आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
अंग्रेज़ी भौंकने वाले गँवार || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
16 मिनट
39 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमस्ते। आचार्य जी, मैं व्यवसाय से एक शिक्षिका हूँ। जब मैं बच्चों को, छात्र-छात्राओं को पढ़ाती हूँ तो कई बार उनके माता-पिता से मुझे बात करनी पड़ती है उन्हीं की पढ़ाई को लेकर। मैं बहुत दिनों से और बहुत सालों से ये चीज़ गौर कर रही हूँ कि उनके माता-पिता मेरे पास आते हैं तो वो अंग्रेज़ी में मुझसे बात करते हैं। तो ये मैं आसपास इतना माहौल देख रही हूँ, उनके लिए स्टेटस सिम्बल (प्रतिष्ठा का प्रतीक) बन गया है कि अगर हम अपर मिडिल क्लास (उच्च मध्यम वर्ग) लोग हैं तो अंग्रेज़ी में बात करेंगे तो हमें सम्मान मिलेगा।

ये जो आसपास भी ऐसी छोटी-छोटी बातें लोग बोलते हैं न, मेरा हसबैंड ये करता है या मेरी वाइफ़ ये करती है। इसकी जगह आप पति बोल दो या पत्नी बोल दो। रिश्तों के नाम भी इन्होंने बदल दिये हैं। तो इतना दुख होता है न कि आप पूरी भाषा ही बदल दो न, इतना मिश्रण क्यों कर रहे हो? तो ये तो मेरा पहला प्रश्न जो भाषा को लेकर है।

मेरी बहन भी कहती है कि मैं स्कूल में जाती हूँ पीटीएम (पैरेंट टीचर मीटिंग) में, तो अगर उनकी टीचर (शिक्षक) से मुझे बात करनी है तो मुझे अंग्रेज़ी में करनी पड़ती है। मैं अगर अंग्रेज़ी में नहीं करुँगी तो वो मुझे इतना महत्व नहीं देंगी। तो उनकी दुविधा में उनको मैं क्या समझाऊँ? मतलब ये पूरा समाज ही विकृत हो चुका है। और मैं अपने व्यवसाय में भी दुखी हूँ। ये माता-पिताओं को कौन समझाये, कौन शिक्षित करे?

आचार्य प्रशांत: देखिए, बात थोड़ी दूसरी हो सकती है। मैं आपसे अभी हिन्दी में बोल रहा हूँ तो क्या आप समझ नहीं रहे? मैं चाहता तो मैं अंग्रेज़ी में बोल सकता था, लेकिन हम बेवफ़ा लोग हैं। भाषा तो उतनी ही दूर तक जाएगी न जितनी दूर तक उसे बोलने वाले लोग उसे ले जाना चाहेंगे।

हम सब अपनी लोरियाँ हिन्दी में ही सुनते हैं। कोई है यहाँ पर जिसने अंग्रेज़ी में लोरियाँ सुनी थीं? कौन है यहाँ पर जिसने दादी से कहानियाँ अंग्रेज़ी में सुनी थीं? ठीक? लेकिन जैसे जब आप बड़े होने लगते हो तो दादी को त्याग देते हो — देखा है, लड़का छः-सात साल का हो जाता है उसके बाद दादी की दवाई लाने का भी उसको वक़्त नहीं रहता, वो खेलने निकल गया है। यही जब वो दो साल, चार साल का था तो 'दादी-दादी-दादी', दादी से ही चिपका हुआ है, दादी खिला रही है, नहला रही है, कहानी सुना रही है। और बड़ा हुआ तो तब तक दादी और बीमार रहने लग गयी, उसे दादी से कोई मतलब नहीं। हिन्दी वैसी ही है हमारे लिए। शुरुआत वहीं से करते हो, आगे जाकर उसको त्याग देते हो।

क्यों त्याग देते हो? नहीं त्यागोगे तो उसमें काम-धाम, व्यवहार, चलता रहेगा। जब आप उसमें व्यवहार कर ही नहीं रहे तो भाषा कहाँ से आगे बढ़ जाएगी? भाई, भाषा तो उन्हीं लोगों के हाथ में होती है जो उसका प्रयोग करते हैं। प्रयोग करोगे, भाषा बढ़ जाएगी; प्रयोग नहीं करोगे, भाषा नहीं बढ़ेगी।

आप प्रयोग नहीं करते, आपने हिन्दी छोड़ किन लोगों के हाथ में दी है? आप इंटरनेट पर जाइए, आप देखिए कि हिन्दी में जो वहाँ पर कंटेंट (सामग्री) है — गाने वगैरह हटा दो, गानों के अलावा — वो अधिकतर क्या है? अंग्रेज़ी और हिन्दी के कंटेंट की गुणवत्ता में ही बहुत अंतर होता है। विचार और चेतना के तल पर ऊँचे स्तर की सामग्री सब आपको अंग्रेज़ी में मिलेगी। और हिन्दी हमने छोड़ दी है गाली-गलौज करने वालों के हाथों में, रोस्टर्स के हाथों में; वो सब हिन्दी में बनाते हैं।

जितने आपको फ़ज़ीहत के, ज़लील काम करने हों, वो सब हिन्दी में हो रहे हैं। और जैसे ही कोई इस लायक़ होता है कि वो कोई अच्छा, ऊँचा काम कर सके, वो हिन्दी को छोड़कर के काम अंग्रेज़ी में करना शुरू कर देता है। एक हिन्दीभाषी आदमी जब किसी स्तर पर पहुँच जाता है, तो कहता है कि अब मैं हिन्दी में काम नहीं करूँगा, अब अंग्रेज़ी में करूँगा। तो हिन्दी हमने किनको दे दी है?

हिन्दी हमने उनको दे दी है जो समाज के सबसे निचले स्तर के लोग हैं। अब वो हिन्दी पकड़कर बैठे हुए हैं, हिन्दी पर उनका वर्चस्व है। हिन्दी में नित-नूतन गालियाँ ईजाद होती हैं। अंग्रेज़ी में टेक्नोलॉजी (तकनीक) सम्बन्धित नये-नये शब्द रोज़ जुड़ते हैं और हिन्दी में गालियों के नये-नये शब्द रोज़ जुड़ते हैं।

तो फिर जो नयी पीढ़ी है वो हिन्दी से और दूर होती जाती है।

मूल समस्या बेवफ़ाई है, प्रेम नहीं है हममें। जो भाषा आपको बचपन से जवानी तक लेकर के आयी, आप उसको फिर जवानी में त्याग क्यों देते हो? क्या वजह है? लेकर आगे क्यों नहीं बढ़ते?

मुझसे सौ बार लोगों ने कहा कि इस देश में जो भी ढंग के लोग हैं, जो भी एक स्तर के लोग हैं, जो भी ताक़तवर लोग हैं, वो सब इंग्लिश स्पीकिंग (अंग्रेज़ी-भाषी) हो चुके हैं, तो आप हिन्दी में क्यों बोल रहे हैं? हिन्दी में बोलकर के तो आज जो समाज का निचला तबक़ा है बस उसी को आकर्षित कर लेंगे। मैंने कहा, करूँगा जिसको करूँगा, बोलना हिन्दी में ही है। हाँ, कोई अंग्रेज़ी में बात करने लग जाएगा तो अंग्रेज़ी में जवाब दे दूँगा, पर अपनी ओर से हिन्दी में ही बात करनी है।

वो बोले — आपका काम आगे बढ़ेगा ही नहीं, क्योंकि हिन्दी तो यही सब बेचारे जो दलित, दमित वर्ग हैं, सब्ज़ीवाले, ठेलेवाले, रिक्शेवाले, इन्हीं बेचारों की भाषा है। ये ही हैं जो हिन्दी का कंटेंट कॉनज्यूम (सामग्री का उपभोग) करते हैं। बाक़ी तो जो भी व्यक्ति अपनेआप को किसी श्रेणी का कहने लगता है, उच्च वर्ग का, इलीट कहने लगता है, वो तो सिर्फ़ और सिर्फ़ अंग्रेज़ी में ही पढ़ता है और व्यवहार करता है अंग्रेज़ी में। तो आप अपने साथ ठीक नहीं कर रहे हैं, आचार्य जी, ये जो आप अपना सारा काम-काज हिन्दी में बढ़ा रहे हैं। आपकी अधिकांश किताबें हिन्दी में हैं, ये आप अपने मिशन के साथ ठीक नहीं कर रहे हैं।’

मैंने कहा, मुझे भरोसा है, जो कर रहा हूँ उससे ठीक ही होगा। क्योंकि इस देश के अस्सी-नब्बे प्रतिशत लोग हिन्दी समझते हैं। अगर वो हिन्दी के गाने गुनगुना सकते हैं, तो हिन्दी में मैं जो बोल रहा हूँ वो बात भी समझ सकते हैं।

बहुत लोग हैं जिन्हें हिन्दी पढ़नी-लिखनी नहीं आती, दक्षिण में, लेकिन सुनकर वो भी समझते हैं। और बात निष्ठा की है, बात वफ़ादारी की है। मेरे पास कोई कारण नहीं है कि जिस भाषा ने मुझे मानसिक तल पर पोषण देकर के बड़ा करा, मैं बड़ा होने के बाद उस भाषा को त्याग दूँ। ऐसे नहीं करते।

मज़ेदार बात ये है कि ज़्यादातर ये जो अंग्रेज़ी परस्त लोग होते हैं, इन्हें अंग्रेज़ी लिखनी-बोलनी भी नहीं आती। इनकी अंग्रेज़ी एक चुटकुले की तरह होती है, पर बोलते धड़ल्ले से हैं। आप इनसे दो वाक्य लिखवा दीजिए, एक पैराग्राफ़ (अनुच्छेद) लिखवा दीजिए अंग्रेज़ी में, शुद्ध नहीं लिख पाएँगे। पर बोले जा रहे हैं, बोले जा रहे हैं। मेरे लिए ये बड़े अचरज, आश्चर्य की बात होती है, इतना आत्मविश्वास आ कहाँ से जाता है! न शब्दकोष है, न व्याकरण का ज्ञान है, न उच्चारण शुद्ध है पर बोले अंग्रेज़ी जा रहे हैं। क्यों बोल रहे हो?

वैसे ही बोले रहे हैं न, जैसे वो कहते हैं, 'हे हे हे, अपवार्ड मोबिलिटी (ऊँचे उठने) के लिए ये सब करना पड़ता है।'

एक कहानी है, लेखक का नाम नहीं याद आ रहा है। आप लोग देखिएगा, शायद 'माँ' है उसका नाम। कहानी कुछ इस तरह से है कि एक सज्जन हैं, उनके घर पर उनके बॉस आने वाले हैं, और घर में रहती है बूढ़ी माँ। हाँ, शीर्षक है ‘ चीफ़ की दावत’। तो चीफ़ आने वाले हैं घर में और घर में बूढ़ी माँ रहती है। पूरी कहानी इस विषय में है कि किस तरह से माँ को छुपाया जाता है एक कमरे में कि चीफ़ कहीं देख न लें। वही हमारा हाल है। बूढ़ी माँ जानते हो न कौन है? कौन है? ये हिन्दी है। पर चीफ़ आनेवाले हैं न!

चीफ़ कौन हैं? जो आपको जगमग भविष्य चाहिए, उसका नाम चीफ़ है। जिस एमएनसी में आपको नौकरी चाहिए उसका नाम चीफ़ है, जो आकर्षक व्यक्तित्व वाला पुरुष या स्त्री आपके जीवन में आ रहा है नया, उसका नाम चीफ़ है। ये सब अब नये-नये घर में आ रहे हैं तो बूढ़ी माँ को पीछे छुपाना पड़ता है कि चीफ़ ने कहीं इसको देख लिया तो रंग में भंग पड़ जाएगा।

और पूरी कहानी यही है, वो छुपी हुई है और कमरा बन्द कर दिया है, उसको कोने में बिठा दिया है। बोल दिया है कि सामने भी पड़ जाओ तो कुछ बोल मत देना। हालाँकि वो सामने पड़ जाती है, चीफ़ को मज़ा भी बहुत आता है। पर वो अलग मुद्दा है।

हमारा ऐसा ही है, बूढ़ी माँ को छुपाना बहुत ज़रूरी है। और मैं ये सिद्ध करना चाहता हूँ कि छुपाना ज़रूरी नहीं है। बात आदर्श की नहीं है, बात व्यावहारिकता की भी है, कोई नुक़सान नहीं हो जाएगा। मैं प्रमाणित करके दिखा दूँगा कि हिन्दी पर चलकर भी भौतिक सफलता भी पायी जा सकती है।

आप सब यहाँ बैठे हुए हैं, आपको मेरी अंग्रेज़ी ने यहाँ नहीं बुलाया है, आपको मेरी हिन्दी ही यहाँ लेकर के आयी है। लेकर के आयी है न? हम देखना चाहते हैं कि एक दिन पूरा हिन्दुस्तान भी यहाँ आता है कि नहीं आता है और वो काम हिन्दी ही करके दिखाएगी। और फिर पीछे चलने वाले सब आ जाएँगे। जनता है ही ऐसी, एक सफल हो जाए तो फिर पीछे-पीछे अनुकरण करना शुरू कर देती है। फिर हिन्दी भी फैशनेबल हो जाएगी।

अंग्रेज़ी को भी अंग्रेज़ी बोलने वालों ने ऊपर चढ़ाया है न। ऐसे कहते हैं, 'अरे! वो देखो, कपूर साहब अंग्रेज़ी बोलते हैं। कपूर साहब, कपूर साहब!' अब कपूर साहब अंग्रेज़ी बोलते हैं तो पाँच-दस और पिछलग्गू लग लिए पीछे-पीछे कि हम भी बोलेंगे क्योंकि कपूर साहब बोलते हैं।

तो भाषा तो उतनी ही सशक्त हो पाएगी जितने शक्तिशाली उसको बोलने वाले लोग हैं। जब शक्तिशाली लोग किसी भाषा को अपनाये रहेंगे, सम्मानित करे रहेंगे, तो उस भाषा का भी सम्मान बचा रहेगा। हिन्दी नहीं पीछे हट गयी है, हिन्दी बोलने वाले सब कायर हैं। इनको अपनी हस्ती पर ही शंका होनी शुरू हो जाती है जब सामने कोई अंग्रेज़ी बोल देता है। हिम्मत ही नहीं होती कि सामने कोई अंग्रेज़ी बोले तो उसे हिन्दी में जवाब दे दें।

और ये बीमारी अब छोटे-छोटे कस्बों और गाँव में भी पहुँच रही है। इतनी हास्यास्पद स्थिति हो जाती है, आप कहीं जा रहे हों, बीच में कोई कस्बा पड़ा, आप रास्ता पूछ लें। वो बताएगा, ‘दैट राइट, दिस लेफ्ट।’ (वो दायें, ये बायें) और उसको लगता है गाड़ी में बैठे हैं, इनसे तो अंग्रेज़ी में ही बोलना होता है न। तो वो बेचारा अपने ठेले से आएगा और उनको अंग्रेज़ी में रास्ता बता रहा है। यहाँ हमने जीपीएस भी देवनागरी में लगा रखा है, तुम बता रहे हो कि तुम अंग्रेज़ी बोलोगे। ऐसी क्या हीनभावना है भाई! क्या? क्या साबित करना चाहते हो?

और अंग्रेज़ी तक ही नहीं सीमित है, अब नयी चीज़ है एक्सेंट (उच्चारण का तरीक़ा)। अब एक्सेंट बहुत सारे हो सकते हैं और किसी ने नहीं कहा है कि दुनियाभर में इतने जो एक्सेंट चलते हैं उनमें से कोई एक्सेंट, कोई एक विशेष एक्सेंट ही असली है, बाक़ी नकली हैं। आप एक न्यूट्रल एक्सेंट (साधारण उच्चारण) भी रख सकते हो, कोई पाबन्दी नहीं है।

अब होने को तो अफ्रीकन एक्सेंट भी होता है, लेकिन आपको ब्रिटिश एक्सेंट रखना है या अमेरिकन एक्सेंट रखना है। आपको दिख नहीं रहा है ये आतंरिक ग़ुलामी की बात है? आपके भीतर वास्तव में कोई स्वाभिमान नहीं है? हम इतने बिके हुए, इतने गिरे हुए लोग हैं? और जिसमें हीन-भावना जितनी होती है, जिसमें असुरक्षा जितनी होती है और जिसको प्रदर्शनप्रियता जितनी चाहिए, वो उतना ज़्यादा भागता है अंग्रेज़ी की ओर।

मैं देख रहा हूँ कि नयी पौध में लड़कियाँ ज़्यादा अंग्रेज़ी की ओर भागती हैं। लड़के तो फिर भी आपस में हिन्दी में बात कर लेंगे। लड़की मिल जाए कोई, वहाँ सब इंग्लिश ऑनर्स हैं। आती नहीं है अंग्रेज़ी! हमारी किताबें होती हैं, इनका ट्रांसक्रिप्शन (प्रतिलेखन) कराने में छक्के छूट जाते हैं। मैंने जो बोला है अंग्रेज़ी में, उसको लिखना होता है, उसकी ट्रांसक्रिप्ट (प्रतिलेख) बनानी होती है, वो जो लिखकर आती है तो मैं पगला जाता हूँ। क्या बोला है और क्या लिख रहे हो! क्योंकि उनको शब्द और शब्द में अंतर नहीं पता। इंग्लिश ऑनर्स!

ये अगर अंग्रेज़ी किताबों में आपको अशुद्धियाँ मिलें तो वो सब वो अंग्रेज़ी ऑनर्स का काम है। मैं ऑब्वर्स (अग्र) बोल दूँ, हो ही नहीं सकता कि उसको ऑब्ज़र्व (अवलोकन करना) न लिख दें ये। क्योंकि उन्हें पता ही नहीं है कि ऑब्वर्स जैसा कुछ होता है। मैं एपेज़ेट (उचित) बोल दूँ, उसको ऑपोज़िट (विपरीत) न लिख दें, हो ही नहीं सकता। उन्होंने एपेज़ेट सुना ही नहीं है। और अगर दो शब्द ऐसे हों जिनका उच्चारण एक सा है, तब तो असंभव है कि वो पढ़ कर समझ जाएँ कि क्या बोला होगा। कुछ भी उल्टा-पुल्टा लिख देंगे, वो छप रहा है। मैं डर जाता हूँ अपनी ही किताबें पढ़ने से कि पता नहीं क्या लिख दिया होगा इसमें।

सब मरे जा रहे हैं कि किसी तरीक़े से मेटीरियल कंज़म्प्शन (पदार्थों का उपभोग) करने को मिले, और कुछ नहीं है। भोगना है, और भोगने का सम्बन्ध इन्होंने लगा लिया है एक भाषा से। इन्हें लगता है जो अंग्रेज़ी बोलता है वो भोगता है और हमें भी मज़े मारने हैं, हमें भी भोगना है। अंग्रेज़ी जो बोलता है वही भोगता है तो हम भी अंग्रेज़ी बोलेंगे तो हम भी भोग लेंगे। ये न जाने कहाँ से इन्होंने ये तुक जोड़ दिया है! ये कनेक्शन (जोड़) बैठाया कैसे, राम जाने! ये शॉर्ट सर्किट है, नहीं चलेगा।

अधिकांश काम जो अर्थव्यवस्था में हो रहे हैं, उसमें वाक़ई आपको कोई भाषाई श्रेष्ठता चाहिए ही नहीं। भाषा में आपकी कामचलाऊ निपुणता हो तो काम चल जाएगा। लेकिन फिर भी ये अफ़वाह फैला दी गयी है कि अगर आपको अंग्रेज़ी आती है तो ही आप एम्प्लोएबल (रोज़गार के लायक़) हो पाओगे। आप अगर थोड़ी सी भी अर्थव्यवस्था की समझ रखते हो तो देखना, ज़्यादातर जो नौकरियाँ होती हैं उसमें अंग्रेज़ी की ज़रूरत है कहाँ! है क्या? तो ये अफ़वाह किस तरह की है कि अंग्रेज़ी के बिना रोज़गार नहीं मिलेगा, वगैरह-वगैरह? ये क्या है पागलपन!

और मैं नहीं कह रहा कि अंग्रेज़ी हमें आनी ही नहीं चाहिए, बेशक आनी चाहिए। सीख लो, सिर पर क्यों चढ़ा रहे हो? अंग्रेज़ी सीखना एक बात है, अंग्रेज़ बन जाना बिलकुल दूसरी बात है न! अंग्रेज़ी एक भाषा नहीं है, अंग्रेज़ी एक संस्कृति है। अगर इन्होंने अंग्रेज़ी भाषा सीखी होती तो मैं पूछता शेली का कुछ बता दो, मिल्टन का कुछ बता दो, कीट्स बता दो, शेक्सपियर बता दो। इन्हें कुछ तो पता होता क्योंकि भाषा तो आदमी भाषा के साहित्य के लिए सीखता है।

इन्होंने एक संस्कृति उधार ली है, एक कल्चर अडॉप्ट किया है। और वो बहुत बेहूदा कल्चर है — 'यू नो, लाइक लाइक, ब्रो ब्रो, यू नो'। आधे घंटे वो बोलेगा और उसमें से ब्रो और लाइक हटा दो तो तीस सेकंड बचेंगे। ये ब्रो क्या है? ये ऐसी सी बात है कि मैं अपने भाई को 'भा' बोलूँ, ‘भा’, कैसा लगेगा? अब ‘भा’ बोलूँ तो भद्दा लगता है तो ब्रो अच्छा कैसे हो गया?

प्र: आचार्य जी, मुझे भी ‘दी’ बोलते हैं, दीदी नहीं बोलते हैं वो!

आचार्य: फूफा को ‘फू’। (सब ज़ोर से हँसते हैं )

आतंरिक खोखलापन हमें किसी भी हद तक गिरा सकता है, कुछ भी करा सकता है। जाएँगे वहाँ वो वेटर खड़ा हुआ है बेचारा — कोई भी होगा, वो साधारण सा रेस्टोरेंट है — क्यों उसको अंग्रेज़ी में बोल रहे हो? उसकी शक्ल देखो बेचारे की, तुम्हें लगता है वाक़ई वो अंग्रेज़ी में इतना दक्ष है? उसकी जान ख़राब कर रहे हो। और अंग्रेज़ी भी कैसी! आइ हैव गिवेन एन ऑर्डर। ये ’आइ हैव गिवेन एन ऑर्डर’ कौनसी अंग्रेज़ी होती है?

क्यों? क्योंकि हिन्दी में कहते हैं न ‘मैंने ऑर्डर दिया है’, तो अंग्रेज़ी में भी उसके मुँह पर ’आइ हैव गिवेन एन ऑर्डर’। ये अंग्रेज़ी है! और वो भी वहाँ पर, 'यस मैम, यस मैम!' कहो हो गया, पेट भर गया, टिप देने की देर बची है बस। उसने दो बार बोल दिया 'यस मैम', पेट भर गया, इसीलिए तो गये थे — कोई तो बोल दे हमें 'मैम'! क्योंकि भीतर-ही-भीतर तो यही पता है कि गँवार हैं हम। बाहर से कोई बोल देता है 'मैम' तो थोड़ी देर के लिए शान्ति हो जाती है।

अब तो ये सब भी कर दिया है न कि आठवीं तक ही अनिवार्य है या छठी तक ही अनिवार्य है हिन्दी बस? उसके बाद तो उसको जर्मन सिखाते हैं या और कोई भाषा। आठवीं तक अनिवार्य है, बहुत बढ़िया।

अब तो इनसे पढ़ा भी नहीं जाता। लिख-लिखकर भेजते हैं, कहते हैं, ‘अपने जो वीडियो हैं उनके टाइटल आप रोमन में लिखा करिए, देवनागरी पढ़ी नहीं जाती।’ कानपुर, लखनऊ से इस तरह के आते हैं, कहते हैं, ‘देवनागरी पढ़नी आती नहीं है न! बाप चीनी था, माँ जापानी थी। तो आप वीडियो भले ही हिन्दी में बनाइए, आपकी ज़िद है हिन्दी में बोलेंगे, आप बोलिए हिन्दी में, लेकिन टाइटल ज़रा वैसे लिख दिया करिए — एच ए डबल्यू ए एस।' (श्रोतागण हँसते हैं)

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें