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लेख
बच्चों को कैसे संस्कार दें? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता नमस्ते, आचार्य जी। मेरा नाम नवनीश है। मैं गंगानगर राजस्थान से आया हूँ। आचार्य जी, मैं कुछ नौ-दस महीनों से आपकी किताबें पढ़ रहा हूँ और मेरा जो प्रश्न है वो "कर्मा" और कुछ किताबों से है। उसमें आपने सोशल कंडीशनिंग (सामाजिक अनुकूलन) के बारे में बोला है और कैसे कि वो कचरे की तरह है और अंदर सबके हीरा है।

सर, मेरा सवाल यह है कि जो एक सामान्य प्रक्रिया है, कोई छोटा बच्चा जब बड़ा होता है, तो जो स्कूलिंग है या फिर जो भी पूरा एनवायरनमेंट (माहौल) है, उसे इनएविटेबल (अटल) की तरह लगता है कि सोशल कंडीशनिंग तो होगी ही थोड़ी। पर फिर भी उसको मिनिमाइज़ (कम करना) करने के लिए आपके क्या सुझाव होंगे?

आचार्य प्रशांत: नहीं, मिनिमाइज़ नहीं करना है; सही करना है। सोशल कंडीशनिंग अनिवार्य है, क्यों? क्योंकि वो जो बच्चा पैदा हो रहा है वो बीमार पैदा हो रहा है। हमनें अभी कल-परसो इस पर काफ़ी बात करी है न। जो बच्चा पैदा हो रहा वो कैसा पैदा हो रहा है? बीमार पैदा हो रहा है। रो रहा है, डर रहा है, उसमें ईर्ष्या भी है। दो-दो साल के बच्चों में देखा है कितनी ईर्ष्या होती है।

जितने भी विकार हो सकते हैं वो बीज रूप में एकदम नवजात में भी मौजूद होते हैं। तो चूँकि प्रकृति ने पहले ही उसको जैविक रूप से, माने शारीरिक रूप से संस्कारित कर रखा है, इसलिए फिर समाज को ज़रूरत पड़ती है कि इसको शिक्षा दे — उसको हम कहते हैं सामाजिक संस्कार।

जो संस्कारों पर इतना ज़ोर दिया गया है न भारत में उसकी वजह है, अगर बच्चा बिलकुल साफ़ पैदा होता, तो कोई अवशायकता नहीं थी आप उसको संस्कारित करें। क्योंकि साफ़ तो आत्मा होती है और आत्मा उच्चतम शिखर होती है। अगर वो उच्चतम ही पैदा हुआ है तो उसको संस्कार क्यों चाहिए?

लेकिन वो जो बच्चा पैदा होता है वो उच्चतम नहीं पैदा होता; वो बहुत नीचे पैदा होता है, तो उसको ऊपर खींचने के लिए संस्कार दिये जाते हैं। बच्चा पैदा हुआ है, उसकी आत्मा के चारों ओर एक खोल है, एक मोटी झिल्ली है। किस चीज़ की? कौन से संस्कारों की? जैविक संस्कारों की।

तो आत्मा आच्छादित है, माने ढँकी हुई है, ऑब्फ़स्केटेड (समझ से परे) है। अब अगर जीवन का उद्देश्य है आत्मा का प्राकट्य, तो माँ-बाप की शिक्षा की क्या ज़िम्मेदारी होती है? कि इस झिल्ली को काटे। जिस भी चीज़ से आत्मा ढकी हुई है उसको हटाए। इसलिए शिक्षा दी जाती है, इसलिए घर में बच्चे को संस्कार देने चाहिए। पर वो संस्कार कैसे होने चाहिए? जो पिछले संस्कारों को हटा दे, जो पिछले संस्कारों के विपरीत जाए।

तो संस्कार मिनिमाइज़ नहीं करने हैं, सही करने हैं। राइट कंडीशनिंग (सही संस्कार)। राइट कंडीशनिंग कौनसी होगी? जो प्री एक्ज़िस्टिंग कंडीशनिंग (पहले से मौजूद संस्कार) को काट दे और ख़ुद भी न बचे।

दिक्क़त क्या होती है कि हम इतने बेहोश लोग हैं कि बच्चे के ऊपर शारीरिक वृत्तियाँ तो पहले से ही होती हैं और हम उसके ऊपर सामाजिक कचरा और डाल देते हैं। और उसकी जैविक वृत्ति ही है कचरा और सोखने की। जैसे बच्चा पैदा हुआ हो अपने शरीर पर फेविकोल मल कर।

अब अगर माँ-बाप समझदार हैं तो क्या करेंगे? कुछ ऐसा उसके शरीर पर लगाएँगे जिससे वो फेविकोल हट जाए। फेविकोल क्या है? जैविक संस्कार। माँ-बाप में अगर समझ होगी तो वो इस तरीक़े से बच्चे का पालन-पोषण करेंगे, उसे ऐसे संस्कार देंगे कि उसके ऊपर जो फेविकोल लगी है वो हट जाए।

पर माँ-बाप में समझ नहीं है, तो वो क्या करेंगे? वो बच्चे के ऊपर आटा लगा देंगे, दही लगा देंगे, धूल लगा देंगे। अब क्या होगा? वो और चिपक जाएगा। तो पहले उसके ऊपर संस्कारों की एक तह थी। अब उसके ऊपर संस्कारों की कई तहें आ जाएँगी — ये होता है हमारे साथ।

होना ये चाहिए कि बच्चा बंधन में पैदा हुआ है और शनै-शनै उसकी जीवन यात्रा उसको मुक्ति की ओर ले जाए। जीवन ऐसा ही होना चाहिए न कि आप जहाँ पैदा हुए थे आप उससे बेहतर होते जा रहे हो लगातार-लगातार-लगातार। होता क्या है कि बच्चा अगर यहाँ पैदा होता है (एक ऊपरी तल पर) तो ज़िन्दगी ऐसी जीता है या उसे ऐसी ज़िन्दगी जीने पर मजबूर किया जाता है कि वो और गिरता जाता है, और गिरता जाता है।

कुछ दोष वो लेकर पैदा हुआ था और बाक़ी दोष उसमें डाल दिये जाते हैं। इसलिए मैं बार-बार सोशल कंडीशनिंग को बुरा कहता हूँ। वही सोशल कंडीशनिंग राइट एजुकेशन बन सकती है अगर एजुकेटर (शिक्षक) समझदार हो या गार्डियन (अभिभावक) समझदार हो।

तो बच्चे को संस्कार देने हैं, लेकिन संस्कार देने वाला बहुत-बहुत समझदार होना चाहिए। ऐसे थोड़े ही कि आपने बाईस-पच्चीस-अट्ठाईस की उम्र में बच्चा पैदा कर दिया, आपमें ख़ुद कितनी समझ है उस उम्र में? आप पच्चीस के हैं, आपको क्या पता है? और आप बच्चे के बाप या माँ बन गये हैं और आप उसे ज्ञान दे रहे हैं। आप उसे क्या दोगे? आप उसे ज़हर दोगे।

यह भी प्रकृति की बड़ी निर्मम चाल है कि वो आपको उस उम्र में अभिभावक बना देती है जब आप ख़ुद नादान होते हो। सोचिए, बच्चे अगर अस्सी की उम्र में पैदा होते हों, तो ठीक रहता न। अगर हमारी शारीरिक व्यवस्था ऐसी होती कि आप प्रजनन कर ही सकते हैं सत्तर के बाद; उससे पहले आप बच्चा पैदा नहीं कर सकते, तो कितना बढ़िया रहता। आपको ज़िन्दगी का कुछ सच पता होता। आप बच्चे का पोषण ज़रा ढंग से कर पाते।

अभी तो आप ख़ुद ही ऐसे होते हो मुन्ना-मुन्नी, निब्बा-निब्बी और घर में आ गया है मुन्नू। माँ और बेटी में कोई अंतर ही नहीं है। बाप और बेटे में कोई अंतर नहीं है। वो दोनों एक ही मानसिक तल के हैं। अकार का अंतर है बस। हैं ये बिलकुल एक जैसे। और बाप क्या बना बैठा है? शिक्षक। और माँ उसको ज्ञान दे रही है — माँ के चरणों में जन्नत होती है। ख़ास तौर पर जब पेडीक्योर (पैरों की सफ़ाई) कराके आयी हो।

पच्चीस की उम्र में किसी को क्या पता होता है? और पच्चीस भी मैं बहुत बोल रहा हूँ। अभी भी अठारह-अठारह साल की उम्र में शादी होती है लड़की की, बीस में माँ बन जाती है। 'माँ बीस साल की', मैं तो ऐसे देखता हूँ! बीस साल माने सेकंड ईयर, थर्ड सेमेस्टर की। 'ये मम्मी बन गयी! ये क्या परवरिश करेगी!' शारीरिक रूप से इसने जन्म दे दिया तो दे दिया, मानसिक रूप से तो ये किसी हालत में नहीं थी जन्म देने की।

प्रकृति ने इसीलिए ऐसा इंतज़ाम करा है, वो (प्रकृति) कहती कि तुम जैसे ही बारह-चौदह के हुए नहीं कि तुम जन्म देने लायक़ बन जाते हो। 'ज़्यादा अक्ल आये इससे पहले तुम बच्चा पैदा कर दो।' क्योंकि ज़्यादा अक्ल आ गई तो आप नहीं करेंगे।

आपने सोचा नहीं, आदमी अगर सौ साल जीता है तो बच्चा पैदा करने वाला कार्यक्रम प्रकृति इतनी जल्दी क्यों करा देती है, खट से?

और भी चीज़ें हैं पहले वो हो जाती। यह काम बाद में भी तो हो सकता था। नहीं, पर सारा काम वो एकदम शुरू में होता है; बीच में भी नहीं होता कि चालीस-पचास में हो, एकदम शुरू में हो जाता है वो कार्यक्रम। क्यों हो जाता है?

क्योंकि प्रकृति अच्छी तरीक़े से जानती है कि शुरू में हो गया तो हो गया, नहीं तो होने से रहा। अब इस चीज़ के ख़िलाफ़ जाना है। इस स्थिति में भी किसी तरीक़े से बच्चे को बचाना है। उसके लिए हमें सही संस्कार चाहिए। और सही संस्कार तो आध्यात्मिक ही होते हैं। माँ-बाप आध्यात्मिक नहीं हैं, तो सही संस्कारों का कोई सवाल नहीं।

देखिए, बच्चे के साथ कितना तो अत्याचार होता है न। कुछ नहीं पता माँ को और माँ ही उसकी पहली शिक्षक होती है। न माँ का अपने विचारों पर संयम है, न भावनाओं पर नियंत्रण है और उसकी गोद में बच्चा है। यह तो अत्याचार है बच्चे के साथ।

एक उन्नत समाज में यह नियम की तरह होगा कि जबतक आप आध्यात्मिक रूप से परिपक्व न हो जाएँ, कृपया जन्म न दें। अगर आप आध्यात्मिक रूप से परिपक्व, मेच्योर नहीं हैं, तो जन्म देना पाप है।

आपने एक जीव को जीवन भर पीड़ा में रहने के लिए विवश कर दिया, कर दिया कि नहीं? आप किसी की ज़िन्दगी ख़राब कर दें, यह पाप होता है कि नहीं होता है? आपको अच्छे से पता था कि आपकी अपनी हालत क्या है? ईर्ष्या का भंडार आप हैं, बात-बात में डरते आप हैं, निर्णय लेने में अक्षम आप हैं, आपने क्यों बच्चा पैदा किया? आपकी हालत थी बच्चा पैदा करने की? अपना कुछ पता नहीं, एक जीव और दुनिया में ले आये?

अब समझ में आ रहा है कि गुरुकुल व्यवस्था क्यों थी? वो माँ-बाप के प्रेम और विनम्रता से निकली थी। प्रेम किसके प्रति? बच्चे के प्रति। और विनम्रता किसके प्रति? सत्य के प्रति। वो इस बात को मानते थे कि हम इस हालत में नहीं हैं कि इस बच्चे को बड़ा कर पाएँ, लेकिन बच्चा अब दुनिया में आ गया है, प्यार है हमें इससे, तो हम इसे किसी ऐसे को सौंप देंगे जो इसे ठीक से बड़ा कर सकता है।

तो वो चार-पाँच साल का होता नहीं था, उसको गुरु को दे आते थे। और फिर सीधे जब वो पच्चीस का हो जाता था तो वो उसको लेने जाते थे। कहते थे 'अगर ये हमारे साथ रहा तो इसका बर्बाद होना तय है, क्योंकि हम बर्बाद हैं; हम मानते हैं हम बर्बाद हैं। विनम्रता के साथ हम स्वीकार कर रहे हैं कि हम बर्बाद हैं। हम इसे अपने साथ नहीं रखेंगे।, वो उसे गुरुकुल दे आते थे। अब गुरु पिता है, गुरु ही माँ भी है।

तो सही संस्कारों का स्रोत क्या? अध्यात्म। अपने बच्चों की भलाई चाहते हों तो पहले अपने भीतर ज़रा विवेक पैदा करें। वेदान्त उपाय है इसका।

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