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लेख
बोधशिविर का आनंद स्थायी कैसे रहे? || आचार्य प्रशांत (2017)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
10 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब मैं शिविर में आती हूँ तो अच्छा लगता है मगर जब यहाँ से जाती हूँ तो मन बहुत उदास हो जाता है, ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत: एक बात बिलकुल पकड़ लीजिए। इंसान मजबूर नहीं पैदा हुआ है। परम मुक्ति हमारा दूसरा नाम है तो कोई भी अपनी मजबूरी की बात तो करे ही नहीं। हममें से कोई भी मजबूर नहीं है। हम सब पूर्णतया आज़ाद हैं। हाँ, अब आज़ाद होने के बाद आपको मजबूरी का खेल खेलने में मज़ा आता हो तो आपकी मर्ज़ी।

कोई ये ना कहे कि विवशता है, ज़बरदस्ती की उलझन है, बोझ है, बन्धन है। न, आज़ादी इंसान का दूसरा नाम है तो जो कुछ भी आपने अनावश्यक, अतिरिक्त अपने ऊपर डाल रखा हो वो आपकी लीला है, आप जाने। इसीलिए तो जिन्होंने जाना है उन्होंने बार-बार कहा है कि सारा दुख झूठ है,सारा दुख झूठ है। इसीलिए सत्य का नाम आनन्द हुआ। झूठ यदि दुख हुआ तो सत्य इसीलिए आनन्द हुआ। इसीलिए फिर सत्य को हमेशा आनन्द के साथ जोड़कर वर्णित करते हैं।

सत-चित-आनन्द इसलिए, क्योंकि दुख झूठ है। इस बात को सौ बार दोहरा लीजिए जबतक कि ये भीतर की धारणाको साफ़ ना कर दे। दुख झूठ है, दुख स्वांग है, दुख प्रपंच है, दुख नाटक है। जो जितनी जोर से बोले कि वो दुखी है कि बेसहारा है या बेचारा है उसको उतना ही ज़्यादा या तो दुख ढोने में रस है या फिर उतनी ही गहरी उसकी बेहोशी है कि वो जानता भी नहीं कि वो नाटक कर रहा है।

हम ऐसे अभिनेता हैं जो कई बार भूल ही जाते हैं कि हम अभिनय में है। दुख का अभिनय करते-करते, करते-करते ऐसे अभ्यस्त होते हैं कि लगता है कि दुख वाकई में है। आपने पकड़ा होगा तभी होगा, आप छोड़ दो नहीं रहेगा। दुख अनिवार्यता बिलकुल भी नहीं है। दुख मत छोड़िए अपनी पकड़ छोड़िए क्योंकि दुख कब आपसे स्वयं आकर के चिपटता है। आपकी पकड़ है जो दुख को बाँधे रखती है, दुख में अपनी कोई जान नहीं है, आप पकड़ छोड़ेंगे वो चला जाएगा।

आप तो ये देखिए कि आपने किन- किन तरीकों से दुख को पकड़ रखा है। वो बेचारा शायद कभी भागना भी चाहता हो आप उसे जाने ना देते होंगे। कभी नहीं कहना है ये कि उलझ जाती हूँ। क्या कहना है? हाँ, उलझने में मज़ा आता है जैसे किसी को काँटों कीझाड़ी के साथ खेलने में मज़ा आता हो।

उस झाड़ी में उलझेंगे तो क्या पाएँगे? इधर खरोंच, उधर घाव लेकिन आदत का ऐसा जोर होता है कि हमें वो ख़रोचें और घाव ही जीवन लगने लग जाते हैं। ना हो खरोंच और घाव तो ऐसा लगता है जीवन छिन गया। आनन्द स्वभाव है, दुख मात्र प्रपंच इसीलिए जो जानते हैं वो कभी आपके दुख के साथ सहानुभूति नहीं रख पाते। करुणा रख पाते हैं सहानुभूति नहीं।

कैसे ऐसी किसी चीज़ से सहानुभूति रखोगे जो पता है कि छद्म है, नकली है। कोई रो रहा है आपके सामने ज़ार-ज़ार, आप जान रहे हो कि ये रुदन अवास्तविक है। अब आप उसके रोने के साथ तादात्म्य कैसे रख लोगे। हाँ, करुणा हो सकती है। करुणा कहती है कि मुझे पता है कि तू व्यर्थ ही फँसा हुआ है, मुझे पता है कि तू जो दर्शा रहा है वो नकली है लेकिन फिर भी मुझे दिख रहा है कि अपने स्वभाव से तो तू वंचित हो ही रहा है।

कारण तूने झूठा खोज़ लिया है लेकिन कारण तो तुझे मिल ही गया है। हर बहाना झूठा ही होता है लेकिन बहाना तो तुझे मिल ही गया है तो मैं कुछ उपाय करूँगा, मैं कोई तरीका निकालूँगा कि तू अपने स्वभाव में वापस जा सके, ये करुणा है। करुणा सहानुभूति नहीं होती। दुख नकली है इसीलिए करुणा सहानुभूति नहीं हो सकती। सहानुभूति में आप मानते हो कि आँसू असली हैं, दुख असली है कि वास्तव में कुछ छिन गया है।

करुणा में आप जानते हो वास्तव में कुछ छीना इत्यादि नहीं है बस तुमको लग रहा है, भ्रम है, स्वप्न है, नींद में आतंकित हो। नींद में तुम्हें लग रहा है कि तुम्हारी छाती पर नाग बैठ गया है या तुम्हें अरबों का नुकसान हो गया है वास्तव में नहीं हुआ है। पर भले ही भ्रम हो, भले ही स्वप्न हो तुम अपने आनन्द से तो वंचित हो ही रहे हो तो करुणा कहती है कि तुम्हें जगा देंगे इसीलिए करुणा आपका रूपान्तरण करती है और सहानुभूति आपको वैसा ही बना रहना देती है जैसे आप हैं।

जो आपसे करुणा रखेगा वो आपको ढांढ़स नहीं बन्धाएगा वो आपको बदल देगा क्योंकि उसको पता है जैसे आप हो वैसे रहते हुए तो आप दुख को अंगीकार करते ही चलोगे। बुद्ध के पास आप जाते हैं तो सान्त्वना नहीं पाते हैं, बुद्ध के पास आप जाते हैं तो बोध पाते हैं। और आपके रिश्तेदार हों, दोस्त-यार हों उनके पास अपना आप दुख लेकर जाते हैं तो सान्त्वना पाते हैं। आप उनके पास जाएँगे, आप कहेंगे, ‘बड़ा नुकसान हो गया।‘ वो कहेंगे, ‘हाँ, यार बड़ा बुरा हुआ।‘

बुद्ध के पास आप जाएँगे, बुद्ध कहेंगे, ‘बुरा कुछ होता ही नहीं।’ ये अन्तर है। अपने बुद्ध अगर स्वयं बन सको तो क्या बात है। जब भी दुख उठे तो तुरन्त एक बिजली सी कौंधे कि कुछ तो झूठ ही होगा वरना दुख कहाँ से आता, कहीं कुछ तो नकली है वरना दुख कहाँ से आता। उस नकली को जब खोजोगे तो बाहर मिले ना मिले भीतर ज़रूर मिलेगा। इसीलिए जो दुख से मुक्ति चाहते हैं उन्हें अंतत: अपने ही उस अंश से मुक्ति पानी पड़ती है जो दुख का समर्थक है। आ रही है बात समझ में।

देखा है दुख को लेकर कितने गाने बने हैं। ऐसा रस है गम मेंकि गम पर ही बनते हैं सारे नगमे। बहुत रस है गम में। ख़ुशी के गीत अगर तुमको पाँच मिलेंगे तो गम के पचास। दुख में रस लेना छोड़ो। हम बोलते भी तो ऐसा है न ट्रेजडी (त्रासदी) किंग (राजा), ट्रेजेडी क्वीन (रानी), ट्रेजेडी जोकर बोलना चाहिए उसकी जगह बोल देते हो ट्रेजडी किंग तो अहंकार सम्बल पा जाता है कि किसी तरीक़े से तो किंग बने। और तो कोई रास्ता ही नहीं था किंग बनने का।

जीवन भर दुरदुराए ही जा रहे थे। अब मुँह लटका लिया है, बिलकुलरो रहे हैं तो किसी क्षेत्र में तो नंबर एक हुए। ये भाईसाहब रोते सबसे ज़्यादा हैं, इनका जीवन सबसे बड़ा कब्रिस्तान है, अब इन्हें आदर मिलेगा, सम्मान मिलेगा, ट्रेजेडी जोकर। यहाँ माएं बैठी हैं बहुत अच्छे से जानती हैं कि बच्चा खुश हो तो ध्यान ही ना दे उसपर और जहाँ बच्चा शोर मचाए और दुख दिखाए, ‘आ जा बेटा, आ जा।‘

अब वो जीवन भर बच्चा ही बना रहता है। उसे अच्छे से समझ में आ जाता है कि संसार का ध्यान अगर पाना है तो दुख दिखाना है। शुरू में तो दूसरों को बेवकूफ बना रहा था फिर धीरे-धीरे आदत गहराती है और आदमी ख़ुद को ही बेवकूफ बनाना शुरू कर देता है। कोई हँसता हो, खेलता हो, कूदता हो, उचकता हो, कूदता हो, गाता हो सम्भव है आप उसे डाँट दो कि चलो शांत बैठो, शोर मत मचाओ, बहुत हो गयी धमाचोकड़ी पर कोई गहन हो, गम्भीर हो, उदास हो देखिए आप कितने सम्मान से भर जाते हो।

यही तो रस है उदासी का। आप ख़ुद ही उदास हो तो अपने ही प्रति सम्मान से भर जाते हैं इसी कारण तो आप बार-बार उदास होना चाहते हैं। आनन्द को तो हम कोई सम्मान देते ही नहीं। मौन को, शांति को कोई वरीयता नहीं है। रोजमर्रा के सार्वजनिक जीवन में भी देखिए न, कोई भी आपसे अगर कोई रिआयत पाना चाहे, कोई मदद पाना चाहे तो आपसे ये आकर थोड़े ही कहेगा कि मैं खुशहाल हूँ।

संसार से अगर किसी को कुछ पाना है तो उसे संसार के सामने यही याचना करनी पड़ेगी कि मैं बदहाल हूँ। देख रहे हैं बदहाली का रस, बदहाली के मज़े। खुशहाल को तो कुछ मिलना ही नहीं है, बदहाल को ही सब कुछ मिलना है तो आपने स्वार्थ जोड़ लिए हैं बदहाली के साथ। बदहाली में कोई गौरव नहीं है, रोने में कोई गरिमा नहीं है। मजबूरियाँ मत गिनाइए, मजबूरियाँ गिना-गिना कर आप अपनी बेईमानियाँ ही गिना रहे हैं। और मैं वास्तव में दुख से मुक्ति की बात कर रहा हूँ, आडम्बर की नहीं।

एक श्रेणी और भी होती है जो भीतर-भीतर से तो दुख को पकड़े रहती है पर ऊपर-ऊपर से खुशहाली का स्वांग करती है। मुस्कुराती हुई सेल्फी वाली श्रेणी। दिल से तो उन्होंने दुख को जकड़ रखा है, रस लूट रहे हैं दुख का और ऊपर-ऊपर ये भी दिखा रहे हैं कि मौज़ है। क्या विरोधाभास है, क्या जीवन है। वास्तव में खुशहाली प्रदर्शित करने की ज़रूरत उन्हें ही पड़ती है जो भीतर से बदहाल होते हैं।

जिसको बहुत हँसता पाए जान ले कि वो भीतर के दुख को छुपा रहा है और दुख को छुपाने की ज़रूरत तभी पड़ती है जब पहले दुख पकड़ रखा हो। आनन्द न सुख है न दुख। जिन्होंने दुख पकड़ रखा होता है उन्हें अक्सर सुख प्रदर्शित भी करना पड़ता है, दुख-सुख एक साथ चलते हैं, आनन्द न सुख है न दुख। वो आपकी भीतरी मौज़ है, वो आपकी सहज अवस्था है। वो लगातार कायम रहने वाली बात है।

सांयोगिक दुख आते रहते हैं, सांयोगिक सुख भी आते रहते हैं। आनन्द यथावत रहता है। न आपको रोने से आसक्ति है, न आपको रोने से परहेज़ है। कभी मौका आ ही गया रोने का तो रो भी लेंगे, आनन्द तब भी कायम है। न आपको हँसने की आदत है न आपको हँसने से एलर्जी है। स्थिति आ ही गयी हँसने वाली तो क्यों ना हँसे, पर अपरिहार्य नहीं है हँसना, मजबूरी नहीं है हँसना। सुख आया सुख सही, दुख आया दुख सही।

दोनों में से कोई भी मजबूरी नहीं, दोनों में से किसी पर भी पकड़ नहीं, ये आनन्द है। दुख जब भीतर से सताता हो तो वो ऊपर-ऊपर से सुख प्रदर्शित करने से चला नहीं जाएगा भीतर से जब ग़मगीन हो तब ऊपर से तुम कुछ भी दिखाओ उससे बात बन नहीं जानी है। हँसता हुआ चेहरा रोते हुए मन पर कब तक पर्दा डालेगा?

मन का रोना छोड़ दो, व्यर्थ हँसने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी फिर। फिर हँसोगे तो सहज हँसोगे वरना जैसे दुख अनिवार्यता बनता है फिर हँसी भी अनिवार्यता बनती है। फिर उसमे सहजता नहीं रहती, मज़बूरी रहती है। भीतर हमारे कुछ है जो दुख का बड़ा पक्षपाती है, जो दुख देखते ही द्रवित हो जाता है। उसको गौर से देखो वो कौन है।

देख लिया तो उससे मुक्त हो जाओगे। जिन्हें दुख की समस्या का समाधान करना हो वो सबसे पहले दुख का पक्षधर होना छोड़े। तुम जिसके पक्ष में खड़े हो उसका निराकरण कैसे कर लोगे? तुम जिसके समर्थन में खड़े हो उसका समाधान कैसे कर लोगे? जो तुम्हें ठीक ही लगता है तुम उसका विसर्जन कैसे कर दोगे?

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