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लेख
बुद्ध तुम्हें प्यारे न लगेंगे || आचार्य प्रशांत (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
3 मिनट
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वक्ता: एक मन है जो कपड़ा खरीदने जा रहा है और कपड़ा खरीदते समय कह रहा है तीन बातें: दिखता अच्छा हो, छूने में अच्छा हो, शरीर पर अच्छा हो और जब मैं इसे पहनूं, तो दूसरों को लगे कि ये महँगा कपड़ा है।उसने चार शर्तें रखीं हैं कपड़ा खरीदने के लिए, ध्यान दीजियेगा। ये औरत जब पति चुनने जायेगी तो क्या यही चारों शर्तें नहीं रखेगी? दिखता अच्छा हो, छूने में अच्छा हो, शरीर पर अच्छा हो और जब मैं इसे पहनूं तो दूसरों को लगे, कि ये महँगा वाला है।

(सभी श्रोतागण हँसते हैं)

एक ही तो मन है, जो कपड़ा खरीदता है और जो काम करता है, अंतर कहाँ है? आप जिस मन के साथ पूरा जीवन बिताते हो, उसी मन के साथ तो आप काम में भी उतरते हो। ज्यादातर संत अविवाहित रह गए। उसका एक कारण और भी था, ऐसा नहीं कि उन्हें किसी चीज़ से कोई विरोध था, संत विरोध कि ज़िन्दगी तो जीता ही नहीं है, उसको तो सब स्वीकार है। पर आप पाएंगे कि सामान्य जनसँख्या कि अपेक्षा संतों में, बुद्ध पुरुषों में, अविवाहितों कि संख्या बहुत ज्यादा है। कारण है, उनको प्यार नहीं किया जा सकता। आप गिरे से गिरे आदमी को प्यार कर लोगे, एक बुद्ध को प्यार करना असम्भव है। आपसे किया ही नहीं जाएगा क्यूंकि आपकी जो पूरी मूल्य-प्रणाली है, वो तो वही है न, जो कपड़े कि दुकान वाली। क्या है आपकी मूल्य- प्रणाली? आँखों को जो अच्छा रुचे, छूने में प्यारा हो, महंगा दिखे। अब बुद्ध न तो छूने में महंगा दिखता है, ना आँखों को प्यारा दिखेगा, तो आप कैसे प्यार कर पाओगे बुद्ध को? तो ये नहीं है कि उन्हें जीवन से कोई विरोध था, बात ये है कि ऐसी कोई मिलेगी ही नहीं। आप किसी से भी आकर्षित हो सकते हो, एक संत कि ओर आकर्षित होना आपके लिए असम्भव है। ये भी हो सकता है कि ये संत जब तक सामान्य पुरुष था, तब तक आप उसके साथ रहो, लेकिन जिस दिन उसकी आँखें खुलने लगेंगी, आप उसे छोड़ दोगे। होता है न ऐसा? ऐसा ही होगा, क्योंकि अब वो आपकी पहुँच से दूर निकल गया, अब वो महंगा लगता ही नहीं। पहले तो फिर भी अच्छा लगता था, अब वो आँखों को प्यारा ही नहीं लगता। पहले तो फिर भी अच्छे कपड़े पहन लेता था, अब तो वो और फटी चादर में घूमता है। आपको कैसे भाएगा? आप तो वही हो न जो कपडे खरीदने जाते हो तो कहते हो कि, दूसरे कहें कि अच्छा है, मुलायम-मुलायम लगना चाहिए। और सामाजिक स्वीकृति भी नहीं है, छुपाना पड़ता है; बड़ी दिक्कत है।

श्रोता: हो सकता है बात विपरीत हो कि उनको भी कोई न पसंद आये।

वक्ता: वो पसंद न पसंद में नहीं रहते। मैंने कहा न कि उनका विरोध ख़त्म हो गया होता है। वो तो सदा उपलब्ध हो जाते हैं, वो आत्म-समान हो जाते हैं, ब्रह्म सामान हो जाते हैं। ब्रह्म क्या है?

श्रोता: वो भी किसी में रुचि नहीं लेते होंगे।

वक्ता: ना। ब्रह्म वो, जो सदा उपलब्ध है। जो सदा उपलब्ध है, पर उसके पास जाना तुम्हें पड़ेगा, तो बुद्ध पुरुष वैसा ही हो जाता है। वो सदा उपलब्ध है, पर उसके पास जाना तुम्हें पड़ेगा।

-’संवाद ‘ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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