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लेख
ध्यान का प्रयत्न ही बंधन है
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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निःसंगो निष्क्रियोऽसि

त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः।

अयमेव हि ते बन्धः

समाधिमनुतिष्ठति॥१-१५॥

आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है ॥15॥

~ अष्टावक्र गीता

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अष्टावक्र इस श्लोक में ऐसा क्यों कह रहे हैं कि ध्यान की हर विधि बंधन है?

आचार्य प्रशांत: जब आप अपने आप को कहीं से दूर मानते हैं, तभी उस जगह की ओर जाने की कोशिश करते हैं। ध्यान में आप एक लक्ष्य बनाते हैं और लक्ष्य बनाने की सर्वप्रथम ज़रुरत ही इसीलिए पड़ती है क्योंकि आप अपने आपको लक्ष्य से अलग/इतर् मान रहे हैं।

आत्मा तो असंग है, निष्क्रिय है। अगर आप अपने आप को आत्म ही जान रहे होते तो आपको ध्यान की ज़रुरत नही पड़ती। आप जब ध्यान करते है तो आपका घोषित लक्ष्य तो ये होता है कि आपको आत्मा से प्रेम है तो आप आत्मा की तरफ बढ़ना चाह रहे हैं। लेकिन वस्तुतः आप ध्यान करके ये घोषणा कर रहे होते हैं कि मैं आत्मा से दूर हूँ। और

आपका घोषित लक्ष्य क्या है ये बड़ी बात नहीं है। आपके कर्म आपकी स्थिति की क्या गवाही दे रहे हैं, ये बड़ी बात है।

अपने आपको को आत्मा से दूर करके फिर ये कहना कि मुझे आत्मा से बहुत प्यार है, ये कोई ईमानदारी की बात नहीं हुई। और ये जो ईमानदारी का अभाव है यही ध्यान में दिखाई देता है। क्योंकि आपने पहले तो अशांति से नाता जोड़ा, अशांति मने अनात्मा। पहले तो आपने अशांति से नाता जोड़ा और फिर आपने ये कहा कि मुझे शांति से इतना प्यार है कि अब मैं ये विधि, ये क्रिया, ये प्रक्रिया अपना रहा हूँ। और इनके माध्यम से ध्यान कर रहा हूँ और आत्मा को, शांति को पाना चाहता हूं। ये बड़ी विकृत बात है। ध्यान करके अगर आप गौर से देखेंगे, हम इस बात को और दृढ़ कर लेते हैं कि आत्मा से अलग भी हम कुछ हैं। तो इसीलिए अष्टावक्र को कहना पड़ा है कि तुम्हारा बंधन ही यही है, कि तुम ध्यान की कोशिश में लगे हो।

ध्यान की कोशिश और सहज ध्यान दो बहुत अलग-अलग बातें है। समाधि की ओर जाने वाले रास्तों पर चलना और सहज समाधिष्ट ही रहना, दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। इसीलिए कबीर कहते है "साधो सहज समाधि भली", वो समाधि की प्रणालियाँ या पद्धतियां नहीं बताते। वो कहते हैं सहज माधि में जीओ, उससे दूर भागने की कोशिश न करो, यही बहुत है।

साधो सहज समाधि भली

समाधि के आयोजन नहीं। समाधि की फिक्र नहीं। समाधि से दूरी नहीं। समाधि की ओर गति नहीं। मात्र सहज समाधि, जो न आती है, न जाती है। जिसको पाने की जरूरत इसलिए नहीं पड़ती क्योंकि उसको खोया ही नहीं जा सकता। वही सहज समाधि, वही सहज ध्यान, सब ऋषियों ने सुझाया है। इसलिए अष्टावक्र फिर कह रहे हैं कि तुम्हारा बंधन ही यही है कि तुम ध्यान का अभ्यास करते रहो।

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