आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
बच्चों को ये खास उपहार देकर देखिए (सब बदल जाएगा) || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: होता क्या है कि हम जिनका भला चाहते हैं हम उन्हीं की ओर देखना शुरू कर देते हैं। यह ऐसी सी बात है कि कोई ड्राइवर गाड़ी चला रहा हो और सवारियों की ओर देखना शुरू कर दे कि कितनी प्यारी सवारियाँ है और मुझे इनका ख़याल रखना है, मुझे इन्हें मंज़िल तक पहुँचाना है, मुझे बड़ा प्रेम है इनसे। क्या होगा ऐसी गाड़ी का जिसमें ड्राइवर (चालक) गलत दृष्टि में देख रहा हो? और यही कहके कि मुझे इतना प्यार है, मैं सवारियों को ही निहारे जा रहा हूँ; क्या होगा ऐसी गाड़ी का?

आप बाइक चला रहे हैं और जो पीछे बैठा है आपके, उसकी रक्षा करना चाहते हैं। और रक्षा की ख़ातिर आप उसी को पकड़े हुए हैं — मैं तुझे ही पकड़ के चलाऊँगा क्योंकि मुझे तेरी रक्षा करनी है। अब क्या होगा? जो अपनेआप को नहीं बचा सकता, वो दूसरे को क्या बचाएगा?

बात समझ रहे हैं?

जो अभिभावक बच्चों की भलाई चाहते हों, जो कि सभी चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले अपने ऊपर ध्यान देना होगा। लेकिन अभिभावकों का तर्क क्या होता है? हम बच्चों की भलाई में इतने उद्यत और इतने व्यस्त रहते हैं कि हमें अपने ऊपर ध्यान देने का वक़्त ही नहीं मिलता।

सत्र होते हैं हमारे, शिविर होते हैं, और तमाम माध्यम हैं जिनसे हम लोगों से मिलते हैं। उनमें अक्सर अभिभावक न आने का यही कारण बताते हैं। कहते हैं, ‘बच्चा बड़ा करना है न, बच्चे की बेहतरी करनी है इसलिए हम नहीं आ पाते।’ मैं हँस के उनसे पूछता हूँ, ‘तुम यहाँ अगर नहीं आ रहे हो तो बच्चे की भलाई कर कैसे लोगे?’ पर देखिए, माया कैसे-कैसे बहाने देती है, 'हमें बच्चे की भलाई करनी है, इसी में तो हम व्यस्त हैं। इसी कारण तो, आचार्य जी, हम आपके पास आ नहीं पाते।'

अच्छा! और देखा यही गया है जो ज़रा बच्चों को छोड़कर आ जाते हैं, उनके बच्चे फूल जैसे खिलते हैं। और जो बच्चों की भलाई को ही कारण बता करके नहीं आते, अपने पर ध्यान नहीं देते, अपनी सफ़ाई पर उर्जा और समय नहीं लगाते, उनके बच्चे भी अधखिले ही रह जाते हैं। बच्चे का भला चाहते हों तो सर्वप्रथम अपना भला कीजिए।

समझ रहें है आप?

माँ होना, बाप होना, क़रीब-क़रीब परमात्मा होने जैसा है। वो पूरी दुनिया चलाता है, सबका बाप है। आप भी, सबके नहीं पर बाप तो हो । तो कुछ तो परमात्मा का अंश आपमें होना चाहिए। कुछ तो आपके मन में, आचरण में परम तत्व की झलक होनी चाहिए। तभी आपका बच्चा एक स्वस्थ नौजवान या नवयुवती बन के निकलेगा।

दूसरा जन्म होता है माँ-बाप बनना। इसी अर्थ में नहीं कि जन्म की प्रक्रिया जटिल होती है। इस अर्थ में कि जब आप बच्चे को बड़े कर रहे होते हो न, तो साथ-साथ अपने को ही बड़ा करना होता है। क्योंकि अगर आप बड़े नहीं हुए — बड़े से मतलब समझ रहे हैं न, बड़प्पन, वयस्कता, मेचोरिटी (परिपक्वता)। अगर आप बड़े नहीं हुए तो बच्चा बड़ा कैसे होगा?

अगर माँ की और बाप की ही मानसिक उम्र अभी दस-बारह साल की है, जो कि अक्सर होती है। आप जानते हैं न शारीरिक उम्र अक्सर बढ़ जाती है और मानसिक उम्र थम जाती है? अगर माँ की और बाप की मानसिक उम्र अभी दस-बारह साल की है तो बच्चा कहाँ से बीस साल का हो जाएगा? हमने ऐसा बच्चा आज तक देखा नहीं जो माँ-बाप से ज़्यादा उम्र का हो। लेकिन कोशिश और अरमान हमारे यही होते हैं कि हम तो बारह साल के हैं, बेटा बीस साल का हो जाए। ये असंभव है।

आपको अपने बच्चे से कम-से-कम पाँच-दस साल आगे-आगे चलना होगा। जैसे-जैसे वो बड़ा हो, आपको भी क्रमश: बड़े होते रहना होगा। बड़ा होना ही नहीं, जैसे उसकी प्रगति उत्तरोत्तर है वैसे ही आपकी प्रगति को भी उत्तरोत्तर होना होगा। ऊपर बढ़ना कभी रूके नहीं।

आप समझ रहे हैं?

इस दंभ में मत रह जाइएगा कि हम तो माँ-बाप हैं, हमें थोड़े ही आगे बढ़ना है, विकास तो बच्चों का होना है। नहीं, आपका होना है। सुविकसित माँ-बाप तो?

श्रोतागण: सुविकसित बच्चे।

आचार्य प्रशांत: और अर्धविकसित माँ-बाप तो?

श्रोतागण: अर्धविकसित बच्चे।

आचार्य: फिर बच्चे को दोष दें और समाज को दोष दें और शिक्षा को दोष दें? उन्हें भी दे दीजिएगा। लेकिन सर्वप्रथम?

श्रोतागण: माँ-बाप को।

आचार्य: मैं इतने लोगों से मिलता हूँ, मैंने आज तक नहीं देखा ऐसा घर जहाँ पर माँ-बाप स्वस्थ हों, सहज हों और बच्चा उद्दंड हो और अर्धविक्षिप्त हो। नहीं देखा। मैंने तो सदा यही देखा है जब भी बच्चे में समस्या रही है उसका प्रथम कारण घर का माहौल है।

जब भी कभी किसी बच्चे की समस्या को हल करना होता है मैं बच्चे को तो बिलकुल हटा देता हूँ, मैं घर पर जाता हूँ। मैं घर की बात करता हूँ। घर बताओ कैसा चल रहा है। घर यदि ठीक चल रहा होता तो ये तो घर से ही पैदा हुआ है, घर का ही फूल है। घर की मिट्टी ठीक होती, तो फूल ख़राब कैसे हो जाता?

समझ रहे है बात को?

घर अच्छा रखिए। घर में परमात्मा का नाम हो, घर में ईमानदारी की बात हो। घर में आपका जैसा आचरण हो, बोल हो, व्यवहार हो, उसमें प्रेम हो। घर में हिंसा न हो, घर में कटुता न हो। घर में तमाम तरीक़े के दुष्प्रभावों को आमंत्रण न हो। ये जो टीवी है न, ये टीवी नहीं है, ये पाइपलाइन है जिससे दुनियाभर का मल बह-बह के घरों में आता है। इसको एक नाला जानिएगा। ये एक वैश्विक नाला है।

इट्स अ ग्लोबल ड्रेनेज पाईप दैट एंप्टीज़ इटसेल्फ़ इंटू एवरी हाउसहोल्ड। (यह एक वैश्विक नाला है जो प्रत्येक घर में जाकर खुलता है।)

प्रश्नकर्ता: सर, मालूम है लेकिन छोड़ता कोई नहीं है।

आचार्य: बच्चे नहीं छोड़ते या?

प्र: अभिभावक नहीं छोड़ते। प्रॉब्लम (समस्या) ही यही है कि पता सबको सबकुछ है लेकिन कोई भी फ़ोलो (अनुसरण) नहीं करना चाहता।

आचार्य:

जब सबकुछ पता हो और स्वयं से न होता हो, तो जानते-बूझते अपनेआप को किसी ऐसे के हाथों सौंप दो, जो पता है कि आपको अनुशासन में रखेगा।

आपमें से कुछ लोग जिम (व्यायामशाला) वगैरह जाते होंगे। आप अच्छे से जानते हैं कि क्या करना होता है, किन-किन नियमों पर करना होता है। वहाँ कोई विशेष विज्ञान नहीं लगता। लेकिन फिर भी ट्रेनर (प्रशिक्षक) की ज़रूरत होती है। क्योंकि ट्रेनर हाथ पकड़ के करा देता है। वो आपके बहानों को झुठला देता है। ज़रूरत पड़े तो वो आपको थोड़ा डॉंट भी देता है। वो आपसे कहता है — बहाना मत बनाओ, चलो दौड़ लगाओ।

दौड़ लगानी चाहिए, ये आपको भी पता है, पर आप स्वयं करेंगे नहीं। आप पर आलस और वृतियाँ हावी हो जाएँगी। तो इसलिए फिर कोई चाहिए होता है जो स्वयं अनुशासित हो और आपको अनुशासन में रखे। वैसी व्यवस्था अगर आप ख़ुद आयोजित कर लें तो बहुत अच्छा। आत्म-अनुशासन से अच्छा तो कुछ होता ही नहीं। और अगर ख़ुद आयोजित न कर पायें तो किसी और से आग्रह करें कि वो आपकी मदद कर दे। पर करें ज़रूर क्योंकि उसको करे बिना जीवन में कुछ रस नहीं है, ख़ुशबू नहीं है।

ऐसा समझ लीजिए कि बच्चे का आना माने दूसरी पारी का शुरू होना। और दूसरी पारी का शुरू होना माने अब वो गलतियाँ मत दोहराना जो पहली पारी में करी थी। तुम भी कभी बड़े हो रहे थे। और जब तुम बड़े हो रहे थे, उन वर्षों में कुछ चूक, कुछ कमी रह ही जाती है। अब तुम जानते हो। अब तुम उसको पूरा करो, अपनेआप में। बच्चे के साथ-साथ बच्चे के मित्र की तरह बड़े होते रहो।

माँ-बाप हैं और बच्चा पैदा होता है तो समझ लीजिए कि घर में एक नहीं तीन नये बच्चे आये हैं। तीनों को अब बड़ा होना है, एक साथ। तीन माने कौन-कौन?

श्रोतागण: माँ, बाप और बच्चा।

आचार्य: बच्चा तो है ही और माँ-बाप जो आये, इन्हें भी बच्चा ही मानिए कि इन्हें भी अब बड़ा होना है। और ये बड़े नहीं हुए तो बड़ी दिक्क़त हो जाएगी। हमें ये कहना बड़ा अच्छा लगता है न कि माँ-बाप भगवान समान होते हैं। तो अगर भगवान समान होते हैं तो भगवान समान फिर उनका जीवन भी तो होना चाहिए। जैसा जीवन होगा वैसा स्थान हो जाएगा।

बच्चे को भी कई बार बड़ी हैरानी होती है कि ये कहते हैं कि माँ-बाप भगवान होते हैं; ऐसे होते हैं भगवान! हम देवासुर संग्राम तो सुनते थे, देव-देवी संग्राम तो कभी सुना नहीं। देवों की असुरों से तो लड़ाई होती है, पर हमने ऐसा तो कभी सुना नहीं कि देवी और देवता आपस में भिड़ गये। फिर मेरे ये दो भगवान आपस में क्यों भिड़ते हैं। और घर में तो लगातार श्री भगवान और श्रीमती भगवान का धर्मयुद्ध लगा रहता है।

फिर कैसे होगा?

प्र: अभिभावक तो इंसान ही हैं, लड़ेंगे तो सही। भगवान तो नहीं हैं असल में।

आचार्य: हाँ, बढ़िया। तो जो इंसान है, उसका धर्म होता है भगवान के सामने सिर झुकाना, ताकि भगवत्ता की कुछ बूँदें उस पर भी पड़े, ताकि शांत हो सके, ताकि सहज जी सके, दुख से ज़रा आज़ादी मिल सके। है न! तो वो जो विनम्रता होती है सिर झुकाने की, वो एक बार आ गयी अगर माँ-बाप में, तो माँ-बाप भी आनंद पाते हैं और बच्चा भी।

वो विनम्रता रखिएगा कि जहाँ सीखने को मिले, सीखेंगे और कभी भी ये दावा, ये गर्व, ये दंभ नहीं रखेंगे कि हमें तो सब पता है, हम अच्छे हैं और दुनिया ही ख़राब है और दुनिया मेरे बच्चे को भ्रष्ट किए दे रही है।

विनम्रता का अर्थ होता है सर्वप्रथम अपनी ओर देखना। "अपने माहि टटोल।" दोनों बातें — माया भी, ब्रह्म भी, सब भीतर ही है। आज आप यहाँ बैठे हैं— मैं बच्चे तो एक-दो ही देख रहा हूँ, बाक़ी तो सब वयस्क हैं, लेकिन आप जान लीजिए कि आज आप लौट कर जाएँगे तो आप अपने बच्चों के लिए बड़ी भेंट लेकर के जा रहे हैं। शांत अभिभावक से ज़्यादा अच्छी भेंट, बच्चों के लिए कोई हो ही नहीं सकती। आप बच्चे को ले जाकर के लाखों के तोहफ़े दे दें, वो तोहफ़ा कम क़ीमत का है। ज़्यादा बड़ी क़ीमत का जानते हैं क्या तोहफ़ा है?

श्रोतागण: क्या?

आचार्य प्रशांत: आप स्वयं शांत होकर के, सुंदर होकर के, सहज होकर के अपने बच्चों के सामने जाएँ। इससे बढ़िया तोहफ़ा क्या हो सकता है! तो आज आप अपने बच्चों के लिए बड़ी अमूल्य भेंट लेकर के जा रहे हैं। ये आशीर्वाद होगा आपका उनको कि देखो हम तुम्हारे लिए उपहार लाए हैं। वो कहेंगे, ‘क्या?’ आप कहेंगे, ‘मैं’। चाहे तो एक-एक रिब्बन भी बाँध लीजिएगा, ठीक है?

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