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लेख
बेचैन मन का शान्ति की ओर खिंचना ही प्रेम है || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
16 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे कर्म में कोई विश्वास नहीं है, भक्ति में कोई श्रद्धा नहीं है। मुझे धर्म की कोई समझ नहीं है, तो परमात्मा की कृपा मुझ पर होगी या नहीं? परमात्मा से मेरा कभी साक्षात्कार होगा?

आचार्य प्रशांत: तो अभी जैसे भी हो तुम, उससे अगर संतुष्ट ही हो, तो जैसा चल रहा है चलने दो।

प्र: नहीं आचार्य जी, जो चल रहा है उससे बिलकुल संतुष्ट नहीं हूँ।

आचार्य: अगर उससे असंतुष्ट हो तो फिर क्यों कह रहे हो कि मुझे किसी दूसरे की मदद करने में कोई रुचि नहीं है। तुम तो अभी भी वैसे ही हो न जो दूसरे की मदद इत्यादि नहीं करना चाहते। नहीं करना चाहते? तो गौर करो अपनी दोनों बातों पर।

तुम कह रहे हो, 'मैं ऐसा हूँ जो दूसरों की मदद इत्यादि करने में कोई रूचि नहीं रखता।' और तुम ही कह रहे हो कि तुम्हें अपनी वर्तमान अवस्था से असंतुष्टि है। तो फिर जैसे हो, उसको बदलो। और कैसे हो तुम? जो किसी की मदद नहीं करना चाहता। तो बदलो न! नहीं तो अजीब बात हो जाएगी।

प्र: प्रेम नहीं उठता किसी के लिए।

आचार्य: तुम्हें नहीं होता है प्रेम। तो ज़िन्दगी जैसी चल रही है, उसमें मस्त हो?

प्र: नहीं।

आचार्य: तो प्रेम होना होगा न। प्र: नहीं होता। तो होने के लिए क्या करना चाहिए?

आचार्य: तुम पहले यह देखो कि कैसे तुम प्रेम को स्वयं से दूर रखते हो। प्रेम हो जाए, इसके लिए कुछ नहीं करना पड़ता। प्रेम के लिए किसी डेटिंग ऐप में प्रोफ़ाइल नहीं बनानी होती कि हम कुछ करेंगे तो प्रेम होगा।

प्रेम न हो, इसके लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। उसके लिए तुम बहुत मेहनत से, बहुत सारे काम कर रहे होंगे कि प्रेम न होने पाएँ। कैसे?

बेचैन मन का शान्ति की ओर आकर्षित होना ही कहलाता है — प्रेम।

प्रेम तो होगा ही होगा। जहाँ मन हैं, वहाँ प्रेम का होना निश्चित है। क्योंकि जहाँ आग लगी है, वहाँ तड़प का होना निश्चित है। कोई ऐसा है जिसे आग लगती हो, तड़पता न हो? तड़प का क्या मतलब होता है? कि कोई इस आग को बुझाओ; इसी का नाम प्रेम है कि ज़हन जलता रहता है और तुम कहते हो पानी किधर है। जिधर पानी हो, शीतलता हो, मुझे उधर को बढ़ना है; इस आकर्षण का, इस खोज का नाम प्रेम है।

प्रेम तो होगा ही होगा, अनिवार्य है प्रेम। जो पैदा हुआ है, वो जल रहा है और जो जल रहा है, वो पानी से आकर्षित होगा। तो जो पैदा हुआ है, उसे प्रेम का भी होना तय है।

मैंने कहा, 'प्रेम का होना तय है।' प्रेम तुम्हें अनुभव नहीं हो रहा, इसके लिए तुम बहुत मेहनत, बड़े आयोजन कर रहे होंगे। कैसे? कि आग तो लगी हुई है, लेकिन पानी की ओर न बढ़ना पड़े, इसके लिए बोतल-दर-बोतल गटकते जा रहे हो। क्योंकि नशे की हालत में ऐसा हो सकता है कि तुमको दर्द का कुछ पता ही न चले। तुम्हारा सबकुछ जल रहा है, इसका तुम्हें कुछ अनुभव ही न हो। तो तुम पूरी मेहनत करते हो, बोतलें खरीदने में और फिर जान लगा देते हो, बोतल गटकने में।

ज़्यादातर लोग नशा इसीलिए करते हैं न, ताकि जीवन की जो असलियत है, वो कुछ देर के लिए छुप जाएँ? मैं किस बोतल की बात कर रहा हूँ? मैं हर उस चीज़ की बात कर रहा हूँ जो तुम्हारे मन पर नशा बनकर छा जाती हैं। और ऐसी चीज़े बड़ी मेहनत करके इकट्ठी करी जाती हैं। मेहनत करके पहले उन्हें इकट्ठा करो, फिर मेहनत करके उनका भोग करो। और यह सब किसलिए करो? ताकि जो मूल तड़प है, वह दबी रहे, उसका पता न चले। यह सब किसलिए करो? ताकि तुम इधर-उधर के छद्म कामों में व्यस्त रह सको।

ज़्यादातर लोग मेहनत इसलिए नहीं करते कि उन्हें मेहनत करने में बड़ा आनंद है। वो मेहनत इसलिए करते हैं ताकि वो अपनेआप को धोखा दे सकें। व्यस्त रहना उनकी मजबूरी है क्योंकि व्यस्त नहीं रहेंगे तो प्रेम पुकारेगा। तो कुछ-न-कुछ सोचते रहेंगे; किसी-न-किसी चीज़ में लिप्त रहेंगे ताकि जीवन की मूलभूत पुकार सुनाई ही न दे; ताकि सही काम करना ही न पड़े।

तुम भी निश्चित रूप से कही चीजों में व्यस्त होओगे। इसी को मैं कह रहा हूँ कि बहुत मेहनत करके आदमी अप्रेम साधता है, नहीं तो प्रेम तो हो ही जाए। प्रेम तुम्हें हो जाए, इसके लिए बहुत क़ाबिलियत नहीं चाहिए। एक सीधा-साधा सरल मन चाहिए। प्रेम तो अनिवार्य है, होगा।

लेकिन प्रेम न हो, तुम्हारा जीवन बिलकुल रेगिस्तान रहे, सूखा, प्रेम से खाली, इसके लिए बड़े काम करने पड़ते हैं। इसके लिए व्यापार फैलाना पड़ता है; इसके लिए चुनाव लड़ने पड़ते हैं; इसके लिए पचास तरह की व्यस्तताएँ अपने ऊपर ओढ़नी पड़ती हैं ताकि मन को फुर्सत ही न मिले; ताकि चित को मौका ही न मिले असली काम कर पाने का।

देखा नहीं लोग कितना घबराते है, खाली समय से! क्योंकि अगर फुर्सत मिल गई तो असलियत सामने आ जाएगी। किसी न किसी चीज़ में लगे रहो। कि यहाँ बहुत सारी फ़ाइलें है, अभी एक के बाद मीटिंग है, अब ये है, वो है, आज वहाँ जाना है, कल वहाँ जाना है। और इसका मतलब यह नहीं कि जो व्यस्त हैं और धनी हैं, वही प्रेम के प्रति दुराग्रह रखते हैं। हो सकता है कि तुम बिलकुल ख़ाली हो, बेरोज़गार भी हो, तो भी तुम अपनेआप को व्यस्त रख सकते हो। कैसे? चिंता करके। कुछ और नहीं है करने को, चिंता तो कर सकते है न! बिलकुल ख़ाली बैठे हैं घर में, तो भी चिंतित तो हो सकते है, सपने तो ले सकते है, खोपड़ी तो चला सकते है न! कुछ न कुछ सोचेंगे; इधर का तुक्का उधर जोड़ेंगे; यहाँ की गोट वहाँ बैठाएँगे; भेजे में कुछ-न-कुछ चलता रहना चाहिए ताकि मन व्यस्त रहे — झूठी व्यस्तता।

फिर कहते हो कि मुझे दूसरे की कोई परवाह नहीं है, दूसरे से मेरा कोई नाता नहीं, प्रेम क्या हैं, ये मुझे पता नहीं। तुमसे ज़्यादा तो बेटा कोई जानता ही नहीं कि प्रेम क्या हैं। क्यों? क्योंकि तुम और किसी को जानो-न-जानो अपने दुश्मन को खूब जानते हो। जिससे तुम दुश्मनी कर लो, उसको तो बख़ूबी जानते ही हो। सबकुछ उसका पता करते हो कि नहीं? तुम्हें अपने दोस्त के बारे में कम पता हो, दुश्मन के बारे में खूब पता होता है। तुमने तो प्रेम से दुश्मनी करी है। तुम्हें तो अच्छे से पता होगा कि प्रेम चीज़ क्या है!

चुपचाप उसी का ख़याल करते हो। लेकिन ख़याल करते हो कि कैसे इसको हरा दूँ। ख़याल ये नहीं करते कि कैसे इसके सामने समर्पित हो जाऊँ। ख़याल यह रहता है कि इससे बचकर कैसे रहूँ, दुश्मन है, इसको हराना है। ये जिधर से भी आ रहा हो, मैं उसके सामने एक बड़ा सा पत्थर रख दूँगा और उस पत्थर पर लिखा होगा- ‘आई एम बिज़ी’ ; ये लाइन अभी व्यस्त है; काहे में व्यस्त है? — 'बाज़ार में लकड़ी का दाम कितना है? बीस पैसा बढ़ गया क्या? आज मैच का स्कोर कितना है? पड़ोसी ने दीवार कितनी बढ़ा दी, घर की अपनी? चचेरे भाई की शादी हुई है अभी, उसके ससुराल में कौन-कौन हैं?' तुम्हें क्या लेना-देना? पर सोचना ज़रूरी है, लिप्त रहना ज़रूरी है।

मैं तो ताज़्ज़ुब करता हूँ कि प्रेम इतनी अनिवार्य और इतनी ताक़तवर चीज़ है, उससे तुम लड़े ले रहे हो। बड़े जाबाज़ हो! दाद देनी पड़ेगी। जिसको हराया नहीं जा सकता, तुमने उसके साथ भी कम-से-कम बराबरी की जंग रखी है अभी तक। बिलकुल पहलवान हो!

प्र: इसके लिए क्या कर सकते है?

आचार्य: अरे! जो कुछ करा जा सकता है, सबकुछ कर रहे हो, लगे हुए हो। मुझसे पूछ रहे हो और क्या करूँ । और कुछ करने के लिए कुछ बचा है तुम्हारे पास? पूरी तरह तो घिरे हुए हो।

जिसकी ज़िन्दगी में प्रेम न हो, वह पूरी तरह घिरा ही हुआ होगा न? किससे? सब फ़ालतू कामों से। तो मैं कुछ बता दूँ कि यह करो, तो तुम कर भी कैसे पाओगे? तुम तो पूरी तरह से व्यस्त हो। मैं कहूँगा कि यह करो, तुम कहोगे कि नहीं अभी तो हम व्यस्त है, हमारे पास कोई बहुत ज़रूर काम चल रहा है।

मुझसे क्या रिश्ता है तुम्हारा? तुम तो प्रेम जानते ही नहीं, तो मेरी बात क्या सुनते हो? मेरी बात का पालन क्यों करोगे? मैं न तुम्हें रुपया देता हूँ, न पैसा देता हूँ। मुझसे क्या नाता है?

अरे! जिसकी भी बात समझ में आ जाएगी, उसकी तुम बात का पालन करने लगते हो न?

प्र: मैं करने की कोशिश करता हूँ।

आचार्य: बेटा, इसी को प्रेम कहते है। कि जिधर समझ है, उधर को चल दिए। मेरी बातों से तुम्हारी समझ बढ़ती है न? कहाँ से आ रहे हो?

प्र: पालमपुर से।

आचार्य: तो पालमपुर से यहाँ तक आ गए। कितनी दूर है भई, पालमपुर?

प्र: चार सौ किलोमीटर।

आचार्या: अरे बाप रे! और ये बोलते हैं, इन्हें प्रेम का कुछ पता नहीं। चार सौ किलोमीटर से उठकर के यहाँ चले आए है और और कह रहे है, प्रेम हम जानते नहीं। प्रेम नहीं जानते तो यहाँ कैसे आए फिर?

प्र: परेशान हूँ, इसीलिए रास्ता पूछना चाहता हूँ।

आचार्य: परेशान तो रहोगे ही, पर वो परेशानी यहाँ आने के कारण है या उस परेशानी के बावजूद तुम यहाँ तक आ गए?

प्र: परेशानी है, तब भी आ गया।

आचार्य: इसी को प्रेम कहते हैं। सौ परेशानियाँ हैं, लेकिन फिर भी एक कोई चीज़ है जो उन परेशानियों पर भारी पड़ती है, यही प्रेम है। बहुत सारे काम रहे होंगे न? खाली तो कोई नहीं बैठा। यहाँ आने के लिए चार-पाँच दिन निकाले हैं, इसी को प्यार कहते है। कि हम जहाँ जा रहे हैं, वहाँ न रुपया मिलना है, न पैसा है, न कोई और सुख मिलना है। बल्कि और भी सुबह से शाम तक लगाए ही रहेंगे; खाने–पीने का भी ठिकाना नहीं। पैसा तो बल्कि खर्च होगा, फिर भी आ रहे हैं। पता नहीं कब सोएंगे? कहाँ सोएँगे? क्या करेंगे? कौन सी गतिविधियाँ दिनभर करनी पड़ेगी? गर्मियों के दिन आ गए हैं, फिर भी आ गए हैं यहाँ तक। किसकी खातिर आ गए? बोध की खातिर। उन्होंने कहा कि मेरी बातें इनको समझ आती है। इसी को प्रेम कहते है कि सौ दुख झेल लेंगे, बोध की ख़ातिर — यही प्रेम है।

तो हमारे प्रेमी साहब, चार सौ किलोमीटर पालमपुर से यहाँ तक आकर मुझसे कह रहें है कि मुझे प्रेम नहीं पता। प्रेम तो मैं जानता ही नहीं।

तुम नहीं जानते तो कौन जानता है? यही प्रेम है।

प्रेम यह थोड़ी होता है कि किसी का हाथ पकड़ लिया और बाहर झूला झूल रहें हैं। या अभी वो जो गाने बज रहे थे, कूद कर खिड़की से निकल गए और नाचने लग गए। बोले, ये तो प्रेम वाले गाने हैं, इनमें तो नाचना पड़ेगा न!

प्रेम की वही छवि बना रखी होगी। और वैसा प्रेम जीवन में होगा नहीं। तो निष्कर्ष यह निकाल लिया कि हमारे पास तो प्यार है नहीं। यही प्यार है। इसी को प्यार कहते है। और वो जो बज रहा था, वो प्रेम नहीं था, इसलिए उसे बंद करवाया है। वही प्रेम होता तो मैं कहता, 'इसको बंद करो। वही सुनो और नाचो उसपर।'

प्र: कर्मों में विश्वास है कि अच्छा करें तो अच्छा ही होगा।

आचार्य: किसने कह दिया कि अच्छा करते हैं, तो अच्छा ही होगा? अच्छा करने का मतलब है, अच्छा हो गया। अब आगे क्या अच्छा होगा?

प्र: चलो किसी का अच्छा करते है, पुण्य करेंगे तो पुण्य होगा।

आचार्य: पुण्य होगा नहीं। किसी का अच्छा कर रहे हो, यह अच्छी बात है, अपनेआप में पूरी बात है। अब आगे क्या होगा इसे कोई मतलब नहीं।

प्र: यदि आगे क्या होगा, ये नहीं सोचेंगे तो फिर तो कोई कर्म ही नहीं होगा।

आचार्य: तो यह अच्छी बात है न कि आगे की नहीं सोचते हो।

प्र: भक्ति तो आती है, लेकिन जब कोई भक्ति करता है तो अंधश्रद्धा जैसा लगता है।

आचार्य: भक्ति आती हैं, कर्म नहीं आता है। क्या हैं यह? अलग–अलग पेपर है बोर्ड के! कि मैथ्स आती हैं, सोशल-साइंस नहीं आती हैं। फिज़िक्स गड़बड़ है, केमिस्ट्री में बढ़िया है।

प्र: चलो परमात्मा तक पहुँचने का ऐसा रास्ता है कि जैसे मीराबाई भक्ति से पहुँची, मुझे तो वो आती नहीं या जैसे गौतम बुद्ध कहते है कि समझ आई तो सबकुछ आया।

आचार्य: सबकुछ है बेटा।

प्र: कर्म भी तो है नहीं।

आचार्य: सबकुछ है बेटा। छवि बनाए बैठे हो कि भक्ति माने 'ऐसा'। और बोध माने 'ऐसा'। वो छवि फ़ालतू है। जब वो छवि नहीं मिल रही है, तो अपनेआप को ही दोषी बनाए दे रहे हो कि मुझे न भक्ति आती है, मुझे न बोध आता है।

तुम्हारा यहाँ बैठा होना, भक्ति और बोध और समर्पण, सबका प्रमाण है। भक्ति भी जानते हो तुम, बोध भी जानते हो तुम, योग भी जानते हो तुम। तुम्हारी यहाँ उपस्थिति हर चीज़ की सूचक है। पर अगर कहोगे कि भक्ति तो मुझे तभी आई जब मीरा की तरह मैं भी सड़क पर नाचना शुरू कर दूँ, तो फिर अपनेआप को दोषी बना लोगे। कहोगे 'मीरा तो सड़क पर नाचती थी, मैं तो सड़क पर नाचा नहीं, इसका मतलब मुझे भक्ति आती नहीं। और बुद्ध तो सबकुछ छोड़कर जंगल चले गए थे, पेड़ के नीचे रहते थे, मुझे ऐसा कोई पेड़ मिल नहीं रहा, तो इसका मतलब बोध मुझमें है नहीं।

प्र: पर वे अंदर से खुश थे, मैं खुश नहीं हूँ।

आचार्य: तुम्हें कैसे पता कि वो अंदर से क्या थे, क्या नहीं? तुम उनके अंदर घुसे थे?

प्र: लेकिन वे जो भी करते थे, आनंद से करते थे।

आचार्य: तुम्हें क्या पता आनंद क्या होता है? आनंद जो है, उसको तुम ठुकरा रहे हो और आनंद के बारे में किस्से बता रहे हो।

बुद्ध कभी थे नहीं। यहाँ जब तुम ध्यानपूर्वक बैठे हो, उसी अवस्था को बुद्धत्व कहते है। और उस बुद्धत्व में तुम्हारे मन की जो दशा है — खाली, शून्य, उसे ही आनंद कहते है। आनंद वो नहीं है, जो कभी किसी ऐतिहासिक चरित्र को मिला था, किसी पेड़ के नीचे। बुद्ध वो नहीं है, जिनके कोई पिता थे और कोई पत्नी थी और कोई नाम था।

जो मन जग बैठा उसका नाम है– बुद्ध।

तुम उल्टी गंगा बहा रहे हो। तुम्हें लग रहा है बुद्ध कोई क़िरदार है; तुम्हें लग रहा है मीरा किसी चरित्र का नाम है, किसी स्त्री का नाम है। फिर तो तुम सिर्फ़ देह देख रहे हो।

जब भी सिर झुक जाए तुम्हारा, किसी ऐसे के सामने जो बहुत बड़ा है, विराट है, अनंत है और अति सुंदर है, तो मीरा हुए तुम। अब यह मत कहना कि मैं तो मीरा जैसी भक्ति जानता नहीं। मीरा माने मीरा की देह थोड़ी ही। मीरा माने, वो मन मीरा का, जो कृष्ण के सौंदर्य, कृष्ण के वैभव और कृष्ण की सत्ता से आगे न देखता है, न देखना चाहता है। तुम्हारा भी मन वैसा हुआ तो तुम मीरा ही हो गए। अब ये मत कह देना कि मीरा ने तो विष पिया था और मैंने तो विष पिया नहीं, तो मैं मीरा कैसे? उन सब बातों से कोई मतलब नहीं।

बोध हो या भक्ति हो, इनका ताल्लुक मन से है। जिस मन से भ्रम हटा, अंधेरा छँटा, उस मन को कहते है — बोधयुक्त मन।

और जो अहम, सत्य के और सौंदर्य के आगे झुका, उसे कहते है — भक्त का मन।

तुम्हारे जीवन में भी, तुम्हारे परिवेश के अनुसार ही तो बोध और भक्ति घटित होंगे न? अपनी ज़िन्दगी में जहाँ कहीं अनन्तता को देखो, सुंदरता को देखो; उसकी ओर ख़िंचें चले जाना। यही तुम्हारे मीरा हों जाने का लक्षण है, प्रमाण है।

अपनी ज़िन्दगी में जिन भी तरीक़ों से हो सके, जहाँ भी हो सके, समझदारी पाने की कोशिश करना, भ्रम मिटाने की कोशिश करना। यही बुद्धत्व की तुम्हारी यात्रा है। तुम्हारे लिए भक्ति और ज्ञान ऐसे ही घटित होंगे। तुम्हारे लिए भक्ति और ज्ञान वैसे नहीं आएंगे जैसे इतिहास में किन्हीं और लोगों के लिए आए थे। उनके उदाहरण की नक़ल करने की कोशिश मत करना। न ही उनके आदर्श को कसौटी बनाकर अपना मूल्यांकन करना।

तुम ध्यान से सुन रहे हो, समझ लो कि बुद्ध उदित हो रहे हैं तुम्हारे भीतर। तुम एक सत्य के अलावा किसी और के होने के लिए तैयार नहीं हो, समझ लो मीरा उठ रही है तुम्हारे भीतर। यही बुद्ध है, यही मीरा है। अन्यत्र मत देखना।

वो बहुत पास के है भाई। पर तुम उन्हें ऐतिहासिक बनाकर के बड़ा पराया कर देते हो। और वो बिलकुल बैठे हैं दिल में। तो तुम्हारी हालत फिर बड़ी विचित्र हो जाती हैं कि जो चीज़ बिलकुल निकट की है, तुम्हें वही दूर लग रही हैं। एकदम जो चीज़ मिली ही हुई है, उसको तुम मान रहे हो कि अरे! अनुपलब्ध है, हमसे तो हो ही नहीं रही, हम प्रेम नहीं जानते, हमें बोध का कुछ पता नहीं। थर्रा जाओगे, पसीने छूट जाएँगे, घबरा जाओगे जब पता चलेगा कि जो तुम्हें चाहिए, वो तुम्हारे कितने पास हैं।

जब तक यह धारणा बनाए बैठे हो कि चीज़ दूर की है, तब तक तुम्हें सहूलियत है। अब परेशान हो रहे हो क्योंकि बड़े मज़े में दावा कर लिया था कि प्रेम वगैरह तो मैं कुछ जानता नहीं। अब ये बोल रहे हैं कि प्रेम तुम नहीं जानते? अरे! तुम तो मीरा हो पूरी। तो असुविधा हो रही है। मैं मीरा हूँ? यह तो गड़बड़ हो गयी।

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