आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
अस्तित्व को कैसे स्वीकारें? बच्चों की रुचि का कैसे पता करें? || आचार्य प्रशांत (2018)

आचार्य प्रशांत: मालती का सवाल है, सूरत से। प्रणाम आचार्य जी। प्रकृति की प्रतिष्ठा पायी है तो मैं सच्ची कैसे हो सकती हूँ? सवाल पूछूँगी तो वो भी झूठा ही होगा आचार्य जी। जो मैं हूँ मुझे उसे पाना है। मुझे नहीं पता कि मुझे क्या पूछना है। मैं बोध स्वरूप हो जाऊँ, पूर्ण अस्तित्व का स्वीकार कैसे हो?

इतना भी मत माँगो कि बोध स्वरूप हो जाऊँ, अस्तित्व का पूर्ण स्वीकार मिले। अभी तक बोध स्वरूप हुए हो क्या? नहीं हुए तो तुम्हें कैसे पता कि बोध स्वरूप होने में कोई विशेष रस या आनंद है? अभी तक अस्तित्व का पूर्ण स्वीकार किया है क्या? नहीं पता तो तुम्हे कैसे पता कि उसको लक्ष्य बनाना सार्थक है?

तुम कहते हो अस्तित्व का पूर्ण स्वीकार! कुछ भी पूर्ण है क्या जीवन में? अगर नहीं है, तो उसकी बात करने से बहुत लाभ नहीं है। अभी तो बस ये देखो कि जीवन में क्या है जो परेशान करता है। साफ़-साफ़ देखो ईमानदारी के साथ, छिपाओ नहीं, झूठ मत बोलो और जो परेशान करता हो उसको ताक़त मत दो। जो परेशान करता हो, उसको सुंदर, मीठे, आकर्षक नाम देकर यथावत मत रखो। एक ही धर्म है तुम्हारा ─ अपने आनंद स्वभाव में स्थापित रहना। जो कुछ तुम्हारे लिए झंझट का कारण बनता हो, उसको पोषण मत दो।

तुम कह रहे हो, अस्तित्व का पूर्ण स्वीकार, बोध स्वरूप होना! बोध माने जान जाना, समझ जाना, शांत हो जाना, मिट जाना। देखो कि क्या है जो तुम्हे शांत नहीं होने देता। देखो कि क्या है जो तुम्हें सतर्क और उत्तेजित रखता है। और पूछो अपनेआप से कि ये मेरे जीवन में क्यों मौजूद है, ऐसी क्या अनिवार्यता?

कह रहे हो अस्तित्व का पूर्ण स्वीकार! मैं तो कह रहा हूँ कि तुमनें बहुत सारी चीजें ऐसी स्वीकार कर रखी होंगी, जिन्हें स्वीकार कभी करना नहीं चाहिए। पूर्णता स्वीकार ही करने में नहीं होती, पूर्णता में अस्वीकार भी निहित है। अध्यात्म का अर्थ यह नहीं होता कि जो हो रहा है सब स्वीकार करते चलो। अध्यात्म नकार का शंखनाद भी है अन्यथा नेति-नेति की ज़रूरत क्या थी अगर सब स्वीकार ही करना है तो?

तो इसीलिए कल्पनाएँ मत करों, आदर्श मत बनाओ, पहले से ही मत कहो, कि क्या पाना है। मत कह दो कि अध्यात्म का अंतिम लक्ष्य है अस्तित्व का पूर्ण स्वीकार। तुम्हे अभी पता नहीं। तुम्हारे लिए एक ही चीज़ करणीय है। और वो है अपने बँधनों से, अपनी झंझटो से मुक्ति। बँधनों में रहते हुए, नासमझी में रहते हुए, अगर अपने लिए कोई लक्ष्य बनाओगे तो पहली बात तो वह लक्ष्य झूठा होगा, दूसरी बात यह कि अगर उस लक्ष्य को पा भी लिया तुमने, तो वह तुम्हारा सौभाग्य नहीं होगा।

जो पूरी बात तुमने कही है, उसका पूर्वार्थ मीठा है ─ कुछ जानती नहीं तो क्या पूछूँ, क्या माँगू? पर इतना कहने के बाद माँग ही लिया। पहले तो कह दिया, कुछ पता नहीं, क्या कह दूँ, क्या माँग लूँ? फिर कह दिया, मैं बोध स्वरूप हो जाऊँ बस! अस्तित्व का पूर्ण स्वीकार कर लूँ बस!

हम कॉलेज में थें, उन दिनों एक गाना आया था ─ “मैं ज़्यादा नहीं माँगता। मैं बन जाऊँ सबसे बड़ा, मैं ज़्यादा नहीं माँगता। सारी दौलत, सारी ताक़त, सब मिल जाए मुझे, मैं ज्यादा नहीं माँगता।“

तो शुरुआत तो अच्छी की मालती, लेकिन फिर फिसल गई। शुरुआत में तो कह दिया कि कुछ नहीं चाहिए। क्या बोलूँ, क्या माँगू और फिर धीरे से माँगपत्र आगे सरका ही दिया कि अब इन माँगों की ज़रा पूर्ति भी कर दें। ऐसे नहीं।

गीता का सवाल आया है, मुंबई से। कह रही है, बच्चों की रुचि किसमें है, कैसे पहचाने ताकि हम बच्चों के साथ न्याय कर सकें।

गीता, बच्चे भी कुछ ऐसे ही सवाल भेजते हैं, बड़ो को लक्ष्य कर के। कहते हैं कि इन बड़ो के साथ न्याय कैसे करें?

बहुत दंभ है इस सवाल में कि हम बच्चों के साथ न्याय करेंगे। अपने साथ न्याय कर लिया? अपनी प्रतिभा पहचान ली? खुद जान लिया कि जीवन में क्या करणीय है, क्या करना चाहिए था? अपनी दिशा पता थी जो बच्चे को दिशा दिखा दोगे?

बच्चे को रुचि किसमें है? जिसमें है उसमें है। तुम्हें छेड़कानी क्यों करनी है? तुम्हारे हस्तक्षेप की क्या ज़रूरत? हम अपनेआप को नहीं देखते। दुनिया का मुश्किल-से-मुश्किल काम ये नहीं होता कि तुम किसी को सही दिशा दिखा दो। दुनिया का मुश्किल-से-मुश्किल काम ये होता है कि तुम किसी की दिशा बदलने की कोशिश न करो। समझना इस बात को।

बच्चों से होता है, मोह। और फिर जितनी अध्यात्म की और साक्षित्व की शिक्षा मिली होती है, वह धरी रह जाती है और फिर तुम घुस ही जाते हो।

तीन तरह के अभिभावक होते हैं: सबसे नीचे वो जो बच्चों बच्चों को ग़लत रास्ता दिखाते हैं; उन्हीं के जैसे वो जो बच्चों को सही रास्ता दिखाते हैं। और एक अलग ही तल होता है उनका जो बच्चों को कोई रास्ता नहीं दिखाते, जो कहते हैं कि हम बस तटस्थ बैठे हैं, हम देख रहे हैं। बच्चे को आवश्यकता होगी, तो माँग लेगा। हमारा काम नहीं किसी का जीवन निर्धारित करना। हम अपना ही जीवन सही जी ले, बहुत बड़ी बात है।

नहीं बच्चे माँग रहे हैं कि आप उन्हें अपनी कीमती सलाह दें। बच्चों की एक छोटी सी गुज़ारिश है ─ ‘जियो और जीने दो। मत करो हम पर एहसान क्योंकि आज हम पर एहसान करोगे तो आगे तुम ही ताने दोगे कि बच्चे तेरे लिए हमने जिंदगी कुर्बान की।‘

मैं तुमसे कह रहा हूँ कि प्रेम की सबसे बड़ी परीक्षा यही होती है कि जिससे तुम्हें प्रेम हो तुम उसके प्रति भी साक्षी हो जाओ। और इसी साक्षित्व से प्रेम और मोह में अंतर पता चलता है। झूठा प्रेमी हस्तक्षेप करता है। सच्चा प्रेमी संतुष्ट रहता है, दृष्टा भर होने में, साक्षी भर होने में।

और याद रखना हस्तक्षेप हम इसीलिए नहीं करतें कि सामने वाले का भला हो। तुम गौर से देखोगे तो यही पाओगे कि हर हस्तक्षेप में तुम्हारी अपनी निहित कामनाएँ होती हैं। इसीलिए अभिभावक धर्म की अग्निपरीक्षा होती है, साक्षी रह आना। क्या तुम अपने बच्चे के जीवन के साक्षी भर हो सकते हो? या तुम बच्चे को ज़रिया बना रहे हो स्वयं के लिए पूर्णता ढूँढने का? अपूर्ण अभिभावक और क्या करेगा? अपूर्ण मन और क्या करेगा? वो जिस भी चीज़ को छूता है, उसे ज़रिया बनाता है न पूर्णता ढूँढने का। तो घर में बच्चा भी आ गया, तो वह बच्चे को ज़रिया बनाएगा कि अब इसके माध्यम से पूर्णता पा लूँ। यह मत कर देना।

कह रहे हो, बच्चे की रुचि पहचानना चाहते हैं ताकि उनके साथ न्याय कर सकें। बच्चा अपनी रुचि का स्वयं प्रदर्शन कर देगा। बच्चे को कोई तकलीफ़ नहीं है। उसको जिस दिशा में अपनी प्रतिभा फ़ैलानी होगी, वह फ़ैला देगा। दिक्कत उस दिन आनी शुरू होती है जिस दिन माँ-बाप कहते हैं कि ना! यह रुचि ठीक है और ये वाली रुचि ठीक नहीं है। और माँ-बाप कहते हैं कि हम समझदार हैं, हममें बड़प्पन हैं इसीलिए हम बच्चे को सही रुचि की ओर प्रेरित कर रहें हैं। और वो सही रुचि क्या होती है? जो बाज़ार द्वारा समर्थित हो। बच्चे की रुचि अगर बाँस की टोकरी बनाने में है तो तुम इसे रुचि मानोगे ही नहीं। तुम कहोगे कि ये कोई रुचि होती हैं? बाँस की टोकरी बनाएगा? जिंदगी खराब करेगा? तुम्हारे अनुसार रुचि वही ठीक है, संसार जिसकी कीमत देता हो, बाज़ार जिसका मोल करता हो। ऐसी रुचियों की तुम तलाश में हों।

तुम्हारे बच्चे में अगर प्रतिभा हो बाँस की टोकरियाँ बनाने की, तुम्हें बहुत खुशी होगी क्या? हाँ, उसमें क्रिकेट की, फुटबॉल की प्रतिभा हो, गणित के सवाल हल करने की प्रतिभा हो, संगीत की प्रतिभा हो तो तुम फ़ूल कर कुप्पा हो जाते हो क्योंकि ये सारी प्रतिभाएँ बाज़ार में बिक सकती हैं। और इन सारी प्रतिभाओं की ऐवज में माँ-बाप को सम्मान मिल सकता है कि यह देखिए, यें उसी होनहार के माँ-बाप हैं जो आज देश का अव्वल खिलाड़ी है। अब कोई बताए कि ये उस होनहार के माँ-बाप हैं जो इतनी मस्त टोकरियाँ बनाता है, तो ये बात ज़रा तुम्हें जँचेंगी नहीं। तुम कहोगे कि ये रुचि ठीक नहीं है। इसीलिए तुम रुचि का पता लगाना चाहते हो। यह मंशा है कि ज़रा पहले ही पता चल जाएँ कि बच्चे की क्या रुचि है ताकि गड़बड़ वाली रुचि हो तो उसका गला घोंट दे। गड़बड़ वाली रुचियाँ आगे नहीं बढ़ने चाहिए। तो पहले ही बता दे किस तरफ़ तेरा मन जा रहा है। ताकि अगर तेरा मन हमारे स्वीकृत दिशा में न जा रहा हो तो हम तेरे मन को रोक दे।

ऐसे नहीं! बात आ रही है समझ में?

प्रतीक्षा करो, दृष्टा रहो। दिख जाएगा कि पेड़ में फूल कहाँ लग रहा है। जिनके घर में नन्हें पौधे होते हैं, उन्हें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। पानी डाल दो बस थोड़ा सा और प्रतीक्षा करो। तुम्हारा काम है दूर से देखना। दिखेगा कि फूल कहा खिल रहा है। और कोई सही फूल और ग़लत फूल नहीं होता। फूल माने फूल, खिला तो खिला। तुम्हारी उम्मीद अनुसार तो वैसे भी नहीं खिलेगा।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles