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लेख
बिना समझ के ही चल जाएगी गृहस्थी? || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम! मेरा प्रश्न है कि क्या गृहस्थ जीवन होकर भी अध्यात्म जीवन में ज़्यादा समय दे सकते हैं? क्या यह सम्भव है?

आचार्य प्रशांत: दो तरीके होते हैं जीने के, या तो यह कह दो कि, "मैं गृहस्थ हूँ और मुझे अध्यात्म भी चलाना है।" या यह कह दो कि, "मैं आध्यात्मिक हूँ और मुझे गृहस्थी भी चलानी है।" बहुत अंतर है।

तुम अपनी क्या पहचान, अपना क्या नाम बताते हो, तुम अपनी ही नज़रों में अपनी क्या छवि, अपनी आत्म परिभाषा बनाते हो इसी से ज़िंदगी ऊपर नीचे हो जाती है एकदम। तुम क्या हो?

अधिकांशतः लोग मुझसे कहते हैं, "गृहस्थी में रहकर भी आध्यात्मिक कैसे रहें?" उनका खेल इस सवाल के साथ ही खत्म हो जाता है क्योंकि तुमने बड़ी भारी शर्त रख दी, तुम कह रहे हो मूलतः "हम हैं तो गृहस्थ, वो हमारी प्रथम केंद्रीय प्रधान पहचान है। कौन हैं हम? गृहस्थ। अब गृहस्थ रहते हुए क्या कुछ थोड़ा सा अतिरिक्त मिल सकता है, बोनस (अधिलाभ) की तरह?" तो फिर तुम कहते हो थोड़ा सा अध्यात्म भी मिल जाए।

अध्यात्म गृहस्थी के ऊपर किया जाने वाला श्रृंगार नहीं है। अध्यात्म गृहस्थी की बुनियाद पर खड़ा किया जाने वाला भवन नहीं है। अध्यात्म बुनियादों की बुनियाद है। अध्यात्म मूलतः आधारभूत है। वो या तो तुम्हारी पहली पहचान होगा, नहीं तो नहीं ही होगा। यह नहीं हो सकता कि तुम कहो कि अध्यात्म हमारी दूसरी, तीसरी या छठी पहचान है। पहली पहचान हमारी क्या है? हम गृहस्थ हैं; दूसरी पहचान हमारी क्या है? हम हिंदू हैं; तीसरी पहचान हमारी क्या है? हम फलानी जाति के हैं; चौथी पहचान हमारी क्या है? हम अमीर हैं; पाँचवी पहचान हमारी क्या है? हम ज्ञानी हैं। अब यह सब होने के बाद हम कह रहे हैं कि हम आध्यात्मिक भी हैं। ऐसे तो चल चुका काम।

तुम वही सब कुछ रख लो, एक से पाँच तक, छठे का चक्कर ही छोड़ो। या तो अध्यात्म नंबर एक पर होगा, नहीं तो नहीं होगा। अध्यात्म का मतलब ही है नंबर एक का खेल। वो जो अव्वल नंबर है उसी में जीने को कहते है अध्यात्म, तो अध्यात्म नंबर दो की वरीयता कैसे हो सकती है? पर चाहते सब यही हैं। कहते हैं मैं जो हूँ वो तो प्राथमिक तौर पर बना ही रहा हूँ, साथ ही साथ थोड़ा अध्यात्म भी मिल जाता तो सोने पे सुहागा। "भैया टिक्की पर थोड़ी हरी चटनी और डाल देना।" अध्यात्म हरी चटनी थोड़े ही है। "आज सब्जी बड़ी फीकी लग रही है थोड़ा चाट मसाला इसमें गिरा दो।" अध्यात्म चाट मसाला थोड़े ही है कि तुम्हारी जिंदगी में ऊपर से छिड़क दिया जाए।

अध्यात्म या तो बिलकुल केंद्र में होगा या तो जीवन के हृदय में होगा, नहीं तो नहीं हो सकता। जीवन यदि शरीर है तो अध्यात्म उसका हृदय है। अध्यात्म जीवन रूपी शरीर के ऊपर धारण किया हुआ वस्त्र नहीं हो सकता, कोई माला या अँगूठी नहीं हो सकती, आँखों का काजल नहीं हो सकता। या तो वो तुम्हारा दिल होगा नहीं तो नहीं होगा। वो तुम्हारा कपड़ा या टोपी या जूता नहीं हो सकता। अध्यात्म तुम्हारी शान और शोभा बढ़ाने के लिए नहीं है। अध्यात्म इसलिए है ताकि तुम नौकर हो सको और कोई और मालिक हो सके। अध्यात्म इसलिए नहीं है कि तुम और ज़्यादा शानदार हो जाओ।

अध्यात्म इसलिए है ताकि तुम किसी के चाकर हो जाओ।

हम चाहते हैं कि अध्यात्म हमारा व्यक्तित्व चमकाने के काम आए। हम चाहते हैं कि अध्यात्म हमारी प्रगति उन्नति का कारक बने। अध्यात्म व्यक्तित्व चमकाने, खाने-पीने की, ज़िन्दगी में आगे बढ़ने की चीज़ नहीं है। महा समर्पण है, महामृत्यु है। कुछ पाने का नाम नहीं है अध्यात्म। मैंने कहा वो महा समर्पण है। बात समझ में आ रही है?

अब बताओ गृहस्थ रहते हुए आध्यात्मिक होना है? या आध्यात्मिक ही हो जाना है और फिर अध्यात्म तय करे कि अब गृहस्थी रहेगी कि नहीं रहेगी और रहेगी तो फिर किस दिशा जाएगी? बोलो।

अंतर समझना; अगर तुमने कहा कि गृहस्थ तो हो ही और साथ-साथ आध्यात्मिक होना है, तो तुम गृहस्थी को नंबर एक, अध्यात्म को नंबर दो रख रहे हो। नंबर दो का इस्तेमाल तुम करोगे नंबर एक की सेवा करने के लिए। जो लोग कहते हैं कि गृहस्थ हैं, साथ-ही-साथ आध्यात्मिक होना है, वह अध्यात्म का इस्तेमाल करते हैं गृहस्थी की सेवा के लिए। ये तुमने क्या कर दिया?

अध्यात्म का इस्तेमाल करना गृहस्थी की सेवा के लिए वैसा ही है कि जैसे सत्य का इस्तेमाल करना अहंकार की सेवा के लिए, सत्य का इस्तेमाल करना संसार को चमकाने के लिए। ये क्या अनर्थ कर दिया? होना क्या चाहिए था? कि तुम्हारे पास जो कुछ है तुम उसका प्रयोग करो सत्य की सेवा के लिए। तुमने उल्टा चला दिया, तुमने सत्य को ही सेवक बना दिया। सत्य की सेवा करने की जगह तुमने सत्य को सेवक बना दिया। तुम कह रहे हो, गृहस्थी ठीक चलती रहे इसके लिए अध्यात्म का सहारा लेंगे।

लोग जाते हैं न मंदिर, "भगवान! अगली गाड़ी जल्दी से आ जाए।" उन्होंने भगवान को सेवक बना दिया अपनी गृहस्थी का। गृहस्थी को गाड़ी चाहिए तो भगवान गाड़ी ला के दें। भगवान को भी उन्होंने लगा दिया कि गृहस्थी के एक और नौकर बन जाओ तुम, गृहस्थी की ज़रूरतें पूरी करो भगवान।

वास्तव में जो आदमी आध्यात्मिक होता है उसका चित्त दूसरा होता है। वो कहता है "अध्यात्मिक तो मैं हूँ, अध्यात्मिक तो मैं हूँ ही, वही मेरी पहली पहचान है, वही केंद्र है मेरा, वही बुनियाद है मेरी। अब अध्यात्म बताएगा, अब साधना बताएगी और सत्य बताएगा कि घर कैसे चलेगा। पहला घर मेरा कहीं और है, मैं उस गृह का निवासी हूँ, मैं गृहस्थ हूँ तो वो मेरा गृह है। ये तो जो सांसारिक गृहस्थी है ये बाद की, पीछे की गृहस्थी है।"

अब देखने में ऐसा लगेगा कि जो आदमी गृहस्थी को पहला नंबर और अध्यात्म को दूसरा नंबर दे रहा है, वो गृहस्थी के प्रति बड़ा निष्ठावान है। ऐसा ही लगता है न कि उसने गृहस्थी को रखा नंबर एक पर और अध्यात्म को रखा नंबर दो, तीन, छः, आठ कुछ भी हो सकता है। तो ऐसा लगता है ये गृहस्थी को कितना समर्पित आदमी है, और ये इतना समर्पित आदमी है तो इसकी गृहस्थी भी अच्छी चलेगी फिर। और जिस आदमी ने अध्यात्म को रखा नंबर एक पर और गृहस्थी को रखा नंबर दो पर, उसको देख कर लगता है कि अरे ये तो गृहस्थी की उपेक्षा कर रहा है इसकी गृहस्थी तो खराब हो जाएगी, गड़बड़ चलेगी।

तथ्य उल्टा है, असलियत दूसरी है। जो आदमी गृहस्थी को केंद्र पर रखता है अपने जीवन के, निश्चित रूप से उसकी गृहस्थी बर्बाद होकर रहेगी। गृहस्थी बर्बाद करने का सिद्ध तरीका है कि तुम कहो कि, "मैं गृहस्थ हूँ और गृहस्थी ही मेरी ज़िन्दगी का केंद्र है।" जिसने यह कह दिया उसकी गृहस्थी तबाह जानो, आग लगेगी। और जो कहता है कि, "हूँ मैं राम का और अब राम बताएँ कि घर कैसे चलेगा, किधर को चलेगा", उसका घर चमक जाता है, सोना हो जाता है।

जो सत्य के पीछे घर को सेवक बनाने को तैयार हो जाता है उसका घर आलीशान हो जाता है और जो कहता है, "नहीं, मैं तो घरेलू आदमी हूँ, घर की चिंता करनी है, सत्य वगैरह बाद में आते हैं।" उसके घर की तबाही पक्की है और यही वजह है कि दुनिया के अधिकांश घर तबाह हैं, क्योंकि जितने गृहस्थ हैं वो घर को पहले रख रहे हैं और सत्य को बाद में रख रहे हैं। अपनी नज़र में वो घर के प्रति निष्ठावान हो रहे हैं, पगले इतना समझते भी नहीं कि यही कर कर के तो तुमने घर बर्बाद कर दिया।

तुम उसके (परमात्मा के) हो जाओ। तुम ज़्यादा होशियार हो कि वो? वो। तो वो बताएगा न कि घर सही कैसे चलेगा और तुम उसके नहीं हुए तो तुम्हारी बुद्धि में वो तो है नहीं। और सत्यविहीन बुद्धि कैसी होगी? विक्षिप्त। समझो बात को, उसके तुम हुए नहीं और तुम किसके हो गए? तुम घर के हो गए, बाप के हो गए, बेटे के हो गए, पति के हो गए, पत्नी के हो गए, बच्चों के हो गए, उसके तुम हुए नहीं। तो तुम्हारी बुद्धि में वो नहीं मौजूद है और सत्यविहीन बुद्धि कैसी होती है? विक्षिप्त। इस विक्षिप्त बुद्धि के साथ तुम घर चलाओगे तो घर का क्या होगा? सत्यानाश।

ज़्यादातर लोग यही कर रहे हैं, वो कहते हैं, "सत्य को पीछे छोड़ो, बेबी (बच्चे) की फिक्र करनी है न।" अब सत्य को तो पीछे छोड़ दिया, तो तुम्हारी बुद्धि में, तुम्हारे निर्णयों में, तुम्हारे कर्मों में सत्य तो है नहीं, तो अब बिलकुल पगलाई, बौराई बुद्धि है। उस बौराई बुद्धि के साथ तुम बेबी की भी ज़िन्दगी बर्बाद ही करोगे। और दूसरा आदमी है जो कहता है "घर कैसे चलेगा ये मुझसे बेहतर 'वो' जानता है। मैं 'उससे' पूछूँगा वो बताएगा। पहले उसके पास जाऊँगा, फिर वो जिस तरीके से बताएगा, वैसे मैं घर के पास जाऊँगा। लेकिन हमेशा पहले उसके पास जाऊँगा, घर उससे बड़ा नहीं है। वो है तो घर सलामत है और वो नहीं तो घर पर लानत है।"

ये बात हमें समझ में ही नहीं आती। हमें लगता है हमारा घर हम ही तो चला रहे हैं। पागल, तुम्हारे तो इतना दम नहीं कि अपने बूते अपनी साँस चला सको, तुम्हारे तो इतना दम नहीं कि अपने बूते अपना दिल धड़का सको, तुम अपने बूते अपना घर चला रहे हो? यह ग़ुमान कैसे हो गया तुमको? पर हमें ऐसा ही लगता है, "हम बड़े खिताबी हैं, हम बड़े ज़िम्मेदार हैं, हम ये कर रहे हैं, हम वो कर रहे हैं, हम बड़ी भारी संस्था चला रहे हैं। हम पाँच-सौ लोगों के नेता हैं, हम अपना घर चला रहे हैं।"

तुम क्या चला रहे हो? तुम्हारे विचार तो तुम्हारे चलाए चलते नहीं। विचारों पर तुम्हारा बस है? ना साँस तुम्हारी तुम्हारे चलाए चलती है, ना विचार तुम्हारे चलाने से चलते हैं। लेकिन फिर भी ग़ुमान यही है कि हम चला रहे हैं, हम ही कर्ता हैं। जितनी चल भी रही है तुम्हारी गृहस्थी, वो परमात्मा चला रहा है और जिस हद तक वो चला रहा है, उस हद तक गृहस्थी में प्रेम है, शुद्धता है, सुगंध है। और जिस हद तक तुम चला रहे हो अपनी गृहस्थी को, गृहस्थी में कलह है, क्लेश है, विकार है, दोष हैं, दुःख है और आँसू हैं। तुम्हारी गृहस्थी में अगर दुःख हो और कलह, क्लेश हो तो एक बात साफ़-साफ़ समझ लेना, वो इसलिए है क्योंकि तुम्हारी गृहस्थी में परमात्मा का अभाव है और कोई वजह हो ही नहीं सकती कि घर में आग लगे, घर से धुँआ उठे। एक ही वजह है; तुम्हारे घर में तुम रहते हो, तुम्हारे बच्चे रहते हैं, तुम्हारे माँ-बाप रहते हैं, मियाँ-बीवी रहते हैं, यह सब रहते हैं, परमात्मा नहीं रहता और जहाँ परमात्मा नहीं रहता, वहाँ आग तो लगेगी न। और घर ऐसे बहुत हैं, जहाँ सब रहते हैं बस सच्चाई नहीं रहती।

कौन-कौन रहता है तुम्हारे घर में? मैं तो पूछा करता हूँ, लोग मिलने आते हैं, "जी आपके घर में कौन-कौन है?" इंतज़ार ही कर रहा हूँ कोई बोले कि "सबसे पहले तो 'वो' रहते हैं, उसके बाद जी मैं हूँ, मेरे पति हैं और दो बच्चे हैं।" ऐसा तो किसी ने बोला नहीं कभी।

(प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए) बोला? नहीं बोला न? ग़लती हो गई।

'वो' है जो आँखों को साफ़ देखने की ताक़त देता है, 'वो' है जो बुद्धि को तीव्र बनाता है। 'वो' है जो मन को कुशाग्र बनाता है, 'वो' है जो तुम्हें कुछ भी समझ पाने की योग्यता देता है। 'वो' है जो तुममें सद्गुणों का विकास करता है। 'वो' है जो तुम्हें साहस देता है।

इनमें से किसी की भी कमी पाओ अपनी ज़िंदगी में, तो समझ लेना 'वो' नहीं है। बुद्धि तुम्हारी कुंद है, भ्रष्ट है, चलती ही नहीं और चलती है तो उल्टी चलती है। जान लेना कि बुद्धि में 'वो' नहीं है। ज़बान तुम्हारी गंदी है, या तो डर के मारे खुलती नहीं या जब खुलती है तो अंट-शंट बकती है तो जान लेना कि वाणी में 'वो' नहीं है। जीवन में, तुम्हारी व्यवस्था में, तुम्हारे शरीर, तुम्हारे मन में जो कुछ भी बिगड़ा हुआ हो, विकृत हो, उस विकृति का कारण एक ही जानना — 'वो' नहीं है।

संतो ने कितना समझाया है, बोले जिनके पास 'वो' नहीं होता, उन्हें कुछ सुनाई ही नहीं देता। बात को समझना, इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें कोई शब्द सुनाई नहीं देगा; इसका मतलब है कि वो जो सुनेंगे उससे कुछ जान नहीं पाएँगे और उसका कुछ अर्थ भी करेंगे तो विकृत ही, गड़बड़ ही।

लोग होते हैं, वो कहते हैं, "हमें कोई परमात्मा वगैरह नहीं चाहिए, हम अपने हिसाब से जी लेंगे, खुद्दार आदमी हैं। हमें कोई नहीं चाहिए, अंदर वाला, बाहर वाला, ऊपर वाला, कि उसकी मदद लें, हम ख़ुद चल लेंगे।"

इन बेचारों को इतना भी नहीं पता कि जिस बुद्धि के दम पर तुम आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हो, वो बुद्धि भी मात्र 'उसी' के सहारे खड़ी रहती है और जब 'वो' हट गया तो बुद्धि कुबुद्धि, दुर्बुद्धि हो जाती है। जब 'वो' हट जाता है, उसी घटना, दुर्घटना को कहते हैं, "विनाश काले विपरीत बुद्धि।" बुद्धि अभी भी रहेगी तुम्हारे पास, पर अब वो विपरीत बुद्धि हो गई। तुमने इतना तो सुन लिया संस्कृत में "विनाश काले विपरीत बुद्धि", तुमने कभी ग़ौर किया कि किसके विपरीत बुद्धि? सत्य के विपरीत बुद्धि।

तो बुद्धि जब सत्य की सेविका बन जाए तब समझ लो कि तुम्हारा कल्याण काल चल रहा है, तुम्हारा सृजन काल चल रहा है। और बुद्धि जब सत्य के विपरीत जाने लगे और बोले कि "हम ख़ुद ही देख लेंगे। हमें कहीं झुकने की ज़रूरत नहीं है। हम अपना भला-बुरा ख़ुद जानते हैं। अरे, तुमने हमें कमज़ोर समझा है क्या? तीस साल का अनुभव है हमारे पास। तीन बड़ी डिग्रियाँ हैं हमारे पास। इतना कुछ हमने हासिल करा है। हमें कहीं झुकने की, कहीं समर्पण की ज़रूरत नहीं है।" इसी को कहते हैं, बुद्धि का सत्य के विपरीत जाना।

तो इस बात को सब ग़ौर से समझ लें — 'वो' तुम्हारी सहायता ऐसे नहीं करता कि जैसे तुमने कई दफ़े कहानियों में पढ़ा है, कि एक गरीब आदमी सड़क पर चला जा रहा था, भूखे पेट, आधी रात को और तभी उसे एक भिखारी मिला। भिखारी ने कहा, "क्या बात है, भूखे हो?" उसने कहा "हाँ बाबा, भूखा हूँ लेकिन तुमसे क्या बताऊँ, तुम तो भिखारी हो।" भिखारी ने मुँह पर काला कंबल डाल रखा था और बड़ा कोहरा था, जाड़े की रात थी आधी। भिखारी ने कहा, "ज़्यादा कुछ तो नहीं कर सकता हूँ। लो ये छोटा सा सिक्का है, तुम रख लेना।" अंधेरी रात थी, क्या पता क्या सिक्का था। गरीब आदमी ने कहा, "इस बूढ़े बाबा का दिल कौन दुखाए, सिक्का दे रहा है, रख लो।"

गरीब आदमी आगे बढ़ा। आगे जाकर थोड़ी रौशनी थी तो उसने सिक्के को देखा। सिक्का सोने का था। ये देखकर वो गरीब भौचक्का रह गया और उसने पीछे मुड़कर देखा तो वो बूढ़ा बाबा गायब था। "अरे! अरे! अरे!" परमात्मा ऐसे नहीं आता मदद करने, कि अँधेरी रात में सड़क पर बूढ़ा भिखारी बन कर उतरे, कंबल डाल कर और तुमको सोने का सिक्का इत्यादि दे। ऐसे नहीं मदद करता, यह बड़ी नाटकीय मदद है। ये नाटक नौटंकी में ही ठीक लगती है।

वास्तविक जीवन में ऐसे नहीं आता 'वो' मदद करने। वास्तविक जीवन में वो मदद करने आता है, तुम्हारी बुद्धि को सुबुद्धि बनाकर। वो बाहर से नहीं तुम्हारी मदद करता, वो भीतर से तुम्हारी मदद करता है, वो तुम्हारी बुद्धि ठीक कर देता है। वो तुम्हारी बुद्धि ठीक कर देता है, तुम ख़ुद ही ऐसे कर्म और ऐसे निर्णय करने लग जाते हो जो तुम्हारे लिए कल्याणकर होते हैं। पर चूँकि उसने तुम्हारी मदद भीतर से करी है, बाहर तो वो दिखाई दिया नहीं, तो तुम्हें यह दंभ हो जाता है कि, "यह सब तो हम ही ने करा है।"

अब वो बूढ़ा भिखारी बाहर से दिखाई दे तो तुम्हारे मन में थोड़ी कृतज्ञता आती है कि कोई आया बाहर से हमारी मदद कर गया, सोने का सिक्का दे गया। भीतर से जब तुम्हारी मदद की जाती है तो तुममें कोई कृतज्ञता भी नहीं उठती। तुम कहते हो, "हम ही ने तो करा है।" और इसी के विपरीत जब उसे तुम्हें सज़ा देनी होती है तो वो बाहर से आकर नहीं सज़ा देता, कि हिरण्यकश्यप को मारने के लिए श्री हरी खम्बे से प्रकट हुए और अपने पैने पंजों से उसको महल की दहलीज पर बैठा कर, उसका हृदय फाड़ दिया। ये सब नहीं होने वाला। यह पुराणों में होता रहा होगा, अब नहीं होगा।

'वो' जब तुम्हें बर्बाद भी करता है—यह क्यों कहें कि 'वो' तुम्हें बर्बाद करता है, बेकार में लाँछन लगा रहे हैं। तुम जब अपने-आपको बर्बाद भी करते हो, तो भीतर से ही करते हो।

"जा पर हरि विपदा दीन्ही, ताकी मति आगे हर लिनी।"

जब तुम्हें अपने ऊपर विपदा लानी होती है तो तुम अपनी बुद्धि भ्रष्ट कर लेते हो। ना 'वो' श्रेय लेता है अपने ऊपर और ना 'वो' कभी अपने-आपको हेय बनने देता है। तुम्हारी मदद भी वो करेगा तो तुम्हारे भीतर से करेगा और तुम्हें नष्ट भी 'वो' करेगा तो तुम्हारे भीतर से ही करेगा, बाहर से 'वो' कुछ नहीं करता। तुम्हारी बुद्धि कुबुद्धि कर देगा, "ताकि मति आगे हर लीन्ही।" तुम्हारी बुद्धि ही ऐसी हो जाएगी कि तुम उल्टे-पुल्टे निर्णय लेने लगोगे, सोचोगे, "हम तो बिलकुल सही काम कर रहे हैं, क्या निर्णय लिया है हमने!" अच्छा है; कम-से-कम किसी और पर तो इल्ज़ाम नहीं लगा पाओगे न, अपनी तबाही का।

जैसे बहुत चौड़े होकर के दावे किया करते हो कि अपनी उन्नति और तरक्की के ज़िम्मेदार हम ख़ुद हैं, सेल्फ मेड मैन (स्व-निर्मित पुरुष) हैं, वैसे ही जब बर्बाद होओ, तो उतनी ही ज़ोर से ये भी स्वीकार किया करो कि हम सेल्फ डिस्ट्रक्टेड मैन (आत्म विनाशी व्यक्ति) हैं। किसी और ने नहीं तबाह किया है हमें, हम ही ने ख़ुद को तबाह किया है क्योंकि हमने कहा कि हमें 'वो' नहीं चाहिए, हम अपनी व्यक्तिगत बुद्धि पर, व्यक्तिगत अहंता पर चल लेंगे।

अच्छी बात है, तुम्हारा निर्णय है। परमात्मा तो ऊपर से एक बात बोलता है, क्या? आई रेस्पेक्ट योर डिसिजन्स (मैं तुम्हारे निर्णयों का सम्मान करता हूँ)। भई तुम्हें सब सिखा-पढ़ा कर उसने भेजा है, तुम्हें ये हक़ दे करके भेजा है कि तुम जब चाहो 'उसको' बुला लो।

संतो ने कई बार बड़ी गहरी बात कही है, जो सुनने में उल्टी लगती है। वो कहते हैं 'वो' ग़ुलाम है तुम्हारा। क्या कहते हैं? 'वो' ग़ुलाम है तुम्हारा, क्यों? क्योंकि 'वो' जब जब बुलाता है, ज़रूरी नहीं है कि तुम उसकी सुनो, तुम्हारा अहंकार मना भी कर देता है, "हम नहीं आएँगे।" उसकी आवाज़ आती रहती है, तुम नहीं जाते। लेकिन तुमने उसे जब जब बुलाया है, 'वो' ज़रूर आया है।

ये नहीं हो सकता कि तुम बुलाओ और 'वो' ना आए क्योंकि 'वो' तो आया ही हुआ है। तो कौन किसका ग़ुलाम हुआ? 'वो' ग़ुलाम है तुम्हारा। तुम बड़े मालिक हो, अहंकार की बड़ी मालकियत है। तो एक ग़ुलाम की तरह ही 'वो' ऊपर से बोलता है, "मालिक! मैं आपके निर्णयों का सम्मान करता हूँ, आई रेस्पेक्ट योर डिसिजन्स "।

तुम्हारी बुद्धि कुबुद्धि हुई है, तुम्हारा विनाश काल आया है, तुम जानो। और विनाश काल के बड़े-से-बड़े लक्षण में ये लक्षण है कि तुम 'उससे' ज़्यादा अहमियत, 'उससे' ज़्यादा मूल्य गृहस्थी को देने लगो। और गृहस्थी माने ये ही नहीं होता कि मेरा घर, जहाँ अहं रहे वही उसका गृह है। तो अहं तो हमेशा गृहस्थ ही है क्योंकि वो कहीं-न-कहीं तो रहता ही है। अगर कोई शराब खाने में रहता है तो वो शराब खाने का गृहस्थ है, अगर कोई दिन-रात अपने दफ़्तर में रहता है तो वो दफ़्तर का गृहस्थ है। जहाँ कहीं तुम अड्डा बना लो अपना, वही गृह हो गया तुम्हारा।

तो जिस किसी ने 'उससे' ज़्यादा कीमत अपने दूसरे रिश्तों को देनी शुरू कर दी, उसी का विनाश काल आ गया समझो। अब समझ में आ रहा है कि क्यों आदमी विनष्ट होता है, क्यों ये लोक मर्त्यलोक कहलाता है? क्योंकि इस लोक में सब उससे ज़्यादा कीमत अपने आपको देते हैं, " आई विल डिसाइड " (मैं निर्णय लूँगा) और इसीलिए समझाने वाले ये भी बोल गए हैं कि अगर 'उसको' मूल्य देना शुरू कर दो, तो अमर हो जाओगे तुम। अब ये बात सुनने में अजीब लगती है, कि धरती का हाड़-माँस का आदमी अमर हो जाएगा? होता है। वैसे नहीं अमर होता कि छः हज़ार साल जी गया तो अमर है, किसी और अर्थ में अमर होता है।

(एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए) कल आप वेदों की बात कर रहीं थीं। वेद कहते हैं, "अमृत के बच्चे हो तुम, मर कैसे सकते हो?" "अमृतस्य पुत्राः", मर कर दिखाओ! लेकिन हम तो मर जाते हैं। पता नहीं कैसे मर जाते हैं! होंगे अमृत के बच्चे, बाप को ही भूल गए, तो कौन बाप, कौन बच्चा? हो सकता है कि तुम राजा की औलाद हो पर तुम भूल ही गए तुम राजा की औलाद हो, तो कौन सी बादशाहत मिलेगी तुमको? या मिलेगी तब भी? फिर कुछ नहीं।

होना काफ़ी नहीं है, याद भी रखना पड़ता है। अध्यात्म याद रखने की कला है, होने की नहीं। जो हो, वो तो हो ही तुम। तुम्हारे होने पर अध्यात्म से कोई अंतर नहीं पड़ता। अध्यात्म का मतलब है पुनः याद करना, पुनः स्मरण करना, रीमेम्बरिंग (स्मरण रखना), पुनः जुड़ जाना, उससे जो तुम हो ही। बदल कर कुछ नहीं हो जाना है। उसको याद कर लेना है जो सच्चाई है तुम्हारी।

(श्रोताओं से मज़ाक करते हुए) जी कहें, कौन-कौन है घर में?

कबीर साहब की एक साखी है। आधी साखी मैं बताए देता हूँ, आधी खोजना। कहते हैं — "मात पिता सुत बान्धवा, यह तो घर-घर होए।"

इतना उन्होंने आधी साखी में ही बता दिया कि घर-घर में पाया कौन जाता है। असली बात उन्होंने आगे बताई है। बोले, हर घर में ये सब मिल जाते हैं, कौन? माँ, बाप, बच्चे, मित्र, बंधु, ये सब घर-घर में मिलते हैं। लेकिन फिर भी वह घर, घर कहलाने योग्य नहीं है। क्योंकि कुछ बात है। पता करो क्या बात है।

तुम इतनी छोटी सी बात समझ क्यों नहीं पाते? आँख माने क्या है, बताओ मुझे? आँख माने माँस और खून, ठीक? माँस और खून देख सकते हैं क्या? पर तुम तो देख लेते हो? तो माने आँख अपने-आप नहीं देखती, कोई और है जो आँखों को प्राण देता है कि वो देख पाएँ।

कोई भी डॉक्टर, चिकित्सक आँख की माँस की चिकित्सा कर सकता है, वो आँख को ज्योति नहीं दे सकता, या दे सकता है? आँख की ज्योति कौन है? समझाने वालों ने कहा है जो आँख की ज्योति है, वो 'वो' है। आँख तुम्हारी है, ज्योति उसकी है। बताओ क्या चाहिए?

तुम जब दावा करते भी हो, "मेरी आँख", तो तुम अधिक-से-अधिक किस पर दावा कर सकते हो? माँस पर, माँस तुम्हारा है, दिया। माँ-बाप से पैदा हुए, खाना-पीना खाया, पानी पिया, तो माँस तो तुम्हारा, चलो दिया। पर आँख की ज्योति 'वो' है, 'वो' न हो तो ये माँस रहेगा, ज्योति नहीं रहेगी। ये तुम्हें समझ में क्यों नहीं आती बात? क्यों बार-बार बोलने लगते हो, "मेरी आँख है, मैं ख़ुद ही दे लूँगा।" भई आँख तुम्हारी होगी, पर 'वो' नहीं है तो कुछ नहीं देख पाएगी आँख।

उपनिषदों ने इतनी बार और इतने मीठे तरीके से कहा है। मस्तिष्क तुम्हारा है, रख लो, बोध तुम्हारा नहीं है। रख लो मस्तिष्क को। क्या है मस्तिष्क? (एक हाथ से मुट्ठीभर, मस्तिष्क का आकर दिखाते हुए) इतना बड़ा होता है कुल, इसमें बोध नहीं होता। ब्रेन (मस्तिष्क) अंडरस्टैंडिंग (समझ) नहीं है। कॉम्प्रिहेंशन (बूझ) कर सकता है ब्रेन , अंडरस्टैंडिंग नहीं कर सकता।

पर फिर भी बोलते हो, "हमारे भी अक्ल है, हम सोच लेंगे।" मस्तिष्क का तो मतलब है माँस, जिसमें कुछ पूर्व निर्धारित, रासायनिक, जैविक, इलेक्ट्रॉनिक (विद्युतीय) क्रियाएँ चलेंगी। उन क्रियाओं के फलस्वरूप ना तुम्हें बोध होगा, ना प्रेम होगा ना आनंद होगा। आनंद मस्तिष्क में थोड़े ही होता है। हालाँकि लगे हैं कई दिग्गज, एक-से-एक धुरंधर हैं। वो कह रहें हैं, "हम एक ऐसा रसायन तैयार कर रहे हैं आनंदोजन, कि वो यहाँ (मस्तिष्क में) मारा जाएगा और बिलकुल आनंद-ही-आनंद आ जाएगा।" कह रहें हैं, "हैलोजन हो सकते हैं, नाइट्रोजन हो सकता है तो आनंदोजन भी तो हो सकता है न।" और बात मज़ाक की नहीं है, इस प्रकार के प्रयोग चल रहे हैं। नाम भले ही उनका आनंदोजन न हो, पर बिलकुल चल रहे हैं इस तरह के प्रयोग।

केमिकल तुम बना सकते हो, यहाँ की (मस्तिष्क की) जो इलेक्ट्रॉनिक और न्यूरल व्यवस्था है, उसके साथ तुम छेड़खानी कर सकते हो। यहाँ (मस्तिष्क) पर एक चिप भी फिट कर सकते हो, लेकिन आनन्द मस्तिष्क का अनुभव है ही नहीं, तो उसको तुम कहाँ से लाओगे? मस्तिष्क तुम्हारा है बेटा, आनंद 'उसका' है, वो नहीं तो आनंद नहीं। ज्ञान हो सकता है उसके बिना। तुम एक मेगा-चिप यहाँ (मस्तिष्क में) लगा लो, उससे ज्ञान तुम्हें हो जाएगा। दुनिया भर की सारी सूचना उसमें मौजूद है या वो चिप जुडी हुई है किसी विशाल डेटाबेस से। तो दुनिया भर का ज्ञान तुम्हें उपलब्ध हो सकता है, तुम्हें ऐसे-ऐसे अनुभव उपलब्ध हो सकते हैं जिनसे तुम गुज़रे ही नहीं। वो सब हो जाएगा चिप लगाने से, प्रेम नहीं होगा, आनंद नहीं होगा, मुक्ति नहीं होगी।

(व्यंग्य करते हुए) ये छोटी-छोटी दो-चार बातें हैं, ये नहीं होंगी, बाकी सब वो जो बड़ी-बड़ी बातें हैं, वो हो जाएँगी। बिलकुल गूगल बन जाओगे तुम, मुँह भी जी (गूगल सर्च इंजन का लोगो) जैसा हो जाएगा बिलकुल। और ये बिलकुल हो ही चुका है, ये हो जाने वाली बात नहीं है। विज्ञान वहाँ पहुँच गया है जहाँ आदमी को गूगल बनाया जा सकता है। पर गूगल को तुमने कभी आनंदित देखा?

प्र: नहीं।

आचार्य: तो बस, तुम्हें भी नहीं होगा। जैसे गूगल जानता बहुत कुछ है, समझता कुछ नहीं, तुम भी कुछ नहीं समझोगे। जानता तो सब कुछ है न गूगल, समझता है कुछ? समझता है क्या? समझोगे तुम भी कुछ नहीं।

ठीक अभी देखो — (अपने मुँह की ओर इशारा करते हुए) ये मुँह है, ये चल रहा है, ये शब्द निकल रहे हैं, तुम्हारे कान में पड़ रहे हैं, तुम्हारे मस्तिष्क में जा रहे हैं, मस्तिष्क में जा रहे हैं तो वहाँ कुछ इलेक्ट्रॉनिक गतिविधि हो रही है। पर ये जो घटनाएँ यहाँ घट रही है मैकेनिकल (यंत्रवत्), भौतिक घटनाएँ, इनसे क्या तुम यह बता सकते हो कि यह शब्द कहाँ से आ रहे हैं — पहली बात, और तुम्हारे भीतर कहाँ को जा रहे हैं — दूसरी बात, क्या ये बता सकते हो? बीच का मामला हमारा-तुम्हारा है, पर हमारे पीछे कोई और खड़ा है जहाँ से ये बातें आ रही हैं और तुम्हारे पीछे भी कोई और खड़ा है जो इन बातों को तुम्हें समझा रहा है। हम तो बीच के बिच्छू हैं, मध्यस्त, मिडिल-मैन हैं। हम भी, तुम भी।

पर अगर तुम अनाड़ी हो तो तुम्हें लगेगा मैंने कहा और तुमने जाना। ऐसा हो ही नहीं रहा है। ना मैं कह रहा हूँ, ना तुम जान रहे हो। हम तो ऐसे हैं जैसे बीच के दो खंभे और हमारे ऊपर तार लगे हुए हैं। पीछे से आ रहा है मामला इस खंभे तक, यहाँ से उस खंभे तक गया और फिर पीछे निकल गया। कहाँ को निकल गया? कोई नहीं जानता। तुम मुझसे पूछोगे, "कहाँ को निकल गया?" मैं कहूँगा, "वहीं को निकल गया, जहाँ से आया था।" तुम पूछोगे, "अच्छा, कहाँ से आया था?" मैं कहूँगा, "वहीं से आया था जहाँ को निकल गया।" तुम कहोगे, "बुद्धू बना रहें हैं", मैं कहूँगा, "शुरुआत तुम कर रहे हो", बुद्धुओं जैसे सवाल पूछोगे तो यही जवाब मिलेगा। सत्य अज्ञेय है, उनके बारे में इतने सवाल जवाब नहीं करते। कुछ आ रही है बात समझ में?

तुम समझ रहे होओगे तो नहीं आ रही होगी। अपनी बुद्धि से समझोगे तो नहीं आएगी समझ में। बुद्धि से कहोगे, "शांत हो जा, ठहर जा, समझने वाला कोई और है।" फिर सब समझ में आ जाएगा। जिसने भी समझा है, ऐसे ही समझा है। कूद-कूद कर, श्रम करके, व्यक्तिगत प्रयत्न से कोई कुछ नहीं समझ सकता। जिसने भी समझा है, बस यूँ ही समझ लिया है, अनायास, अकारण। और जो बड़े कूदने वाले हैं, वो कूदते ही रह जाते हैं। वो फिर मेरे शब्दों को ले करके उठापटक करेंगे, काटेंगे, पीटेंगे।

कल यहाँ चल तो रहा था। (श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए) ये बैठें हैं दो बच्चे। जो अपने-आपको नौजवान कहते हैं। इनको जैसे शब्द नहीं मिले, फुटबॉल मिल गई, लगे खेलने। ऐसे कुछ समझ में आता है? समझ में तब आता है जब तुम बुद्धि से कह दो, "शांत हो जा रे बस, होने दे जो हो रहा है।" समझ में आ जाएगा फिर। और इसका मतलब ये नहीं कि सवाल नहीं पूछने हैं, "तू शांत हो जा ताकि प्रश्न तुझसे ना उठें।" प्रश्न भी आएगा फिर तो किससे आएगा? कहीं और से आएगा, वो असली सवाल होगा। असली सवाल जब पूछोगे तो गुरु फिर असली समाधान भी दे पाएगा। नहीं तो इधर-उधर के तुम चिल्लर सवाल पूछते रहोगे। उनमें कोई मूल्य नहीं। तुमने ग़ौर किया है, अक्सर हमारे सवालों में गहराई नहीं होती, क्यों? क्योंकि वो हमारे व्यक्तिगत सवाल होते हैं। जब व्यक्ति ही उथला होता है तो व्यक्तिगत सवाल गहरे कैसे हो सकते हैं?

सवाल कैसे होते हैं यह जानना है तो देखो जनक और अष्टावक्र की बातचीत और जनक के सवाल देखो। तुम कहोगे दिन-भर हम भी सवाल-ही-सवाल करते हैं पर क़सम से ऐसा तो आज तक हमने एक भी सवाल नहीं किया। जनक के सवाल देखो। ज़रा सा लड़का है, नचिकेता, यमराज के सामने खड़ा है, उसके सवाल तो देखो। और तुम तीस के हो गए होगे, साठ के हो गए होगे, आज तक नचिकेता जैसा एक भी सवाल पूछ पाए? क्यों? क्योंकि तुम्हारे पास अपने बहुत सवाल हैं। और तुम्हारे क्या सवाल हैं — ये दूध कितने रुपए किलो चल रहा है? ये तुम्हारे सवाल हैं। क्या लगता है, चौथे चरण में कौन आगे है, मोदी कि वो? यह तुम्हारे सवाल हैं। नचिकेता ये सब थोड़े ही पूछ रहा था। जो, जो माँगेगा उसी अनुरूप उसे मिल जाएगा। गीता का चौथा अध्याय, ग्यारहवा श्लोक, श्री कृष्ण कह रहे हैं — जो मुझे जैसे भजता है मैं भी उसे वैसे ही भजता हूँ। इसी को ऐसे पढ़ो कि जो जिस कोटि का सवाल पूछता है, मैं उसे उसी कोटि का उत्तर दे देता हूँ। जब तुम्हारी व्यक्तिगत जिज्ञासा ही इसी तरीके की है कि टीशर्ट की सेल कब लगेगी दोबारा, तो तुम्हें उत्तर में अध्यात्म और अमरता के सूत्र थोड़े ही दिए जा सकते हैं, या दिए जा सकते हैं? तुम्हें सवाल तो दिन भर उठते हैं, छलकते रहते हैं सवाल, पर वो सारे सवाल ऐसे ही हैं क्योंकि वो अपने सवाल हैं।

अब जनक जाते और अष्टावक्र से पूछते कि "वो मेरे मंत्रिमंडल में एक है, मुझे लग रहा है वो मेरे ख़िलाफ़ साज़िश कर रहा है, बताइए क्या करें?" तो अष्टावक्र क्या जवाब देते? जनक राजा हैं, ना जाने कितने तरह के मुद्दे उनके सामने रहते होंगे। वो उन मुद्दों को ही अष्टावक्र के सामने उठाने लगते, तो अष्टावक्र क्या करते? हाथ जोड़कर कहते, "महाराज, अभी आठ ही जगह से टेढ़ा हूँ। तुम रुक गए तो दो-चार और जगह से टेढ़ा हो जाऊँगा, जाओ।"

जो कुछ भी अच्छा है ज़िंदगी में वो 'उसने' दिया है और जो कुछ भी दुःख का, क्लेश का कारण है ज़िंदगी में वो तुम्हारी अपनी कमाई है। इतनी सी बात याद रख लो। आनंद मिले, मुक्ति मिले, बोध मिले सर झुका देना, धन्यवाद देना, श्रेय मत लेने लग जाना। और दुःख मिले, चिंता मिले, चोट मिले, तो आत्म-अवलोकन करना, अपने-आपसे पूछना — ऐसा मैंने क्या किया जो अब मुझे दुःख मिला। ये न कह देना कि, "हे ईश्वर! तूने मुझे इतना दुःख क्यों दिया?" उसने कोई दुःख-वुख नहीं दिया है। वो आनंद स्वरूप है, वो दुःख कैसे देगा। दुःख तुम्हारी अपनी कमाई है, आनंद ऊपर से आता है।

ये बात अह्म को बहुत चोट पहुँचती है कि, "दुःख हमने ख़ुद कमाया है?" हाँ साहब, आपने ही कमाया है। अब आप ईमानदारी से देख लीजिए कि कैसे-कैसे कमाया है, किसी और को दोष मत दीजिए।

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