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लेख
देखो संगति का असर || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। कुछ चीज़ें हमें साफ़-साफ़ पता चलती हैं कि हम ग़लत कर रहे हैं, किसी को धोखा दे रहे हैं, इत्यादि। लेकिन कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं जो व्यर्थ होती हैं लेकिन करते समय लगता है कि चलो, कर दिया तो कर दिया, कोई ऐसी बात नहीं है।

किसी के साथ बैठें हैं फ़ालतू, हँसी-मज़ाक और तफ़री चल रही है। वो चीज़ें व्यर्थ हैं लेकिन उनसे कोई नुक़सान दिखता नहीं।‌ लेकिन ये लगता है कि ये जो मंडली है ये हमारा स्तर गिरा रही है। ये चीज़ें जब हो रही होती हैं तो उस समय कुछ समझ में नहीं आता।

आचार्य प्रशांत: ये बातें जो साधारण लगती हैं, लगता है कि इनमें कोई नुक़सान तो है नहीं, ये बातें हमें नुक़सानदेह कम इसीलिए लगती हैं क्योंकि हम नुक़सान को भी बड़े स्थूल, ग्रॉस तरीक़े से नापते हैं। उदाहरण के लिए, किसी से हँसी-मज़ाक कर रहे हो और हँसी-मज़ाक करके उठे और पाया कि जेब से एक दो हज़ार का नोट ग़ायब है। तो तत्काल क्या बोल दोगे? कि हँसा-हँसाकर बेवकूफ़ बना गया। ठीक?

अब गुस्सा भी आएगा, चिढ़ोगे भी, ग्लानि उठेगी, अगली बार के लिए क़सम खाओगे, 'इस आदमी से कोई हँसी-मज़ाक नहीं करनी।' क्यों होगा ये सब? क्योंकि तुम्हें अब एक ग्रॉस प्रूफ़ , एक टेंजिबल प्रूफ , एक स्थूल प्रमाण मिल गया है कि तुम्हारा नुक़सान हो गया। नुक़सान उतना ही बड़ा भीतर भी होता है लेकिन हम उसको मूल्य नहीं देते, वैल्यू नहीं देते।

तो सवाल फिर नुक़सान का नहीं है, सवाल वैल्यूएशन (मूल्याँकन) का है। नुक़सान तो हो ही रहा है, लेकिन हम मूल्य उसी नुक़सान को देते हैं जो स्थूल हो, टेंजिबल हो। जो आन्तरिक नुक़सान है — मानसिक, स्पिरिचुअल कह लो, साइकोलॉजिकल (मनोवैज्ञानिक) — जो भी कहना चाहो, उसको हम मूल्य ही नहीं देते। क्यों? अब इसमें जाओगे तो फँसोगे, क्योंकि हम ख़ुद अपनी हस्ती के जो स्थूल रूप हैं, जो ग्रॉस एस्पेक्ट्स हैं, हम बस उसको ही मूल्य देते हैं।

अगर मैं अपनी हस्ती में — मेरी हस्ती में देह भी आती ही है — अगर मैं अपनी हस्ती में बस देह को कीमत दूँगा तो मुझे अपना नुक़सान भी सिर्फ़ कब दिखाई देगा? जब नुक़सान होगा शरीर का। तो मैं कहूँगा, 'अब कुछ नुक़सान हुआ है।' क्यों? क्योंकि मैं ख़ुद मूल्य, वैल्यू ही शरीर को देता हूँ। तो मैं शरीर के नुक़सान को नुक़सान मानता हूँ और अगर भीतर जो मन है मैं उसको मूल्य दूँगा तो फिर मैं उसकी सफ़ाई का भी ख़्याल रखूँगा न, कि नहीं?

हम आमतौर पर बाहर की हानि को और बाहर के ही लाभ को मूल्य देते हैं क्योंकि हम अपनेआप को भी बस जो बाहर-बाहर दिखाई देता है, उतना ही जानते हैं। तो उदाहरण के लिए कोई आपकी शर्ट गन्दी कर जाए, आप चिढ़ जाते हैं। कोई आपका मन गन्दा कर गया, आप कम चिढ़ते हैं या हो सकता है खुश हो जाते हों।

लेकिन जो लोग आपका मन गन्दा कर रहे हैं वो भी इतना तो लिहाज़ रखते ही हैं, इतनी सावधानी तो बरतते ही हैं कि वो कभी आपकी शर्ट नहीं गन्दी करते। उन्हें पता है कि मन गन्दा कर लो, ये कुछ नहीं बोलेगा, शर्ट गन्दी कर दी तो ये चिल्लाएगा और फिर मन गन्दा नहीं करने देगा।

जैसे-जैसे तुम अपनी ज़िन्दगी में देह से ज़्यादा मन को अहमियत देना शुरू करोगे, वैसे-वैसे उन लोगों की संगति से बहुत बचोगे जो मन ख़राब करते हैं। और जब तक तुम एक देह केंद्रित जीवन जी रहे हो जिसमें देह के ही सुखों की प्राथमिकता है, कि बढ़िया लज़ीज़ खाना मिल गया, ‘क्या बात है! क्या बात है!’ या, ‘वाह क्या जगह है, यहाँ घूमने को मिल जाए, क्या बात है, क्या बात है!’ या देह के और सुख मिल गये, सेक्स (सम्भोग) वगैरह। जबतक इन सब चीज़ों को तुम बहुत मूल्य देते हो — वैल्यू की बात है — जबतक इन चीज़ों को बहुत मूल्य देते हो, तब तक तुम बस जो ग्रॉस (स्थूल) फ़ायदे और ग्रॉस नुक़सान होंगे, उनको ही मूल्य दोगे। फिर तुम कहोगे कि ये चीज़ है, इस चीज़ को पाया तो बहुत कुछ मिलेगा। क्यों? क्योंकि चीज़ भी स्थूल है, हम भी स्थूल हैं। चीज़ों के लिए तुम जान लगाने को तैयार हो जाओगे। लेकिन जहाँ मन साफ़ होता हो, मन शुद्ध होता हो, उस जगह को तुम उतना वैल्यू नहीं दे पाओगे। तुम कहोगे, 'ये तो ठीक है, इसमें क्या रखा है।'

तो याद रखिए कि मूल्य आप सामने वाली चीज़ का नहीं करते हैं, मूल्य आप अपना करते हैं। आप अगर अपनी देह को मूल्य देते हैं तो आपके लिए बहुत मूल्यवान चीज़ होगी उदाहरण के लिए, एयर कंडीशनर , आप एयर कंडीशनर के लिए प्राण त्यागने को तैयार हो जाएँगे। क्यों? क्योंकि आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है? आपकी देह। आप देहभाव में जी रहे हैं।

जो देहभाव में जी रहा है, अर्थात पदार्थ भाव में जी रहा है वो बाहर के भी पदार्थ को ही मान्यता देगा और मूल्य देगा। और जो कह रहा है, ‘मैं चेतना हूँ, मैं मूलतः चेतना हूँ’ — वही चेतना स्थूल रूप से शरीर होकर दिखाई देती है और मूल रूप से आत्मा है — ‘चेतना हूँ मैं। मुझे इस चेतना को साफ़ रखना है। भीतर का मैदान, भीतर का आकाश साफ़ होना चाहिए। देखो, उसमें कूड़ा-कचरा ना रहे।’ वो फिर स्थूल पदार्थों को कम ही मूल्य देगा। वो फिर ऐसी संगति को मूल्य देगा जहाँ मन साफ़ रहे। और फिर वो ऐसी संगति के लिए कोई भी दाम चुकाने को भी तैयार हो जाएगा। वो कहेगा, 'बताओ, क्या नुक़सान झेलना है? हम सारे नुक़सान झेल लेंगे पर ऐसी संगति मिलनी चाहिए।' समझ रहे हो बात को?

तो ये समस्या सिर्फ़ उन पलों की नहीं है जब किसी के साथ हँसी-मज़ाक कर रहे हो और वो हँसी-मज़ाक भीतर जाकर के कचरा बन रहा है, सिर्फ़ उन पलों की बात नहीं है। ये तुम्हारे पूरे चौबीस घंटों के जीवन की बात है। लगातार देखते रहो कि किन चीज़ों को अहमियत दे रहे हो, मूल्य। ख़ुशबू है, 'आह, क्या ख़ुशबू है! क्या ख़ुशबू है!' और लग गये ख़ुशबू की दाद देने। समझ लो कि किस चीज़ को मूल्य दे दिया? कुछ ऐसे को जो स्थूल है। जो ख़ुशबू को मूल्य दे रहा है वो मन की सफ़ाई पर फिर बहुत मूल्य नहीं रखेगा। या खाने को दे दिया, या कि सुंदरता होनी चाहिए, ये होना चाहिए। चौबीस घंटे वो सब (मूल्यांकन) ठीक रहेगा अगर, तो फिर ये भी नहीं होगा कि तुम धोखे से, अनायास, ग़लत संगत के चपेट में आ जाओ, वो भी नहीं होगा।

ग़ौर किया है तुमने? मज़ा आएगा — जो कुछ तुम्हारे मन को गन्दा कर रहा होता है अक्सर वो साथ-ही-साथ तुम्हारे शरीर को सुख दे रहा होता है।

सबसे ज़्यादा तुम्हारे मन को गन्दा कब किया जा रहा होगा? चार यार बैठे हैं, शनिवार की रात, शराब है और शबाब है और कबाब है। तो शरीर को तो तृप्ति मिल ही रही है न, शरीर को तो तृप्ति मिल ही रही है, शराब भी है, कबाब भी है। और ठीक उसी वक़्त मन गन्दा किया जा रहा है। तुम्हें रिश्ता दिखाई दे रहा है? इन दोनों में रिश्ता है।

और ये गन्दगी सम्भव ही इसीलिए हो पा रही है क्योंकि हम मूल्य दे रहे हैं शरीर को। तो शरीर मस्त हुआ जा रहा है; बढ़िया, लज़ीज़ पकवान हैं और बढ़िया दारू है। शरीर मस्त हुआ जा रहा है, मन गन्दा हुआ जा रहा है। पर मन की गन्दगी की फ़िक्र नहीं हमें क्योंकि मन को हम मूल्य नहीं दे रहे, और ये दोनों साथ-साथ चलेंगे।

आम तौर पर जाँच लेना कि नब्बे प्रतिशत ऐसा ही होगा। जहाँ कहीं देह को मौज मिल रही होगी, वहाँ मन गन्दा हो रहा होगा। आवश्यक नहीं है कि सदा ऐसा हो, पर दस में से नौ मौक़ों पर ऐसा ही होगा। और जो कोई ये निशाना बनाएगा कि तुम्हारे मन को गन्दा करे, मैं कह रहा हूँ वो तुम्हारे शरीर को सुख ज़रूर देगा। कुछ-न-कुछ तुमको मज़ा दिलाएगा, और जहाँ शारीरिक मज़ा वगैरह मिला नहीं, तहाँ हम सारे अपने द्वार-दरवाज़े खोल देते हैं, 'आइए, आइए भीतर हगकर चले जाइए।' यही है न?

पुरानी कहावत है, सब जानते हैं, नई बीवियों को बताया जाता है कि शौहर के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर गुज़रता है, उसके मन पर छाना है तो उसके पेट को खुश रखना। शौहरों का कहना थोड़ा सा अलग है, वो कहते हैं, 'पेट से नहीं, पेट से थोड़ा सा और नीचे से होकर गुज़रता है।' लेकिन बात दोनों ही जगह शारीरिक सुख की हो रही है, कि शारीरिक सुख दो, फिर दिल पर कब्ज़ा कर सकते हो। और ये दिल पर कब्ज़ा इसलिए नहीं किया जा रहा कि दिल को शान्ति और समाधि दिला दी जाएगी, ये दिल पर कब्ज़ा इसलिए किया जा रहा है कि वहाँ बैठकर के… (मन गन्दा किया जाएगा)।

अब इसका उल्टा भी सही है, बात दूर तक जाती है। दस में से नौ मर्तबा ऐसा भी होगा कि जिन जगहों पर मन की सफ़ाई हो रही होगी, वहाँ शारीरिक सुख नहीं मिलेगा। तो ऐसी जगहों से हम वैसे ग़ायब होंगे जैसे गधे के सिर से सींग, काहे कि वहाँ शारीरिक सुख तो मिल ही नहीं रहा। इसलिए समझे तुम कि अध्यात्म की ओर लोग कम क्यों आते हैं? अध्यात्म में पूरी-पराँठे की बहुत कीमत नहीं है न, अब आधुनिक अध्यात्म में हो गयी है, वहाँ सब चलता है, वहाँ पिज़्ज़ा भी चलता है। पर आमतौर पर अगर तुम जाओगे साधुओं-फ़कीरों के पास, तो शारीरिक सुख तो नहीं ही पाओगे।

सब तीर्थ वगैरह भी कहाँ बनाये गए? वहाँ (ऊपर की ओर संकेत)। अब तो वहाँ हेलीकॉप्टर से पहुँच जाते हो, पर जब बनाये गए थे वो तो ऐसे ही बनाये गए थे कि जान निकल जाए वहाँ पहुँचने में। कि जो तैयार हो कि शरीर की क़ुर्बानी दे ही देंगे वही वहाँ पहुँच पाये, आम आदमी पहुँच ही न पाये। कहीं जंगल के अंदर बना दिया — अब तो जंगल काट डाले, अब तो वहाँ हाईवे जाता है — पहाड़ पर बना दिया, दूर समुद्र किनारे बना दिया।

इसीलिए जिन लोगों को शरीर से बहुत मोह होता है, देहाभिमानी होते हैं, वो साधना वगैरह कर ही नहीं पाते। और साधना से मेरा मतलब साधना की कोई पद्धति नहीं है, मैं जीवन को सुधारने की बात कर रहा हूँ। उसको साधना कह रहा हूँ। उनका जीवन फिर सुधर ही नहीं पाता।

जिस आदमी को शरीर से जितना लगाव होगा, जो शरीर के कष्ट से जितना घबराता होगा, उसकी ज़िन्दगी में उतनी कम तरक़्क़ी होगी, और तरक़्क़ी से मेरा मतलब प्रमोशन और अप्रैज़ल नहीं है। मैं आध्यात्मिक तरक़्क़ी की बात कर रहा हूँ। और जो आदमी अपने शरीर को तोड़ने के लिए जितना तैयार होगा, जो शरीर से कम-से-कम लगाव रखता होगा, उसकी सम्भावना उतनी बढ़ जाएगी कि वो आन्तरिक रूप से तरक़्क़ी करके जीवन का उत्कर्ष हासिल कर सके।

ऐसों से बचना जो मिलते ही ये कहते हैं कि चल यार, वीकेंड (सप्ताहान्त) पर पीते हैं। ऐसों से बचना जो जब तुमसे मिलने आते हैं तो तुम्हारे लिए साथ में गलौटी कबाब लेकर आते हैं, बचना। ये तो आया ही है देह का सुख साथ लेकर के। जो तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे रहा है और साथ में क्या है उसके? कबाब का झोला। वो तो आया ही है देह को सुख देने के लिए, ये निश्चित रूप से मन को गन्दा करेगा।

'हें हें हें, लीजिए काजू की बर्फ़ी।' इनसे बहुत बचना। या बाहर एक डब्बा बना दो, ‘मिठाई का डब्बा यहाँ रखकर वापस चले जाएँ। सीसीटीवी में अपनी शक़्ल छोड़ जाएँ और स्कैनर में अँगूठे का निशान। आप वैसे भी नेटवर्किंग करने आये थे, वो हो गयी। पता चल गया कि आये थे। डब्बा वहाँ डाल दो टोकरे में, हम रिसाइकिल करा देंगे।'

दीवाली पर या तो कोई ऐसा हो जो तुम्हें काजू की बर्फ़ी देने आए, और कोई ऐसा होगा जो तुम्हें राम देने आएगा। जो राम देने आएगा न तुमको, पक्का समझ लो कि वो काजू की बर्फ़ी साथ लेकर नहीं आएगा। और जो काजू की बर्फ़ी साथ लेकर आया है वो रावण का ही एजेंट है। घूम रहा है दिवाली पर 'जय सिया राम' करता।

रामचन्द्र का वृत्त हिंदुस्तान को बहुत पसंद रहा है न? उन्होंने क्या चुना था, देह का सुख? बोलो। राजा ने बोला तो राज्य त्याग दिया और प्रजा ने बोला तो पत्नी त्याग दी। और दोनों ही जगह उन्हें त्यागने की कोई ज़रूरत नहीं थी और दोनों ही जगह देह का सुख होता है। दशरथ जो बात कर रहे थे वो अन्याय की थी, चाहते तो सीधे मना कर सकते थे, प्रजा उनके साथ थी और राज्याभिषेक होने वाला था, प्रजा बहुत चाहती थी। चाहते तो हथिया लेते और दशरथ को भी आपत्ति नहीं होती, वो ख़ुद ही उतर जाते, कहते 'ठीक है, भला करा तूने जो मेरी बात नहीं मानी।'

इसी तरह से एक साधारण व्यक्ति, प्रजा का, कपड़े धोने का काम करता था। उसने कुछ बोल दिया, कोई ज़रूरत तो नहीं थी कि कहते कि सीता, तुम जंगल जाओ, कोई ज़रूरत नहीं थी। प्रेम था सीता से, सीता वैसे ही चौदह साल स्वेच्छा से उनके साथ जंगल में रहकर आईं थीं और गर्भ से थीं। कोई ज़रूरत नहीं थी कि सीता जंगल जाओ।

तो दीवाली, मुझे बताओ, राम की अगर घरवापसी का त्यौहार है तो क्या शारीरिक सुख का त्यौहार हो सकता है? जिन राम ने ख़ुद कभी शारीरिक सुख को प्रधानता नहीं दी, उनकी दीवाली पर आप काजू की बर्फ़ी बाँट रहे हो। दीवाली तपस्या का त्यौहार होना चाहिए या बर्फ़ी-जलेबी का? बोलो। पर तपस्या तो कोई करता नज़र नहीं आता। यहाँ दुकानों में भीड़ लगी हुई है, शॉपिंग मॉल्स में मार-पिटाई चल रही है। ये राम के स्वागत की तैयारी हो रही है, शॉपिंग मॉल जा-जाकर? बोलो।

पर नहीं, आप भी खड़े हो जाएँगे, 'हें, हें, हें, मिसिज़ टंडन आई हैं। हें, हें, हें, बहुत सारा लड्डू लाईं हैं, हें, हें, हें।' सारे लड्डू मिसिज़ टंडन के ही मुँह में घुसेड़ दो। एक-सौ-पाँच किलो की वैसे ही हैं, एक-सौ-पन्द्रह की होकर लौटें। बोलो, 'खा, मोटी! सब तू ही खा, जो लायी है।' यही कर लिया करो कि दिवाली से दो हफ़्ते पहले जंगल चले जाओ और कहो, 'वो चौदह साल रह सकते थे, हम चौदह दिन तो रह लें। और फिर जिस दिन वो लौटे थे अयोध्या, उसी दिन हम भी लौटेंगे घर अपने।'

तुम चौदह दिन नहीं रह पाओगे। उस दिन आपके मन में श्री राम के प्रति वास्तविक सम्मान जाग्रत होगा। जब पता चलेगा कि चौदह दिन भी — आज के समय में भी जब जंगल बचे नहीं हैं, बस घास-फूस-झाड़ी रह गयी हैं। झाड़ वाले जंगल में भी चौदह दिन रहना कितना असम्भव होता है, वो उस समय चौदह साल जंगल में थे। और कोई स्टेन-गन नहीं थी उनके पास, पुराने तरीक़े का धनुष-बाण। कैसे जिए होंगे?

अभी तो बहुत गौरवशाली गाथा कि ऐसा कर दिया, वैसा कर दिया, फ़ौज बना दी, ये करा, वो करा। शबरी मिल गयी, अहिल्या को जीवन दे दिया, शूर्पणखा की नाक काट ली, इतने सारे राक्षस मार दिये। पूछो तो कैसे। तुम्हारे सामने तो अगर जंगल में सियार भी आ जाए, भागते पतन होगी, छुप नहीं पाओगे, और है कुछ नहीं सामने, बस सियार है, हालत ख़राब हो जाएगी। और तब कहाँ से वो जंगल में रक्षा कर पाये होंगे, सोचो तो।

चौदह दिन जंगल में ही रहे आओ, वो सच्ची दीवाली होगी। और जंगल से मेरा मतलब ऑर्गनाइज़्ड ट्रिप (आयोजित यात्रा) नहीं है कि जाकर जंगल ख़राब कर रहे हैं। वहाँ पॉलिथीन बिखरा दिया, पेड़-वेड़ काट दिये और जानवरों को परेशान किया, जो भी दो-चार जानवर बचे हों। कुछ समझ में आ रही है बात?

हमारा पूरा जीवन ही दैहिक सुख के इर्द-गिर्द घूम रहा है। मन के सुख को, जिसको आनन्द कहते हैं — शरीर का सुख कहलाता है सुख और मन का जो वास्तविक सुख होता है उसको कहते हैं आनन्द — आनन्द के प्रति हमने कोई मूल्य रखा ही नहीं है। कुछ नहीं। और उसका सबसे बड़ा प्रमाण हमारे क्या हैं? त्यौहार।

देख लो न, हर त्यौहार किसी ऐसे की याद में होता है जिसका जीवन जीने लायक़ था। जिसका जीवन ऐसा था कि अगर ठीक से देख लो तो जी साफ़ हो जाए। है न? हर त्यौहार किसी ऐसे की याद में होता है। और फिर देखो कि आप त्यौहार पर जो कुछ कर रहे हो वो क्या उस महापुरुष के जीवन से ज़रा भी मेल खाता है जिसकी याद में त्यौहार मना रहे हो? कोई मेल ही नहीं मिलेगा।

किसी से प्रेम हो जाए, और वो तुमको पहला तोहफ़ा लाकर दे परफ़्यूम (इत्र), पलक झपकते ग़ायब हो जाना। क्योंकि इस व्यक्ति का पूरा सरोकार किससे है? तुम्हारी देह से और देह की खुशबू या बदबू से, ये आदमी ख़तरनाक है तुम्हारे लिए। ये तुम्हें देह का सुख ही देना चाहता है; देह का सुख दे रहा है और देह का सुख माँगेगा। मन कैसा है तुम्हारा इससे उसको कोई मतलब नहीं।

दस साल पहले तक ऐसा हो जाता था कि कुछ लोग ग़लतफ़हमी में मुझे शादी-ब्याह या जन्मदिन इत्यादि पर बुला लेते थे। पिछले एक दशक में तो अब किसी ने ऐसी ज़ुर्रत करी नहीं है, लेकिन पहले कर लेते थे। तो मैं जाऊँ और मेरे पास देने को एक ही चीज़ हो — किताबें। और लोग बड़ा अपमान मानें, बड़ा अपमान। कह रहे हैं, 'शादी की एनिवर्सरी (सालगिरह) और तुम इतनी घिनौनी चीज़ ले आए, खलील जिब्रान की किताबें? धिक्कार है!' अब इतना उनकी कहने की हिम्मत नहीं मेरे सामने पर उनकी आँखों में ये बात नज़र आती थी। जैसे कोई आँखों से गाली दे रहा हो। कह रहे हैं, 'शादी की एनिवर्सरी पर खलील जिब्रान? डूब क्यों नहीं मरते? कुछ और लाना था न!' अभी क्या लाऊँ? लॉन्जरी (अंदर पहनने के कपड़े)? क्या चाहते हो?

फिर उन्हें समझ में आ गया धीरे-धीरे कि आदमी ऐसा ही है। ‘ये किताबें लाएगा और इस तरह की बकवास करेगा। ये साज़िश करके आता है, इसे हमारी खुशियाँ बर्दाश्त नहीं होतीं। यहाँ आकर अनाप-शनाप बोला करता है; शादियों में आकर के ये मौत के भजन सुनाना शुरू कर देता है।’ तो उन्होंने फिर बन्द ही कर दिया, 'बुलाओ ही मत इसको।'

बहुत आसान होता है जीवन में धोखे से बचकर रहना। अगर आपके मूलभूत आधार, बेसिक फ़िलोसॉफ़ी सही हों, आप तुरन्त समझ जाओगे कि ये चल क्या रहा है। आपकी खुशी के मौक़े पर जो कहे कि शैम्पेन (शराब) खोलो, शैम्पेन !' वो आदमी कैसा है? आप अपनी जान-ए-तमन्ना से पूछो, 'क्या चाहिए?' और बोले ' हॉट पैंट्स ' तो पगलाए हो क्या, अभी तुम उससे शादी भी करोगे? अभी ही ब्रेक-अप (सम्बन्ध विच्छेद), हॉट पैंट्स दे देना उसके बाद। दे कर करो, कि ये ले तू, 'कच्छे का ही एक विस्तृत रूप है, डाल ले।'

आसान है न ये सब चीज़ें पकड़ लेना, कि नहीं है? तुम जाओ किसी के पास और तुमको आशीर्वाद दे कि दूधो नहाओ, पूतो फलो। वहाँ टिकना है? छू-मन्तर हो जाओ, तुरन्त। ‘न जाने किसके दूध की तो बात हो रही है। और फिर कह रही है कि पूतो फलो। ये मेरी नहीं, पूरे पृथ्वी की दुश्मन है, बुढ़िया। दाँत सब गिर गये हैं, ज़बान ऐंठ रही है लेकिन अभी भी बोलती है, दूधो नहाओ, पूतो फलो, पगला गयी है। ये दूधो नहाने में और पूतो फलने में मुझे बताओ मन की सफ़ाई कहाँ है? ये आशीर्वाद दे रही है तुमको या श्राप?

वो कह रही है ज़रा भी, कि तू शान्त रहे, तू निर्मल रहे, तुझे शान्ति मिले, तेरा आन्तरिक ऊर्ध्वगमन हो? नहीं। वो दूध दुहने की बात कर रही है। 'दूध दुहा करो, बेटा।' अम्मा तुम्हें शोभा देता है इस उमर में इस क़िस्म की अश्लील बातें करना?

किसी ने तुम्हें आशीर्वाद दिया आजतक — 'शान्त रहो'? कोई तुम्हारी चाहता है कि देह की उमर बढ़े, 'जुग-जुग जियो।' कोई दूध वगैरह की बात कर रहा है, कोई कुछ। मन की सफ़ाई, उसकी बात कौन करेगा? नहीं करेंगे वो, क्योंकि उन्हें कुछ भी सूक्ष्म पता ही नहीं है, वो स्थूल के खिलाड़ी हैं। वो तुमको चेतना जानते ही नहीं हैं, वो मानते ही नहीं कि तुम मूलभूत रूप से चेतना हो। उनके हिसाब से तुम हाड़-माँस हो, बस।

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