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लेख
असली माँ कैसी?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आज आश्रम आते हुए मन ज़रा दुविधापूर्ण रहा, आँखें अश्रुपूरित थीं। खयाल आ रहा था कि “देर रात घर से बाहर रहूँगी, जबकि आज दोनों बेटे घर पर ही हैं।“ मन चाहता था उनके साथ समय बिताऊँ, घर से बाहर ना जाऊँ।

आचार्य प्रशांत: जो आप अपने-आप को मानते हैं, उसी के अनुसार आपको विचार आते हैं। जो आप अपने-आप को मानते हैं, उसी के अनुसार आपके लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा, ये आप निर्धारित कर लेते हैं। और जो आप अपने-आप को मानते हैं, उसी के अनुसार आपके कर्तव्य तय हो जाते हैं।

ठीक है?

होने को आप पचास अलग-अलग चीज़ें हो सकते हैं, होने को आपकी न जाने कितनी भाँति-भाँति की पहचानें हो सकती हैं। और हर पहचान के अनुसार हमने कहा, विचार आ जाएँगे; अच्छे-बुरे, सही-ग़लत का खयाल पैदा हो जाएगा, भावनाएँ उठने लगेंगी, कर्तव्य और कर्म निश्चित हो जाएँगे। और हमने कहा कि बहुत सारी विभिन्न पहचानें हो सकती हैं आपकी; विचार तो बाद की बात है, विचार तो आपकी पहचान की छाया है। जो आपने अपनी पहचान बनाई, उसी के अनुसार आपको विचार आ गए; और जो विचार आ गए, उसी के अनुसार आगे आपके कर्म भी हो जाएँगे।

तो आपने अपने विचारों की बात करी है, कि आज जब मैं सत्संग के लिए आ रही थी तो विचार उठ रहा था कि घर पर ही रहूँ, “दोनों बेटे घर पर हैं और रात का समय है, मैं क्यों बाहर जा रही हूँ?” विचार सही या ग़लत होते ही नहीं; विचार तो हमने कहा कि जो आपने चुनी है पहचान, उसकी छाया-भर है। विचार तो बड़ी मजबूर चीज़ है, आपने एक बार निश्चित कर लिया कि आप अमुक नाम रखती हैं, तब उसके बाद उस अमुक नाम की पूँछ की तरह विचार पीछे-पीछे चले ही आएँगे; विचार तो बड़े मजबूर हैं।

कैसे कहूँ कि आपको जो आज खयाल आ रहे थे यहाँ आते वक़्त, वो सही थे कि ग़लत थे? खयाल तो बिल्कुल ठीक थे, किसके लिए ठीक थे? एक माँ के लिए ठीक थे। अगर आप एक स्त्री हैं, अगर आप एक स्त्री की देह हैं जिससे दो बच्चों का जन्म हुआ है, तो निश्चित रूप से आपके लिए फिर यही ठीक है कि आप अपना समय उन बच्चों के साथ बिताएँ; कोई ग़लत विचार आपको आया ही नहीं, किंकर्तव्यविमूढ़ता की कोई बात ही नहीं।

एक माँ को क्या शोभा देता है? बच्चे के साथ होना, माँ और क्या करेगी? माँ का अर्थ ही है वो जीव जिसके पास बच्चा हो। तो माँ की पहचान तो जुड़ी ही किसके साथ है? न पति के साथ, न पिता के साथ, न अड़ोसी के साथ, न पड़ोसी के साथ। माँ की पहचान निश्चित रूप से किसके साथ जुड़ी हुई है? बच्चे के साथ। माँ की पहचान तो मैंने कहा बच्चे के बाप से भी नहीं जुड़ी है, तो परमात्मा से क्या जुड़ी होगी! माँ का सत्य से, परमात्मा से, मुक्ति से क्या लेना-देना? मुझे बताओ!

एक स्त्री है जो कहती है कि वो माँ है। अब दो इकाइयों को ले लो, एक बच्चा, और दूसरे को हम नाम दे देते हैं सत्य। उस स्त्री के पास सत्य न हो, तो भी वो माँ रही आएगी या नहीं? स्त्री के पास सत्य न हो, तो भी वो माँ तो बनी ही रहेगी, लेकिन स्त्री के पास सत्य हो और बच्चा न हो, तो अब क्या वो माँ कहला सकती है? नहीं कहला सकती।

तो माँ के लिए फिर क्या ज़रूरी है, सत्य या बच्चा?

तो जब भी आप माँ होंगी तो आपके लिए चुनाव बहुत स्पष्ट होगा, "सत्य को लगाओ आग, बच्चा किधर है मेरा? बच्चा चाहिए।" क्योंकि बिना सत्य के भी आप माँ बनी रहेंगी, कोई आक्षेप नहीं करेगा, कोई आपत्ति नहीं करेगा, कोई नहीं कहेगा कि "तुम्हारे पास न सत्य है, न मुक्ति है, न बोध है, न भक्ति है, तुम कैसी माँ हो?" माँ होने के लिए न सत्य चाहिए, न बोध चाहिए, न भक्ति चाहिए; अपनी देह चाहिए और बच्चा चाहिए। तो जब आप ये तय ही कर लें कि आप माँ हैं, तो उसके बाद विचारों की भी बहुत ज़रूरत नहीं, फिर तो निर्णय हो गया, फिर तो मामला साफ़ है; न सत्संग, न बोध, न भक्ति, बस बच्चे।

और आप ये निर्णय बिल्कुल कर सकती हैं कि आप माँ हैं। आप ये तय कर लें कि आप माँ ही हैं, तो किसी को अधिकार नहीं है आपके निर्णय को ग़लत ठहराने का। जीव को अस्तित्व में पूरी स्वतंत्रता है, वो अपने-आप को कुछ भी मान सकता है; और वो अपने-आप को जो भी कुछ मानेगा, उसके विरुद्ध कोई आपत्ति नहीं करने आएगा। बस अस्तित्व ने एक शर्त रख दी है, कि तुम अपने-आप को जो भी कुछ मानोगे, उसके तुमको अंजाम भुगतने पड़ेंगे। क्योंकि जो तुम अपने-आप को मानोगे, उसी के अनुरूप तुम्हें विचार उठेंगे, और जो तुम्हें विचार उठेंगे, उसी के अनुसार तुम कर्म कर बैठोगे, और जो तुम कर्म करोगे, उसी के अनुसार तुम्हें मिलेगा कर्मफल। तो अपने-आप को जो तुम मानना चाहते हो मानो, बस अंजाम, कर्मफल भुगत लेना।

आप अपने-आप को एक गिलहरी मानना चाहें, आप बिल्कुल मान सकती हैं; और कोई तरीक़ा नहीं है कि आपको दोषी ठहराया जा सके, क्योंकि आपको स्वतंत्रता है अपने-आप को कुछ भी मानने की। मैं आपसे कहूँ कि अपने-आप को आप गिलहरी मान सकते हैं, तो देखिए आप मुस्कुरा दिए। आपको ये बात बड़ी विचित्र लगी कि कोई अपने-आप को गिलहरी कैसे मान सकता है! जैसे आपको ये बात बड़ी विचित्र लगती है कि कोई अपने-आप को गिलहरी कैसे मान सकता है, मुझे उससे दुगनी विचित्र ये बात लगती है कि कोई अपने-आप को माँ या बाप कैसे मान सकता है।

आप मुस्कुरा देते हो ये कह कर कि "अरे! हम गिलहरी थोड़े ही हैं, हम तितली थोड़े ही हैं, हम गिरगिटान थोड़े ही हैं, हम पत्थर या पहाड़ थोड़े ही हैं।" और मैं मुस्कुरा देता हूँ जब आप अपने-आप को कभी बताते हैं कि "मैं किसी का बच्चा हूँ, किसी का बाप हूँ, किसी की माँ हूँ, किसी की पत्नी हूँ।" एक बार आप पत्नी बन गईं, उसके बाद परमात्मा को भूलिए, उसके बाद तो आपके लिए बस पति है; क्योंकि पत्नी का अस्तित्व किससे है? पति से है, पति नहीं तो पत्नी कैसी? एक बार आपने घोषित कर दिया कि आप व्यापारी हैं, तब आप सत्य को भूलिए, क्योंकि व्यापारी का अस्तित्व सत्य से नहीं है, व्यापारी का अस्तित्व व्यापार से है; अब आप अपनी दुकान पर बैठिए, छोड़िए सत्संग।

इसी तरह से कुछ भी बना लिया अपने-आप को आपने, तो उसके बाद आपको जीवन के ऊँचे शिखरों की बात करने की कोई ज़रूरत ही नहीं है; उसके बाद तो आपने जिसके संबंध में अपनी पहचान तय की है, बस उससे जुड़े रहिए, और किसी से नहीं। आप कहना शुरू कर दीजिए कि "मैं पुरुष हूँ, मैं पुरुष हूँ," उसके बाद आपको अब न ग्रंथ चाहिए न गुरु चाहिए। पुरुष की पहचान तो पौरुष से है और स्त्री से है, अब वो या तो पराक्रम और पौरुष दर्शाएगा या स्त्री से नाता बिठाएगा।

तुम कौन हो, ये बहुत सावधानी के साथ तय करना। मैंने कहा, “कोई तुम्हें रोकने नहीं आएगा जब तुम अपना नाम, अपनी पहचान तय कर रहे होगे, लेकिन अंजाम तुम्हें ज़रूर भुगतना पड़ेगा, अंजाम से नहीं बच पाओगे।“

परमात्मा का खेल सीधा है: जो करना है करो, बस भुगतने के लिए तैयार रहना।

माँ बन कर के आपको सुकून मिलता हो तो आप सब-कुछ छोड़-छाड़ कर के सिर्फ़ माँ ही बन जाएँ, क्योंकि मकसद न सत्संग है, न अध्यात्म है; मकसद सुकून है। सुकून अगर आपको मातृत्व से ही मिलता है, तो मैं कहूँगा “आप दो नहीं, बीस बच्चे पैदा करें,” क्योंकि सुकून के लिए, शांति के लिए जो भी किया जाए वही शुभ है, वही सही है।

अगर कोई स्त्री कहे कि माँ बन कर के उसको चैन मिल जाएगा, उसके भीतर की तपन शांत हो जाएगी, उसके भटकते मन को ठिकाना मिल जाएगा, तो मैं कहूँगा कि “तू बाकी सब-कुछ छोड़ दे। न तुझे ज्ञान चाहिए, न तुझे तीर्थ चाहिए, न तुझे गुरु चाहिए। तुझे तो फिर सिर्फ़ बच्चे की तरफ़ जाना चाहिए।“ माँ बनने में अगर ये ताक़त होती कि वो किसी स्त्री को पूर्णता दे देता; मातृत्व अगर किसी स्त्री को पूर्णता दे पाता तो मैं कहता, “किसी स्त्री को और कुछ करना ही नहीं चाहिए, उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ माँ बनना चाहिए और मातृत्व पर गौर करना चाहिए।“ काश कि ऐसा हो पाता, हमारे देखे तो ऐसा नहीं हो सकता।

व्यापार में ये ताक़त होती कि वो व्यापारी को समाधिस्थ कर देता तो हम व्यापारियों से कहते कि “तुम हटाओ बाकी इधर-उधर की बातें, क्या आत्मा, कौन परमात्मा? तुम व्यापार में डूब जाओ, ये व्यापार ही तुम्हें भवसागर के पार लगा देगा।“ व्यापारियों को मैं सत्संग में घुसने नहीं देता, मैं बोलता, "तुम यहाँ कर क्या रहे हो? तुम्हारा मंदिर तो दुकान है। जाओ दुकान जाओ, सीधे वहीं से समाधि लगेगी।" पर ऐसा होता देखा नहीं गया कि दुकान से समाधि लग जाए, कि व्यापार भवसागर के पार पहुँचा दे; ऐसा देखा नहीं गया।

माँ और बाप तो पशु भी बनते हैं न? और माँ बनने के बाद भी पशु तो पशु ही रह गए। कोई पशु नहीं है जो प्रजनन नहीं करता। प्रजनन से अगर जीवन में फूल खिल जाते, प्रजनन से अगर जीवन में चाँद-सितारे उतर आते, तो फिर तो बहुत आसान था, एक ही काम फिर करना है; ऐसा होता नहीं।

अपनी वास्तविक पहचान को ढूँढो, इसलिए नहीं कि तुम्हें वास्तविक पहचान ढूँढ कर के शांति मिल जाएगी; अपनी वास्तविक पहचान को ढूँढो इसलिए, क्योंकि जो तुम्हारी वास्तविक पहचान है, वही अशांत है। मैं कह ही नहीं रहा कि तुम्हारी वास्तविक पहचान ये है कि तुम आत्मा इत्यादि हो। तुम्हारी वास्तविक पहचान है कि तुम एक तड़पती हुई चेतना हो; न माँ हो, न मामा हो, न मौसा हो, ये बेकार के, इधर-उधर के नाम तुम चिपका कर घूम रहे हो, इनसे कुछ मिलना नहीं है। तुम कौन हो ये गौर-से देखो, वहीं पर तकलीफ़ है तुम्हारी, वहीं पर तुम्हारा दर्द बैठा हुआ है, जब वो बन जाओगे तो ये भी जान जाओगे कि तुम्हारी तकलीफ़ का इलाज क्या है। अगर एक शुद्ध, अतृप्त, प्यासी तड़प हो तुम, तो क्या करोगे दुकान पर बैठ कर, कि मैदान में दौड़ लगा कर, कि बच्चे पैदा करके? फिर तो तुम्हें कुछ और चाहिए न?

अपनी असली तकलीफ़ को जानो, तभी इलाज हो पाएगा।

तुम्हारी असली तकलीफ़ अगर ये होती कि तुम्हारे पास बच्चे नहीं हैं, तो फिर बच्चे पैदा करके वो तकलीफ़ चली गई होती, और जितने बच्चेदार लोग हैं, वो तकलीफ़ों से आज़ाद दिखाई देते। जब तक तुम्हारे पास बच्चे नहीं होते हैं, तब तक तुमको यही लगता है कि तुम्हारी असली तकलीफ़ यही है कि तुम्हारे पास बच्चे नहीं हैं। जिनके पास बच्चे नहीं हैं उनके पास जाकर देखो, वो कहेंगे, "और सब कुछ दिया ऊपर वाले ने, कोई कमी ही नहीं छोड़ी है, रहमत है, बरकत है। बस आँगन में किलकारियाँ नहीं दीं।" ये फ़िल्मी डायलॉग है। तुम्हारे आँगन में बताओ कितनी किलकारियाँ चाहिए, लाओ दुनिया-भर के बच्चे डाल देते हैं, तुम्हें चैन तब भी नहीं मिलना है।

बेचैनी को तुम तरीके-तरीके से छुपाते फिरते हो।

जब बच्चा नहीं था तो तुमने कह दिया कि बच्चा नहीं है इसलिए बेचैन हैं। लो आ गया बच्चा, तो कह दोगे, “एक बच्चा है इसलिए बेचैन हैं।” जब चार बच्चे हो जाएँगे तो कहोगे, “अब चार हैं इसलिए बेचैन हैं।“ चार नहीं हुए, दो ही हुए, तो कहोगे, “अब बच्चे बड़े हो रहे हैं इसलिए बेचैन हैं।“ तुम बेचैन रहने का कोई-न-कोई बहाना ढूँढ लोगे। बेचैनी की वास्तविक वजह है दूसरी, पर तुम बताओगे ये कि बेचैनी इसलिए है क्योंकि रुपया कम है, प्रतिष्ठा कम है, बच्चे कम हैं, या कोई भी और झूठी बात। ये सब झूठी बातें हैं, इन बातों से किसी को चैन नहीं मिला, बिल्कुल कभी नहीं। और मेरे कहे पर मत चलो, आज़मा कर देख लो न। जिन-जिन बातों से तुम्हें लगता हो कि तुम्हें सुकून मिल जाएगा, जाओ सबको हासिल कर लो, और हासिल करने के बाद बड़ी ठंडक पड़ जाए तो कहना, "आचार्य जी बेवकूफ़।"

जब माँ होकर के तुम्हें चैन मिलना ही नहीं है तो तुम काहे माँ बनी घूम रही हो? उस चीज़ को पकड़ो न, जिससे तुम्हारी तड़प शांत हो जाए। माँ बन गई न? बहुत चैन मिल गया? बच्चे बिल्कुल छोटे-छोटे तो होंगे नहीं, कल-परसों तो आप माँ बनी नहीं हैं। बड़े बच्चे हैं, दस-पन्द्रह साल पहले आप माँ बनी थीं। दस-पन्द्रह साल बिल्कुल समाधि में बीते हैं? क्या पा लिया मातृत्व से, बताओ तो? अपने साथ वो चीज़ जोड़ो जो तुम्हें कुछ फ़ायदा देती हो; माँ का नाम तुम्हें कोई फ़ायदा नहीं देगा।

समझ लो हर पहचान एक सिम है, एक सिम-कार्ड है, और तुम्हें बात करनी है ऊपर वाले से, ठीक है? जितनी तुम पहचानें बना लेते हो, सब क्या हैं? सिम-कार्ड हैं। तुम आज़मा लो न सबको, सबको लगा लो अपने मन के मोबाइल में, और देख लो कि कौन-सा सिम लगा कर ऊपर बात हो पाती है। माँ वाला सिम खोंस लो भीतर; और मैं तुम्हें बता रहा हूँ, सिग्नल ही नहीं है उसमें। ऊपर वाला माताओं से बात ही नहीं करता, न पिताओं से बात करता है; वो साधकों से बात करता है, वो मुमुक्षुओं से बात करता है। तुम साधना करने बैठो तो वो बात कर लेगा; साधना का सिम लगाओ, फिर उससे बात हो पाएगी, तपस्या का सिम लगाओ, फिर ऊपर बात हो पाएगी। तुम ग़लत चीज़ लेकर के फिर रही हो, उससे लाभ नहीं होना है।

ये ऐसी-सी बात है कि तुम फ्रांस जाओ और वहाँ तुम बैठ कर किताब पढ़ रही हो कि हिंदी के माध्यम से अरबी सीखें। तुम जो किताब पढ़ रही हो, जीवन-भर भी पढ़ती रहो तो भी फ्रांस में किसी से बात नहीं कर पाओगी; किताब ही ग़लत है, लेकिन उस किताब से तुम्हें बड़ा मोह है। तुम लगी हुई हो एक ऐसी चीज़ धारण करने में जिसको धारण करने से ध्यान नहीं लगने का, जिसको धारण करने से समाधि नहीं मिलने की। जैसे भारत में कोई पाकिस्तानी रुपया चलाने की कोशिश करे। भूखा मरेगा कि नहीं? परमात्मा के दरबार में ये सब नोट चलते ही नहीं, कि तुम्हारे नोट पर लिखा हुआ है ‘माँ’; ये नोट बम्बैया फ़िल्मों में चल जाता है, वहाँ नहीं चलता।

कह रही हैं कि "आज आने से पहले लग रहा था कि आऊँ कि ना आऊँ, बच्चे घर पर हैं।"

असली माँ हैं अगर आप, तो बच्चों को भी यहाँ लेकर आतीं न? असली माँ का ये थोड़े ही काम है कि “बच्चों, तुम तो घर पर ही रहो, घोसले में, और तुम्हारे मारे हम भी नहीं जाएँगे सत्संग में।“ असली माँ का काम ये है कि “हम तो जाएँगे-ही-जाएँगे, तुम दोनों को भी खींच कर ले जाएँगे।” वो फिर असली प्रेम होता, क्योंकि ठीक जैसे माँ को माँ रह कर मुक्ति नहीं मिल सकती, वैसे ही बेटे को बेटा रह कर भी मुक्ति नहीं मिल सकती। बेटे के लिए भी तो ये जानना ज़रूरी है न, कि बेटा ही ना बना रह जाए; क्योंकि जो भी इंसान दुनिया में है किसी-न-किसी का बेटा तो ज़रूर होगा। ये आवश्यक नहीं है कि हर स्त्री माँ हो, लेकिन ये तो बहुत आवश्यक है कि हर लड़का किसी-न-किसी का बेटा ज़रूर होगा। बेटा होने से मुक्ति मिल जाती तो सभी मुक्त होते। कौन बताएगा बेटों को कि बेटा रह कर काम नहीं चलेगा? घर वाले माँ-बाप तो नहीं बताएँगे, वो तो 'बेटू-बेटू' कह कर और उनको सर चढ़ाए रहेंगे।

क्यों नहीं लाईं आप उनको ऐसी जगह जहाँ उन्हें पता चलता कि उनको कैसे जीना है, कौन हैं वो, और क्या उनका धर्म है?

प्र: हाथ जोड़ कर विनती करती हूँ, डाँट-डपट भी करती हूँ, दोनों चीज़ें करके देखीं।

आचार्य: वो विनती और वो डाँट- डपट आप जानती हैं कौन कर रहा है? माँ।

इसलिए बेटे नहीं सुनेंगे, इसे आप समझ लीजिए अच्छे तरीके से। जब आत्यंतिक लाभ की बात आती है तब कोई माँ अपने बच्चों के काम नहीं आ सकती, क्योंकि माँ और बच्चे का तो संबंध ही देह का है। माँ अगर बच्चे को किसी ऐसी जगह लाना चाहेगी जहाँ देह से आगे की बात हो रही है तो बच्चे कहेंगे, "भग्ग! याद रखना, हमारा-तुम्हारा नाता ही देह का है।" इसीलिए आमतौर पर पत्नियाँ बिफर जाती हैं अगर पति सत्संग में जाएँ, और पति साथ नहीं देते अगर पत्नियाँ सत्संग में जाएँ, क्योंकि दोनों का रिश्ता देह का है। पत्नी क्यों पसंद करेगी कि पति ऐसी जगह जाए जहाँ देह से आगे की बात हो रही है? पत्नी को लगता है पति वहाँ गया तो रिश्ता ही टूट जाएगा हमारा और उसका। ठीक वही बात बाप-बेटे पर, माँ-बेटी पर और माँ-बच्चों पर लागू होती है।

ये सारे रिश्ते किसके हैं? देह के हैं। इसीलिए बच्चा अगर निकलता है अध्यात्म की ओर, तो माँ-बाप को बड़ी तकलीफ़ होती है; और अगर पति या पिता अध्यात्म की ओर निकल पड़े तो पीछे से पत्नी और बच्चे उसको दस लानतें भेजते हैं, कोई नहीं समर्थन करता। हज़ार में एक घर होगा ऐसा, जहाँ पर अगर कोई बढ़े अध्यात्म की ओर तो घर वाले उसका समर्थन करें, अन्यथा तो विरोध ही होता है; इसीलिए होता है। हालत ख़राब है घर की; बच्चों की ही नहीं, आपकी भी ख़राब है।

प्र: क्यों ख़राब है, आचार्य जी?

आचार्य: क्योंकि आप माँ हैं।

‘माँ भी' होना ठीक है; ‘माँ ही' होना ठीक नहीं है।

इस सूत्र को अच्छे से समझ लीजिए। माँ होना आपकी एक अतिरिक्त पहचान हो सकती है, एक गौण पहचान हो सकती है, एक पीछे वाली बात हो सकती है, एक पारिधिक बात हो सकती है; पहली बात नहीं हो सकती, पहली पहचान नहीं हो सकती, केंद्रीय पहचान नहीं हो सकती, प्रथम पहचान नहीं हो सकती। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आप माँ नहीं हैं, मैं आपसे कह रहा हूँ, “माँ आप बाद में हैं, पहले आप कोई और हैं।“ आपने तो बोगी को इंजन बना दिया; अब तो चल चुकी ट्रेन (रेलगाड़ी)!

पहले वाले को तो पहला ही रहने दीजिए न, सर्वप्रथम आप क्या हैं आप भूल गईं। सर्वप्रथम न आप माँ हैं, न बेटी हैं, न पत्नी हैं, न कुछ और हैं। सर्वप्रथम आप क्या हैं ये याद रखिए, उसके बाद जैसे ट्रेन में बहुत डब्बे लगे होते हैं, तमाम आपकी पुछल्ली पहचानें हैं। उसके बाद आप फलानी आयु की भी हैं, फलाने देश की भी हैं, फलाने धर्म की भी हैं, फलानी आय की हैं, उसके बाद आपके अतीत के तमाम अनुभव हैं, आपकी जाति है— पचास बातें—आपकी विचारधाराएँ हैं; वो सब आपकी पहचानें हैं, पर वो मैंने कहा पुछल्ली पहचानें हैं, पहली को भूल गए।

जब मैं कह रहा हूँ “पहले को याद रखो,” तो मेरा मतलब ये नहीं है कि खाली इंजन दौड़ा दो, डब्बे भी होंगे-ही-होंगे उसमें। पीछे वाली पहचानों को काट देने को नहीं कह रहा हूँ, कि तुम गए और इंजन से सारे बाकी डब्बे काट दिए और कहा, "अब बस हम एक अपूरित चेतना मात्र हैं, और बाकी हमारी कोई पहचान ही नहीं है।" नहीं, तुम देह भी हो। अगर देह नहीं हो तो पानी काहे पीते हो, खाना काहे खाते हो?

तुम बाकी सब चीज़ें भी हो, अतिरिक्त रूप से हो, एडिशनली हो; उसको पहली बात मत बना लो।

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