकदम आधुनिक मोबाईल-फोन और उसपर वीडियो चल रही होगी जादू-टोने, भूत-प्रेत की। वो स्टेट ऑफ द आर्ट टेक्नॉलजी (आधुनिकतम तकनीक) है फोन और उसी फोन में गँवरई चल रही है, ये आज के युग की विडंबना है। मैं तो पूछा करता हूँ कई बार कि 'क्या ये उचित भी है कि ऐसे आदमी के हाथ में वो मोबाईल-फोन पहुँचे?' पर हो गया है।

असल में जनतंत्र के साथ जो चीज़ बहुत-बहुत ज़रूरी होती है वो होती है शिक्षा। और भारत में लोकतंत्र हो गया, शिक्षा नहीं आगे बढ़ी। साक्षरता तो फिर भी आगे बढ़ गयी—साक्षरता का क्या मतलब? कि अक्षर से आपका परिचय हो गया। आप अगर हस्ताक्षर कर लेते हैं तो आप साक्षर कहलाते हैं। इतनी ही चाहिए होती है बस, आप साक्षर हो गए।

शिक्षा आगे नहीं बढ़ी है। शिक्षा आगे नहीं बढ़ी है तो जो अशिक्षित लोग हैं वही ज़्यादा हैं और लोकतंत्र है तो उन्हीं का दबदबा हो गया है। क्योंकि लोकतंत्र में तो सिर गिने जाते हैं, ये नहीं गिना जाता कि सिर के अंदर क्या है, सिर के अंदर भूँसा भी भरा हो तो भी वोट तो आपका एक ही है, और सिर के अंदर भले ही गौतम-बुद्ध बैठे हों तो भी आपको वोट एक ही मिलेगा।

बहुत सारे प्रदेश गवाह हैं, विशेषकर बिहार, जहाँ ये बिलकुल स्पष्ट है कि अगर जनमानस अशिक्षित है तो वो अपने ही जैसे किसी अशिक्षित नेता को अपना मानता है। कहता है, 'हमारे जैसे हैं न!' और उसका नतीज़ा फिर ये होता है कि वो दशक-दर-दशक और पिछड़ता ही जाता है। पढ़ा-लिखा आदमी एक अशिक्षित आदमी को अजनबी, बेगाना लगता है, कहता है, 'ये आदमी अलग है, इनकी भाषा अलग है, इनके सरोकार अलग हैं, इनकी बुद्धि अलग है। तो मैं तो वोट उसको दूँगा जो बिलकुल मेरे ही जैसा हो।' और आप उसको ही बैठा देते हो जो बिलकुल आप ही के जैसा है।

और ये बात कोई एक प्रदेश भर की बात नहीं, बहुत प्रदेशों में हुई है, पूरे देश में हुई है, केंद्र में भी हुई है, हर जगह होती रही है, आप राजनैतिक इतिहास देखिए। कुल मिला-जुलाकर के एक माहौल बन गया है जिसमें विज्ञान, शिक्षा, तर्क इन सबको बिलकुल अपमानित कर दिया गया है, इनकी कोई भूमिका नहीं है। किसकी भूमिका है? 'मैं जैसा हूँ, मुझे सम्मान दो। मैं अनपढ़-गँवार हूँ, तुम मेरी गँवरई को सम्मान दो।'

और वही चीज़ चल रही है। जो चीज़ें कहीं से भी प्रदर्शन करने लायक नहीं हैं, आप देखिए ये गाड़ियाँ निकल रही होती हैं उनमें पीछे लोग लिख लेते हैं — ब्राह्मण, ठाकुर, जाट, यादव, राजपूत, गूजर। 'हम खुलेआम, छाती ठोंककर उद्घोषणा कर रहे हैं कि हमारे लिए जाति बहुत बड़ी बात है।' इसी को मैं बोल रहा हूँ — गँवार स्वैग।

क्यों? क्योंकि जिन्होंने बार-बार जाति-जाति-जाति का ही फुग्गा फुलाया, वो सब बड़े-बड़े मंत्री होकर के बैठे हुए हैं। तो फिर जाति की बात करना ग़लत कैसे हो सकता है? जाति की बात कर-करके देश भर में सरकारें बन रही हैं, या धर्म की बात कर-करके। धर्म, जाति इन्हीं आधारों पर जब देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद भरे जा रहे हैं तो मैं भी क्यों न घोषणा करूँ अपनी जाति की, मैं क्यों न करूँ?

लोग बैठे होते हैं ऑडिटोरिअम्स (सभागारों) में और वहाँ जो बातें हो रही होती हैं, वो हो रही होती हैं बिलकुल ही शिक्षा-विरुद्ध, विज्ञान-विरुद्ध। कैसे कर ले जाते हो? ये कैसे बन गया? (माइक की ओर इशारा करते हुए) अभी थोड़ी देर पहले मोबाईल-फोन की बात कर रहे थे, माइक कैसे बन गया? आपने कभी सोचा है?

आपने अपनी गाड़ी पर अपने धर्म का या अपनी जाति का नाम लिखा हुआ है और वो गाड़ी आप सरपट दौड़ा रहे हो एक चिकनी सड़क पर, वो सड़क कहाँ से आई? वो संकीर्ण मानसिकता ने बनायी है सड़क या खुले विचार और जिज्ञासा और विज्ञान से बनी है वो सड़क? और वो गाड़ी कहाँ से बनी है जो सड़क पर चल रही है?

लेकिन स्थितियों का, घटनाओं का संयोग ये रहा है कि एकदम ही पशुवत मानसिकता वाले आदमी के हाथ में भी आज एक महँगी गाड़ी का स्टीयरिंग है। ये आदमी बिलकुल वो बातें कर रहा है जिन बातों पर अगर चला गया होता तो उस गाड़ी का निर्माण कभी नहीं हो सकता था। ये आदमी उस गाड़ी का पूरा लाभ उठा रहा है और उस गाड़ी में बैठ के न जाने कैसी बातें कर रहा है और उस गाड़ी को न जाने वो कौन-सी जातिवादी या सांप्रदायिक सभा की ओर ड्राइव (चलाकर) करके ले जा रहा है।

ये डाटा (आँकड़ा) रखा हुआ है, ये इसी प्रश्न से संबंधित रखा हुआ है न? (एक स्वयंसेवक से पूछते हैं)

आज़ाद हुआ था भारत तो औसत आदमी सत्ताईस साल जीता था, अब सत्तर-पचहत्तर साल जी रहा है, ये किसने कर दिया? ये शिक्षा ने करा है। पर शिक्षा हमारे लिए अब दो कौड़ी की चीज़ हो गयी है। आप समझते हैं सत्ताईस साल की एवरेज लाइफ इक्स्पेक्टन्सी (औसत जीवन प्रत्याशा) क्या होती है? ज़्यादातार लोग जो हम यहाँ बैठे हैं, यहाँ बैठे नहीं होते अगर माहौल, हालात उन्नीस सौ सैतालीस जैसे ही होते तो। सब मर चुके होते, बहुत सारे तो पैदा ही नहीं हुए होते।

पच्चीस प्रतिशत बच्चें पैदा होते ही मर जाते थे, इन्फैन्ट मॉर्टलिटी ऐट बर्थ (शिशु मृत्य दर), तेईस दशमलव चार प्रतिशत या ऐसे ही कुछ थी। चार में से एक बच्चा पैदा होते ही मर जा रहा है। हममें से कितने तो पैदा ही न हुए होते। आज वो घट कर के हो गयी है भारत में तीन प्रतिशत। वो सब बच्चें विज्ञान ने बचाए हैं, हमारी गँवरई ने नहीं बचाए हैं।

पर हमारा दिमाग़ कुछ ऐसा भ्रष्ट कर दिया गया है, आपके सामने एक वैज्ञानिक खड़ा हो और कोई जिला स्तर का ही नेता खड़ा हो, ठीक? सांसद, विधायक या पार्षद खड़ा हो, तत्काल आप किसका नमन करेंगे? ईमानदारी से बताइएगा। पार्षद पहले, वैज्ञानिक बाद में। और वैज्ञानिक न होता तो ये पार्षद साहब पैदा ही न हुए होते। पर पार्षद भी वैज्ञानिक से बड़ा है।

ये आँकड़े हैं कि विज्ञान ने कितने लोगों की जान बचायी है। एनेस्थीसीआ से पाँच करोड़, पास्चुराइज़ेशन से पच्चीस करोड़, ब्लड ट्रान्स्फ्यूशन से सौ करोड़, वाटर क्लोरीनेशन से सत्रह करोड़, इंसुलिन से सोलह मिलियन, एंटिबयोटिक्स से बीस करोड़, एंटीमलेरियल ड्रग्स — पाँच करोड़, सन्स्क्रीन और मेमोग्राम — एक करोड़ और बीस लाख क्रमशः, सरवाईकल कैंसर स्क्रीनिंग से साठ लाख, ग्रीन रिवोल्यूशन से सौ करोड़।

ऐस्पिरिन, वैक्सीन्स, सी. पी. आर., किड्नी डायलिसिस, ऑर्गन ट्रांसप्लांट्स, ड्रग डिजाइन्स, मेडिसिंस, पेसमेकर्स, बायपास सर्जरी, बाइफ़रकेटेड नीडल, रेडियोलॉजी, न्यूक्लियर पावर, एंजिओप्लास्टी, सैटेलाइट्स, रोबोटिक सर्जरी, नैनोटेकनोलॉजी और हर चीज़ के आगे आँकड़े करोड़ों-करोड़ों, करोड़ों-करोड़ों में हैं। हममें ज़रा भी अनुग्रह है, ग्रैटिच्यूड (कृतज्ञता)? मुझे नहीं पता सुबह उठकर के आप किसकी पूजा, कहाँ प्रार्थना करते हैं, पर ये आँकड़े आपको बता रहे हैं कि सुबह उठते ही आपको सबसे पहले किसको धन्यवाद देना चाहिए। ये तो छोड़िए कि विज्ञान से हमें क्या-क्या सहूलियतें मिली हैं, हम ज़िंदा ही हैं विज्ञान की वज़ह से। लेकिन हमारे मन में विज्ञान को लेकर के, शिक्षा को लेकर के ज़रा भी कृतज्ञता नहीं है, उल्टे हम अपनी गँवरई का ढिंढोरा पीटते हैं।

आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स , अभी लिखा है इसका एस्टिमेट (अनुमान) उपलब्ध नहीं है। ब्रेन-मैपिंग, जेनेटिक-मैपिंग, सेल्फ़-ड्राइविंग कार्स, ड्रोन्स, डीसैलिनैशन, रेनेवेबल एनर्जी।

आप लोगों को इतने लोगों के नाम पता होंगे क्योंकि वो नाम अब लोक-संस्कृति में आ चुके हैं। जिनके नाम आपको पता होने चाहिए उनके नाम आपको शायद न पता हों। मैं आपसे पूछूँ जॉन एंडर्स का नाम पता है आपको, कितने लोगों को पता है? पर सच मानिए, ये व्यक्ति न होते तो हम, आप यहाँ बैठे नहीं होते लेकिन हम कितने-कितने बेकार लोगों को अपने मन में, अपनी स्मृति में जगह दिए रहते हैं। इनका नाम हमें नहीं पता होगा, इन्होंने मीज़ल्स वैक्सीन (मिसल्स का टीका) बनाई थी, दस से बीस करोड़ लोग उससे बचे हैं, जान बची है। जान नहीं भी जाती थी उससे तो आदमी जीवन भर के लिए घाव, निशान और पंगुताएँ लेकर के घूमता था।

मैं आपसे पूछूँ, पेनिसिलिन के आविष्कारक कौन थे? आपको नाम न पता होगा।

श्रोता: अलेक्जेंडर फ्लेमिंग

आचार्य: दो-तीन लोगों ने बता दिया, दिन बन गया मेरा! मैं आपसे पूछूँ, गैसटन रैमन कौन हैं? लेकिन किसी ऐसे ही अलदू-पलदू नेता का नाम पूछूँगा, वो आपको पता होगा। इतने सारे, बहुत सारे, फ़िज़ूल अभिनेता-अभिनेत्री घूम रहें हैं, उनके नाम भी आपको पता होंगे। आई. पी. एल. का कोई छोटा-मोटा खिलाड़ी होगा, उसका भी नाम पता होगा। इतने सारे सोशल मीडिया पर इन्फ़्लुएनसर , ये सब बन के बैठे हैं, वो भी सब आपको पता होगा, बिग बॉस पता होगा। पर जिसने आपको टेटनस की वैक्सीन दी, उसका नाम आपको नहीं पता। और टेटनस मालूम है न, कितनी बुरी मौत मारता है! और हममें से कोई न होगा ऐसा जिसपर टेटनस के विषाणु ने कभी-न-कभी आक्रमण न किया हो, क्योंकि वो तो हर जगह होता है, मिट्टी में, कचरे में, गोबर में, धूल में। हमारी जान बचाई है इन्होंने और ये हमारी एहसान-फ़रामोशी की इंतहां है कि हमें इनका नाम तक नहीं पता। और डिप्थेरिया भी इन्हीं से ...।

ये हमने कभी सोचा भी नहीं न कि क्लोरीनेशन ऑफ वॉटर कितनी बड़ी बात है और उससे कितने प्राण बचे हैं? एक, दो, चार, पाँच करोड़ नहीं, बीस-तीस करोड़, और बचते ही जा रहे हैं। ये (लेखाचित्र) आपको दिख रहा होगा, इसमें ये जितने हैं धागे (लेखाचित्र के वक्र), इन सबका मुँह किधर को है? आसमान की ओर। है न? सारे केंचुए (लेखाचित्र के वक्र) ऊर्धगामी हो रहे हैं। ये क्या कर रहे हैं सब? ये ऐव्रेज लाइफ इक्स्पेक्टेन्सी का कर्व (लेखाचित्र) है सत्रह सौ साठ से लेकर दो हज़ार बीस तक का। देखिए कि हमें किसने ज़िंदा रखा हुआ है और कौन लगातार हमारी उम्र बढ़ा रहा है, देखिए। बड़े-बूढ़े बस आशीर्वाद ही देते रह गए, 'दीर्घायु भव, शतायु भव, चिरंजीवी भव।' आपको दीर्घायु, शतायु, चिरंजीवी, देखिए वास्तव में कौन बना रहा है। कौन बना रहा है? विज्ञान बना रहा है। ये किया है विज्ञान ने।

लेकिन हमारी बेहयाई की हद ये है, अभी भी हम आपस में बात करते हैं तो ऐसे बोलते हैं, ‘अजी, पहले के लोग होते थे न, पहले के लोग, उनकी सेहत दूसरी होती थी और डेढ़-डेढ़ सौ साल जीते थे।' ये होते थे पहले के लोग, ये रहे पहले के लोग (लेखाचित्र दिखाते हुए)।

लेकिन इतना अच्छा लगता है बोलने में न कि ‘आज की तुम्हारी एजुकेशन में रखा क्या है, आज का विज्ञान, आज की किताबें, तुम जानते क्या हो?' ये (लेखाचित्र) है, ये जानती हैं, जी नहीं रहे होते ये बोलने के लिए भी कि आज की किताबें जानती क्या हैं। इन्होंने ज़िंदा रखा है।

ये सुना है कि नहीं सुना है, कि सेहत तो पहले हुआ करती थी, पहले! और पहले क्या सेहत हुआ करती थी, पहले के आँकड़ों में देख लो न। पहले का आदमी आज के आदमी से वज़न में दस से बीस किलो कम। और इसलिए नहीं कि वो अपने शरीर में चर्बी नहीं रखे हुए है, इसलिए क्योंकि है ही सींकड़ा, खाने-पीने को नहीं पा रहा है और जान भी नहीं रहा है कि बीमारी क्या लग रही है तो वज़न गिरता जा रहा है। और भारत में ही नहीं, विश्व भर में।

पहले के आदमी का कद देख लो और कद के आँकड़े उपलब्ध हैं, दो सौ, तीन सौ साल के उपलब्ध हैं, देख लीजिए। कद के आँकड़े देख लीजिए, स्वास्थ्य के आँकड़े देख लीजिए, वज़न के आँकड़े देख लीजिए, बीमारियों के, शिक्षा के आँकड़े देख लीजिए और फिर कहा करिए कि पहले का आदमी बहुत स्वस्थ होता था।

दादीमाँ के नुस्ख़े! अगर कोई नुस्ख़ा दादीमाँ का है तो उसको सिर्फ़ इसीलिए अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए क्योंकि वो दादीमाँ का है। दादीमाँ के ज़माने की हालत नहीं देख रहे हो, क्या थी? तो दादीमाँ का—पहले विज्ञापन आया करता था, 'एक सौ दो साल की बुढ़िया की घुट्टी,' और लोग जा-जाकर उसको लेकर कहते थे, 'एक सौ दो साल की!'

चलो, अधिक-से-अधिक ये कर लो कि कोई पुरानी चीज़ है, उसकी बड़ी मान्यता है तो आज उसका परीक्षण करके देख लो कि ठीक है कि नहीं, ठीक निकली तो स्वीकार कर लेंगे। पर किसी चीज़ को सिर्फ़ इसलिए स्वीकार कर लेना कि वो पुरानी है, महामूर्खता की बात है।

पुरानी सब बीमारियाँ हैं, पुराने लोगों से सुनना तो बताएँगे, ‘हैजा’। अब सुनते हो, हैजा और पोलिओ? करो पुराने लोगों से बात जो अस्सी पार के हों, वो बताएँगे न कि हैजा आता था, गाँव का गाँव साफ़ हो जाता था। पूरा गाँव साफ़ हो गया। क्या? हैजा। और हैजा आज के लिए बहुत छोटी चीज़ है। आज भी होता है लोगों को, कुछ नहीं होता, उनको ठीक कर देते हैं डॉक्टर। और तब आता था, पूरा घर नहीं, गाँव ही साफ़ हो गया हैजा से।

ब्लैक प्लेग का नाम सुना है? यूरोप ही साफ़ हो गया था। आप यूरोप की आबादी का कर्व देखेंगे, तो आप पाओगे कि वहाँ तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के आसपास ऐसे ठक से नीचे गिर जाता है। तो प्लेग आया था, प्लेग आज के लिए बहुत छोटी बात हो गयी। अभी भी होता है प्लेग , कहीं चला नहीं गया। होता है, ठीक हो जाता है। तब होता था 'ब्लैक डेथ' , नहीं है ऐसा कुछ।

ये छोटी-सी चीज़, स्मॉल पॉक्स, चिकन पॉक्स से कितनी मौतें होती थीं, हमें किसने बचाया है? मैं बहुत मूलभूत बातें कर रहा हूँ, एकदम मूलभूत। आप कह रहे होंगे, ‘यहाँ तो हम आए थे कि कोई आध्यात्मिक विमर्श होगा, ये क्या बातें होने लग गयीं।’ बोलता हूँ न, 'तथ्य ही सत्य का द्वार है।' कुछ तथ्यों से तो हम परिचित हो लें न! उन तथ्यों का पता नहीं तो हम कौन-से फिर आध्यात्मिक सत्य की बात करेंगे?

और अंधविश्वास वगैरह महिलाओं में थोड़ा ज़्यादा पाया जाता है। आप पाएँगे, ये सब बाबा वगैरह जब कर रहे होते हैं, या कथावाचक लोग, तो आगे महिलाएँ ही बैठी होती हैं। और बैठी हुई हैं अपना, उनको बड़ा—और ज्ञान वगैरह की बात हो रही हो, महिलाएँ वहाँ से भाग जाती हैं। कहती हैं, 'ज्ञान! गड़बड़ चीज़ है ज्ञान! रस तो आता है भाव में।' और वहाँ वो भाव की चाशनी में डुबो-डुबो के जब आपको…तो उठ-उठ के नाचना शुरू कर देती हैं।

ये जो आप देख रहे हैं न, ये है पुरुषों और महिलाओं की औसत लाइफ इक्स्पेक्टेन्सी में अंतर। विज्ञान ने सबसे ज़्यादा मदद महिलाओं की करी है। यूरोप के कुछ देशों में महिलाएँ, पुरुषों से औसतन छः-छः साल अब ज़्यादा जी रही हैं। सबसे ज़्यादा कृतज्ञता, विज्ञान और शिक्षा के प्रति, महिलाओं में होनी चाहिए। जितनी दुर्दशा थी महिलाओं की, उसको ठीक करा है शिक्षा ने और विज्ञान ने, लेकिन महिलाएँ जाकर के चरण पकड़ती हैं आस्था और अंधविश्वास के।

ये जो आप देख रहे हैं, ये उठता हुआ (लेखाचित्र), ये क्या है, ये डिफरेंस (अंतर) है कि माने कितना अधिक जी रही हैं महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा। और विज्ञान जितना बढ़ता जा रहा है, पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ उतना ज़्यादा जीती जा रही हैं।

अब महिलाओं की बात कर रहे हैं, तो महिलाओं को बच्चों से बड़ा मोह हो रहा है। देखिए, आपके बच्चों को बचाया किसने है। इसमें जितने भी ये सब हैं केंचुए (लेखाचित्र के वक्र), इनकी आपको क्या दिशा दिख रही है? ये नीचे को आ रहे हैं। ये जानते है क्या है? पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु के जो सबसे बड़े कारक थे, ये उनके कर्व हैं। तो सब कुछ ही नीचे आ रहा है न। किन-किन चीज़ों से हमारे बच्चें मर जाते थे, पाँच साल का होने से पहले ही, जिसको विज्ञान ने बिलकुल रोक दिया है?

निमोनिया, प्रीटर्म बर्थ, बर्थ ऐस्फिक्सिआ, बर्थ ट्रामा, डायरिअल डिज़िज़ेस, कॉनज़ेनाइटल बर्थ डिफेक्ट्स, निओनेटल डिसॉर्डर्स, मलेरीआ, निओनेटल सेप्सिस एण्ड इन्फेक्शन्स, मेननजाइटिस, ह्वूपिन्ग कफ़, नूट्रिशनल डेफ़िशिएनसी, सिफिलिस, मीज़ल्स, ट्यूबर्क्यूलोसिस, एच. आई. वी. एड्स, कैंसर्स — कोई भी कारण होता हो बच्चें की मौत का, उस कारण को विज्ञान ने रोका है। इनके प्रति भी कभी अनुग्रह दिखाना चाहिए हमें कि नहीं? दिल से बोलिए।

हमें ज़िंदा ही इन्होंने रखा है। नहीं तो हम पहली बात तो ज़िंदा नहीं होते, ज़िंदा होते भी तो सौ बीमारियाँ लगी होतीं। कोई अंधा बैठा होता यहाँ पर, किसी का पेट बिलकुल बर्बाद होता, किसी को कुछ दिखाई न दे रहा होता, किसी को सुनाई न दे रहा होता, किसी के हाथ ख़राब होते, किसी को पोलिओ होता। कितनों को पता है विज्ञान दिवस किस दिन मनाते हैं? बुरा लग रहा है न अब?

हमें ही नहीं, हमारे स्वजनों को, हमारे पूरे ख़ानदान को इन लोगों ने ज़िंदा रखा है, विज्ञान ने, शिक्षा ने। और मुझे इन दोनों से ही प्रेम रहा है और इस देश ने दोनों का ही घोर अपमान करा है — साइंस एण्ड स्पिरिचुऐलिटी (विज्ञान और अध्यात्म)। न हमें विज्ञान पता है, न हमें अध्यात्म पता है। हमें क्या पता है? हमें सांस्कृतिक जादू-टोना, जंतर-मंतर पता है। हम संस्कृतिवादी लोग हैं न, 'हमारी संस्कृति!' हमारी संस्कृति में जगह न विज्ञान के लिए है न अध्यात्म के लिए है। हमारी संस्कृति में तो इन्हीं चीज़ों के लिए जगह है — पीपल के पेड़ वाली डायन। और किसी का बुखार नहीं उतर रहा तो उसको ले जाकर के ओझा पर बैठा दो, वो उसको झाड़ू-वाड़ू मारेगा तो वो ठीक हो जाएगी। या कि उसपर वो देवी चढ़ गयी है तो अपना बाल खोल के झूम रही है।

ये सब (लेखाचित्र के वक्र) कैसे दिख रहे हैं, किधर को जाते हुए? पढ़ लिया क्या लिखा है? चाइल्ड मॉर्टलिटी (बाल मृत्यु)। एकदम बचा दिया बच्चों को मरने से। पहले की महिला लगभग लगातार गर्भवती रहती थी। कई कारण थे, उनमें से एक प्रमुख कारण ये था कि बच्चें पैदा होते ही मर भी तो जाते थे। कोई पैदा होकर मर गया, कोई दो साल में मर गया, कोई चार साल में मर गया।

तो एक-एक औरत पाँच-पाँच, आठ-आठ—कई बार होता था, क्या है, 'हम बारह भाई-बहन थे,' सुना होगा पुराने लोगों से, वही जो आदर्श पुराने लोग होते हैं, ‘हम तो बारह भाई-बहन थे।’ ये कारण है बारह भाई-बहनों का। इतना मरते थे बच्चें। और बाबाओं और झाड़-फूँक करने वालों ने नहीं बचा लिया है हमारे भाई-बहनों को, विज्ञान ने और शिक्षा ने बचाया है।

और सबसे ज़्यादा, अभी कहा न कि सबसे ज़्यादा अंधविश्वासी तबक़ों में—मैंने कहा—आती हैं महिलाएँ, उन्हीं में आते हैं ग़रीब लोग; ठीक? जो एकदम बेचारे ग़रीब होते हैं, वो बेचारे सबसे ज़्यादा फँसते हैं ये झाड़-फूँक और इन मूर्खताओं में। जादू-टोना, चमत्कार इन सबमें सबसे ज़्यादा ग़रीब लोग ही फँसते हैं।

देखिए कि इसमें (लेखाचित्र में) आपको कई कर्व्स दिख रहे होंगे, दिख रहे हैं? इसमें जो सबसे स्टीप (खड़ा) है, माने जिसकी ढलान सबसे ज़्यादा है, स्लोप (ढलान) सबसे ज़्यादा है, वो कौन-सा है? सबसे ऊपर वाला। ये लो-इंकम कंट्रीस (निम्न-आय देश) का चाइल्ड मॉर्टलिटी कर्व है। माने सबसे ज़्यादा फ़ायदा किनको हुआ है? लो-इंकम लोगों को। लेकिन जिनको विज्ञान से सबसे ज़्यादा फ़ायदा हुआ है उन्हीं में विज्ञान को लेकर सबसे ज़्यादा उपेक्षा और अनादर है। इतने बच्चें मरा करते थे और उसको बिलकुल तेज़ी से गिराकर के विज्ञान ने यहाँ पर (एकदम नीचे) ला दिया।

बल्कि जहाँ इंकम पहले ही अच्छी थी वहाँ विज्ञान बहुत लाभ नहीं दे पाया, जो सबसे नीचे वाला कर्व देखिए वो लगभग फ्लैट (सपाट) है। एकदम नीचे कर्व है, वो देखिए, फ्लैट है एकदम। वो हाई-इंकम कंट्रीज (उच्च-आय देशों) का कर्व है। वहाँ तो पहले ही चाइल्ड मॉर्टलिटी बहुत लो (कम) थी, तो और कितनी गिराओगे! जहाँ हाई (अधिक) थी, देखिए वहाँ से कितनी गिरा दी है।

इसमें फिर दे रखा है, कन्ट्री-वाइज़ (देशों के अनुसार) कि कितना फॉल (गिरावट) है, क्या है। भारत में मैंने कितनी बोली थी? तेईस दशमलव चार; नहीं, तेईस दशमलव चार नहीं थी, चौबीस दशमलव तीन प्रतिशत थी इन्फैंट मॉर्टलिटी रेट और वो अभी गिरकर के हो गयी है तीन दशमलव दो प्रतिशत। और ये सब कुछ हुआ है पिछले पचास साल के अंदर-अंदर। पचास साल के अंदर-अंदर शिक्षा, तर्क, बुद्धि, ज्ञान, विज्ञान ऐसा चमत्कार करके दिखाते हैं — ये है चमत्कार।

वो नहीं होता चमत्कार; कौन-सा? है किसी बाबा में दम कि ये करके दिखाए? बनाओ न, कंप्यूटर्स बनाओ, मोबाईल्स बनाओ, नयी सेमीकन्डक्टर टेक्नॉलजीज़ लेकर के आओ, करो, कर के दिखाओ! अपना झाड़-फूँक, जादू-टोना कुछ हमारे काम में लाओ। हमें भी अच्छा लगेगा भाई।

प्र२: आचार्य जी, प्रश्न ये है कि फिर तो एलॉन मस्क हैं, फिर तो हमें इन्हें बिलकुल सपोर्ट (समर्थित) करना चाहिए, वो बिलकुल सही कर रहा है, वो मार्स (मंगल) पर बसाना चाहता है, वो विज्ञान को ही आगे बढ़ा रहा है फिर तो।

आचार्य: अच्छा?

प्र२: हाँ सर, अरे सर, क्यों नहीं सर?

आचार्य: क्यों नहीं सर! मार्स पर लोगों को बसाना कॉमर्स (व्यवसाय) है या इन्वेन्शन (आविष्कार) है?

प्र२: तो सर, वैक्सीन भी तो कॉमर्स ही थी।

आचार्य: (ताली बजाते हैं) बैठें। 'वैक्सीन कॉमर्स थी!' ये तो वही बात है बोलना कि वेंटीलेटर (मरीजों के साँस लेने मे मदद के लिए चिकित्सीय यंत्र) भी तो कॉमर्स होता है। भाई, आप किसी चीज़ के पैसे दे देते हो इससे वो कॉमर्स नहीं बन जाता न। कॉमर्शियली फीज़िबल (व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य) बनाना एक बात होती है। अब आप थ्योरी ऑफ रेलटिविटी (सापेक्षता का सिद्धांत) का कोई कॉमर्शियल यूज़ (व्यावसायिक उपयोग) करने लग जाओ तो आप बोलोगे कि आइन्सटीन व्यापारी थे?

और साइंस का ऐसा कौन-सा आविष्कार है, ऐसी कौन-सी खोज है जिसको आपने कमर्शियलाइज़ (व्यवसायीकरण) नहीं कर दिया बाद में? इसका मतलब साइंस कमर्शियल (व्यावसायिक) हो गयी? बोलिए। आज न्यूक्लीयर पावर प्लांट (परमाणु ऊर्जा केंद्र) है, उससे आपके घर में जो एनर्जी आती है, उसका आप बिल चुकाते हो, चुकाते हो कि नहीं चुकाते? तो इसका मतलब न्यूक्लीयर साइंस कमर्शियल होती है? साइंस और टेक्नोलॉजी (तकनीक) का अंतर नहीं समझते आप?

साइंस एक चीज़ होती है, टेक्नोलॉजी उसके बाद आती है, उसके बाद टेक्नोलॉजी कमर्शियलाइज़ हो जाती है। साइंस होती है, साइंस से टेक्नोलॉजी उठती है और टेक्नोलॉजी जब मार्केट में पहुँच जाती है तो कमर्शियलाइज़ हो जाती है। वो एक चीज़ है। आप बोल रहे हैं, साइंस ही कमर्शियल है! ये बहुत मूल बातें हैं लेकिन अब हमें नहीं पता तो नहीं पता।

एलॉन मस्क आइन्सटीन हो गया? कैसे? मैं भी जब आईआईटी में था, आज एलॉन मस्क की आप लोग बात करते हैं, उस समय बिल गेट्स का बहुत क्रेज़ (जुनून) था। तो मैं तब भी पूछा करता था, मैं कहता था, यार, तुम हाइसेंबर्ग (एक वैज्ञानिक का नाम) पढ़ते हो, तुम बोर्स (दूसरे वैज्ञानिक) पढ़ते हो, तुम श्रौडिंजर (अन्य वैज्ञानिक) पढ़ते हो, बिल गेट्स ये थोड़े ही हो गए। विंडोज़ (कंप्यूटर सॉफ्टवेयर) में साइंस का कोई बहुत बड़ा रोल (भूमिका) थोड़े ही है। हि इज़ जस्ट कमर्शियलाइजिंग अ पार्टिकुलर टेक्नोलॉजी (वह मात्र एक तकनीक का व्यवसायीकरण कर रहा है)।

लेकिन हमें कोई भी चीज़ जो—चूँकि हम न साइंस जानते हैं न टेक्नोलॉजी जानते हैं—तो कोई भी चीज़ है जो हमें साइंस से संबंधित दिखती है वो हमें एक-सी ही लगती है। जैसे भारतीयों के सामने चीनी, जापानी, कोरियन ला दिए जाएँ, वो सब एक जैसे लगते हैं। वो अंतर ही नहीं कर पा रहे कि भाई, ये अलग-अलग हैं। इतना ही नहीं, उन्हें अपने भी देश के जो उत्तर-पूर्व के लोग हैं वो चीनी ही लगते हैं। क्योंकि आपने कभी पास जाकर देखा नहीं। आप अंतर ही नहीं जानते, तो आप साइंस और टेक्नोलॉजी को भी एक बोल रहे हो और टेक्नोलॉजी और मार्केट को भी एक चीज़ बोल रहे हो। सब चीज़ को गुत्थम-गुत्था करके गड्डमड्ड कर दिया।

साइंस होती है जब आप स्टडी करते हो मोशन ऑफ प्रोजेक्टाइल्स (प्रक्षेप्य गति), वो साइंस है, ठीक है? और वो जो मोशन ऑफ प्रोजेक्टाइल्स है, वो आज भी लगभग वही, आज से कई सौ साल पहले के न्यूटन के लॉज (नियमों) पर आधारित है। वही जो प्रोजेक्टाइल है वो आपको मार्स तक ले जाता है। मार्स तक जाने के लिए आपको प्लैनेटेरी मोशन (ग्रहों की गति) की भी समझ होनी चाहिए। वो आज भी आपको बहुत पुराने जो केपलर्स लॉज़ (केपलर के सिद्धांत) हैं उन्हीं से समझ में आता है। तो आप न्यूटन्स लॉज़ ले लेते हो, केपलर्स लॉज़ ले लेते हो, ये आपको मार्स पर पहुँचा देता है।

उसके आगे आपकी व्यापारी बुद्धि शुरू हो जाती है। वो कहती है मैं मार्स को कोलोनाइज़ (उपनिवेशित) करूँगा और वहाँ पर ऐसी, ऐसी, ऐसी...वही जो कोई भी डेवलपर (विकासक) होते हैं, इतने डेवलपर्स के आते रहते हैं न विज्ञापन, कि ' रहेजा डेवलपर लेकर आए हैं फलानी जगह पर, आइए, आइए, आइए, बसिए!' तो वैसे ही और बता दिया कि 'मार्स पर आकर बसिए, बसिए, बसिए, बसिए, एलोन डेवलपर्स लेके आए हैं।' वो थोड़ा और अमीर लोगों के लिए है। आप एक डेवलपर को एक साइन्टिस्ट बोलते हो क्या? तो यहाँ पर क्यों बोल रहे हो?

प्र२: सर, उनको मैंने इसलिए इतना ऊँचा कहा क्योंकि उनके बारे में मैंने यही पढ़ा, जो आप कह रहे थे, वो अध्ययन करते रहते थे, पूरे दिन पढ़ रहे हैं, उनके बारे में मैंने ऐसा ...

आचार्य: अरे, तो अध्ययन तो एक डेवलपर भी कर सकता है, उससे क्या हो गया? वो साइन्टिस्ट थोड़े ही बन जाएगा उससे?

प्र२: नहीं सर। ये भेद नहीं किया मैंने।

आचार्य: फिर? अगर आपके लिए एलॉन मस्क और आइन्सटीन एक ही कोटि के व्यक्ति हैं तो सावधान हो जाइए, बड़ी गड़बड़ चल रही है भीतर!

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