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लेख
भूत-पिशाच निकट नहीं आवैं || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरा नाम शांतनु है और इसी सत्र के दौरान किन्हीं ने चर्चा की थी हनुमान चालीसा के ऊपर कि उन्होंने हनुमान चालीसा पढ़ी है बचपन में। मैंने भी हनुमान चालीसा पढ़ी है और बहुत सारे लोग होंगे जिन्होंने पंक्ति-दर-पंक्ति हनुमान चालीसा को एकदम याद कर लिया है।

तो उसमें एक पंक्ति है: "भूत-पिशाच निकट नहीं आवें, महावीर जब नाम सुनावें।" तो आपने तो भूत-पिशाचों का खंडन किया है कि ये तो नहीं होते हैं। तो यहाँ पर तुलसीदास जी क्या कहना चाहते हैं कि कौनसे भूत-पिशाच हैं?

आचार्य प्रशांत: नहीं, भूत-पिशाच आपके पास निकट कैसे आते हैं? जहाँ भूत-पिशाच आपके पास निकट आते हैं, जिस जगह पर निकट आते हैं, उस जगह पर वो नहीं आएँगे जब महावीर का नाम आप सुमिरन करेंगे तो। भूत-पिशाच आपके पास कहाँ पर आते हैं? मन में आते हैं। वहाँ नहीं आएँगे।

भूलिएगा नहीं कि शुरुआत ही होती है, "जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।" पहला शब्द क्या है — ज्ञान। जब ज्ञान रहता है तो ये भूत-प्रेत और इस तरह की व्यर्थताएँ दिमाग में आती ही नहीं। इनका कोई अस्तित्व तो होता ही नहीं है न। फिर भी ये आपको बड़ा परेशान करते हैं।

परेशान कहाँ करते हैं? यहाँ (कंधे की ओर इशारा करते हुए) हाथ रखकर थोड़े ही परेशान करते हैं। पीठ पर घूँसा मारकर थोड़े ही परेशान करते हैं। ये कहाँ परेशान करते हैं? (सिर की ओर इशारा करते हुए) यहाँ परेशान करते हैं। यहाँ नहीं आएँगे।

तो देखिए, भारत की पूरी धार्मिक परंपरा अनुप्रेरित तो वेदांत से ही है। वही बीज है, वहीं से ये पूरा वृक्ष उदित है। लेकिन लोगों तक जब ले जानी होती है न बात, तो बात को सर्वग्राह्य बनाना पड़ता है। बात को ऐसा करना पड़ता है कि हर आम आदमी की समझ में भी आ जाए।

और भारत कैसा देश रहा है? यहाँ के अधिकांश लोगों का व्यवसाय क्या रहा है? भारत एक कृषिप्रधान देश रहा है। सब कृषक रहे हैं। और आप जब खेती-बाड़ी करते हो तो उसमें पढ़ने-लिखने की कोई विशेष ज़रूरत होती नहीं न। कम पढ़कर या बिलकुल न पढ़कर भी काम चल जाता है। क्योंकि आपका जो व्यवसाय है, उसमें बहुत ज़्यादा सांसारिक ज्ञान आप करोगे क्या। तो शिक्षा का स्तर आम जनमानस का कभी भी बहुत ऊँचा रहा नहीं।

लेकिन साथ-ही-साथ ये भी ज़रूरी था कि वेदांत की जो सूक्ष्म सीख है वो सब तक ले जाई जा सके, तो इसीलिए उसको सर्वसुलभ बनाया गया। उसको इस तरीक़े से बताया गया संतों द्वारा कि लोग उसको फिर पचा पाये। सीधे-सीधे आपको उपनिषद् के सूत्र दे दिये जाएँ, आपके लिए बड़ी कठिनाई हो जाएगी, समझ मे ही नहीं आएँगे।

अब, वेदांत की प्रस्थानत्रयी होती है, उसके तीन स्तम्भ होते हैं — एक उपनिषद् हैं, एक भगवद्गीता है, तीसरा है वेदांत सूत्र (ब्रह्मसूत्र)। उन पर (ब्रह्मसूत्र पर) मैंने आज तक चर्चा ही नहीं करी है। और मेरा बड़ा मन है कि उन पर बात करूँ। (मुस्कुराते हुए) पर प्रश्न ये है कि किससे बात करूँ। लिखा जा सकता है कुछ, लिखने में समय लगता है। तो मैं स्वयं ही इस टोह में हूँ कि कब समय मिले कि मैं उस पर एक लिख पाऊँ टीका, भाष्य, कुछ भी। जटिल है मामला और उसको लोगों तक लेकर आना है, सरल बनाना है।

तो फिर उसको वैसे बोला जाता है जैसे हनुमान चालीसा में बोला गया है; संकेतों के तौर पर बोला जाता है। कोई व्यक्ति है जो मानता ही है, मान लो, कि भूत-प्रेत होते ही हैं, तो उसको कैसे लायें हनुमान जी तक? हनुमान जी तक लाने का क्या अर्थ है? राम तक लेकर आना।

एक व्यक्ति है जिसका गहरा अंधविश्वास बैठ गया है कि भूत-प्रेत तो होते ही हैं भाई, और उसको भूतों से ममता भी हो गयी है क्योंकि उसको लगता है कि उसकी माँ का भूत अक्सर उसके पास आता है। अभी भी चलता है, छोटे शहर वगैरह में कि माँ का, दादी का भूत आ जाता है और फिर बड़ा उत्सव रहता है कि दादी आयी है आज!

तो उसको तुम कैसे बोल दोगे कि भूत-प्रेत होते ही नहीं? भूत-प्रेत नहीं होते, ये बोलना हो गया माने कि दादी नहीं होती। तुम उसको उसकी दादी से अलग कर रहे हो! नहीं मानेगा। लेकिन उसको राम के पास भी लेकर आना है। तो फिर ये तरीक़ा निकाला जाता है कि देखो भूत-प्रेत तुमको बहुत बाधा देते हैं, परेशान करते हैं न! वो कालू भूत था, तुम वहाँ बरगद के नीचे से निकल रहे थे, उसने टाँग तोड़ दी थी न तुम्हारी।

हुआ कुछ नहीं था, अंधेरी रात में निकल रहे थे बरगद के नीचे से, टकरा गये पत्थर से, गिर गये, टाँग टूट गयी। लेकिन अभी पूरा किस्सा ये है कि वो कलुआ भूत है, बरगद के नीचे रहता है और जो वहाँ से निकलता है, ख़ासतौर पर शनिचर को, उसको तोड़ ही देता है।

अब उसकी टाँग टूटी हुई है, इस बात को वो प्रमाण के तौर पर लेता है कि कालू भूत तो है ही! कहता है, 'न होता तो टाँग किसने तोड़ी?' तो अब उसको तुम ज्ञान का पूरा भंडार देकर समझाओ कि भूत-प्रेत नहीं होते, ये बड़ा लंबा कार्यक्रम हो जाएगा। तो इससे अच्छा संतों ने उपाय निकाला कि इसको ये बोल दो कि हाँ, भूत-प्रेत होते तो हैं लेकिन हनुमान जी का जाप करोगे न तो निकट नहीं आएँगे।

उन्होंने कहा, चलो, तुम रखे रहे अपने भूत-प्रेत। उनको रखे-रखे ही सही, तुम श्रीराम के निकट तो आओ। और एक बार निकट आ जाओगे तो संभावना ये है कि धीरे-धीरे अंधविश्वास से स्वयं ही मुक्त हो जाओगे। तो इस तरह की व्यवस्था की जाती है।

कौनसी व्यवस्था किसके लिए की गयी है, ये बात ध्यान में रखा करो और संकेतों को तथ्य मत मान लिया करो। वहाँ तो ये भी बात है कि वो बालक हनुमान उड़ते हुए गये और भूख लगी थी, देखा बढ़िया पका हुआ फल है और सूरज को निगल लिया। तो अब "तीनों ही लोक भयो अंधियारो!" तो क्या मान लोगे कि ऐसा हुआ था वाक़ई? बात प्रतीकात्मक है न! एक तरह के मन की ओर इशारा करती है — भोला परन्तु सबल मन। इसके प्रतीक हैं हनुमान और बहुत सुंदर प्रतीक हैं हनुमान।

हनुमान चालीसा का पाठ, मैं भी छोटा था, मैंने ख़ूब किया है। और हमारे जितने देवी-देवता हैं उसमें मुझे पसंद ही मात्र हनुमान जी आते थे। एक निष्छलता है, एक निष्कपटता है। कहीं दिखाई नहीं देता कि अपने लिए कुछ कर रहे हैं। उनकी देह देखता था, मुझे बड़ा आनंद आता था। मुझे लगता था ऐसे ही होना चाहिए, गदाधारी!

वेदांत जब नहीं होता तो धर्म विकृत हो जाता है क्योंकि धर्म वहीं से निकला है। जितनी बातें धर्म में कही जाती हैं उनको समझने की ताक़त और कुंजी तो आपको वेदांत से ही मिलनी है न। उसका हम कोई अध्ययन करते नहीं। तो फिर हम भ्रमित हो जाते हैं। उस भ्रम से बचना चाहिए।

प्र२: प्रणाम आचार्य जी, जैसे आपने कहा कि हनुमान चालीसा के द्वारा लोगों को श्रीराम के निकट लाया जा सकता है। तो अगर कोई विश्वास नहीं करता अध्यात्म में; जैसे मेरे दो भाई हैं, एक सत्रह वर्ष का है और एक इक्कीस वर्ष का है। तो वो लोग सोशल मीडिया, इन सब चीज़ों को ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं और वो बर्बाद हो रहे हैं, जो मैं देख रही हूँ।

वो भी भूत-प्रेत में विश्वास करता है, तो अगर उसको मैं बताऊँ कि अगर हनुमान चालीसा का जाप करोगे या राम-राम करोगे तो नहीं आएँगे तो फिर इसके द्वारा वो अध्यात्म के, सच्चे अध्यात्म के पास कैसे आएगा?

आचार्य: आप राम के पास तो आओगे न! राम के पास आओगे तो रामचरितमानस पढ़ोगे। रामचरितमानस पढ़ोगे, वहाँ से आप योगवासिष्ठ पर जाओगे, ऐसे।

प्र२: क्योंकि जैसे पापा हैं वो मानते तो हैं, तो हनुमान चालीसा का जाप कर लिया उन्होंने और राम-राम, जय श्रीराम कर रहे हैं..

आचार्य: हाँ, अगर आप वहाँ पर रुक गये तो फिर बात नहीं बनी। रुक ही गये और उसके अपने अनुकूल अर्थ भी कर लिए तो फिर बात नहीं बनेगी। हनुमान इसलिए हैं ताकि आप श्रीराम तक आ सकें। उनसे भी आप पूछोगे तो वो यही कहेंगे कि मैं तो साधन हूँ, साध्य तो राम हैं। मुझ तक आकर क्या रुक रहे हो! वहाँ तक जाओ न।

प्र२: तो उनको कैसे लाया जा सकता है? मैं सारी पुस्तकें भी ले कर गयी हूँ आपकी, मैंने लाईब्रेरी (पुस्तकालय) भी…

आचार्य: (बीच मे टोकते हुए) देखो अगर बात नहीं बन रही है तो नहीं बनेगी। कोशिश कर लो अपनी ओर से ताकि मन पर ग्लानि न रहे लेकिन फिर कह रहा हूँ, वही आता है जिसको आना होता है।

जिसकी अपनी समझ गवाही देती है, जिसका अपना समय आ गया होता है, जो अपने कष्ट के प्रति संवेदनशील हो गया होता है, वही आता है। बाक़ी आप का फ़र्ज़ बनता है, आप प्रयास ज़रूर करिए। पर आएगा तो वही जो स्वेच्छा से आएगा। घरवालों के लाए कोई आ जाए, आवश्यक नहीं है।

प्र२: आचार्य जी, एक चीज़ ये भी नहीं समझ में आती कि किस स्तर तक ज़ोर किया जाए। जैसे अबकी बार मम्मी को कुछ ज़ोर करके मैं शिविर में लेकर आयी हूँ।

आचार्य: जिस सीमा तक वो पलट कर पीट न दें तुमको! (सभी हँसते हैं)

चल गयी तुम्हारी, तुम उनको धक्का देकर ले आयी। ज़्यादा ज़ोर लगाओगी तो! इसका क्या उत्तर दिया जाए कि किस सीमा तक हम किसी पर बल आज़माइश कर सकते हैं? क्या उत्तर है इसका? जितना प्रेम हो! जितनी गुंजाइश हो! और जितना तुम्हारा विवेक गवाही दे।

तुम्हारे पास समय है, तुम्हारे पास ऊर्जा है, तुम उसे एक ही व्यक्ति पर लगाए जा रहे हो कि नहीं, मैं इसको सिखा कर मानूँगा, इसको सिखा कर मानूँगा। वो सीखना भी नहीं चाहता, उसको तुम सिखाने को आतुर हो। और दूसरे दस खड़े हैं आसपास जो ज़्यादा आसानी से सीख जाएँगे, उनकी ओर आप मुड़कर नहीं देखते। क्यों? क्योंकि उनसे आपका रक्त सम्बन्ध नहीं है।

कह रहे हो, ‘माँ है न, माँ को ही सिखाऊँगी सिर्फ़। माँ को ही सिखाऊँगी।’

मैं नहीं कह रहा माँ को मत सिखाओ। पहली कोशिश आप घरवालों पर ही करिए और ज़ोर लगा दीजिए पूरा कि सीखें। पर दिख रहा है कि नहीं सीखना चाहते फिर भी लगे हुए हो पत्थर पर बरगद उगाने में, तो क्या होगा उससे! ये चीज़ सबके लिए नहीं होती। सभी के लिए होती है पर सबके लिए हर समय नहीं होती।

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