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बड़ा मुश्किल है सच को जिताना || आचार्य प्रशांत, उत्तर गीता पर (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: दानं व्रतं ब्रह्मचर्यं यथोक्तम ब्रह्मधारणम्। दमः प्रशान्तता चैव भूतानां चानुकम्पनम्॥॥

दान, व्रत, ब्रह्मचर्य, शास्त्रोक्त रीति से वेदाध्ययन, इन्द्रियग्रह, शान्ति, समस्त प्राणियों पर दया।

संयमश्चानृशंस्यं च परस्वादान्वर्जनम्। व्यलीकानामकरणं भूतानां मनसा भुवि॥॥

चित्त का संयम, कोमलता, दूसरों के धन लेने की इच्छा का त्याग, संसार के प्राणियों का मन से भी अहित न करना।

मातापित्रोश्च शुश्रूषा देवतातिथिपूजनम्। गुरु पूजा घृणा शौचं नित्यमिन्द्रियसंयमः॥॥

माता-पिता की सेवा, देवता, अतिथि और गुरुओं की पूजा, दया, पवित्रता, इन्द्रियों को सदा क़ाबू में रखना।

प्रवर्तनं शुभानां च तत्सतां वृत्तमुच्यते। ततो धर्मः प्रभवति यः प्रजाः पाति शाश्वतीः॥॥

तथा शुभ कर्मों का प्रचार करना—यह सब श्रेष्ठ पुरुषों का बर्ताव कहलाता है। इनके अनुष्ठान से धर्म होता है, जो सदा प्रजावर्ग की रक्षा करता है। ~ उत्तर गीता अध्याय ३ श्लोक १५ से १८

प्रश्न: नमन आचार्य जी। माता-पिता की सेवा करने को भी साधक के बाक़ी सब गुणों के बराबर ही रखा गया है। लेकिन मैं जानता हूँ कि वास्तव में माता-पिता की सेवा का अर्थ उनकी इच्छाएँ पूरी करना नहीं है। क्योंकि उनकी इच्छाएँ तो मुक्ति के मार्ग में विरोध की भी हैं। पर यदि हम उनकी बात नहीं मानते तो कहा जाता है कि कैसे बेटे हो, माता-पिता की बात नहीं मानते! कृपया मार्ग दिखाएँ।

आचार्य: इसमें ज़्यादा बड़ी समस्या तो उनकी है जो इस तरह की बातें करते हैं कि “कैसे बेटे हो माता-पिता की बात नहीं मानते!” समस्या उनकी है तो सवाल भी उनको पूछने देते न, तुम्हारी क्या समस्या है? तुम्हारी समस्या ये है कि तुम उनकी बात सुन रहे हो और प्रभावित हो रहे हो। और चूँकि तुम्हारे पास आन्तरिक स्पष्टता नहीं है, तो उनकी बात से घायल-परेशान होकर तुम मेरे पास आये हो कि मैं या तो तुमको कोई स्पष्टता दे दूँ या फिर कोई तर्क दे दूँ ताकि तुम जाकर उनका मुक़ाबला कर सको।

कितनी सीधी सी चीज़ है ये क्यों समझ में नहीं आ रही? कहाँ अटक गये? अच्छा बहुत सारे गुण अगर बताये गए हों किसी साधक के तो उन गुणों में आपस में अंतरविरोध हो सकता है क्या? बोलो? हो सकता है क्या? नहीं होगा न। तो उन गुणों में से एक गुण को लेकर के कोई उलझन हो तो उसको कैसे समझाना चाहिए? वो बाक़ी जो गुण बताए गये हैं उनकी रोशनी में समझ लो, वो क्या बात हो रही है वह भी समझ में आ जाएगी; है कि नहीं? ये अच्छा तरीक़ा हुआ न। अगर कहा गया है कि साधक में दस गुण होते हैं, नौ‌ समझ में आये, एक को लेकर के कुछ दुविधा है, तो बाक़ी नौ का इस्तेमाल करके दसवें को समझ लो। क्योंकि यह जो दसवाँ है वह नौ के ख़िलाफ़ तो हो नहीं सकता, नहीं हो सकता न।

(सभी श्लोक पुन: दोहराते हैं:)

दानं व्रतं ब्रह्मचर्यं यथोक्तम ब्रह्मधारणम्। दमः प्रशान्तता चैव भूतानां चानुकम्पनम्॥॥ संयमश्चानृशंस्यं च परस्वादान्वर्जनम्। व्यलीकानामकरणं भूतानां मनसा भुवि॥॥

मातापित्रोश्च शुश्रूषा देवतातिथिपूजनम्। गुरु पूजा घृणा शौचं नित्यमिन्द्रियसंयमः॥॥

प्रवर्तनं शुभानां च तत्सतां वृत्तमुच्यते। ततो धर्मः प्रभवति यः प्रजाः पाति शाश्वतीः॥॥

दान, व्रत, ब्रह्मचर्य, शास्त्रोक्त रीति से वेदाध्ययन, इन्द्रियग्रह, शान्ति, समस्त प्राणियों पर दया, चित्त का संयम, कोमलता, दूसरों के धन लेने की इच्छा का त्याग, संसार के प्राणियों का मन से भी अहित न करना, माता-पिता की सेवा, देवता, अतिथि और गुरुओं की पूजा, दया, पवित्रता, इन्द्रियों को सदा क़ाबू में रखना तथा शुभ कर्मों का प्रचार करना— यह सब श्रेष्ठ पुरुषों का बर्ताव कहलाता है। इनके अनुष्ठान से धर्म होता है, जो सदा प्रजावर्ग की रक्षा करता है।

इतनी बातें बोली गयीं और उनके साथ बोला गया माता-पिता की सेवा। तो माता-पिता की सेवा का फिर असली अर्थ क्या हुआ? यही सब जो है। माता-पिता की सेवा का असली अर्थ यही है कि माता-पिता तक यह बात पहुँचाओ की दान ज़रूरी है, असली व्रत कौनसा है? ब्रह्म माने क्या? वेद और वेदान्त का, अध्यात्म का अध्ययन इतना ज़रूरी क्यों है? यही सब तो गुण बताये हैं: “इन्द्रियों का निग्रह, शान्ति, धन संचय करने की कामना का त्याग, चित्त की पवित्रता, कोमलता, अहिंसा, देवताओं की, अतिथियों की, गुरुओं की पूजा, शुभ कर्म करना भी और शुभ कर्मों का प्रचार भी करना—यही सब माता-पिता की सेवा है।“

अब अगर तुम माता-पिता की सेवा करने जाओ और वह जो जितने गुण यहाँ पर वर्णित हैं उनके ख़िलाफ़ तुमको काम करने को कहें; तो सेवा नहीं हुई न। किसी की भी सेवा क्या होती है? सेवा माने क्या? सेवा माने कुछ ऐसा देना किसी को या कुछ ऐसा करना किसी के साथ जो उसके काम आये, यही है न सेवा; जिससे उसका लाभ होता हो, हित होता हो; यही है न सेवा; जिससे उसको कुछ राहत मिलती हो, यही सेवा है न।

तो जैसे तुम हो मूलरूप से माता-पिता भी वैसे ही हैं। तुम्हारी ही तरह जीव हैं, बस उम्र में तुमसे पच्चीस तीस साल बड़े हैं। माता-पिता माने यही न, जैसे तुम हो वैसे ही कोई और व्यक्ति, जो उम्र में तुमसे तीस साल, पच्चीस या पैंतीस साल बड़ा है। उसको हम कह देते हैं, ‘माता है पिता है’ और तुम्हारे और उसके बीच में सम्बन्ध यह है कि उसकी देह से तुम्हारी देह का जन्म हुआ है। ठीक। लेकिन वो व्यक्ति तो तुम्हारी ही तरह है न।

तुम भी हो सकता है कि अभी पैंतीस साल के हो गये हो। और तीस साल के थे तुम्हारे माता-पिता जब उन्होंने तुम्हें जन्म दिया। तो तुम ये भी जानते हो कि एक तीस पैंतीस साल के माँ का या बाप का जीवन कैसा होता है? मन कैसा होता है? उस उम्र के तो अधिकांश प्रश्नकर्ता हो ही गये हैं, जिस उम्र में उनके पिता, पिता बने थे। और कई प्रश्नकर्ता तो स्वयं भी पिता बन चुके हैं। तो तुम जानते हो तीस वर्ष के बाप होने का अर्थ, पैंतीस वर्ष की माँ होने का अर्थ, ये सब तुम जानते हो। उनको, अपने माता-पिता को तुम इतना अलग या विशेष क्यों समझते हो। ‘जैसे तुम हो वैसे ही वो भी हैं— एक साधारण इंसान। फिर तो जो कष्ट तुम्हारे हैं; उनके भी हैं, फिर तो जो दुविधाएँ तुम्हारी हैं; उनकी भी हैं, फिर तो जिन बन्धनों में तुम फँसे हो; उसी में वो भी फँसे हुए हैं, फिर तो जो चीज़ें तुम्हारे लिए शुभ हैं; वही सब उनके लिए भी शुभ है, यही है सेवा का अर्थ।‘

जानो तुम्हारे लिए क्या सही है? और जो कुछ तुम्हारे लिए सही है वो अपने माता-पिता तक भी लेकर और ये हर औलाद का कर्तव्य है। ये पहले पता करो कि तुम्हारे जीवन की सार्थकता किसमें हैं, पहले पता करो कि ज़िन्दगी जीने का क़ायदा, ज़िन्दगी जीने की तमीज़ क्या है? और फिर वो चीज़ अपने माँ-बाप तक भी पहुँचाओ और याद रखना जो तुम्हें चाहिए; वो उनको चाहिए। सिर्फ़ इसीलिए की उनका तुमसे रक्त का नाता है वो बहुत अलग नहीं हो गये। सिर्फ़ इसीलिए की तुमने उनको बचपन से अभिभावक के तौर पर देखा है, बड़े के तौर पर देखा है वो अलग नहीं हो गये, हैं वो तुम्हारे ही जैसे। बात समझ में आ रही है?

तो जो तुम्हारी पीड़ा, जो तुम्हारे बंधन; वही उनके भी हैं, मदद करो उनकी। ख़ुद भी मुक्ति पाओ उन तक भी पहुँचाओ। और एक काम मत कर लेना— तुम मुक्ति के दाता बनो कहीं ये न हो, तुम्हारे लिए वो बंधनों के दाता बन जायें। क्योंकि भूलना नहीं कि जैसे तुम्हारे पास बंधन हैं, वैसे ही उनके पास भी बंधन हैं और जिसके पास जो होता है वो उसी का प्रचार कर डालता है। जिसके पास जो होता है वही वो दूसरों तक भी पहुँचा देता है।

तुम्हारे पास भी बंधन हैं उनके पास भी बंधन हैं। वह भी अपने बंधनों को फैला ही रहे होंगे, वो भी तुम्हें इसी तरह से प्रभावित करेंगे कि उनके बंधन तुम्हारे बंधन बन जायें। अब यहाँ थोड़ी कशमकश होगी, वो ये कोशिश कर सकते हैं कि उनके बंधन तुम्हारे बंधन बन जायें। और तुम यह कोशिश कर सकते हो कि तुम्हारी मुक्ति उनकी मुक्ति बन जाए। ये बढ़िया है! देखते हैं कौन जीतेगा? रोचक मुकाबला है भाई! जिसमें ज़्यादा जान होगी वो जीतेगा, जिसका सच्चा ईमान होगा वो जीतेगा। अक्सर तो बंधन बाँटने वाले ही जीतते हैं।

मुक्ति की बात करने वाले लुटी-पिटी शक्ल लेकर आ जाते हैं। कहते हैं, ‘हम क्या करें, फैमिली अगेंस्ट (परिवार विरोध में था) थी। आचार्य जी आई ट्राइड माय बेस्ट (मैं अधिकतम जो कर सकता था किया)।‘ इस तरह की बातें अंग्रेज़ी में ही बोली जाती हैं, ‘ माय मम्मी प्रीवेल्ड ओवर मी (मेरी माँ मुझ पर हावी हो गयी।‘ ‘अरे! तू ख़ुद तीन बच्चों की मम्मी होने की उम्र पार कर चुकी है, अभी तू अपनी मम्मी की बात कर रही है कि मेरी मम्मी मेरे ऊपर चढ़ बैठी मैं क्या करूँ।‘

ये दुनिया का बड़े-से-बड़ा अजूबा है कि हम बोलते ही भर रहते हैं, “सत्यमेव जयते” जीतता झूठ ही है। सच-झूठ की कबड्डी में जीतता तो झूठ ही है, क्यों? क्योंकि हम जिताते हैं। बादशाह कौन? हम। हम इतने बड़े बादशाह हैं कि हम झूठ को भी जिताना चाहें तो झूठ को जिता देंगे।

कई सिद्धांतवादी लोग, शास्त्रवादी लोग मेरी इतनी सी बात सुनते ही ख़िलाफ़त में खड़े हो गये होंगे कि ‘ये देखो, कह रहे हैं कि झूठ जीतता है, हमारे ग्रंथ बता गये हैं कि “सत्यमेव जयते।” ये कह रहे हैं, झूठ जीतता है।‘ मैं डंके की चोट पर कह रहा हूँ कि झूठ जीतता है और मेरे पास प्रमाण है, क्या? तुम्हारी ज़िन्दगी। अपनी शक्ल देखो। तुम्हारी शक्ल पर क्या लिखा है? झूठ जीतता है कि सच जीतता है? सच जीतता होता तो हमारे चेहरे वैसे होते, जैसे हैं। सच जीतता होता तो हमारी ज़िन्दगियाँ वैसी होती, जैसी हैं। ऐसी ज़िन्दगी जीने के बाद भी बोलते हो, “सत्यमेव जयते” लाज नहीं आती!

तो सच की जीत बड़ी टेढ़ी खीर है भाई! बड़ा मुश्किल है सच को जिताना। जब झूठ से पंगे लेने जाओ तो सावधान होकर जाना। यही बात अपने माता-पिता को भी सिखाना, यही सेवा है।

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