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लेख
दुःख में याद रहे, सुख में भूले नहीं || आचार्य प्रशांत,संत कबीर पर (2015)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
27 मिनट
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दुःख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।

जो सुख में सुमिरन करै, तो दुःख काहे को होय।।

संत कबीर

प्रश्न : आपने कई बार कहा है कि सुख, दुःख अलग-अलग नहीं, पर यहाँ पर कबीरदास कहते हैं कि सुख के क्षणों में याद करने से दुःख से बचना हो जाएगा। उसका आशय क्या है?

वक्ता : दुःख में क्या याद आता है? दुःख में क्या सत्य खुल जाता है? किसी दुखी आदमी को देखिए, उसकी आँखों में अज्ञान होगा, चिंता होगी, व्याकुलता होगी, अभीप्सा होगी, कामना होगी, आसक्ति होगी, बंधन होंगे, चोट होगी; सत्य होगा क्या? सत्य यदि होता तो क्या आँखों में दुःख के आंसू होते? ठीक कहा गया है कि “दुःख में सुमिरन सब करै” पर ये कौन सा सुमिरन है जो दुःख के काल में होता है? सत्य का सुमिरन होता है क्या?

दुःख में सुख का ही तो स्मरण करते हो। दुःख में सत्य को नहीं याद करते, कृपा करके ये भूल मन से निकाल दो कि “दुखी व्यक्ति सत्य का आकांक्षी हो जाता है।” जब तुम बहुत दुखी होते हो तो तुम सुख को याद करते हो, द्वैत के एक सिरे पर जा कर के दूसरे सिरे से तुम्हारी दूरी सर्वाधिक हो जाती है, तुम्हें उसकी याद सताने लगती है, बहुत दूर हो जाते हो। जैसे पेंडुलम एक छोर पे चला जाए तो उस छोर पे उसकी दूसरे छोर से सर्वाधिक दूरी होती है।

दुखी आदमी को सुख के क्षण खूब याद आते हैं, खूब स्मृतियों में डोलता है। अतीत की साधारण स्मृतियाँ भी स्वर्णिम स्मृतियाँ लगने लगती हैं, अतीत के साधारण पल भी ऐसे लगने लगते हैं कि “वाह! कितना सुख था” और सुख था, ज़्यादा सुख था; तुलनात्मक रूप से। अभी तुम्हारी जो स्थिति है उसकी तुलना में तब बड़ा सुख था, सुख दुःख तो होते ही तुलनात्मक हैं।

दो व्यक्ति हैं, दोनों के पास पचास हज़ार हैं, कैसे हैं? एक के पास एक लाख था, पच्चास हज़ार चोरी हो गया। और एक के पास दस हज़ार था उसको चालीस हज़ार कहीं से मिल गया। दोनों के पास पच्चास हज़ार हैं, एक क्या होगा?

श्रोतागण : सुखी।

वक्ता : और दूसरा क्या होगा?

श्रोतागण : दुखी।

वक्ता : दुखी। इनमे कुछ भी ऐब्सोल्यूट नहीं होता। इनमे से जो भी है वो आश्रित होता है, अवलंबित होता है दूसरे पर। तो दुःख में उसकी याद आती है जिसकी तुलना में दुःख लग रहा है, समझ रहे हो बात को? पर सच तो ये है कि दुःख में यदि तुम्हें सुख की याद न आए तो दुःख भी फिर दुःख नहीं रह जाएगा। जिसका मन ऐसा सधा हो कि दुःख में सोचना न शुरू कर दे कि “इस क्षण का विकल्प क्या हो सकता है?” वो दुःख के क्षण से पूरा गुज़र जाएगा। दुःख को अपने भीतर बैठ ही जाने दे, उसकी दुःख से भागने की कोई इच्छा न हो, उसके सामने और कोई आदर्श या सपना न हो कि ये क्षण बदल जाए और वो आदर्श या सपना साकार हो जाए। उसको दुःख, दुःख जैसे लगेगा ही नहीं, उसके लिए दुःख मात्र एक और स्थिति होगी, “ठीक है, एक और स्थिति है।”

तो दुःख में स्मरण तो सब करते हैं, पर ये न सोचिएगा कि दुःख भर से आप सत्य के सुमिरन में उतर जाएँगे; काश कि ऐसा हो सकता। दुनिया बढ़ी दुखी है, अगर दुःख में ये ताकत होती कि वो आपको सत्य के करीब पहुँचा दे, तो ये दुखी दुनिया कब की सत्य में उतर चुकी होती। सब दुखी हैं, कौन नहीं दुखी है? तो जो पहली बात समझने की ये है कि आप दुःख में सुमिरन करते हैं पर दुःख में सत्य का नहीं सुख का सुमिरन करते हैं। इसीलिए दुःख, दुःख है; जिसे दुःख में सत्य का सुमिरन हो आया उसका दुःख तो तत्क्ष्ण विगलित हो जाएगा। उसे दुःख बचेगा कहाँ?

दुःख है ही इसीलिए क्योंकि आप सत्य की जगह सुख का स्मरण कर रहे हैं। दुःख के पल में यदि मन सत्य में उतर जाए तो फिर दुखी मन दुखी बचा कहाँ? मन ही नहीं बचा, दुखी सुखी का सवाल ही नहीं पैदा होता।

‘सुख में करे न कोय’

बात बिल्कुल ठीक है, मन सुख की तरफ़ भागता है। सुख की परिभाषा क्या? मन जिधर को भागे वो सुख है। समझिए बात को, यदि आपसे कहा जाए कि दो वक्तव्य हैं: मन सुख की ओर भागता है और मन जिधर को भागे उधर सुख है। तो इन दोनों वाक्यों को एक मत समझ लीजिएगा। दूसरा वाक्य ज़्यादा तथ्य परख है, पहले में भ्रम की गुंजाईश है|

हम आम तौर पे सोचते हैं कि मन सुख की तरफ़ भागता है| अब देखिए जब आप ये कहते हैं तो छवि क्या बनती है? छवि ये बनती है कि सुख कोई विषय है, कि सुख कोई वस्तु है जो बाहर रखी हुई है और मन उसकी ओर भाग रहा है| ऐसा ही बनता है ना? कि रसगुल्ला रखा हुआ है और मन उसकी ओर भाग रहा है| जब आप कहते हैं कि मन सुख की ओर भागता है तो आपने सुख को मन से बाहर का कुछ बना दिया, कोई वास्तु या विषय जिसकी अपनी कोई अलग सत्ता है| जिसकी अपनी व्यक्तिगत या व्स्तुपरख सत्ता है, आपने ऐसा बना दिया|

उससे बेहतर है ये कहना कि मन जिधर को भागता है उसी को वो सुख का नाम देता है| यही कारण है कि अलग अलग लोगों के लिए सुख अलग अलग होते हैं| आप जिधर को भागते हैं उसी को आप अपने सुख का नाम दे लेते हैं| इस सूक्ष्म अंतर को ध्यान से समझ लीजिएगा| सुख कुछ है ही नहीं, जैसे आपके मन के संस्कार, वैसे आपके मन की गति| और जिधर को आपके मन की गति है उसी को आप सुख का नाम दे लेते हैं|

मक्खी के संस्कार हैं, जैविक संस्कार हैं मक्खी के कि उसे गंदगी की ओर जाना है; तो मक्खी के लिए सुख क्या है? गंदगी| हिन्दू के संस्कार हैं कि उसे मंदिर की ओर जाना है, तो हिन्दू का सुख क्या है? मंदिर का घंटा| मुस्लिम के संस्कार हैं कि उसको मस्जिद की तरफ़ जाना है तो उसके लिए सुख क्या? अज़ान की आवाज़| जैसा आपको संस्कारित किया जाता है उसी गति में बढ़ना आपका सुख है| और उससे यदि विपरीत तरफ़ आपको जाना पड़े तो उसका नाम दुःख है|

ये बात स्पष्ट हो रही है? सुख कुछ नहीं है| तुम्हारे भीतर एक भाव आरोपित कर दिया जाता है कि देखो तुम में कोई अपूर्णता है, तुम उधर को चलो वहाँ पूर्णता मिल जाएगी, उस दिशा की ओर बढ़ते जाने का नाम सुख है| असल में आप सुख की तरफ़ बढ़ सकें इसके लिए पहले ये ज़रूरी है कि आप में ये प्रतिष्ठापित किया जाए कि फ़िलहाल कुछ कमी है, अन्यथा आप सुख की ओर बढ़ेंगे ही नहीं|

तो अब यहाँ कहा जा रहा है ‘दुःख में सुमिरन सब करै, सुख में करे न कोय’ क्या है जो आप सुख में याद नहीं करते हैं? बात को समझिएगा, पहले हमने कहा कि दुःख में सब सुमिरन करते हैं किसका?

श्रोतागण : सुख का|

वक्ता : सत्य का नहीं, सुख का| अब हम ये देखना चाहते हैं कि सुख में कुछ ऐसा है जो हम याद नहीं करते हैं, क्या नहीं याद करते हैं? ज़रा उसको हम देखना चाहेंगे| जब आप सुख की ओर भाग रहे हैं तो आप क्या नहीं याद कर रहे हैं?

श्रोता३: दुःख|

श्रोता१ : सत्य|

वक्ता : यदि सत्य याद आ जाए तो आप भाग कैसे पाओगे? और ज्यों ही सत्य याद आएगा वैसे ही आपको ये प्रतीति होगी कि सुख और दुःख एक दूसरे के द्वैत संगी हैं, इन्हें साथ चलना है| सुख के क्षण में सत्य का स्मरण दुःख की याद दिला जाएगा तुरंत, जो सत्य में जी रहा है उसे सुख के पल में तुरंत ये याद आ जाएगा कि “ये मैं दुःख का आयोजन कर रहा हूँ|” क्योंकि सुख की ओर जो जितना भागा है उसे दुःख उतना इकट्ठा करना पड़ा है| बिना दुःख इक्कठा किए आपकी सुख की चाह को उर्जा मिल ही नहीं सकती, दुःख ही तो आपको उर्जा देता है सुख की ओर भागने की|

दुःख, वो इंधन जो आपको उर्जा देता है कि सुख की ओर भागो| आपके पास दुःख नहीं है तो आप सुख की ओर भागोगे नहीं| ये सत्य की आवाज़ है, जिसे सत्य याद आ गया सुख के क्षण में उसे दुःख भी याद आ गया, उसे दुःख भी याद आ गया, सुख मिट जाएगा| ‘जो सुख में सुमिरन करै तो दुःख काहे को होय’ सुख में यदि सत्य याद आ जाए, सुख में यदि सत्य याद आ जाए तो दुःख नहीं होगा, ये बात हमें बड़ी आकर्षित करती है| शायद यही कारण है कि ये दोहा इतना प्रचलति भी है, पर कहने वाले ने एक बात नहीं कही, वो छुपी रह गयी|

क्या है जो नहीं कहा? ये तो कह दिया कि सुख में सत्य याद आ गया तो दुःख नहीं बचेगा, पर ये नहीं बताया कि सुख में यदि सत्य याद आ गया तो सुख भी नहीं बचेगा| ये बात ज़ाहिर नहीं होती, ऊभर के सामने नहीं आती| नतीज़ा क्या निकलता है? कि हमारी मूर्खता को ऐसे दोहे बड़े भाते हैं| हमारी मूढ़ता को ऐसा लगता है कि “सुख में जो याद करेगा उसका सुख शाश्वत हो जाएगा” हमे ये लगता है कि जो लोग प्रभु का स्मरण करते हैं वो सदा?

श्रोतागण : सुखी रहते हैं|

वक्ता : देखते नहीं हैं आप, यही आशीर्वाद तो घर के बड़े बूढ़े देते हैं कि “सदा सुखी रहो” और इससे ज़्यादा मूर्खतापूर्ण आशीर्वाद दिया नहीं जा सकता| क्योंकि जो सदा सुखी है उसके पास तो दुःख का अनंत सागर होगा ज़रूर, कि मिटाए नहीं मिट रहा| सुखी कोई अवस्था तो होती नहीं, सुखी होना तो एक दौड़ का नाम होता है, एक गति का नाम होता है| एक कल्पित लक्ष्य की ओर भागे जा रहे हो, इसी दौड़ का नाम सुख होता है|

सुख कोई पहुँच तो होती नहीं, सुख कोई ठहराव तो होता नहीं, सुख कोई मंज़िल तो नहीं है क्योंकि मंज़िल का अर्थ होता है यात्रा का समाप्त हो जाना| सुख की दौड़ किसी की समाप्त तो हुई नहीं, सुख मंज़िल नहीं है, सुख मात्र गति है| भागते रहने का नाम सुख है| उम्मीद का नाम सुख है, कि इस भागते रहने के फल स्वरुप कुछ मिल जाएगा| और हमसे कहा जाता है कि सदा सुखी रहो, यानि कि सदा?

श्रोतागण : भागते रहो|

वक्ता : भागते रहो| “दुश्मनी निकाल रहे हो पापा? क्या बिगाड़ा है तुम्हारा? आशीर्वाद नहीं देना तो न दो, श्राप क्यों देते हो? सदा सुखी रहो|” आदर्श बना लिया है हमने सुखी होने को, तो जब संत हम से कहते हैं कि ‘जो सुख में सुमिरन करै तो दुःख काहे को होय’ तो हमे ऐसा लगता है कि सुमिरन कोई दुःख निरोध की दवा है| मन का मूल-भूत सिद्धांत हम बिल्कुल ही भूल जाते हैं कि जहाँ दुःख निरोध हैं वहाँ पर सुख निरोध भी होगा ही होगा|

सुमिरन से दुःख ही नहीं जाता, सुख भी जाता है| दुःख में भी सुमिरन करना पड़ेगा और सुख में भी, और जैसा कि बिल्कुल शुरू में कहा था कोई ये न सोचें कि दुःख आने से ये पक्का हो जाता है कि आप सत्य का सुमिरन करेंगे, बिल्कुल झूठ बात है ये| दुःख में आप सत्य का सुमिरन नहीं करने लग जाते, दुःख में आप?

श्रोतागण : सुख का|

वक्ता : सुख का सुमिरन करने लग जाते हो, इसीलिए दुखी व्यक्ति में न तो कोई विशेष गरिमा होती है, न वो किसी विशेष सान्तवना का पात्र होता है| हमे दया ज़रूर बहुत आती है उस पर लेकिन यदि मन ज़रा भी बोध युक्त होगा तो वो जानेगा कि सुखी व्यक्ति हो, चाहें दुखी व्यक्ति हो, ये दोनों ही एक बराबर करुणा के पात्र हैं| वही भर आपकी करुणा का पात्र नहीं है जो रो रहा है “कुछ छिन गया”, उसके साथ भी आपकी संवेदना होनी चाहिए जो उत्सव मना रहा है कि “कुछ मिल गया|”

जिसके घर में नाच गाना, आयोजन चल रहा है, बड़ी महफ़िल सजी हुई है कि कुछ हासिल हो गया है, उसको दुआएँ दें, उसके लिए प्रार्थना करें, वो दुःख के दरवाज़े पे खड़ा है, उसने अपने लिए ज़हर बिलकुल घोट लिया है| बस मन को समय बहकाता रहता है, समय वो दीवार है जिसके पार मनुष्य देख नहीं पाता| अगर हमारे पास आँखे होती जो समय के आगे देख पाती, तो हमे दिखाई देता कि आज जहाँ पर ख़ुशी का आयोजन हो रहा है वहाँ उस आयोजन ने ही तैयारी कर दी है कल के मातम की| और आज जहाँ मातम बन रहा है वहाँ मातम बन ही इसलिए रहा है क्योंकि कल वहाँ ख़ुशी का आयोजन हुआ था|

चक्र है, कोई न कहे कि सुख, दुःख का कारण है या दुःख, सुख का कारण है, वो बस दोनों साथ साथ हैं, उनके बीच में समय बैठा रहता है ये हम देख नहीं पाते| सुख है, दुःख है, बीच में समय का अंतराल है, तो इस कारण हम अपने आप को दिलासा दे लेते हैं, भुलावा दे लेते हैं, कि “आज मज़े ले लो ना| दुःख कब आएगा? अरे छ: महीने बाद आएगा| आज तो जन्म की ख़ुशी मना लो, मृत्यु कब होगी? कुछ समय बाद होंगी ना|” सुख और दुःख के सिरों के बीच में समय बैठा हुआ है, और समय बड़ा छलिया है|

जब कहा जाता है कि योगीजन समय के पार देखना शुरू कर देते हैं, त्रिकाल दर्शी हो जाते हैं, तो उसका मतलब समझिए| उसका मतलब यही होता है कि समय उनको बेवकूफ नहीं बना पाता| उसका मतलब ये होता है कि वो द्वैत के दोनों सिरों को अलग अलग नहीं देखते, एक साथ देखते हैं|

समझ रहे हो बात को?

वो हँसते हुए चेहरे में आँसू देख लेते हैं और जिन आँखों में आँसू हैं उन में हँसी भी देख लेते हैं| उन्हें पता है कि ये सब क्या चल रहा है? समझ रहे हो? उठती हुई लहर में वो गिरती हुई लहर देख लेते हैं| लहर में समुद्र, और समुद्र में सारी लहरें एक साथ देख लेते हैं| रात को देखते हैं तो उन्हें दिखाई पड़ता है कि दिन है और दिन को देखते हैं तो रात को भूल नहीं जाते हैं| तमाम वैविध्य के पीछे मन की जो मूल वृति है वो उनके समक्ष सदा प्रकाशित रहती है, और वो बह नहीं जाएँगे , वो भूल नहीं जाएँगे|

दोहे का बड़ा उल्टा अर्थ किया जा सकता है, और आज तक किया भी गया है| जिन बातों के गलत अर्थ किये गए हैं मैं उनको दोहराए देता हूँ: पहली बात जब कहा गया है ‘दुःख में सुमिरन सब करै’ मैं आपसे ज़ोर दे के कह रहा हूँ दुखी आदमी कोई स्वतः ही राम का सुमिरन शुरू नहीं कर देगा| दुखी आदमी मात्र ये याद करने की कोशिश करता है कि “अब बचूं कैसे?” दुखी आदमी को राम नहीं चाहिए, उसे बस आत्म रक्षा चाहिए| दुखी आदमी को किसी तरीके से उस दुःख की स्थिति से हट के एक दूसरी स्थिति चाहिए| उसे दुःख से हटना है, समाधि नहीं पानी है| और दुःख से हटना उसके लिए बस एक अर्थ रखता है, क्या? सुख को पा लेना|

तो जब कहा जाता है कि ‘दुःख में सुमिरन सब करै’ तो कोई न सोचे कि दुःख में आप बड़े आध्यात्मिक हो जाते हैं या आत्मज्ञान उतर आता है, कुछ नहीं होता है ऐसा| हाँ, दुखी मन हिंसक ज़रूर हो जाता है, दुखी मन ऐसा हो जाता है, ज्यों उसे अनुज्ञा मिल गयी हो पूरी दुनिया से बदला निकालने की, भड़ास निकालने की| दुखी मन कहता है “मेरे साथ कुछ गलत हुआ है|” दुखी मन से चारों तरफ़ सिर्फ विक्षेप फैलते हैं| आप किसी दुखी व्यक्ति के साथ बैठे हैं यदि, तो आप शांत नहीं हो जाएँगे| जितना आपको परेशान, व्यर्थ के नगाड़ों की धूम धाम करेगी उतना ही ज़्यादा आपको परेशान उन लोगों की संगत करेगी जिन्होंने धंधा ही बना लिया है दुखी रहना|

आध्यात्मिक मन दुःख का शिकार थोड़ी हो सकता है| आप किसी को बधाई देने जाएँ, ज़रा बच के रहें, कहीं सुख के विषाणु आपको न लग जाएँ| आप किसी को सांत्वना देने जाएँ ज़रा बच के रहें कहीं उसके दुःख के कीटाणु आपको न लग जाएँ| दोनों से बचिए| ये पहला भ्रम, क्या? कि जो दुखी आदमी होता है उसमें कोई विशिष्टता आ जाती है, कोई गरिमा आ जाती है, कोई स्मृति आ जाती है| और कहा भी बहुत गया है कि “दुःख की ज्वाला में पाप जल जाते हैं|” कुछ नहीं होता है ऐसा, पाप यदि जले होते तो दुःख होता क्यों?

पाप, दुःख की ज्वाला में नहीं जलते हैं, पाप बोध की ज्वाला में जलते हैं| दुःख को गौरवांवित न करें, दुःख का कोई महत्व नहीं है, आपके जागरण का महत्व है| एक सपना सुख का होता है, एक सपना दुःख का होता है, दोनों ही स्थितियों में आप सो रहे हैं| दुःख के सपने का कोई विशेष महत्व नहीं| तुम व्यर्थ ठहाके मार रहे हो, हम उन्हें क्या महत्व दें? और तुम खूब आँसू बहा गए हम उन्हें क्या महत्व दें? दोनों ही स्थितियों में तुम बेहोश थे|

महत्व तो तुम्हारे जागरण का है| तुम जगो तो कुछ बात बने|

और दुखी जनों ने दुखी होने को भी एक तरीका बना लिया है अपने अहंकार के लिए कुछ लाभ अर्जित कर लेने का, वो सब ऐसी ही मूढ़ताओं के कारण है| कहीं न कहीं हमारे मन में ये बात बैठी हुई है कि दुःख में कुछ पुनीत है, कि दुःख में कोई सफ़ाई है, कि दुःख में कोई पुण्य है| आप देखिएगा, आप एक प्रयोग कर लीजिए, तीन चार लोग खड़े हों और वो हँसी ठठा कर रहे हों और दो लोग बैठे हों वो बिलकुल मरी हुई, उदास सूरत बना के रो रहे हों, और आपसे पूछा जाए कि इनमे से ज़्यादा चरित्रवान कौन है? तुम्हारी संवेदना किसके साथ है? तुम किसकी तरफ़ जाना चाहोगे?

आप निश्चित रुप से रोते हुए लोगों को ज़्यादा पुण्यात्मा समझेंगे| ये बात बहुत झूठ है और हमारी बड़ी गहरी मूढ़ता है| आप फिल्म वगैरह देखने जाते हैं, उसमे आप कभी न पाते होंगे कि जो खलनायक है वो बैठ के आँसू बहा रहा है, वो ठहाके मारता है| ऐसे ही अभिनीत किया जाता है कि खलनायक ठहाके मार रहा है और नायक की जो माँ है चरित्रवती, विधवा वो लगातार रोती है| वो रोने के आलावा कुछ करती नहीं, अरे रो के ही तो, दुःख से ही तो सिद्ध होगा कि तुम में कोई बात है| आज भी यही होता है घरों में, जो रोता है उसे रोने के लिए कुछ विशेष अंक मिल जाते हैं “ये देखो रो रहा है|”

आपके सामने दो लोग आए हैं, उनमे झगड़ा हो गया हो, एक सामान्य रुप से अपनी बात कहे और दूसरा रो रो के कहे; बड़ी संभावना है कि आपका निर्णय रोते हुए व्यक्ति के पक्ष में जाएगा| आप कहेंगे देखो “इसका रोना इस बात का सबूत है कि इसका दिल साफ़ है|” कृपया रोने के पक्षधर न बनें, ‘दुःख में सुमिरन सब करै’ का अर्थ ये बिल्कुल नहीं है कि जो दुःख में है उसे राम धुन याद आ गयी है, कुछ नहीं होता ऐसा| जिसे राम धुन याद आ गयी होती वो अभी रो रहा होता? कृपया इन भ्रमों का शिकार न बन जाएं, मातमी लोगों से बचें|

अनंदिता और अनु द्वैत के दो सिरे हैं| एक से ठहाके मारे बिना नहीं रहा जाता और एक से मातम मनाए बिना नहीं रहा जाता| दोनों के अपने अपने संस्कार हैं, अपनी अपनी मूढ़ताएँ हैं, अपने अपने भ्रम हैं| लेकिन पुण्यात्मा ज़्यादा अनंदिता कहलाएगी| अनु पे तो हमेशा ज़रा सा शक बना रहेगा “ये हँसती कुछ ज़्यादा है? स्त्रियों में ज़रा कुछ लज्जा होनी चाहिए| यहाँ मामला ज़रा कुछ गड़बड़ है, कुछ खोट है ज़रूर, इतना हँसती क्यों है?” खोट है ज़रूर पर बराबर की है, जितनी इधर है उतनी उधर भी है| जिसके भीतर सुख की कुलबुलाहट छूट रही हो उसे भी राम नाम याद नहीं और जो लगातार रोए ही पड़ा हो उसे भी राम नाम याद नहीं|

आ रही है बात समझ में?

दूसरा भ्रम जो रहता है वो ये रहता है कि सुमिरन करने से दुःख छूट जाएगा| हमने क्या कहा? कि सुमिरन करने से दुःख नहीं छुटेगा, दुःख-सुख छुटेगा| इस लालच में सुमिरन मत करिएगा कि सुमिरन करने से दुःख छूट जाएगा सुख मिल जाएगा| सुमिरन करने से सुख दुःख दोनों छूटता है| आँसू तो सूखते ही सूखते हैं, ये जो विक्षिप्त हँसी है ये भी रुक जाती है| दोनों जाते हैं, सहजता बचती है, हँस लिए तो हँस लिए, रो लिए तो रो लिए, न हँसने से कोई विशेष आकर्षण, न रोने से कोई ख़ास दोराव| मौका था हँस लिए, मौका आया रो लिए, कुछ दोनों में ख़ास नहीं| हमे किधर को भी नहीं जाना, हम तो बैठे हैं अपनी जगह पर, केंद्र पर|

बात स्पष्ट है?

श्रोता२ : सर, रूमी जब कहते हैं कि ‘ वूंड इज़ द प्लेस व्हेयर द लाइट इंटर्स यू’ और सेशन में भी आपने एक बार कहा है कि जब कोई संभावना बनती है सत्य की तरफ़, तो इसका क्या?

वक्ता : ‘वूंड इज़ द प्लेस व्हेयर द लाइट यू’ पर वो जो वूंड है वो किसको है? एक रोते आदमी को आप रोने से मना करें यही उसके लिए घाव है| जब आप वूंड कहते हैं तो छवि मत बना लीजिएगा, रूमी ने कहा कि “तुम्हारे घाव ही वो स्थान हैं जहाँ से प्रकाश तुम में प्रवेश करेगा” पर घाव का अर्थ क्या है? घाव का अर्थ अलग-अलग है, घाव इस पे निर्भर करता है कि तुम हो कौन? अगर तुम संस्कारित हो हँसने के लिए तो तुम्हारे लिए घाव क्या होगा? क्या घाव होगा तुम्हारे लिए?

श्रोता२ : उदास होना|

वक्ता : कि कहाँ जाएँ कि “अरे ये क्या कर रही है? क्यों व्यर्थ आवाजें निकालती रहती है? शांत रह|” ये घाव होगा| और जो संस्कारित हो सदा सुबकने के लिए उसके लिए घाव क्या होगा? कि “अरे! हँस लिया कर, क्या रोती रहती है?” घाव अलग अलग है| एक के लिए हँसना घाव है, एक के लिए रोना घाव है| घाव से आशय यही नहीं है कि कुछ बुरा बुरा, जिसके संस्कार हैं बुरा बुरा में जीने के उसके लिए क्या घाव है?

श्रोतागण : अच्छा|

वक्ता : मक्खी के लिए बहुत बड़ी सज़ा है एक साफ़ कमरा, हो गया वूंड | आप वूंड यही क्यों मान रही हैं कि कुछ बुरा हो जाएगा? जो आपकी दृष्टि में बहुत अच्छा है वो बुरा हो जाएगा| जब रूमी कहते हैं कि “जब घाव लगते हैं तब प्रकाश की संभावना बढ़ती हैं” तो उनका अर्थ समझिए, घाव लगते हैं शरीर पर, एक बॉडी चाहिए, एक पिंड चाहिए जिस पर घाव लगें, वो ग्रंथियों का पिंड है, वो आपके संस्कारों का पिंड है|

तो जब वो कहते हैं “घाव लगते हैं तभी प्रकाश प्रवेश करता है” तो उनका अर्थ है कि आपके संस्कारों पर जब चोट पड़ती है तब प्रकाश प्रवेश करता है| और संस्कार दोनों तरफ़ के हो जाते हैं, हो सकते हैं, होते ही हैं| दाएँ चलने के लिए मन संस्कारित होता है और बाएँ चलने के लिए भी, जिधर भी चलने के लिए मन संस्कारित है, वही आपका पिंड है, वही आपकी ग्रंथि है| उसी पर चोट लगना सत्य है| आपको तो मध्य में खड़े रहना था, आप दाएँ चल दीं, आपको चोट लगे इसका क्या अर्थ होगा? कि आपसे कहा जाए कि “क्यों दाएँ जा रहे हो, खड़े रहो न चुप चाप मध्य में” ये आपका वुंड हुआ|

एक दूसरा व्यक्ति है वो संस्कारित है बाएँ जाने के लिए, उसको क्या कहा जाएगा? “क्यों बाएँ जा रहे हो, देख नहीं रहे कि बाएँ जाना सिर्फ लादा गया है तुम्हारे ऊपर, मस्त खड़े रहो केंद्र पर” ये उसका वूंड हो जाएगा| बात बड़ी अजीब सी है, एक को कहा जा रहा है दाएँ न जाओ, ये वूंड है और एक को कहा जा रहा है बाएँ न जाओ ये वूंड है|आप जिधर को भी जा रहे हो, उसी आवेग का टूटना ज़रूरी है| आप जिस भी चक्र में फंसे हुए हो उसी चक्र का, उसी चक्कर का टूटना ज़रूरी है| हम सभी चक्करों में फंसे हुए हैं ना, ज़िन्दगी घनचक्कर है| आप जिधर भी फंसे हुए हो-फंसे हुए हो, फंसे हुए हो-फंसे हुए हो उसी का टूटना सत्य की निशानी है| वो सत्य के होने से ही टूटता है और उसके टूटने पर मन सत्य की ओर उन्मुख होता है| सत्य का ही ज़ोर होता है जो उसे तोड़ता है, और जब वो टूटता है तो मन सत्य की ओर उन्मुख होता है|

मैं फिर दोहरा रहा हूँ, दुःख में कुछ विशेष नहीं है| कृपया करके मातमी लोगों को ख़ास महत्व न दें| लेकिन साथ ही साथ ये भी कह रहा हूँ कि व्यर्थ की ‘हा हा हू हू’ में भी कुछ विशेष नहीं है| ये जो चिलबिलाते हुए लोग होते हैं, इनको भी कोई विशेष महत्व न दें| हम दोनों ही काम करते हैं, कई लोग होते हैं जो कहते हैं “न न न मुझे तो चीयरफुल लोग बड़े अच्छे लगते हैं” और चीयरफुल से उनका आशय क्या होता है? “हे हे हे” अरे घोड़ी को शोभा देता है हिनहिनाना हर समय, तुम्हें नहीं शोभा देता| शांत रहें, घोड़ी भी व्यर्थ नहीं हिनहिनाती |

न सुख से आसक्ति, न दुःख से आसक्ति| सुख है तो सुख है और दुःख है तो दुःख है|

श्रोता३: आचार्य जी, बोला था कि सुख एक लगातार दौड़ है, तो इसका मतलब कोई भी सुखी नहीं, सब दुखी ही है| सर वैसे कुछ लोगों को लगता है कि मेरे को जो चाहिए वो मिल गया है, उनके संस्कारों के हिसाब से| तो फिर वो लोग भी सुखी नहीं हैं|

वक्ता : उन्हें लगता नहीं है वो ये कहते हैं| आप उनके साथ ज़रा उनके जीवन को और कर्मों को देखें तो दिखाई देगा कि इन्हें कुछ मिल नहीं गया है ये दौड़ में पूरे तरीके से शामिल हैं| हाँ, इन्होने एक वक्तव्य सीख लिया है कि “भाई हमे तो जो चाहिए था वो हासिल हो गया|” इन्हें एक फ़ोन कॉल आया जाए कि “बैंक अकाउंट में जितने पैसे थे उसमे से आखिर का एक शून्य कम है” फिर देखिए इनकी सारी स्थिरता, सारी शान्ति, सारा कंपोज़र कैसे गायब होता है| या इन्हें बस एक सन्देश आ जाए कि “ज़रा वहाँ पहुँच जाना, वहाँ पहुँचने से इतने लाख का मुनाफ़ा हो जाएगा” देखिए कैसे भागते हैं| यदि तुम्हें वो मिल ही गया होता जो तुम्हें चाहिए था तो तुम्हारी दौड़ कब की ख़त्म हो गयी होती| दौड़ पूरी है तुम्हारी ज़िन्दगी में, वासना पूरी है तुम्हारी ज़िन्दगी में, इज्ज़त की आकांक्षा है तुम्हें और तुम कहते हो तुम्हें वो मिल गया जो मिलना था|

जिसे वो मिल ही गया हो जो उसे मिलना था, उसे क्या कभी ये लगेगा कि दुनिया मेरा सम्मान करे? पर बहुदा ये घोषणा की ही इसीलिए जाती है कि मुझे सम्मान मिले| “देखिए साहब हमे तो जो चाहिए था हमे मिल गया है, तो अब हम सम्मान के अधिकारी हैं, अब वो दीजिए” पा लेने में और कह देने में कि पा लिया, बड़ा अंतर है| “साहब हमारा तो पेट पूरा भरा हुआ है| लाना भाई दो कचौड़ी और|” अब हम तुम्हारे कथनी को देखें या तुम्हारी करनी को देखें? तुम्हारा पेट भरा होता, तो तुम दो और ठूंसते? “हमें तो अब और कुछ नहीं चाहिए, बस लड़का ज़रा सेटल हो जाए|” अच्छा| “नहीं मतलब ये है कि हमे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए लड़के के लिए माँग रहे हैं, लड़का ज़रा सेटल हो जाए” ठीक है, ठीक है| “नहीं हमारी अपने लिए तो कोई इच्छा ही नहीं है, हम तो समाज के लिए माँगते हैं” क्या? “हमे प्रधानमंत्री बना दो| अपने लिए थोड़ी कोई इच्छा है, हमे चुन लो समाज का भला होगा| अपने लिए हम थोड़ी कुछ माँगते हैं|”

तुम या तो मूर्ख हो या निछ हो, या दोनों| समझ में नहीं आता तो मूर्ख हो, धोखा दे रहे हो तो निछ हो, और समझ समझ के धोखा दे रहे हो, तो बड़े नीच किस्म के मूर्ख हो|

श्रोता३: आचार्य जी, मन का मूल संस्कार हमेशा दौड़ते रहना ही है|

वक्ता :

‘दौड़त दौड़त दौड़िया , जेति मन की दौड़|

दौड़ दौड़ मन थकी गया, वस्तु ठौर की ठौर||

थकता है नहीं लेकिन दिक्कत ये है| पता नहीं क्या पी के आया है? बड़ा स्टैमिना है| मर मर गया शरीर लेकिन आशा तृष्णा नहीं मरी| शरीर साथ दे न दे मन जवान रहता है, अब उठा नहीं जा रहा पर वासनाएँ अभी भी उठी हैं, तैयार हैं|

श्रोता४ : कबीर का जो अभी हमने देखा, ‘*दुःख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय, जो सुख में सुमिरन करै, तो दुःख काहे को होय’ *, कबीर का ही एक और भी है ‘टोटे में भक्ति करे ता का नाम सपूत’ मतलब वहाँ पे उसको सपूत कहा गया है जो सत्य का सुमिरन कर रहा है दुःख में भी|

वक्ता : टूटे में, बिना कुछ पाए और बिना कुछ पाने की आकांक्षा किये| दुःख नहीं है वहाँ पर, पज़ेशन नहीं है, परिग्रह नहीं है| जो उसकी अगली पंक्ति है वो ये है कि बड़े बड़े इक्कठा हुए थे ‘केते गए अपूत’, टोटे में भक्ति करे माने उसकी भक्ति सकाम नहीं है| भक्ति इसीलिए नहीं कर रहा है कि कुछ मिल जाएगा, बस यूँ ही है उद्देश्यहीन भक्ति, निष्काम भक्ति| ये अर्थ है, उसका दुःख सुख से लेना देना नहीं है, आकांक्षा से लेना देना है, कि भक्ति ऐसी नहीं होती है कि “ये पा लें कि वो पा लें तो भक्ति करने पहुँच गए, वो नहीं|"

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