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लेख
बच्चे सबको चाहिए - असली वजह ये है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
17 मिनट
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, शत्-शत् नमन। मैं व्यवसाय से एक चिकित्सक हूँ। मेरा सवाल ये व्यक्तिगत नहीं है। मेरा सवाल ये था आचार्य जी कि ये जो चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान ने जो प्रगति की है आईवीएफ सेंटर (प्रजनन केंद्र) के, इसमें दो चीज़ और शामिल हैं कि भई जनसंख्या वृद्धि तो हो ही रही है और उसमें हम और भागीदार हो रहे हैं। दूसरा ये कि जो इन्फर्टाइल कपल (बाँझ दंपत्तिदम्पत्ति) है, वो भी चेतना की दृष्टि से इतना विकसित नहीं हैं कि वो बच्चों को एक अच्छी परवरिश दे सकें। तो इसमें उस कपल को भी नहीं पता है, जो एक बच्चे की माँग कर रहा है। लेकिन इसमें चिकित्सक का भी कितना योगदान है?

और दूसरा सवाल था आचार्य जी कि भई एक कपल एक बच्चा रख सकता है तो क्या उनके लिए हमें मदद करनी चाहिए, उसी क्षेत्र में? कृपया मार्गदर्शन कीजिएये। धन्यवाद।

आचार्य प्रशांत: देखिए, बात इतनी-सी नहीं है कि एक दंपत्तिदम्पत्ति है, उसे बच्चा चाहिए। उसके दुष्परिणाम वो सब तो हैं ही जो आपने गिनाए — 'जनसंख्या बढ़ती है;, वो जो दंपत्तिदम्पत्ति है वो चेतना की दृष्टि से विकसित नहीं है तो बच्चे का अच्छा लालन-पोषण नहीं कर पाता।'

और भी बात है — बच्चा चाहना एक नया परिधान चाहने से, एक बड़ा बंगला चाहने से और एक बड़ी गाड़ी चाहने से कैसे अलग है? तत्काल प्रतिक्रिया मत करिएगा। ! जल्दी से आप ज़वाब दे सकते हैं कि बाक़ी सब चीज़ें तो इनएनिमेट (अचेतन) होती है न, जड़ होती है। और बच्चा तो जीव होता है।

तो इस तरह के आप जवाब दे सकते हैं। पर सोचिए कि जो माँग उठती है इन सबकी — 'मेरे पास रुपया हो, पैसा हो, बढ़िया वाला पति-पत्नी हो, गाड़ी हो, बंगला हो और ऐसा बच्चा हो।' क्या ये सब माँगे एक ही साझे केंद्र से नहीं आती, बोलिए? क्या ये सब गुड-लाइफ़ पैकेज का पार्ट नहीं है?

हम जब बहुत छोटे ही होते हैं तभी हमें ये गुड-लाइफ़ पैकेज पढ़ा दिया जाता है कि 'गुड-लाइफ़ में कौन-कौन से तत्व होते हैं, बेटा अभी से जान लो। और तुम चौथी क्लास में हो, आज से तुम्हारे जीवन का उद्देश्य है कि कुछ भी करके ये गुड-लाइफ़ हासिल करना।'

गुड-लाइफ़ के जो तत्व होते हैं वो बिलकुल सार्वजनिक हैं, हम सब जानते हैं। हम इस हद तक जानते हैं कि हमारे सामने जब गुड-लाइफ़ वाला कोई आता है तो हम उसे तत्काल पहचान जाते हैं, है न?

उसका चेहरा पैसे से चमक रहा होगा, कॉस्मेटिक से; उसके चेहरे पर एक नूर होगा, आत्मविश्वास का; उसकी भाषा में पाश्चात्य संस्कारों की सुगन्ध होगी; वो जो अपना पता लिखवाएगा वो एक पॉश एड्रेस होगा।

स्त्री है तो उसका पति रुसूख़ रुतबा रखता होगा ─ महिला है तो ये बात। पुरुष है तो पत्नी आकर्षक होगी, प्रेज़ेनटेबल होगी; दूसरे देखें तो ज़रा ईर्ष्या वगैरह करें; और बच्चे होंगे।

ये सब जैसे एक ही थाली की कटोरियाँ हों। ये है आपका जी भर देने वाली भरपूर थाली और इसमें ये सब कटोरियाँ रखी हुई हैं। हम किसी एक कटोरी की ही बात क्यों करें? क्योंकि जिसको एक चीज़ चाहिए उसको दूसरी चीज़ भी चाहिए।

आप कह सकते हैं कि ऐसा थोड़ी है कि गुड-लाइफ़ वालों को ही बच्चे चाहिए होते हैं। बहुत औसत लोगों को, गरीबों को भी तो बच्चे चाहिए होते हैं। तो गरीबों को अमीरी भी तो चाहिए होती है। वो गरीब हो सकता है लेकिन गुड-लाइफ़ में उसका भी जो विश्वास है वो बराबर का है। बस इतना है कि जो अमीर हो गया है उसको गुड-लाइफ़ मिल रही है। जो गरीब है उसको अभी मिल नहीं रही लेकिन चाहता वह वो भी वही हैं। तो वह वो कहता है कि 'मैं गुड-लाइफ़ के जो और तत्व हैं वो भले ही नहीं हासिल कर पा रहा, मैं उसकी भरपाई कर लूँगा बच्चे ज़्यादा पैदा करके।‘ अब आप समझ रहे हैं गरीबों के बच्चे ज़्यादा क्यों होते हैं? और चीज़ें चूँकि ज़िंदगी में कम होती हैं इसीलिए बच्चे ज़्यादा होते हैं। कहीं-न-कहीं तो भरपाई करनी है न!

आप बहुत सारे अन्य कारण गिना सकते हैं — अशिक्षा, गर्भ-निरोध के साधनों का अभाव। ये सब आप बिलकुल गिना सकते हैं पर थोड़ा थोडा और मूल में जाएँगे तो यही पाएँगे ─ हम ऐसे हैं, हमें ये सब चाहिए।

तो एक लग्ज़री कार का शोरूम है और एक आईवीएफ क्लिनिक है। ये दोनों अलग-अलग नहीं हैं। उन दोनों से ही आपको क्या मिलती है? मनचाही चीज़ें। जब आप छोटे थे तो आपको छोटी-छोटी कारें पसंद थी न, पसंद थी न? वैसे ही वो जो बच्चा भी है, वो एक डॉल है — गुड्डा-गुड़िया; खेलने के लिए चाहिए होता है।

माँ की उम्र कितनी हैं, चेतना के तल पर माँ अभी छः साल की है, तो उसको भी खिलौना चाहिए। तो वो खिलौने के लिए क्या करती है? वो जल्दी से बच्चा पैदा करती है ─ ‘मैं और इसके साथ खेलूँगी’। बाप छः साल का था तो छोटी-छोटी कारों से खेलता था, हॉट व्हील्स (बच्चों के खिलौने की कंपनी का नाम) से। फिर बड़ा हो गया तो बड़ी कार माँगता है। माँ छोटी थी तो गुड्डे-गुड़िया से खेलती थी, बड़ी हो गई तो जीवित गुड्डा माँगती है। चेतना नहीं बड़ी हुई।

और जब तक वो केंद्र नहीं बदलेगा, तब तक वो पूरा पैकेज ही आप माँगते रहेंगे। कोई एक चीज़ ही नहीं माँगेंगे आप, आपको सब कुछ चाहिए होगा। आप ऐसा नहीं कह र सकते कि मुझे ज़िंदगी में और कुछ नहीं चाहिए सिर्फ़ बच्चा चाहिए। निन्यानवे प्रतिशत सम्भावना है कि अगर आप बिलकुल तड़प करके बच्चा चाह रहे हैं तो आपको वह वो जो गुड-लाइफ़ पैकेज है, उसके और तत्व भी चाहिए होंगे। मामला पूरा देखना चाहिए न!, तस्वीर पूरी खींचनी चाहिए।!

भई तस्वीर में मैंने महँगा कार्डिगन (स्वेटर) पहन रखा है, महँगी ज्वैलरी (आभूषण) पहन रखी है। वो वह जो गुड-लाइफ़ गुड-लाइफ़ वाला भाव होता है, वह वो पहन रखा है चेहरे पर। बगल में मेरे एक अदद शौहर खड़ा हुआ है — माया का पूरा पैकेज है। उसमें बस एक चीज़ अभी मिसिंग है। कौन-सी चीज़? बच्चा। तो वो बच्चा भी चाहिए,। ये चल रहा है।

ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि आपको बच्चे से बहुत प्यार है इसलिए बच्चा चाहिए। ठीक है? पहली बात ─ आपको बच्चा चाहिए अपना पोर्टफोलियो (श्रेणी) पूरा करने के लिए। सबकुछ मिल गया, वही नहीं मिला। वो चीज़ और मिल जाए तो वो जो आख़िरी बाक्स वो भी टिक (सही का निशान) हो जाएगा,। मेरा गुड-लाइफ़ पोर्टफोलियो पूरा हो जाएगा। फिर मैं बाहर निकल कर कह सकता हूँ या कह सकती हूँ — आई हैव इट ऑल , सबकुछ है मेरे पास देखो! देखो! यह देखो, यह देखो, देखो! हैंडसम हसबेंड, सेक्सी वाइफ, क्यूट बेबी,। क्या माँगता? सबकुछ है, सबकुछ है — शॉफरड्रिवन कार। कार नहीं आ सकती तो ईएमआई से आती है। बच्चा नहीं आ सकता तो आईवीएफ से आता है।

मूल में क्या है?

मूल में है वो अवधारणा जो हमें चार साल की उम्र से पिला दी गई थी कि इसको बोलते हैं सुखी, सफ़ल जीवन, गुड-लाइफ़। वो बात हमारे मन में ऐसी गहरी घुस गई है कि निकलने का नाम नहीं लेगी, यही तो गुड-लाइफ़ गुड लाइफ़ है।

आपके लिए बड़ा मुश्किल हो जाएगा कल्पना करना कि एक आदमी उद्योगपति है, धनपति है, लिमोज़ीन से उतर रहा है और वह वो वास्तव में बेहद असफ़ल आदमी है ज़िंदगी में,। आप ये मान ही नहीं पाओगे। क्योंकि आपके अनुसार अगर उसके सारे बॉक्सेस टिग्ड (सही का निशान) हैं तो सुखी है, सफल है। ये काम परिवार करता है, मीडिया करता है, प्रचलित संस्कृति करती है।

देखिए, छः साल हॉस्टल में रहा हूँ तो कम-से-कम बंदों के अन्दर की बात तो ख़ूब जानता हूँ। बाईस-चौबीस की उम्र तक भी कोई लड़का ऐसा नहीं होता जिसको बाप बनने में विशेष रुचि हो। मेरे लिए बड़े ताज़्ज़ुब की बात है कि उसके दो-तीन साल बाद यह फर्टिलिटी क्लीनिक के चक्कर कैसे लगने लगते हैं! धेले की किसी पुरुष की रुचि नहीं होती बच्चों में, एकदम नहीं होती। अब छः साल तक मैं धोखे में रहा हूँ तो अलग बात है, ऐसा होगा नहीं लेकिन। लड़कियों का, महिलाओं का आप जाने। पर मुझे नहीं लगता कि आप भी बाईस-चौबीस में ऐसी हो रही थी कि कब, कब कौन-सा वो दिन आएगा कि मेरे हाथ में नन्नू पॉटी करेगा!

बच्चा न पुरुष को चाहिए, न स्त्री को चाहिए,। बच्चा गुड-लाइफ़ गुड-लाइफ़ पैकेज को चाहिए!।

पुरुषों को तो बिलकुल नहीं चाहिए, मैं बताए देता हूँ। जिनके हैं वो मुझे बताते हैं न उनको कैसा लगता है। वो और तो कुछ जानते नहीं कि प्रेम किसको कहते हैं, करुणा किसको कहते हैं, अध्यात्म किसको कहते हैं,। पर एक चीज़ को बहुत रोते हैं। कहते हैं, 'जब से हुआ है, सेक्स लाइफ़ ख़त्म हो गई। एन मौके पर चें-चें कर देता है।'

नहीं चाहिए होता है। न उसके पैदा होने से पहले चाहिए होता, न पैदा होने के बाद चाहिए होता है। वो फैमिली एलबम ( में रखने के लिए चाहिए होता है। वो डॉल की तरह डेकोरेट (सजा कर) करके दूसरों को दिखाने के लिए चाहिए होता है।

उनके कपड़े देखते हो न कैसे आते हैं — छोटे बच्चों के? मैंने तो फ़ोटो देखी जिसमें उसको रिबन ही बाँध दिया था। कुछ छुपाया ही नहीं, बिलकुल साफ़-साफ़ बता दिया ये क्या है हमारे लिए ─। उसको रिबन बाँध दिया। देखी होगी वो फ़ोटो? वो लेटा हुआ छोटा-सा, उसको रिबन बाँध दिया है।

लेकिन फिर इतनी ममता वगैरह कैसे आ जाती है? आचार्य जी, फिर अगर कुछ है ही नहीं तो इतना अटैच्मेंट (आसक्ति) कैसे आ जाता है?।

वो जो तुमने उसमें इतना समय इतनी ऊर्जा और इतना पैसा लगाया है न, वहाँ से आ जाता है। आप अगर इतनी ममतामयी होती तो सड़क पर एक भिखारी का बच्चा अभी ठंड में ठिठुर रहा होता तो आपको उसके प्रति भी कुछ तो स्नेह उमड़ता, कुछ नहीं!

वही माँ होगी एक को यहाँ (छाती) पर ऐसे चिपकाए हुए है, सामने कोई दूसरा बच्चा ठिठुर रहा है, उसे कोई धेले का अंतर नहीं पड़ता। तो इतनी बॉन्डिंग (सम्बन्ध) कहाँ से आती है, कहाँ से आती है? जब पाँच-पाँच, दस-दस लाख रुपए उसकी सालाना स्कूल की फ़ीस दोगे न, अपनेआप बॉन्डिंग आ जाएगी।

तुमने किसी कंपनी के शेयर्स में इन्वेस्ट करा हो, वो कंपनी तुम्हारी दुआओं, प्रार्थनाओं में आ जाती है ─ भगवान इसको बहुत तरक्की देंदे, बहुत उठे, बहुत उठे। आप किसी कंपनी के स्टॉक्स में बीस-चालीस लाख इन्वेस्ट इन्वेस्ट कर दीजिए, फिर देखिए। आप दिन-रात यही दुआ माँगेंगे कि ये कंपनी बहुत आगे बढ़े, बहुत आगे बढ़े, बहुत आगे बढ़े। क्या है कि अगर वो डूबी तो, वो डूबी तो?

श्रोता: ख़ुद डूब जाएँगे।

आचार्य: और जिस दिन आप उसमें अपने स्टॉक्स सेल (स्टॉक बेचना) कर दें, आपको रंचमात्र फ़र्क नहीं पड़ेगा, उस कंपनी का क्या होता है। ठीक वैसे जिस दिन माँ-बाप को पता चल जाता है कि यह बच्चा हमें कुछ देने वाला नहीं है, आध्यात्मिक हो गया है, उस दिन वो कहते हैं, 'भाड़ में जा। अब मिलना क्या है तुझसे?! डूब गया सारा इनवेस्टमेंट !।'

हम इतने अच्छे लोग नहीं हैं — जानते हैं, कि हमें किसी से भी प्रेम हो। , तो बच्चों से कहाँ से हो जाएगा? गुड-लाइफ़ गुड-लाइफ़ के लिए वो आते हैं, फिर उसमें बहुत रुपया-पैसा लगा देते हो तो कहते हो, 'यार अब वसूली भी तो करनी है, वसूली-वसूली।'

और वसूली की जगह अगर वहाँ पर नुकसान होना शुरू हो जाए तो ऑनर किलिंग वगैरह भी हो जाती है। वसूली की संभावना न हो, तो भ्रूण हत्या भी हो जाती है। इतना प्यार है भारत की माँ में तो भारत में इतनी फिटिसाइड-इनफेटिसाइड (भ्रूणहत्या-शिशु हत्या) क्यों होती है?

भारत की माँ तो माँ! और भारत की माएँ जितना मारती हैं अपने बच्चों को — मारती माने हत्या। उतना इतिहास में किसी और देश की माँओं ने अपने बच्चों की हत्या नहीं करी। और भारत की माँ तो ममतामयी, पता नहीं क्या-क्या है वो तो।

'मैं भारतीय माँ हूँ, मैं बच्चे के लिए जान दे दूँगी।' जान दे दोगी? ले लोगी!

अभी कुछ साल पहले तक आँकड़ा यह था कि दो तिहाई या तीन चौथाई भारतीय परिवारों में जो सबसे छोटा बच्चा होता है वो लड़का होता है। इसका मतलब समझ रहे हैं न , क्या है? या तो लड़कियाँ तब तक पैदा करी गईं हैं जब तक लड़का नहीं आ गया या लड़कियाँ तब तक मारी गईं हैं जब तक लड़का नहीं आ गया। संभावना दूसरी वाली ज़्यादा है, क्यों? क्योंकि कुल आबादी में लड़कियाँ कम हैं लड़कों से।

तो ऐसा नहीं हो रहा है कि बहुत लड़कियाँ पैदा की जा रही हैं ताकि लड़का आ जाये। अगर बहुत पैदा की गई होती तो उनकी संख्या और अनुपात ज़्यादा हो गया होता। लड़कियाँ मारी गईं तब तक लड़का न आ जाये और जब लड़का आ गया तो ममतामयी हो जाते हैं।

फिर कहा जाता है कि 'बाप आसमान है जो हमें छाँव देता है, माँ धरती है जो हमें अन्न, पालन-पोषण देती है।' तो जान कौन लेता है फिर?

जानते हैं यह सब क्या है? ये यूरोप में विकसित हुई एक विचारधारा है, जिसको बोलते हैं, रोमैंटिसिज्म , अनुभववाद है ये।

ये भारत में नहीं था कभी। इस तरह की शायरी, इस तरह की बातें करना — वो आसमान है, वो धरती है ये सब। ये, ये भारतीय बात नहीं है। ये, ये रोमांस है। रोमांस वही नहीं होता जो आदमी औरत के बीच होता है। आप हर चीज़ में एक उत्तेजक अनुभव तलाशें, इसको रोमांस कहते हैं।

जहाँ कुछ नहीं है वहाँ आप कल्पना कर-करके उस चीज़ को ग्लोरिफ़ाइ करें, महिमा मंडित करें, ये रोमांस कहलाता है।

हमें पता भी नहीं है कि हम इस यूरोपीय विचारधारा के शिकार हैं। यहाँ तक कि माँ-बाप और बच्चों का रिश्ता भी उस विचारधारा का शिकार है। देखिए, फिलोसॉफी दर्शन न पढ़ने का दुष्परिणाम ये होता है कि आप गलत और घटिया तरीके की फिलोसॉफी के चंगुल में फँस जाते हैं क्योंकि होता तो हर इंसान दार्शनिक है। कोई व्यक्ति ऐसा नहीं जो किसी- न- किसी फिलोसॉफी पर न चलता हो। । और सबकी अपनी फिलोसॉफी होती है।

बात ये है कि अगर आपने फिलोसॉफी पढ़ी नहीं है तो आपकी अपनी फिलोसॉफी घटिया होगी। और आपको पता भी नहीं होगा कि आप किस दूसरे व्यक्ति की या किस दूसरे समाज की या देश या किस दूसरे काल की विचारधारा और दर्शन के चपेट में आ गये है।

सबकुछ अच्छा है अगर बोध से किया जाये, कुछ भी अच्छा नहीं है बेहोशी में किया जाये। और जब सब कुछ बेहोशी में कर रहे हो तो बच्चा भी बेहोशी ही पैदा करोगे। कोई होश में निर्णय ले उसके पास हो ठोस कारण संतान जनने का, बहुत अच्छी बात है। मैं तो कभी किसी कर्म के अच्छे होने या बुरे होने पर ज़ोर देता ही नहीं। मैं तो कर्ता की बात करता हूँ न! कौन है करने वाला?

करने वाला ही अगर दिग्भ्रमित है तो कर्म की गुणवत्ता की बात ही क्यों करें? पता ही है कि कर्म बेकार होगा, चाहे वो बच्चा पैदा करें, चाहे न करें ─ दोनों ही निर्णय उसके बेकार होंगे। और सही कारण हो तुम्हारे पास, फिर तुम कर लो तो कोई बात नहीं। फिर करो, बिलकुल करो, एक नहीं पाँच करो।

बात बहुत विचित्र है ─ बच्चा वगैरह पैदा करने पर इतना ज़ोर! जैसे परिवार और फ़ैमिली वैल्यूज़ (पारिवारिक मूल्य) हमारे लिए सर्वोपरि हो। लोग बड़े गर्व के साथ बोलते हैं, 'आई एम ए फ़ैमिली मैन'। कहते हैं, 'हाँ ये अच्छा आदमी होगा ये फ़ैमिली मैन है।'

और अब आपके सामने एक आँकड़ा बताता हूँ। भारत में महिलाओं की जितनी हत्याएँ होती हैं उनमें से दो तिहाई या तीन चौथाई उनके अपने परिवारजनों द्वारा की जाती हैं। हम तो यही जानते थें थे कि परिवार के केंद्र में स्त्री होती है। यही बताया गया न हमें — 'स्त्री परिवार की धुरी होती है।' अगर कहीं आप किसी महिला की हत्या की खबर पढ़ें तो तीन चौथाई संभावना है कि उसको उसके परिवार के लोगों ने ही मारा या उसके निकट के लोगों ने, प्रेमी वगैरह ने, ब्वॉयफ्रेंड वगैरह ने, इन्होंने मारा है किसी ने।

परिवार झट से खड़ा करना है — और ज्ञान देने के लिए सब घर के ये तथाकथित बुजुर्ग हैं ─ ' नो बेटा कम्प्लीट योर नेस्ट (अपना घोंसला पूरा करो), बेटा।' जिनकी अपनी ज़िंदगी बर्बाद, इनको शर्म नहीं आती दूसरों पर ज्ञान थोपते हुए और ये जीने नहीं देते। और आपका क्या काम है? बोलना — 'जी डैडी जी, जी डैडी जी' और जितना उनको बोलोगे, '‘जी डैडी जी, जी डैडी जी’,' वो उतना तुम्हारे ऊपर चढ़ेंगे।

एक बिंदु ऐसा आना चाहिए जहाँ सीधे बोल दो, 'महाराज अपना काम करो, इतनी देर आपकी इज़्जत रख ली बहुत बड़ी बात है, सर पर मत चढ़ो।'

मैं छोटा था ट्रेन से जा रहा था। , वहाँ एक गरीब सी महिला थी, उसके बहुत सारे बच्चे थे। और खुद भी बहुत सूखी हुई सी थी, कुपोषण की शिकार जैसी। तो उसका बच्चा था छोटा एकदम वो भी ऐसा ही था, सूखा हुआ। और वो उसको दूध पिला रही थी। उसकी उम्र भी कमी थी पता नहीं बीस की भी थी वो कि नहीं थी। बच्चे उसके कम-से-कम तीन-चार थे। लेकिन वो दिखने में एकदम छोटी सी थी, और कद में और एकदम सूखी हुई। और वो बच्चा था और वो बच्चा भी दुबला पतला, एकदम सूखा हुआ। वो, वो दूध पीना चाह रहा था। उस महिला को शायद दूध आ ही नहीं रहा था और बहुत देर तक बच्चा उसकी छाती से चिपका रहा, और अंत में उसने उस बच्चे को दो-तीन झापड़ मार दिये। वो एक दृश्य था।

फिर पच्चीस साल बीते, भारत बदल गया। लोगों के पास पहले से ज़्यादा, बहुत ज़्यादा पैसा आ गया। अभी देखता हूँ, बड़ी गाड़ियों से शॉपिंग-मॉल वगैरह के सामने महिलाएँ उतर रही होती हैं। ज़बरदस्ती जबर्दस्ती अपने बच्चों से अंग्रेजी में बोलने की कोशिश कर रही होती हैं, बिलकुल बेहूदी बातें। बच्चों की शक्ल पर लिखा होता है कि वो बिलकुल बिगड़ चुके हैं। क्या बदला पच्चीस साल में?

वो महिला भी बिलकुल बोधहीन थी, कुछ जानती समझती नहीं थी, गरीब थी, ट्रेन में बैठी थी, कमज़ोर थी, उसको दूध नहीं आ रहा था। आज है, यह शरीर से भरपूर हो गई है लेकिन बच्चों की बर्बादी तब भी हो रही थी, आज भी बराबर की हो रही है।

बच्चे चाहिए लेकिन, उसको भी और इसको भी। और उसने उसको जब दो-तीन झापड़ मार दिए तो वो बहुत ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा और वो रोता ही रहा,। वो चुप ही नहीं हो रहा था।

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