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लेख
आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है || आत्मबोध पर (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रकाशोऽर्कस्य तोयस्य शैत्यमग्नेर्यथोष्णता। स्वभावः सच्चिदानन्दनित्यनिर्मलताऽऽत्मनः॥

जैसे सूर्य का स्वभाव प्रकाश, जल का शीतलता और अग्नि का उष्णता है, इसी तरह से आत्मा का स्वभाव सच्चिदानंद, नित्यता और निर्मलता है।

—आत्मबोध, श्लोक २४

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा नमन स्वीकार करें। आत्मबोध के श्लोक संख्या २४ में लिखा है कि आत्मा का स्वभाव ही सच्चिदानंद, नित्यता और निर्मलता है और मुक्ति उसका स्वभाव है। तो फिर आत्मा क्यों शरीर में आती है और जन्म लेती है, अगर उसका स्वभाव मुक्ति ही है? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: आधी बात तो तुमने ले ली शंकराचार्य से, बाकी आधी तुमने ख़ुद पूरी कर दी। इतना तो श्लोक कह रहा है कि आत्मा सच्चिदानंद, नित्य और निर्मल है, ये तो शंकराचार्य ने कहा। ये तुम्हें किसने बताया कि आत्मा शरीर में आती है और आत्मा जन्म लेती है? ऐसा आत्मबोध में तो कहीं नहीं लिखा।

अब ये अध्यात्म की पुरानी व्याधि है— कुछ बात लेना गुरुओं से और उसमें जोड़ देना अपनी ही पुरानी धारणा को। कुछ बात तो ले ली गुरु से और आधी बात, बाकी बात उसमें जोड़ दी अपनी।

हम ऐसे हैं कि हमें अगर अमृत-फल भी मिल जाए स्वर्ग से उतरा हुआ, तो हम उसमें अपनी रसोई का चंकी-चाट मसाला ज़रूर मिलाएँगे।

(श्रोतागण हँसते हैं)

अमृत-फल काफ़ी नहीं है, उसमें चंकी-चाट मसाला डलना चाहिए! शंकराचार्य ने अमृत-फल दिया, चाट-मसाला तुमने अपना मिला दिया। क्यों मिलाया?

मज़ाक की बात तो है ही; कहाँ से ये ज्ञान लाए हो कि आत्मा जन्म लेती है? समस्त जन्मने वाली इकाइयाँ एक ही होती हैं, सब एक तल की, तो फिर तो आत्मा और बंदर के बच्चे में कोई अंतर ही नहीं हुआ, दोनों जन्म लेते हैं, फिर तो आत्मा और सागर की लहर में कोई फ़र्क़ ही नहीं हुआ। फिर तो आत्मा भी नश्वर ही है, क्योंकि जो जन्मेगा वो…?

श्रोतागण: मरेगा भी।

आचार्य: मरेगा भी। ये पॉप अध्यात्म है। ये वो अध्यात्म है जो सबको पता है, ये गली के नुक्कड़ पर बिकता है।

सबको पता है कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाती है, आत्मा जन्म लेती है, ये होता है, वो होता है। तुम कभी विचार ही नहीं करते कि क्या ये बात शास्त्रसम्मत भी है।

उपनिषदों ने कहा क्या ऐसा? सौ-बार उन्होंने समझाया कि सत्य अजन्मा है, तभी सत्य अमर है। पर जिसको देखो वही ये धारणा लेकर घूम रहा है कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाती है, और इस तरह से चलता रहता है। कहीं-कहीं तो पूरा चित्र बनाकर समझाते हैं, *‘ट्रांस माइग्रेशन ऑफ़ सोल’*—बढ़िया बिलकुल, ऐसे जा रही है, फिर आत्मा यहाँ घुसी, फिर वहाँ…। कह दो, “हाँ, बढ़िया है।"

लोग प्रयोग कर रहे हैं कि कोई मरने वाला है, उसको डाल देते हैं तराज़ू पर और तोलते हैं कि अभी आत्मा निकलेगी इसकी तो कितने ग्राम वज़न कम होगा। इस तरह की अफ़वाहें उड़ा रखी हैं कि एक आदमी मर रहा था, उसको काँच के बक्से में डाल दिया, और जैसे ही वो मरा, काँच के बक्से में दरार पड़ गई; आत्मा निकल भागी।

(श्रोतागण हँसते हैं)

अब हँस काहे को रहे हो? तुम सब यही मानते हो कि आत्मा कोई चीज़ है जो शरीर से निकल भागती है। ये तुम्हें किस उपनिषद् ने बताया? आत्मबोध तो नहीं बता रहा, शंकराचार्य तो नहीं बता रहे, ब्रह्मसूत्र तो नहीं बता रहे। तुम कहोगे कि ये श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है। उन्होंने भी नहीं कहा है, तुमसे पढ़ने में भूल हुई है। और जिन लोगों ने ग़लत व्याख्या की है, उन्होंने बहुत बड़ी भूल की है, और वो ग़लत व्याख्याकार आज भी ग़लत व्याख्या किए ही जा रहे हैं।

तुम्हें ख़्याल भी नहीं आता कि जो अनंत है, वो देह में कैसे घुस जाएगा। नहीं सोचते न? जो अचल है, वो निकल कैसे भागेगा? आत्मा को एक ओर तो कहते हो, “अचल है आत्मा”, फिर कहते हो, “निकल भागी, कहीं और घुस गई।” एक ओर तो कहते हो कि “सर्वव्यापक है”, और दूसरी ओर कहते हो, “यहाँ थी, यहाँ नहीं थी।” आत्मा है, कि कुछ हवा वग़ैरह है?

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