आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
बच्चों के प्रति व्यवहार कैसा होना चाहिए? || (2017)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
16 मिनट
229 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: बच्चों के प्रति व्यवहार कैसा होना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: देख लीजिए कि बड़े हो गए हैं। जिस किसी को आप रिश्ते, नाम, या उम्र के संदर्भ में देखेंगे उसे आप देख ही नहीं पाएँगे। आपके लिए बड़ा मुश्किल हो जाता है बेटे को पहचानना। पूरी दुनिया बेटे को जान सकती है, बाप के लिए बड़ा मुश्किल है, उनके लिए वो बच्चा है। उसे कुछ पता नहीं।

दोनों तरह के उदाहरण आपको देता हूँ। आपने बच्चों की बात कही — लायक और नालायक दोनों बच्चों का उदाहरण देता हूँ। बुद्ध के पिता थे, उनका बच्चा बुद्ध उनकी नज़र में तो बुद्धू ही था। तो वह जंगल से लौटकर आता है बड़े सालों बाद, पन्द्रह सालों बाद। और उसको क्या कर रहे हैं? उसको चपत लगा रहे हैं, कह रहे हैं "पगला, अक्ल नहीं है, राज्य छोड़कर चला गया था।" उसको उलाहना दे रहे हैं। पूरी दुनिया को दिख रहा है कि ये बुद्ध हैं। उनके लिए वो अभी सिद्धार्थ है। उन्हें दिख ही नहीं रहा। बच्चे का मोह ऐसा है कि बच्चे की महानता उनको नज़र नहीं आ रही। तो वो इसी धुन में हैं कि "अरे तू क्यों अध्यात्म के पथ पर चला गया? तू लग जा पुश्तैनी धंधे में, ये राज्य किस लिए है? यह सिंहासन किस लिए है? बीवी है तेरी और बच्चा भी तू पाए ही है। क्यों भागता है?"

दूसरा उदाहरण है दुर्योधन के पिता। वो लगे ही रहे आख़िरी समय तक, "मेरा सुयोधन, मेरा सुयोधन।" पूरी दुनिया को दिख रहा था कि क्या ज़लील हरकतें कर रहा है। एक उसके बाप को नहीं दिखा बस। क्योंकि बच्चा है न।

तो अगर कोई ऐसा होता है जो सबसे उपयुक्त स्थिति में होता है कि बच्चे की हक़ीक़त जान ले तो वो बाप है या माँ है। क्योंकि बच्चा उपलब्ध है आप उसे देख रहे हो, आप को पता ही चल जाएगा उसके क्या लक्षण हैं। और अगर कोई ऐसा होता है जिसे बच्चे की हक़ीक़त का कुछ पता नहीं लगता है कभी तो वो माँ है या बाप है। ज़माना जान गया कि दुर्योधन किस गति का है, दुर्योधन के बाप धृतराष्ट्र को नहीं पता लगा। उन्हें पता लग जाता तो महाभारत ना होती।

बच्चे को बच्चा देखना छोड़िए, इन्सान की तरह देखिए। नहीं तो दो में से एक त्रासदी होनी पक्की है। या तो त्रासदी ये होगी कि आपके घर में बुद्ध होगा और आप उसकी उपेक्षा और अपमान कर रहे होंगे। या फिर त्रासदी ये होगी कि आपके घर में दुर्योधन होगा और आप उसको लाड़ दे रहे होंगे। दोनों में से एक त्रासदी होनी पक्की है।

जिनको आप बच्चा बोलते हो न, उनका मानसिक विकास अस्सी-नब्बे प्रतिशत छ:-सात साल की उम्र तक पूरा हो जाता है। अब वो वयस्क ही हैं छोटे से। उनको बच्चा मानना ही भूल है। लेकिन ज़रा कद में छोटे दिखते हैं तो आप इतराए रहते हो, "बच्चा है, बच्चा है।" अरे वो बच्चा है ही नहीं। समय की बात है उसका कद अभी छोटा दिख रहा है, अभी ताड़ हो जाएगा। दो-चार साल तक बच्चा बोल लिया तो बोल लिया, उसके बाद उसको वयस्क की तरह ही देखो। वैसा ही व्यवहार करो। वो छोटा वयस्क है, बच्चा नहीं।

ये सामाजिक बीमारी है। ये आपको समाज ने सिखा दिया है कि छह-फुट-तीन-इंच और नब्बे किलो का है, तो भी आप कह रहे हो "अरे अरे, अभी तो बच्चा है।" नहीं होता क्या ऐसा? बलात्कारी पकड़े जाते हैं उनकी माएँ पीछे-पीछे आती हैं गाय की तरह, "ये तो नुन्नू है, ये थोड़े ही कर सकता है। यह तो बच्चा है, इससे अभी होगा ही नहीं।" और छह-फुट-तीन-इंच का, तीस साल का और नब्बे किलो का है और उसको कह रहीं है कि "ये तो अभी बच्चा है।" अरे! तुम हो किस दुनिया में भाई।

वैसे ही बापों का रहता है बेटियों के लिए, "मेरी नन्हीं परी, छोटी परी।" नन्हीं परी सड़क पर निकलती है तब पर आ जाते हैं।

जो बन्द वर्तुल होता है, क्लोज़्ड सर्किट्स , बहुत खतरनाक होता है। आप एक कमरे में रहते हो, उसमें आप हो एक-दो बच्चे हैं, पति है, पत्नी है, आपके माँ-बाप हैं, ऐसे चार-पाँच-सात लोग हैं। और वो सब एक-दूसरे को बंधी-बंधाई नज़रों से देखते हैं। बच्चा पिता को जैसे देख रहा है, माँ उसी दृष्टि को और मजबूत कर रही है। बच्चा जिस दृष्टि से बाप को देख रहा है, माँ उसी धारणा को और बढ़ावा दे रही है। तो आपको ऐसा लगने लग जाता है कि ऐसा ही तो है। ऐसा ही क्यों है? क्योंकि जो मैं कह रहा हूँ वही मेरा भाई कह रहा है, वही मेरी बहन कह रही है, वही मेरी माँ कह रही है, वही मेरे दादा और दादी कह रहे हैं। ये बन्द वर्तुल है। इसके भीतर सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। और जब ये बन्द वर्तुल टूटता है तो बड़ी चोट लगती है, बड़ा दर्द होता है।

घर में वो व्यक्ति पूजनीय है, क्यों पूजनीय है? क्योंकि बच्चे उसकी पूजा करते हैं और बच्चे देखते हैं कि माँ भी पूजा करती है। और दादा-दादी हैं वो भी यही कह रहे हैं कि हमारा बेटा तो पूजनीय है। तो आपको ऐसा लगता है कि अखिल ब्रह्मांड कह रहा है कि ये जो व्यक्ति है ये पूजनीय है। और एक दिन आप अचानक कमरे से बाहर निकलते हो आपको पता चलता है कि आप जिसे पूजनीय कह रहे हो वो अपने दफ़्तर का सबसे भ्रष्ट आदमी है और घूस लेने में सबसे अव्वल। और दस उसपर मुकदमें चल रहे हैं, भ्रष्टाचार के और तमाम तरह के। आपका दिल टूट जाता है।

इसीलिए ज़रूरी है कि जिन्हें आप अपने कहते हो उन्हें अपनी ही दृष्टि से ना देखा जाए। सबसे अच्छा तो ये होता है कि उन्हें किसी भी दृष्टि से ना देखा जाए। बस देखा जाए। लेकिन शुरू करने के लिए इतना कर लीजिए कि उन्हें अपनी दृष्टि से तो देखते ही हैं, दुनिया की दृष्टि से भी देख लीजिए। कि जिसको आप इतना पूजनीय बताते हो ये भी तो देखो कि दुनिया उसको कैसे देख रही है। आपके लिए तो वो अव्वल खिलाड़ी है, महान आदमी है। और जब आप बाहर निकलते हो तो पता चलता है कि दुनिया तो इसको फिसड्डी के रूप में देखती है। क्योंकि यह जब भी दुनिया के सामने आया है, इसने मात ही खाई है। कुछ काम नहीं आता इसको। और कई बार आदमी के चरित्र का उसके परिवार वालों को कम पता होता है - ये बात दोहरा रहे हैं, कर चुके हैं - बाहर वालों को ज़्यादा पता होता है।

प्र२: बाहर वालों की दृष्टि कैसे पता चले कि क्या है?

आचार्य: देखिए, बाहर वालों की भी दृष्टि ही है। और सबकी जो दृष्टि होती है वो संस्कारित ही होती है। तो मैंने कहा सबसे अच्छा तो ये है कि दृष्टिनिरपेक्ष हो के देखो लेकिन दृष्टिनिरपेक्ष अगर नहीं हो सकते तो कम-से-कम इतनी सूचना इकट्ठा कर लो कि जिसको तुम उत्कृष्ट मान रहे हो या निकृष्ट मान रहे हो उसे और लोग कैसे देखते हैं।

प्र२: मतलब दूसरों से पूछें?

आचार्य: हाँ, दूसरों से पूछो या देख लो। जानकारी इकट्ठा कर लो, पता चल ही जाएगा।

मैं ये नहीं कह रहा कि जो भी उनके मत हैं उनको तुम सही मान लो। उनके मत सही भले ना हों मगर कम-से-कम जो तुम्हारी धारणा है उसके टूटने में मदद मिलेगी।

कॉलेजी लड़के होते हैं, सही मानिए, उनके बारे में उनके यार-दोस्तों को ज़्यादा पता होगा, और यार-दोस्तों को जो पता होगा वो बात यथार्थ के ज़्यादा निकट होगी। उनके घरवालों को कुछ नहीं पता होता उनके बारे में। उनके घरवाले पता नहीं किस कहानी में, किस भ्रम में जी रहे होते हैं। ये जो कॉलेजी यार होते हैं न ये बल्कि बेहतर बता देंगे, सब बता देंगे।

प्र: तो आचार्य जी, क्या अपनों की जानकारियाँ सीधे जा कर पूछ लें?

आचार्य: हाँ क्यों नहीं, बात करो। कोई नया काम थोड़े ही हो सकता है। आप अगर एक बन्द वर्तुल में नहीं जी रहे हो तो अपने आप इधर-उधर से आप के पास सूचनाएँ तो आती ही रहती हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम सूचनाओं को यथार्थ मान लो। पर वो सूचनाएँ तुम्हें तुम्हारे व्यक्तिगत भ्रमों के प्रति सतर्क रखेंगी।

प्र३: इसमें ये कहा जा सकता है आचार्य जी, चील का उदाहरण जैसे हम लेते हैं कि वो इतनी ऊँचाई पर होती है फिर भी मरा हुआ चूहा देख लेती है क्योंकि वो उनकी संस्कार का नतीजा है। माँ-बाप की भी संस्कार ऐसी हो गई है कि, "यह मेरा प्यारा बेटा है।" उनको तो वही एक चीज़ दिखेगी, बाकी को उनका मन हटा देगा।

आचार्य: एक छोटा सा उदाहरण देता हूँ — अभी ये जो डोकलाम का पूरा विवाद चल रहा था, इस पर तुम्हें बड़ा मज़ा आता अगर तुम कुछ चीनी अखबार भी पढ़ते इंटरनेट पर। इसी तरीके से जो पाकिस्तानी अख़बार हैं डॉन और ट्रिब्यून, उनको इंटरनेट पर पढ़ा करो तुम्हें बड़ा मज़ा आएगा। उनमें जो लिखा है वो हो सकता है बेहुदा हो, भ्रामक हो, यथार्थ से परे हो, लेकिन वो पढ़ कर तुम्हारे अपने भी कुछ भ्रम ज़रूर टूटेंगे। क्योंकि तुम्हारा अपना मीडिया जो छाप रहा है वो भी कोई यथार्थ बात नहीं है। अब समझ रहे हो क्या कह रहा हूँ? ज़रा देखो तो कि दूसरे तुम्हें कैसे देख रहे हैं। दृष्टि ना अपनी पक्की है ना दूसरों की, लेकिन दूसरों की सुनोगे तो ये दिख जाएगा कि अपनी पक्की नहीं है।

प्र४: धृतराष्ट्र को जो अँधा कहा जाता है तो क्या वह सचमुच अँधा था या उसको पुत्र मोह के कारण अँधा कहा जाता था?

आचार्य: कुछ भी हो क्या फ़र्क पड़ता है। बंदूक तो चल गई, अब इस उंगली से चली कि इस उंगली से चली क्या फ़र्क पड़ता है। जान तो गई। सब एक हैं मद, माया, लोभ, मोह, क्रोध सब एक हैं।

जो पौराणिक कहानियाँ हैं, जो मिथक हैं उनको भी देख लो। पूरी दुनिया पूजती हो कृष्ण को, माँ तो पीछे ही पड़ी रहती थी कि इसको यहाँ बाँध दू वहाँ बाँध दू। उसके लिए तो लल्ला था, चुराएगा तो डाँट खाएगा, मार खाएगा। फिर एक बार उन्होंने — कहानी ही है पर संकेत समझो — फिर एक बार उन्होंने मुँह खोला और उसमें ही समस्त ब्रह्मांड दिखा दिया। माँ तब भी कहाँ समझ रही है। उसके बाद कालिया दमन होता है। अगर माँ बाल-कृष्ण के मुँह में ब्रह्मांड को देख कर पूरा मान ही गई होती कि ये परमात्मा ही है, अवतार है तो क्या वो ये डरती कि कोई नाग इसको मार देगा? पर जब कालिया दमन चल रहा था और कृष्ण यमुना में गोता लगा कर नाग से लड़ने में व्यस्त थे तो माँ-बाप रोने लगे। तुम्हें अगर पक्का होता कि अवतार हैं तो तुम रोते?

दशरथ को पक्का था कि वो अवतार को चौदह साल के लिए भेज रहे हैं बाहर? दशरथ को पता था? माँ-बाप को कब पता चला है कि बेटा है कौन। दुनिया आकर बताती है तब भी नहीं मानते, "नहीं नहीं वो तो छौना है, लल्ला है।" तुम और पुराणों में जाओ तो तुम पाओगे कितने ही राक्षस ऐसे थे जो ऋषियों के घर पैदा हुए थे। तुम उन राक्षसों के बारे में पढ़ो तो तुमको पता चलेगा कि इनके बाप फलाना ऋषि थे। ऋषि के घर में राक्षस कैसे पैदा हो गए? क्योंकि बाप को ये दिख ही नहीं रहा था कि ये चीज़ क्या आ गई है, और ये क्या बढ़ रही है क्या हो रही है।

ये जानते हो न कि देवता और दानव एक ही घर से हैं।

प्र: एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

आचार्य: हाँ कह सकते हैं। और यहाँ पर बात ये है कि आपको दोनों ही पहलू दिखाई नहीं देते। घर में देवता पैदा हो जाए तो आपको समझ में नहीं आएगा कि ये देवता है। घर में दानव पैदा हो जाए तो भी आपको समझ में नहीं आएगा कि ये दानव है। दोनों ही स्थिति में, देवता हो कि दानव हो, आपके लिए तो लल्ला है। और आप कहोगे कि ये माँ की ममता है। अरे माँ की ममता है कि हाइड्रोजन बम है! तुम पूरी दुनिया तबाह कर दोगे इस ममता में।

प्र: जैसे छोटा बच्चा होता है तीन साल का या चार साल का तो उसमें ऊर्जा बहुत होती है। वह बहुत उछल-कूद मचाता है। तो एक तरफ तो होता है कि उसे रोकना है और दूसरी तरफ होता है कि उसे एक स्वतंत्रता भी देनी है कि कहीं ये दब्बू या डरपोक ना बन जाए। तो ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए?

आचार्य: आप जो भी करना चाहेंगी वो करिए बस ये स्पष्ट होना चाहिए आपको कि आप क्या कर रही हैं। उसको आप खेलने की जगह देना चाहते हैं, दीजिए। वो जहाँ खेलता है वहाँ से आप कुछ नुकीले पदार्थ वगैरह हटाना चाहते हैं, हटाइए। पर ये आपको स्पष्ट होना चाहिए कि ये इसके भीतर की जैविक ऊर्जा है। साफ़ होना चाहिए कि ऐसा है।

मोह और प्रेम एक ही चीज़ के नाम नहीं हैं। बहुत अलग-अलग चीज़ें हैं। इतनी बुद्धिमानी माँ में भी होती है, बाप में भी होती है कि अगर अक्ल लगाएगा तो ठीक काम कर लेगा। तुम्हारी अक्ल मोह तले दब जाती है। अक्ल का भी कोई सवाल नहीं रह जाता, फिर मोह है। और मोह याद रख लीजिए दूसरे से कम संबंधित होता है अपने से ज़्यादा। आप ये कह रहे हो, "मेरा है।" आप उसका कुछ पक्ष लेकर के या उसको कुछ देकर के वास्तव में अपने-आपको ही पुष्ट करते हो। इतने बच्चे हैं दुनिया में, आप सब के लिए व्याकुल होते हो क्या? बोलो, आप किसके लिए व्याकुल हो रहे हो? जिसको बोल देते हो कि, "मेरा है।" बड़ी अजीब बात है, 'मेरा' भी किस अर्थ में मेरा? कि नौ महीने गर्भ में रखा था। ये तर्क क्या है?

प्र२: कई बार अस्पताल में बच्चे बदल जाते हैं।

आचार्य: और आप ये बताइए कितनी अजीब हालत हो जाए अगर ये जो बेबी स्विच है इसका पता छः साल बाद चले। और आपको पता है कि जिसको आप अपना बच्चा कह रहे हो वो छः साल से, दस साल से पड़ोस के घर में पल रहा है। अब आप किसको कहोगे अपना? बड़ी ख़राब हालत होनी है कि नहीं? और ये जो ख़राब हालत है आनी-ही-आनी है मोह के कारण। मोह इस तरह की कई स्थितियाँ पैदा कर देगा।

इतना ही नहीं होता कि आपको अपने बच्चे से लगाव है, इसका विपरीत भी होता है। मैं ऐसे कई घरों को जानता हूँ जो ऐसे बच्चे पाल रहे हैं जो उन्होंने पैदा नहीं किए। उनके नहीं हैं वो पाल रहे हैं, और वो बेचारे अब पंद्रह-पंद्रह साल हो गए हैं और अब बताने से डरते हैं बच्चे को। चलो छोटा था बहुत, नहीं बताया, अब तो बता दो। उनकी रूह काँप जाती है यह सोच कर कि इसको कैसे बताएँ कि तू हमारे शरीर से नहीं आया। भाई तुमने उसे सब दिया है जो दे सकते थे, पाला पोसा, आत्मीयता दी है लेकिन अभी भी शक़ है कि अगर तुमने उसे बता दिया कि तू हमारा खून नहीं है तो संबंध बिगड़ ना जाए।

मैंने पिछले महीने एक से कहलवाया है, कुछ नहीं हुआ। वो लोग बड़ी तैयारी-वैयारी करके, एक महीने दिल पर हाथ रख कर, मेडिकल चेकअप करवा कर कि कहीं मर तो नहीं जाएगा बता देंगे तो, ऐसे कर के उसको बुलाया, "बेटा यहाँ बैठ" और दोनो माँ-बाप के हाथ काँप रहे हैं बिलकुल। वो कह रहा है "क्यों टाइम ख़राब करने के लिए बुलाया है, क्या है जो बोलना है बोल दो।" वो कह रहे हैं "बेटा हम तुम्हें बहुत राज़ की बात बताना चाहते हैं।" दो घण्टे भूमिका बाँधी, खूब आँसू-वाँसू बहाए। माँ ने उससे पहले क़सम ली कि, "जो तुझे बता रहे हैं कही उसके बाद तू हमें छोड़ तो नहीं देगा।" और वो ये सब देख रहा और उसको बड़ा अजीब लग रहा है।

और उसके बाद ये सब करके उसको बिलकुल भरे हुए गले से, और काँपते हुए स्वर से बता दिया, कि "वो तुम हमारी जैविक औलाद नहीं हो। तुझे फलानी जगह से लेकर आए थे।" उसने कहा "बता लिया? मैं फुटबॉल खेलने जा रहा हूँ। बहुत छोटा-सा था कहीं से तो निकला ही होऊँगा, तुम्हारे शरीर से निकला या किसी और के शरीर से निकला, क्या फ़र्क पड़ता है? दसों दिशाओं का पानी आकर के समुद्र में मिल जाता है, क्या फ़र्क पड़ता है? पड़ता होगा फ़र्क। मुझे फुटबॉल खेलनी है।" चला गया वो फुटबॉल खेलने। वो कह रहे हैं, "बड़ा बदतमीज़ लड़का है। हमारी भावनाओं का आदर ही नहीं किया। एक आँसू नहीं आया उसके।"

तुम पगले हो, मोहग्रस्त हो। बच्चा भी तुम्हारी तरह मोहग्रास्त हो, कोई ज़रूरी है? तुम रोए जा रहे हो, पागल हुए जा रहे हो। वो मस्त है।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें