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लेख
बच्चों को जीवन की शिक्षा कैसे दें? || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बच्चों को कैसे समझाया जाए जीवन के विषयों पर?

आचार्य प्रशांत: आप उनके प्रति सद्भाव से भरी रहिए, आप उनके प्रति शुभेच्छा से भरी रहिए और अपना परिष्कार करती चलिए।

प्र: परिष्कार मानें?

आचार्य: अपनी सफ़ाई करती चलिए। आपके भीतर लगातार ये भाव रहे कि उनको जो ऊँचे-से-ऊँचा है वो देना है। आपकी ये भावना ही आपमें ये काबिलियत पैदा कर देगी कि आप उन्हें कुछ दे पाएँ।

प्र: आपका बहुत सारा वीडियो देख-देख कर और पुस्तकें पढ़-पढ़ कर यह स्पष्ट हो गया है कि सब अंदर से एक ही हैं। मेरे बेटे में भी वही (परमात्मा) है और मेरे पति में भी और किसी दुश्मन में भी। तो मुझे लगता है कि यदि मैं स्वयं को कुछ कहती हूँ तो वह सभी तक पहुँचेगा। तो क्या ऐसा होता है?

आचार्य: आप सब ने स्वार्थ की ताक़त तो देखी है न दुनिया में? कि आदमी अपने स्वार्थ के लिए क्या-क्या कर लेता है। अब एक बात समझिए — परमार्थ की ताक़त स्वार्थ की ताक़त से ज़्यादा बड़ी है। आपको सुनकर थोड़ी हैरत होगी, लेकिन दूसरे के लिए आप जितना कर सकते हो उतना आप अपने लिए कभी नहीं कर सकते। अगर अपने लिए करने निकलोगे तो तुम्हारी ऊर्जा ख़त्म हो जाएगी, थोड़ा बहुत करोगे और फिर कहोगे "बहुत हुआ!" लेकिन वास्तव में अगर परमार्थ करने निकले हो तो तुम्हारी ऊर्जा अनंत हो जाएगी, क्योंकि अब तुम्हें ऊर्जा ऊपर से मिलेगी। जब तुम स्वार्थवश अपने लिए कुछ करने चलते हो तो तुम्हें बस कुल तुम्हारी ऊर्जा ही उपलब्ध होती है, लेकिन जब तुम दूसरों के लिए करने निकलते हो तो दाता फिर ऊर्जा देता है तुमको, अब तुमको बहुत ऊर्जा मिल जाती है।

तो बहुत कुछ करना चाहते हो तो अपने लिए मत करना, थोड़ा-सा कुछ करना चाहते हो तो अपने लिए कर लो। बहुत करना है तो दूसरे के लिए करो फिर देखो कि तुम ख़ुद हैरत में आ जाओगे, कि "अरे हम इतना कर पाए!" वो तुम कर ही इसीलिए पाए क्योंकि दूसरों के लिए कर रहे थे। परमार्थवश जितना कर लोगे स्वार्थवश उतना कभी नहीं कर पाओगे। तो बच्चों को अगर समझाना है, देना है, तो बस कहिए कि, "उनको देने के लिए मुझे इस क़ाबिल बनना है कि दे पाऊँ।"

अध्यात्म में जो गहराई आपको निजी मुक्ति की कामना से नहीं मिलती वो गहराई आपको मिल जाएगी अगर आप कहेंगी कि, "मुझे दस और लोगों को मुक्ति देनी है।" एक साधक होता है जो कहता है, "मुझे चाहिए मुक्ति", उसको मुश्किल से मिलती है। एक साधक होता है जो कहता है, "मुझे चाहिए मुक्ति" उसको मिलती है?

प्र: मुश्किल से।

आचार्य: मुश्किल से। और एक प्रेमी होता है जो कहता है, "मुझे मिले-न-मिले, दाता इनको सबको मिले।" उसको सबसे पहले मिल जाती है, और उसको अकेले नहीं मिलती उसको सब के साथ मिलती है। जो अपने लिए चाहता है उसे अपने लिए भी नहीं मिलता, जो दूसरों के लिए चाहता है उसे सब के लिए मिल जाता है।

प्र: इस स्थिति में अपने बच्चे की भलाई कैसे कर सकते हैं?

आचार्य: "मुझे उसको मौन देना है, मुझे उसको शुभ और सत्य देना है। मैं इस क़ाबिल बन पाऊँ कि मैं उसको दे पाऊँ। क्योंकि, अगर मैं इस क़ाबिल नहीं बन पाई तो मेरे बच्चे का अहित हो जाएगा।"

प्र: आचार्य जी, अभी तो इस क़ाबिल ही नहीं हैं कि अपने बच्चे को शुभ या सत्य दे पाएँ परन्तु अभी आदतवश उसको उसके भले के लिए बस कुछ-कुछ बोलते बस रहते हैं। और यह भी स्पष्ट नहीं है कि जो बोल रहे हैं वह भी उसका भला कर रहा है या नहीं। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए?

आचार्य: "मैं जैसी भी हूँ मैं अभी इस क़ाबिल नहीं हूँ कि अपने बच्चों का हित कर पाऊँ, लेकिन, अगर मेरे बच्चों का हित नहीं हो रहा तो उससे मुझे बहुत पीड़ा है, तो मुझे इस क़ाबिल बनना है कि मैं उनका हित कर पाऊँ।"

प्र: मतलब ये चीज़ मुझे ऐसे लगता है कि पहले वो सारी सत्यता ख़ुद धारण करनी पड़ेगी आपको, जीना पड़ेगा उसमें।

आचार्य: वो आप अपने लिए धारण नहीं कर पाएँगी।

प्र: तो क्या मुझे बच्चों को कुछ बोलना भी नहीं चाहिए, मौन रहना चाहिए?

आचार्य: समझिएगा, आपको सर्वप्रथम इस मजबूरी में जीना पड़ेगा कि आपके सामने आपके प्रियजन का अहित हो रहा है और आप बेबस हैं। आप चाहते हुए भी उसका भला नहीं कर पा रहीं। आपको इस मजबूरी को भीतर तीर की तरह चुभने देना होगा, इस मजबूरी से उठा हुआ दुःख आपके बंधन तोड़ेगा और आपको अध्यात्म की तरफ़ प्रेरित करेगा। आप समझ रहीं हैं?

मैंने कहानी पढ़ी है — एक माँ थी अनपढ़ थी, और गरीब भी। किसी तरह से उसने अपने बच्चों को एक विद्यालय में डाला। पर न तो उन बच्चों के पास कोई पृष्ठभूमि थी, न सुख-सुविधाएँ थीं, तो वो सब पढ़ाई में आगे ही न बढ़ें। अभी वो कम ही उम्र के थे, तीन-चार-पाँच साल के, पर आगे ही न बढ़ें। उस महिला ने कहा कि ये तो नहीं होने दूँगी, मैं अनपढ़ रह गई, मैं अंधेरे में रह गई, मेरे अंधेरे की छाया बच्चों पर नहीं पड़नी चाहिए। उसने वही किताबें खरीदी जो बच्चे पढ़ते थे। जब बच्चे स्कूल जाते थे वो घर में पढ़ती थी और उसने कहा, "मुझे न सिर्फ़ पढ़ना है बल्कि इतना पढ़ना है कि मैं इनको पढाऊँगी।" तीस-पैतीस की उम्र में उसने पढ़ना शुरू किया, वो महिला अंततः पीएचडी कर गई। अपने लिए कुछ नहीं कर पाई थी, अपने जीवन में अपनी जवानी में तो वो अनपढ़ ही थी। बच्चों को पढ़ाने की ख़ातिर ख़ुद पढ़ने लगी, जैसे-जैसे बच्चों की कक्षा आगे बढ़ती गई उसकी भी कक्षा आगे बढ़ती गई, और एक दिन वो डॉक्टरेट हो गई।

अपनी ख़ातिर क्या कर पाती, अपनी ख़ातिर कुछ नहीं! अपनी ख़ातिर कौन कितना कर सकता है।

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