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लेख
अपनों की मौत इतना दर्द क्यों देती है? || (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अपने परिजनों की मृत्यु के साथ पीड़ा क्यों आती है?

आचार्य प्रशांत: दो बातें हैं मोटी-मोटी। पहली बात तो ये है कि जो कुछ भी अपना है वो अपनी हस्ती का, अपनी अस्मिता का अंग बन जाता है तो वो जब छिनता है तो ऐसा लगता है कि जैसे अपना ही कोई हिस्सा हमसे टूट गया हो, चिर गया हो, फट कर अलग हो गया हो। जैसे किसी अपने के गुज़र जाने से आंशिक मृत्यु हमारी भी हो गई हो। हम और होते क्या हैं? विशुद्ध होने को तो हम आमतौर पर जानते नहीं, 'मैं' को।

हम अपनी हस्ती को 'मैं' की अपेक्षा 'मेरा' के माध्यम से जानते हैं। हम अपनी हस्ती को अपने संबंधों से जानते हैं। आपसे कहा जाए, "अपने बारे में कुछ बताइए", तो आप ग़ौर करिएगा कि आप उन सब वस्तुओं, व्यक्तियों, विचारों के बारे में बताएँगे जिनका आपसे संबंध है। आपसे कहा जाए, "नहीं किसी व्यक्ति का नाम लिए बिना, किसी वस्तु का उपयोग किए बिना अपने बारे में कुछ बताइए", तो बहुत कठिनाई हो जाएगी।

आप शुरू करेंगे, आप कहेंगे “मैं वहाँ का रहने वाला हूँ।” टोक दिया जाएगा कि, "नहीं, किसी जगह का नाम लिए बिना अपने बारे में बताइए।" तो फिर आप कहेंगे, “ये जो दिख रहा है ये मेरा घर है।”

"न न न! किसी जगह का नाम लिए बिना अपने बारे में बताइए।"

“ये जो तस्वीर है ये मेरी है।”

"न न न! किसी वस्तु, चित्र, दृश्य का इस्तेमाल किए बिना अपने बारे में बताइए।"

“वो मेरा भाई है।”

"न न न! किसी व्यक्ति का नाम लिए बग़ैर अपने बारे में बताइए।"

“मैंने इतनी शिक्षा हासिल करी है।”

"नहीं नहीं, किसी उपलब्धि का नाम लिए बिना अपने बारे में बताइए।"

“मैं इस धर्म का हूँ, ऐसी-ऐसी मेरी मान्यताएँ हैं।”

"नहीं नहीं नहीं! इन सबका प्रयोग किए बिना अपने बारे में बताइए।"

दिक्कत हो जाएगी नहीं बता पाएँगे और ये जितनी चीज़ें हैं ये सब ऐसी ही हैं जो कभी-न-कभी छिन सकती हैं।

तो मैं क्या हूँ अपनी नज़र में? मैं उन सब लोगों का, घटनाओं का, स्मृतियों का, जगहों का, चीज़ों का एक सम्मिलन हूँ जिनसे मेरा नाता है, संबंध है। एक बहुत बड़ी टोकरी में वो सब चीज़ें रखी जा सकती हैं जिनसे मेरा संबंध है, तो मैं वो टोकरी हूँ। मुझे जब भी अपने बारे में कुछ बताना है मैं क्या करता हूँ? मैं उस टोकरी का सहारा लेता हूँ। उस टोकरी का सहारा ना लूँ तो मैं कुछ हूँ ही नहीं।

मैं अपने बारे में एक शब्द ना बोल पाऊँ अगर मैं उस टोकरी का सहारा ना लूँ तो। तो मैं क्या हूँ? मैं उस टोकरी की सामग्री हूँ। अब उस टोकरी में से एक चीज़ गायब हो गई, तो टोकरी में से कोई चीज़ गायब हुई है या मेरी हस्ती में से ही गायब हो गई है? उस टोकरी में से किसी की मृत्यु नहीं हुई मेरी ही मृत्यु हो गई क्योंकि मैंने अपने-आपको उस टोकरी के अतिरिक्त और कभी कुछ जाना ही नहीं। जीवन भर फिर मैं कोशिश करूँगा उस टोकरी को बचाने की और बढ़ाने की।

आम जीवन ऐसा ही होता है। बचाओ और बढ़ाओ, बचाओ और बढ़ाओ। लेकिन कितना भी बचाओ, कितना भी बढ़ाओ काल का नियम है कि वो टोकरी में अगर कुछ जोड़ता है तो टोकरी से कुछ घटाता भी है और जितनी बार वो घटाएगा उतनी बार हमारा ही एक हिस्सा टूट जाएगा।

परिजन की मृत्यु नहीं होती, हमारी मृत्यु हो जाती है और अगर किसी तरीके से ऐसा हो जाए कि उस टोकरी में जितनी सामग्री थी वो सब एकसाथ विलुप्त हो जाए तो हम पूरे ही मर जाएँगे। ये हुआ बात को बताने का एक तरीका।

प्रियजनों से संबंध हो, चाहे किसी और से, जीवित व्यक्ति से हो, चाहे किसी वस्तु से, हर संबंध में संभावना होती है पूर्णता की। हर संबंध में ये संभावना होती है कि वो सामने वाले व्यक्ति और हमारी दोनों की मुक्ति का, आनंद का कारण बन जाए। वो संभावना सबसे ज़्यादा सबल होती है उन संबंधों में जिनको हम कहते हैं निकट के संबंध। क्यों ज़्यादा सबल होती है? क्योंकि उन्हीं के साथ ज़्यादा समय बिताते हैं, उन्हीं के बारे में ज़्यादा विचार करते हैं। जिसके साथ आपने बहुत समय बिताया, बहुत साथ-साथ रहे उसी के साथ अधिकतम संभावना थी कि आप अपने संबंधों को अतल प्रेम की गहराई दे पाते और बोध की ऊँचाई दे पाते। वहीं पर साधना हो सकती थी, वहीं पर एक दूसरे का हाथ पकड़ कर एक लंबी यात्रा हो सकती थी, क्योंकि साथ भी उपलब्ध था और समय भी।

जिनका साथ भी उपलब्ध हो और जिनके साथ समय भी उपलब्ध हो उन्हीं को तो हम अपना प्रियजन कहते हैं न? इनके साथ बीस साल गुज़ारे, उनके साथ चालीस साल गुज़ारे तो बड़ी संभावना थी, बहुत कुछ था जो हो सकता था। इतना समय मिला, इतनी दूर का और इतनी देर तक का अवसर था। और करा क्या उस अवसर का? कुछ खास नहीं। मौका चूकते गए, दिन आते गए गुज़रते गए, हमको यही लगता रहा कि जीवन तो जैसे अनंत है और ये शरीर अमर है। न जाने कितनी ऊँचाइयाँ छू सकता था वो रिश्ता, उसे छूने ही नहीं दिया। सब व्यर्थ चीज़ों में समय बर्बाद कर दिया। बस एक औसत स्तर का रिश्ता रखा।

और अब जब वो व्यक्ति नहीं है सामने तब बस हाथ में पछतावा है, आँख में आँसू हैं। रिश्ते को ठीक से जिया ही नहीं, सब छोटी-छोटी बातों में, छोटी-छोटी सीमाओं में बंध कर, अटक कर रह गए। तेरा ये-मेरा ये। और उसको नाम दे दिया कि ऐसा ही तो होता है एक साधारण सामान्य रिश्ता। फिर जब वो व्यक्ति नहीं रहता तो ये गँवाया हुआ मौका याद आता है। तब पछतावा होता है, मन पूछता है — वो दिन जो वैसे बिताया था क्या किसी और तरीके से नहीं बिताया जा सकता था?

आप सब भी अभी बीते हुए ही कुछ दिनों को याद करिए क्योंकि यही दिन अभी स्मृति में ताजे होंगे। आपमें से कई लोगों ने ये सब दिन अपने मित्रों के साथ, निकट संबंधियों के साथ, परिवारजनों के साथ, प्रेमीजनों के साथ बिताए होंगे। पूछिए अपने आपसे इमानदारी से — वो दिन जो वैसे बिताया क्या बेहतर नहीं बिताया जा सकता था? बहुत कुछ बाकी रह गया न? बड़ी अपूर्णता छोड़ दी न? किसके भरोसे? कि आज जो बाकी रह गया है बाकी रह जाने दो, कल पूरा कर लेंगे। कल तो काल है, वो आता नहीं है, खाता है। और हमारी आशा यही रह जाती है कि कल आएगा। कल आएगा कहते रह जाते हैं, काल खा जाता है।

सबसे ज़्यादा अन्याय ही हम जो हमारे सबसे निकट के लोग होते हैं उनके साथ करते हैं। कहने को हम उनसे प्रेम करते हैं पर जितना अन्याय, अत्याचार, दुर्व्यवहार हम अपने समीपस्थ लोगों से करते हैं उतना किसी और से नहीं और कुल कारण क्या? कि “ये तो अपने हैं ये जाएँगे कहाँ? ये कहीं नहीं जाने का।" अरे वो कहीं नहीं जाने का पर भैंसा वाला तो आने का। वो अपनी मर्ज़ी से जाए ना जाए, भैंसे वाला तो उठा ही ले जाएगा न? और तुम किस फेर में बैठे हो? कि तुमने अपना जो ये बच्चों वाला गुड़िया घर सजा रखा है काल इसे ऐसे ही साबुत, अनछुआ छोड़ देगा? अरे हटो। वो अभी आएगा सब तोड़-फोड़ कर देगा। सब तुम्हारे खिलौने उठा ले जाने हैं उसने। उससे पहले जितना खेल सकते हो, खेल लो। अपने दिनों को व्यर्थ मत जाने दो।

अच्छा एक बात बताइएगा — कोई भी ऐसा होता है जिसे मौत सहज लगती हो? आपको कोई जानलेवा बीमारी हो गई हो, डॉक्टर ने पहले ही सूचित कर रखा हो कि एक महीना या तीन महीना, लेकिन फिर भी जिस दिन मृत्यु होती है उस दिन झटका लग जाता है न या नहीं? अच्छे से पता है कि यही हफ्ता है आख़िरी फिर भी जिस पल आँखें मूँदेंगी उस पल चौंक जाओगे, बड़ी चोट लगेगी; क्योंकि हममें से कोई भी, कभी मृत्यु के लिए पूरी तरह तैयार होता नहीं। हम इसी उम्मीद में बैठे होते हैं कि अभी तो मामला चलेगा, गाड़ी रुकने वाली नहीं है। अगर हम पूरी तरीके से तैयार ही होते मौत के लिए तो मौत पर हमें चोट क्यों लगती?

हम हमेशा कल की ही आस लगाए बैठे रहते हैं कि कभी कल आएगा और अगर कल आएगा तो फिर हमें छूट मिल जाती है कि आज को अधूरा छोड़ दो। क्योंकि अभी तो कल आएगा। कल आएगा तो आज को अधूरा छोड़ दो, लड़ लो, सर फोड़ दो, तनातनी रखो कल आएगा।

जिस दिन पहली बार सूरज की किरण गिरी थी इस पृथ्वी पर तब से लेकर आज तक एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसके इन कलों की श्रृंखला कभी-न-कभी रुक ना गई हो। और वो यही माने बैठा था कि कल तो आएगा और फिर जब भैंसे वाला उड़ा ले जाता है तो हम पीछे से पछताते हैं, कहते हैं “अरे, ये चीज़ बनाई थी उसके लिए, दे ही नहीं पाए। क्या-क्या कहना था उससे कह ही नहीं पाए।” नहीं ऐसा नहीं है कि आपने उससे कुछ नहीं कहा। जितनी अभद्र बातें बोली जा सकती थीं, जितनी मूर्खतापूर्ण और व्यर्थ बातें बोली जा सकती थीं वो तो सब बिलकुल लगे हाथ बोलीं। उसमें कोई कोताही नहीं करी। लेकिन जो कुछ भी सार का था उसको दबाए-छुपाए बैठे रहे, कल पर टालते रहे, कल आएगा सब शुभ काम कल करेंगे। इसलिए फिर जब मौत आती है तो पीछे से हमें रोता पछताता छोड़ जाती है। फिर हम कहते हैं, "एक दिन और दे दिया होता तो सब बातें कर लेते, एक दिन और दे दिया होता तो सारा प्रेम उड़ेल देते।" क्यों? जो ये हज़ारों दिन मिले थे तब क्या सो रहे थे? जो हज़ारों दिन मिले थे उनका सदुपयोग क्यों नहीं करा? अब क्यों कहते हो कि, "काश कुछ दिन और मिल जाते इनके साथ।"

हमारा कुल एक धंधा है इंसान बनकर पैदा होने के बाद, क्या? समय बर्बाद करो। ना जीवन में कोई सार्थकता रखो, ना रिश्तों में सच्चाई रखो, ना जीवन में प्रेम रखो, जितना कूड़ा-कचरा है उससे ज़िंदगी को भरे रहो, विषैला किए रहो, और फिर जब खेल खत्म हो जाए तो हाथ मलो और सर धुनों। इससे ज़्यादा हैरत की बात क्या हो सकती है कि जिसको हम ज़िंदगी बोलते हैं वह वास्तव में लगातार मौत का ही खेल है।

अगर थोड़ी भी ईमानदारी हो हममें और अपने चारों ओर देखें तो लगातार कुछ-न-कुछ खत्म हो रहा है। और ये बात हम जानते भी हैं। मैं कैसे कह सकता हूँ? क्योंकि हमें ये तो दिखाई देता है न कि कुछ लगातार शुरू हो रहा है। जब हमें इतनी चीज़ें नई-नई जन्म लेती, माने शुरू होती दिखाई देती हैं तो निश्चित रूप से हमें ये भी दिखाई देता होगा कि बहुत कुछ है जो लगातार खत्म हो रहा है। इतने सबूत चारों तरफ हैं, नए-नए रोज़ उभर-उभर कर सामने आते हैं उसके बाद भी हम अपने-आपको कैसे धोखे में रख लेते हैं? हम कैसे ये मानते चलते हैं कि समय अनंत है, अवसर अनंत है? यहाँ तो टिक-टिक-टिक-टिक चल ही रही है, कोई भी पल कैसे गँवा सकते हो जब ये पता नहीं कि कौन सा पल आख़िरी होगा? भूलना नहीं अपने आपमें हर पल आख़िरी है।

रिश्तों में गहराई लाइए, नहीं तो बस पछताएँगे मौत के बाद भी और मौत से पहले भी। और रिश्ते में अगर गहराई है तो यकीन रखिए फिर शारीरिक मृत्यु बहुत दुखदाई नहीं होगी। क्योंकि संबंध अपनी पूर्णता हासिल कर चुका। वो आपको और आपसे संबंधित व्यक्ति दोनों को बदल चुका, दोनों को एक बड़ी अपूर्व ऊँचाई दे चुका। कोई ऐसी कसर, कोई ऐसी खोट आपने छोड़ी नहीं कि अब बाद में पछताना पड़े।

उसके बाद आप मृत्यु का कसैलेपन से नहीं सहजता से स्वीकार कर पाएँगे। आप फिर कह पाएँगे कि, "जो असली चीज़ है वो कहीं नहीं गई। वो मैंने और इन्होंने साझे तौर पर पाली, वो रहेगी।" लेकिन उसके लिए फिर रिश्ता ऐसा रखिए जो शरीर के पार का हो। रिश्ता ही अगर शरीर केंद्रित है तो फिर तो शरीर गया तो सब कुछ गया। संबंध में एक ऊँचाई होनी चाहिए। शरीर केंद्रित रिश्ता जितना कम हो उतना अच्छा।

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