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लेख
भगवान बुद्ध महल छोड़ कर जंगल क्यों गए? || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
23 मिनट
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प्रश्नकर्ता: भगवान बुद्ध महल छोड़कर जंगल क्यों गये?

आचार्य प्रशांत: वो जंगल की ओर नहीं गये थे, वो समाज से दूर गये थे। अन्तर समझना। बुद्ध को यह भ्रम क़तई नहीं था कि उन्हें जंगल में बोध मिल जाएगा। पेड़ पर थोड़े ही बोध लगता है! पेड़ पर बोध लगता होता तो कौवों को सबसे पहले मिल गया होता। और घास में बोध होता तो बकरियों को, गायों को सबसे पहले मिल गया होता। तो बुद्ध को यह भ्रम तो नहीं था कि जंगल में मिल जाएगा।

वो जंगल क्यों गये थे? जंगल इसलिए गये थे क्योंकि उन्हें महल से दूर होना था। इन दोनों बातों का अन्तर समझना। जंगल से नहीं उन्हें उम्मीद थी कि जंगल में बोध-वर्षा होगी। महल से दूर हो गये थे, महल में बड़ी किच-किच थी। याद करो वो शाम जब बुद्ध को स्पष्ट हो गया था कि अब जाना ही है।

कहाँ को जा रहे थे बुद्ध? बुद्ध जा रहे थे युवा-उत्सव की ओर। राजधानी में युवा-क्रीड़ा का आयोजन हुआ था। एक युवक-उत्सव था, जिसमें देशभर के जवान लोग आते थे, खेल होते थे, क्रीड़ाएँ होती थीं, प्रतिस्पर्धाएँ होती थीं, तमाम तरीक़े के मनोरंजक और उत्तेजक कार्यक्रम होते थे। तो बुद्ध उसमें जा रहे थे। शायद, मुख्य अथिति रहे होंगे, फीता काटने जा रहे होंगे, या देखने जा रहे होंगे, कुछ भी। और सामने कौन पड़ गया?

श्रोता: वृद्ध।

आचार्य: वृद्ध। लो! और बुद्ध की किस्मत! उनका सारथी भी वैसा ही, बुद्ध ही जैसा। दो-चार बातें हुईं, फिर आगे बढ़े। अब क्या दिख गया?

श्रोता: बीमार।

आचार्य: बीमार। लो! और बुद्ध बात करे जा रहे हैं सारथी से। पूछ रहे हैं, ‘ये है क्या?’ क्योंकि उनको बिलकुल रुई के फाहे में रखा था उनके पिता ने। उनको ये सब देखने ही नहीं दिया था कि ये सब भी होती हैं चीज़ें, बुढ़ापा, बीमारी। और आगे निकले। लो, अब क्या दिख गया? लो! अर्थी चली जा रही है। अब पूछते हैं सारथी से, ‘ये भी होगा मेरे साथ?’ क्योंकि जब बूढ़ा मिला था तो पूछे थे, ‘मैं भी बूढ़ा होऊँगा?’ सारथी बोला, ‘जी, आप भी।’ वो तो बोले, ‘हाँ! यह हमारे साथ भी होगा! अनुमान ही नहीं था।’

जब बीमार आदमी मिला था तो बुद्ध ने उसको ऐसे देखा जैसे किसी और प्रजाति का हो, कहे, 'बीमारी! यह भी कुछ होती है?' सारथी से बोले, 'बाबा, यह कौनसी चीज़ है? कहाँ पायी जाती है? बोले, ‘ये इंसान ही है, आपके-हमारे जैसा। बीमार है।’ बुद्ध पूछे, ‘हम भी बीमार होंगे?’ बोले, 'जी, आप भी होंगे।’ झटके पर झटके!

और फिर मृत्यु ही दिख गयी। बुद्ध ने पूछ लिया, ‘बाबा, मैं भी मरूँगा?’ और सारथी बोला, ‘जी, आप भी।’ बुद्ध ने बोला, ‘फिर यह उत्सव किसलिए मनाया जा रहा है? यह तुम मुझे कहाँ ले जा रहे हो? यह नाच, यह रंग-रोगन, ये खुशियाँ, ये क्रीड़ाएँ, ये किसलिए हैं? अगर सबकुछ घूम-फिरकर के इस पर लौट आना है तो हम फिर किसको धोखा दे रहे हैं? अगर इधर ही पहुँचना है तो उधर जाकर लाभ क्या?

जहाँ पहुँचना है वो मंज़िल तो मेरे सामने खड़ी है, दिख गयी। अगर अन्ततः मुझे यहीं आना है तो फिर मैं उधर क्यों जा रहा हूँ? और अगर यहीं आना है, तो ऐसी ज़िन्दगी मैं जीना नहीं चाहता। फिर इस ज़िन्दगी से मुझे दूर जाने दो, मुझे पता करने दो कि क्या जीवन यही है, दुख-मात्र, या कोई समाधान है, मुक्ति का कोई मार्ग है।

बुद्ध दूर हुए थे। दूर हुए, अकेले हुए, अपने साथ समय बिताया, बहुत खोज करी। तमाम जगहों पर मत्था रगड़ा और अन्तत: जब बुद्धत्व उदित हुआ तो ग़ौर करना कि जंगल में नहीं रहे फिर। सिद्धार्थ गौतम बुद्धत्व के पश्चात् नगर-नगर भी घूमे, राजधानियों में जाकर घूमे, राजाओं से मिले, गाँव-गाँव भी गये। उसके बाद उनका कोई आग्रह नहीं था कि हमें जंगल में ही रहना है। पर जंगल ज़रूरी था। जंगल ज़रूरी था समाज से हटने के लिए, उन झूठी क्रीड़ाओं और युवक-उत्सवों से हटने के लिए।

श्रोता: तो क्या आज भी बोध के लिए जंगल जाना पड़ेगा?

आचार्य: कैम्प आ जाओ। वो और किसलिए आयोजित होते हैं? तीन दिन तुमको यही तो दिखाया जाता है कि जो शहरी ज़िन्दगी जी रहे हो, उससे हटकर भी जिया जा सकता है। तीन दिन में थोड़ी सी झलक पा जाते हो।

श्रोता: बाद में वहीं आ जाएँगे बसने के लिए।

आचार्य: अब बाद में तुम क्या करोगे, यह तुम जानो। बुद्ध हो तो फिर एक काम करोगे, बुद्ध नहीं हो तो फिर दूसरा काम करोगे। जंगल तो बहुत राजकुमार जाते हैं, वो क्या करने जाते हैं जंगल? वो शिकार खेलने जाते हैं। और बुद्ध भी राजकुमार ही थे। वो भी जंगल गये, वो क्या करने गये? तो जंगल जाने भर से नहीं होता।

इसी तरह से कैम्प आने भर से नहीं होता। इस बार है जंगल में ही, बाघ वाले जंगल में, जिम कॉर्बेट में है। और तुम यह भी कर सकते हो कि बाघ दिखा, बाघ दिखा या फिर वहाँ तुम्हें कुछ और भी मिल सकता है। बहुत तो इसी बात से आकर्षित हैं। कह रहे, ‘अच्छा! बढ़िया! नवम्बर है और जिम कॉर्बेट। बाघ देखेंगे।’ कहा, ‘अच्छा, ठीक है! तुम आओ, बाघ ही देखो। आओ।’ जंगल में साधना भी हो सकती है और जंगल में मंगल भी हो सकता है, दंगल भी हो सकता है। जंगल के तो बहुत उपयोग हैं।

प्रकृति माने समूचा संसार। जंगल को तो प्रकृति तुम जानते ही थे। मैंने कह दिया शहर भी प्रकृति ही है, क्योंकि किससे बने हैं? बुद्धि से। और बुद्धि माने प्रकृति। जंगल भी प्रकृति, शहर भी प्रकृति तो और अब कुछ बचा ही नहीं। जंगल माने वो जिसको तुम हमेशा से प्राकृतिक ही मानते आये हो। और जो आदमी द्वारा रचित यह पूरी सभ्यता-संस्कृति है, यह भी प्रकृति ही है। तो सबकुछ क्या हुआ? पूरा संसार ही क्या हुआ? प्रकृति।

आदमी जब संसार में चैन ढूँढे, तो उसे निराशा ही मिलेगी। संसार में चैन ढूँढने को ही मैं कह रहा हूँ प्रकृति में व्यर्थ ही चैन ढूँढने की कोशिश करना। नहीं मिलेगा।

श्रोता: पर क्या हम प्रकृति के संसाधनों का उपयोग ध्यान के लिए कर सकते हैं ?

आचार्य: हाँ, वो सब तुम कर सकते हो। गाड़ी का इस्तेमाल करके कहीं पहुँचना एक बात है और गाड़ी में ही घर बना लेना दूसरी बात है। तुम फ्लाइट में बैठकर के यहाँ आये हो, वो एक बात है कि तुम इस्तेमाल भर कर रहे थे प्रकृति का, सत्संग तक पहुँचने के लिए। और तुम फ्लाइट में ही कहो कि एक कुर्सी ख़रीद ही लेनी है मुझे और एयर होस्टेस जी, क्या आप मेरा आमन्त्रण स्वीकार करेंगी, घर ही बना लेते हैं, तो वो बिलकुल दूसरी बात हो गयी न! कि तुमने प्रकृति में ही चैन खोजना शुरू कर दिया।

जिस्म प्रकृति है, टाँगें प्रकृति हैं। टाँगों का इस्तेमाल करो मन्दिर तक जाने के लिए, एक बात है और टाँगों के ही आशिक़ हो गये, वो बिलकुल दूसरी बात है न। आजकल तो टाँगों का बड़ा ख़याल रखा जाता है। बाल-वाल नुचवाये जाते हैं, गोरा करके रखा जाता है और जितना ऊपर तक उनको उघाड़ा जा सके, उतना उघाड़ भी दिया जाता है। अब टाँगें इसलिए नहीं हैं कि वो तुमको मन्दिर के द्वार तक ले जाएँगी, अब टाँगें इसलिए हैं कि कोई आकर तुम्हारी टाँगों के द्वार में प्रवेश कर जाए। यह प्रकृति का दुरुपयोग है। बात समझ रहे हो?

पाँव इसलिए नहीं है कि तुम पाँव को ही मन्दिर बना लो। पाँव इसलिए है कि इनका इस्तेमाल करो मन्दिर तक जाने के लिए। प्रतीक की तरह कह रहा हूँ। मन्दिर का मतलब यह नहीं है कि यह जो तुम ईट-पत्थर का मन्दिर बना लेते हो। मन्दिर माने वो जगह जहाँ शान्त हो सको। मुँह है, होंठ हैं, कंठ है, ज़बान है ये सब प्राकृतिक अवयव ही तो हैं। अब इनका इस्तेमाल या तो गाली-गलौज के लिए कर लो या सत्संग के लिए कर लो।

श्रोता: हम आपकी बात समझ पा रहे हैं, यह कौनसी समझ है?

आचार्य: यह तो मैं तुम्हें बताऊँगा नहीं। खोपड़े से नहीं समझ रहे, इतना समझ लो। अगर समझ रहे हो तो खोपड़े से नहीं समझ रहे हो। और अगर खोपड़े से ही समझ रहे हो तो समझ ही नहीं रहे हो।

श्रोता: ये जो सारी बातें समझ में आ रही हैं, ये कौनसी समझ है?

आचार्य: तो समझ और प्रकृति का क्या सम्बन्ध है? कोई सम्बन्ध ही नहीं है। लेकिन तुम जिस दुनिया में हो, वहाँ जितनी समझ होती है, वो सब भेजे की होती है, तो इसीलिए समझ है ही नहीं।

श्रोता: द अण्डरस्टैंडिंग इज नॉट द रियल अण्डरस्टैंडिंग? (तो क्या हमारी सामान्य समझ वास्तविक रूप से समझ है ही नहीं?)

आचार्य: नो, दैट इज़ जस्ट कॉम्प्रिहेन्शन। अण्डरस्टैंडिंग हैज़ नथिंग टु डू विथ द ब्रेन। (नहीं, यह केवल विश्लेषण मात्र है। समझ का मस्तिष्क से कोई लेना-देना नहीं है)

श्रोता: सो व्हाट इज़ इट व्हेन आइ थिंक आइ हैव अंडरस्टूड? (पर जब मुझे लगता है कि मैंने समझ लिया तो वो क्या है?)

आचार्य: यू हैव जस्ट थॉट अबाउट इट। यू हैव थॉट-अप अण्डरस्टैंडिंग। (यह आपका विचार मात्र है। आपने समझ को प्रकल्पित कर लिया है।)

श्रोता: हाउ डू आइ नो दैट आइ हैव अंडरस्टूड? (मुझे कैसे पता चलेगा कि मैं समझ गया?)

आचार्य: नेवर, नेवर। एज़ लॉन्ग एज़ यू आर क्यूरिअस टु एक्ज़ामिन अण्डरस्टैंडिंग, इट मीन्स यू आर एन आउट साइडर टु द वर्ल्ड ऑफ अण्डरस्टैंडिंग। द वन हू अंडरस्टैंडस इज़ नेवर इन डाउट, ही इज़ अल्सो नॉट सर्टेन, ही इज़ नाइदर सर्टेन नॉर डाउटफुल। द वेरी इश्यू ऑफ अण्डरस्टैंडिंग ड्ज नॉट अकर टु हिम, इट इज़ अ नॉन-इश्यू। (कभी नहीं। जब तक आप समझ की जाँच करने के लिए उत्सुक हैं इसका मतलब है कि आप समझ की दुनिया के लिए बाहरी हैं। जो समझता है वह कभी सन्देह में नहीं रहता, वह निश्चित भी नहीं है। वह न तो निश्चित रहता है और न ही सन्देह में रहता है। समझ का सवाल ही उसके दिमाग में नहीं आता, यह कोई मुद्दा ही नहीं है।)

एज़ लॉन्ग एज़ अण्डरस्टैंडिंग रिमेन्स एन इश्यू विथ यू, रेस्ट अश्योर्ड यू हैव अंडरस्टुड नथिंग। अण्डरस्टैंडिंग इज़ ह्वेन अण्डरस्टैंडिंग एज़ इश्यू इज़ नॉट। हैव यू अंडरस्टुड? (जब तक समझ आपके लिए एक मुद्दा बनी रहेगी, निश्चिंत रहें कि आपने कुछ भी नहीं समझा है। समझ तब है जब समझ मुद्दे के रूप में नहीं है। क्या आपने समझ लिया?)

(श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता: देन वॉट इज़ अण्डरस्टैंडिंग? (फिर समझ क्या है?)

आचार्य: यू शुड जस्ट स्टेअर बैक एट मी ब्लैंकली, वॉट इज़ दैट वर्ड? अण्डरस्टैंडिंग। आइ डोंट नो दैट वर्ड, दैट इज़ ओनली राइट रेस्पोंस बट डोंट जस्ट मग-अप दैट रेस्पोंस। (तुम्हें बस मेरी ओर एकटक देखना चाहिए। वह शब्द क्या है, 'समझ'? मैं उस शब्द को नहीं जानता, यह एकमात्र सही प्रतिक्रिया है। लेकिन उस प्रतिक्रिया को यूँही मत समझिए ।)

श्रोता: लेकिन आचार्य जी ये सब बातें तो ठीक हैं लेकिन जब शरीर को कुछ दुख-दर्द उठता है या मौत के बारे में यह बोलना तो बहुत आसान है कि मौत तो सबको आएगी लेकिन जब शरीर में दुख उठता है, तो यह सारी समझ एक तरफ़ चली जाती है। और झंझट में, दुख में होते हैं, तो बातें भी नहीं समझ पाते हैं। मतलब शरीर अगर साथ न दे, तो इन बातों को समझना ही मुश्किल हो जाता है।

आचार्य: मैं छ: दिन से बीमार हूँ। अभी कहाँ गया कुणाल (एक स्वयंसेवक)? यह मुझे गाड़ी में पता नहीं कौनसी दवाई चटाने की कोशिश कर रहा था। मैंने कहा, ‘दूर हट जा, क़तई नहीं खाऊँगा मैं। नहीं चाहिए।’ फिर क्या बोल रहा था? गिलोय। मैंने कहा, 'क़तई नहीं लूँगा।’ डेंगू हुआ था तब ली थी, अभी तक नहीं भूला हूँ। और मन वाक़ई यह बोल रहा था कि कुछ ऐसा हो सकता है कि सो जाऊँ। ठीक है, वो शरीर का काम है, तो? तुम्हें न बताऊँ तो तुम्हें पता चल जाएगा कि बीमार हूँ? बस ठीक है। शरीर होगा बीमार, हम नहीं हैं।

श्रोता: एक और चीज़ है कि जब मरता है इंसान, तो यह जो इतना सबकुछ दिख रहा है, वो सब भी चला जाएगा?

आचार्य: कौन मर गया? कौन मरा है? जितने लोग बैठे हैं इसमे से कौन मरा बताओ।

श्रोता: जो यह ‘मैं-मैं’ करता था! 'मैं' मर गया।

आचार्य: कहाँ? कहाँ? कौन मरा दिखाओ, कौन मरा? तुम्हें ख़याल कहाँ से आया मरने का?

श्रोता: लेकिन जो अभी है वो नहीं बचेगा!

आचार्य: तुम्हें ख़याल कहाँ से आ रहा है? कौन मरा है? क्या वजह है कि तुम्हें मृत्यु का ख़याल आ रहा है?

श्रोता: डर।

आचार्य: हम यहाँ बातचीत कर रहे हैं, तुम्हें यह डर किससे है? मैं बोलते-बोलते बीच में रुक गया था क्या कि तुम्हें डरने का मौक़ा मिल गया? वफ़ादार नहीं हो तुम। हम तुमसे बात कर रहे हैं, तुम्हारा हाथ पकड़ कर तुम्हें कहीं ले जा रहे हैं और तुम चोरी-चोरी वक़्त निकाल लेते हो डरने के लिए। तुम्हें मृत्यु का ख़याल कहाँ से आया? तुम्हें वक़्त कब मिला मौत के बारे में सोचने का?

श्रोता: किसी को देखा।

आचार्य: कब देखा?

श्रोता: जब बरियल ग्राउंड (क़ब्रिस्तान) में था।

आचार्य: कहाँ है बरियल ग्राउंड , दिखाओ।

श्रोता: मैं गया था।

आचार्य: सवाल अभी आया। यह सवाल कहाँ से आ गया? जाँचो यह सवाल कहाँ से आया।

श्रोता: लोगों को मरते हुए देखा तो ख़याल मन में आया था।

आचार्य: अभी वो ख़याल कहाँ से आ गया?

श्रोता: अपनेआप ही आ गया।

आचार्य: अपनेआप नहीं आ गया, वफ़ादारी नहीं है, मेरे साथ नहीं हो। जब मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर तुम्हें कहीं को ले जा रहा हूँ, तो तुम मेरा हाथ छोड़कर के ख़याल के साथ कैसे हो लिये? मौत का ख़याल उन्हें ही आता है जो ज़िन्दगी में कुछ-न-कुछ गड़बड़ कर रहे होते हैं।

कानपुर में मैं सब लोगों को लेकर गया श्मशान घाट में, मैंने कहा, 'यही करेंगे, सत्र!' और वहाँ बढ़िया लाश-वाश भी मिल गयी। स्त्रियाँ थीं, वो कभी आयी ही नहीं थी पहले श्मशान घाट, तो पहले तो हाय-हाय मचायीं। कह रही, 'यह क्या हो गया!' मैंने उन्हीं को सबसे आगे कर दिया, मैंने कहा, 'वहाँ जाकर देख कर आओ, फोटो-वोटो लेकर आओ, छूकर आओ छूकर। कह रही हैं, 'अरे! बर्बाद हो गये।' मुझसे कुछ न बोले, आपस में वो बात करें। पीछे से चिल्लाकर, धक्का-वक्का देकर सबको ले गया, 'चलो जाओ।' समझ में आ रही है बात?

फिर बोले कि श्मशान बड़ी डरावनी जगह होती है। मैंने कहा, 'श्मशान नहीं डरावनी जगह होती। जहाँ रहकर तुमने यह सीख लिया है कि श्मशान डरावनी जगह है, वो डरावनी जगह है।' जिस जगह पर तुमको यह ख़याल आ जाए कि मौत डरावनी है, वो जगह डरावनी है, क्योंकि उस जगह पर तुम्हें यह ख़याल आया। मौत तो कुछ होती नहीं, मौत का ख़याल होता है। मौत तो कुछ होती ही नहीं है, ख़याल भर है। तो जिस जगह तुम्हें मौत का ख़याल आ गया, समझ लो वो जगह गड़बड़ है, वो जगह मौत से बदतर है।

तुम्हें कैसे ख़याल आ गया मौत का? तुम किन जगहों पर रहते हो कि तुम्हें मौत का ख़याल आता रहता है? वो जगहें श्मशान हैं। रास्ते भर हम सुनते आये थे,

हरी मरे तो हम मरे, और हमरी मरे बलाय। साचे गुरु का बालका, मरे न मारा जाए।

~ कबीर साहब

तुम कौन से बालके हो भाई! कि तुम्हें पहला ही ख़याल मौत का आता है? कबीर साहब तो बता गये “साचे गुरु का बालका मरे न मारा जाए”, कि वो तो ख़ुद तो मरता ही नहीं है, दुनिया लग जाए इसको मारने के लिए तो भी नहीं मर सकता। सच्चे गुरु का बालक ऐसा होता है। तुम कहाँ वक़्त गुज़ारते हो कि मौत-मौत-मौत ही करते रहते हो?

श्रोता२: आचार्य जी, ये सारा दिन इसी चीज़ में कन्फ्युज (भ्रमित) रहते हैं कि जब ये सब चीज़ ख़त्म होना ही है, ये सबकुछ ऐसे ही है, तो ये सब है ही क्यों?

आचार्य: ये सब ख़याल कैसे आ गया इसको?

श्रोता२: जब ये सबकुछ ख़त्म हो ही जाना है, तो इतने से टाइम में कुछ करना है।

आचार्य: तो वो नहीं कर रहा है न। जो करना चाहिए वो नहीं कर रहा, इसीलिए तमाम तरीक़े के ख़याल आ रहे हैं। एक बात समझो अच्छे से, घर में आग भी लगी हो और उस वक़्त तुम वो कर रहे हो जो तुम्हें करना चाहिए, किसी को घर से बाहर निकाल रहे हो, कोई बहुत क़ीमती चीज़ है उसको बचा रहे हो, तो तुम डरोगे नहीं, तुम्हें डरने का मौक़ा ही नहीं मिलेगा।

युद्ध पर जो सैनिक होते हैं, बाद में उनके वृतान्त पढ़ो, तो वो कहते हैं, 'जब वो गोलियों के बीच में थे, एक इधर से निकलती थी गोली, एक गोली इधर से निकलती थी, एक हमें छूकर निकल जाती थी, ख़ून आ जाता था। डर ही नहीं लग रहा था। उस वक़्त पर डर लग ही नहीं रहा था।' क्यों? क्योंकि डर एक ख़याल है और उस वक़्त कोई ख़याल आ ही नहीं रहा था। आ ही नहीं रहा था, मौक़ा ही नहीं है।

हम कुछ और कर रहे हैं जो बहुत महत्वपूर्ण है। अब यह बैठकर सोचे कौन कि गोली लग गयी तो क्या होगा? अब ये बैठकर कौन सोचे कि क्या करना है क्या नहीं करना है? इस वक़्त हम नहीं सोच सकते। बोले, 'बाद में जब ये सबकुछ हो गया और सोचने बैठें तो कँपकँपी छूटी, कि अरे बाबा! ये तो बड़े ख़तरे, बड़े डेंजर से निकलें। वो एक-दूसरे से बात करे, बोले, 'यार कसम से छ: छर्रे एक साथ निकले थे, कोई भी खोपड़ा पंचर कर देता।' उस वक़्त डर नहीं लगा। सही काम करो न। सही काम करो।

जो सही काम करेगा उसको वरदान यह मिलेगा कि उसका मन हर तरह की बीमारी से शून्य रहेगा, बड़ा स्वस्थ रहेगा। जो सही जीवन नहीं जी रहा, उसको सज़ा यह मिलेगी कि उसके दिमाग में पचास तरीक़े के उपद्रव उमड़ते-घुमड़ते रहेंग। और तुम्हारे दिमाग में अगर उपद्रव चलते रहते हैं, 'फिर क्या होगा, कल क्या होगा, मेरा क्या होगा, दुनिया फ़ानी है, क़यामत का दिन आ जाएगा, सब समाप्त हो जाएगा, मृत्यु आख़िरी सत्य है!' यही सब तुम्हारे दिमाग में अगर चलता रहता है, तो समझ लो कि तुम ज़िन्दगी ठीक नहीं जी रहे।

अरे भाई! बिल्ली का बच्चा है, इतना सा है, उसकी देखभाल करें या यह ख़याल करें कि मृत्यु आख़िरी सच्चाई है? हम तो यहाँ दरवाज़े से घुसे तो ये मिल गये, हथेली बराबर (एक बिल्ली के बच्चे के बारे में कहते हैं)। और काम मिल गया न! क्या काम मिल गया? ज़िम्मेदारी मिल गयी, कि दूध नहीं पी रहे हैं, इतने से है, माँ उसकी छोड़ गयी है, तो काम मिल गया। अब इस काम में व्यस्त रहें या बिल्ली के बच्चे को उधर रख दें और बैठकर ख़याल करें कि जीवन क्या है और मृत्यु क्या है? क्या करें? काम करें न। तुम्हारे पास काम नहीं है। बस काम नहीं है, इसीलिए तुम बैठे-बैठे ख़याल करते हो कि जीवन क्या है और मृत्यु क्या है।

श्रोता: सही काम नहीं है।

आचार्य: हाँ।

श्रोता: ये सही काम और सही जीवन कौन तय करता है?

आचार्य: ख़याल तुम्हारे। तुम्हारे ख़याल अंड-बंड हैं तो समझ लो कि जीवन ख़राब है।

श्रोता: ख़याल मेरे हिसाब से अंड-बंड नहीं हैं।

आचार्य: तो तुम्हारे हिसाब से अंड-बंड नहीं है, तो तुम उनमें मस्त रहो। मस्त हो? ख़याल अगर बढ़िया, ठीक चल रहे हैं, तो फिर तो कोई परेशानी ही नहीं, जैसे जी रहे हो जीते रहो। अब अटक गये!

श्रोता: मैंने पूछा लोगों से, पर लोग तो बोलते हैं कि अगर हमें जीवन सही लग रहा है तो अध्यात्म की क्या ज़रूरत है। लोग बोलते हैं कि अगर हम पीते हैं, हमें कोई दिक्क़त नहीं है तो काम सही है।

आचार्य: हाँ, ठीक है। मैं भी सहमत हूँ। जो यह मान ही न रहा हो कि उसे परेशानी है, उससे कभी झंझट मत लेना। अध्यात्म का मतलब यह नहीं है कि ज़बरदस्ती लोगों की ज़िन्दगी में घुस-घुसकर के उनको बोलोगे कि तेरी ज़िन्दगी ठीक नहीं है, बदल। जिसको अभी पूरा भरोसा है कि ज़िन्दगी बिलकुल ठीक चल रही है, उसको बोलो, ‘तू ऐसे चला, बल्कि जैसा चला रहा है उसको और तेज़ कर और तेज़ कर।’

तुझे लगता है कि पी-पीकर तेरी ज़िन्दगी ठीक चल रही तो तू एक ही बोतल क्यों पीता है, तू पाँच पी। उसको यह मत बोलना कि पीना छोड़। तू पाँच पी, जो भी नशा तू करता है, प्रसिद्धि का, धन का, दौलत का, सफलता का, जो भी तू नशा करता है, उस नशे को तू और बढ़ा, तभी तो गाड़ी ठुकेगी, तभी तो पता चलेगा परेशानी का।

श्रोता: और नहीं ठुकती तो?

आचार्य: नहीं ठुकती तो अच्छी बात, उसको वरदान होगा कोई।

श्रोता: वो ऐसे ही मर जाएगा?

आचार्य: अरे! तो हमें क्या करना है, अध्यात्म इसलिए है कि परेशानी से मुक्ति मिले। और आदमी को यह हक़ है कि वो मुक्ति तभी चुने जब वो यह माने कि वो परेशान है। आदमी के साथ ज़बरदस्ती नहीं कर सकते। तुम उसे इशारे दे सकते हो, तुम उसे कोई बात बता सकते हो, तुम उसे थोड़ा सा प्रोत्साहित कर सकते हो। दोस्त है अगर तुम्हारा तो हल्का सा धक्का भी दे सकते हो, पर तुम किसी को घसीटकर मन्दिर तक नहीं ले आ सकते। ये प्रयत्न मत करना। जिनको नहीं समझ में आ रहा, उनको बोलो, 'ठीक, जस्ट चिल!' (मस्त रहो!)

श्रोता: एक भ्रम होता है कि भ्रम में जी रहे हैं।

आचार्य: बेटा, यह तुम कह रहे हो कि वो भ्रम में जी रहे हैं। और जब तक भीतर से यह बैचेनी न उठे कि हम भ्रम में जी रहे हैं, बात नहीं बनेगी, नहीं बनेगी। या तो तुम फिर ये कह दो कि तुम्हें इतना प्रेम है कि तुम उन्हें सच्चाई दिखाने के लिए तुम अपना जीवन दाँव पर लगाने के लिए तैयार हो। इतना प्रेम हो तो बेशक तुम पूरी कोशिश करो और पूरी ताक़त लगाकर उनको दिखाने की कोशिश करो कि देखिए आप भ्रमित जीवन जी रहे हैं। उतना अगर तुम दम लगाओगे, उतना तुम उसमें अगर श्रम लगाना चाहते हो, तो फिर मैं दूसरा सवाल पूछूँगा। तुमसे मैं कहूँगा, 'उसी व्यक्ति पर क्यों लगा रहे हो?'

तुम्हें जान बचानी ही है तो हज़ारों-लाखों हैं जिनकी जान बचायी जा सकती है। जो सच तक पहुँचने के लिए स्वयं ही तैयार हैं, स्वेच्छा से तैयार हैं, जिनके साथ कम श्रम में भी बात बन जाएगी, तुम उनके साथ कोशिश करो न। यह जो उल्टा घड़ा रखा हुआ है, तुम इस पर वर्षा करते जा रहे हो, इसमें पानी कब भरेगा? एक तो चिकना घड़ा, वो भी उल्टा रखा हुआ है, और तुम उस पर बारिश बरसा रहे हो कि मैं इस पर इतनी प्रेम वर्षा करूँगा कि एक-न-एक दिन तो भर ही जाएगा। वो नहीं भरने वाला।

और कई घड़े हैं, घड़े नहीं हैं तो चलो भाई छोटे-छोटे प्याले हैं, कुछ भी हैं पर पात्र तैयार हैं, उन पर अगर तुम थोड़ी सी वर्षा कर दोगे तो उन्हें कुछ मिल जाएगा। तुम उनको जाकर के ज्ञान बाँटो न। तो ये फिर प्रेम की बात नहीं होती है, ये मोह की बात होती है कि मेरा भाई है तो इसको मैं जल्दी से प्रकाश दे दूँ। अब ये तुम क्या कर रहे हो? अध्यात्म का अर्थ है मोह से मुक्ति, और तुम ख़ुद ही मोह में बँधे हुए हो कि सबसे पहले अपने भाई को ही तुम मुक्ति देना चाहते हो। तो यह कौनसी मुक्ति है जो मोह के बिन्दु से निकल रही है। यह नहीं हो पाएगी।

लोग आते हैं, कहते हैं कि हम बड़ी कोशिश करते हैं, हमारी माँ नहीं समझती। तो मैं कहता हूँ, ‘समझा क्यों रहे हो उसको? तुम इतना श्रम, इतना समय उसमें क्यों लगा रहे हो? माँ को ही क्यों समझा रहे हो, पड़ोसी को क्यों नहीं समझा रहे? बाक़ी पूरा शहर है, उसको क्यों नहीं समझा रहे? बाक़ी शहर तुम्हारा दुश्मन है क्या?' नहीं, पर तुम स्वयं ही सोचते हो कि माँ हमारी ज़्यादा सगी है, बाक़ी शहर को क्यों समझायें? तो तुम लगे रहते हो कि बड़ी कोशिश करते हैं, माँ नहीं सुनती, बाप नहीं सुनता, पति नहीं सुनता, पत्नी नहीं सुनती। इन्हीं को क्यों बता रहे हो, भाई? बाक़ी दुनिया बेगानी है?

सूरज उगता है तो सिर्फ़ एक आँगन में धूप आती है क्या? तो तुम्हें भी अगर कुछ पता चला है तो सूरज की तरह हो जाओ न! जिसका आँगन धूप लेने को तैयार हो, उसके आँगन में धूप खिले। हाँ, चलो शुरुआत कर लो घर वालों से, शुरुआत कर लो दोस्त-यारों से क्योंकि वही निकटतम हैं, उन्हीं से शुरुआत करोगे। सबसे पहले कोशिश करो कि वही समझ जाएँ, वही जग जाएँ। पर वो न समझे, न जगे, ज़िद पकड़े हों, ठाने बैठे हों कि हम तो नहीं सुनेंगे, तो फिर छोड़ो। आगे बढ़ो, दूसरों को बताओ।

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