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लेख
ऐसे पैदा होते हैं आतंकी || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: सर, मेरा प्रश्न यह था कि जैसे गीता में कृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि भले ही तुम्हें अपने भाई और गुरुओं को मारना पड़े पर धर्मयुद्ध में सब उचित है। तो मैं इसे तार्किक बुद्धि से समझने का प्रयास कर रहा था कि जैसे आतंकवादियों को भी तो यही सिखाते हैं कि जो तुम कर रहे हो वो अपने धर्म की रक्षा के लिए कर रहे हो और जो तुम्हारे धर्म का नहीं है वो अधर्मी है, उसे ख़त्म कर दो।

आचार्य प्रशांत: अरे! अपना धर्म थोड़े ही होता है। धर्म क्या होता है? अपना धर्म थोड़े ही कुछ होता है कि ये एक धर्म है, ये पाँच धर्म हैं, ये आठ धर्म हैं। बिलीफ़ (विश्वास) और धर्म में कोई अन्तर होता है कि नहीं होता है? आपने आज का सत्र बहुत ध्यान से नहीं सुना है, है न? बार-बार कृष्ण बोल रहे थे, क्या? “अहंकारविमूढ़ आत्मा कर्ता अहम् इति मन्यते।” अहंकार मान्यताओं में जीता है। मान्यताओं को धर्म थोड़े ही बोलते हैं।

धर्म आता है जिज्ञासा से। अब जहाँ पर कोई आतंकवादी है, वो अपनी मान्यता के लिए मार रहा है किसी को कि ये ग़लत आदमी है, क्योंकि ये मेरी ही मान्यता पर नहीं चलता; जो मेरी मान्यता में, मेरी कहानी में विश्वास नहीं करेगा, वो गंदा आदमी है। तुम अच्छे हो, अगर तुम मेरी वाली कहानी मानते हो। तुम मेरी वाली कहानी नहीं मानते तो तुम गंदे हो। यही तो चलता है।

जहाँ कहानियाँ हैं वहाँ यही बहुत बड़ी समस्या है। एक की कहानी कभी दूसरे की कहानी से मेल नहीं खाएगी। और अगर एक की कहानी सही है, तो दूसरे की कहानी फिर झूठ हो जाती है। और दूसरा कैसे बर्दाश्त करे कि मेरी कहानी झूठ है, तो वो लड़ मरते हैं आपस में।

धर्म कहानी थोड़े ही होता है कि उसकी एक कहानी है, उसकी दूसरी कहानी है और उसने ये ले लिया और एक आपके सामने हवामहल खड़ा कर दिया गया है। एक हवामहल में रह रहा है, वहाँ (आकाश की ओर सिर करते हैं)। दूसरा जाकर के आकाश प्रसाद में जाकर के रह रहा है। हवामहल और आकाश प्रसाद की लड़ाई चल रही है। बुनियाद दोनों के पास नहीं है, लड़े मरे हैं, यही तो हो रहा है। वो बोल रहा है, ‘मेरा वाला जो था, वो था गॉड का फेवरेट (प्रिय)।‘ वो बोल रहा है, ‘छि! तेरा वाला क्या था, असली वाला तो उसका मेरा वाला था।‘ और ये बात तुम दोनों क्या गॉड से पूछ कर बोल रहे हो?

तुम्हारी ही बनायी कहानी, तुम्हारा ही बनाया क़िस्सा और उसी क़िस्से के आगे तुम फिर दंडवत हो जाते हो, सजदा करना शुरू कर देते हो। तुम जितनी भी बात बोलते हो उसके आधार में क्या है? एक मान्यता ही तो है कि ये जो बात कही है, ये ईश्वर ने कही है। यही तो मान्यता है तुम्हारी। अब किसी-न-किसी की तो मान्यता ग़लत होगी ही, या फिर पचास ईश्वर होंगे जो पचास अलग-अलग मुँह से बात करते होंगे। तो किसी को एक बात बोल दी और लड़वाने का मन था तो जाकर के दूसरे को दूसरी बात बोल दी। बड़ा गड़बड़ क़िस्म का ईश्वर है! पचास लोगों से पचास तरह की उल्टी-पुल्टी बात करता है और उनको लड़वा रहा है आपस में। या फिर पचास ईश्वर होंगे, वो आपस में ही लड़े हुए हैं।

भाई एक होता तो एक बात बोलता न। इतनी बातें कैसे बोल दीं और वो भी परस्पर विरोधी बातें, एकदम जो मेल न खाये एक-दूसरे से वैसी बातें। ये बात जो कही जाती है न कि सब ग्रंथों में एक ही बात लिखी है, एकदम ग़लत बात है, ऐसा एकदम भी नहीं है। ज़्यादातर जो ग्रन्थ हैं वो तो क़िस्से, कहानी, मान्यता और विश्वास के ग्रन्थ हैं, उनमें कहाँ एक बात लिखी है! एकदम विपरीत बातें लिखी हैं। तो लड़ाई तो होनी-ही-होनी है। बहुत सारे बुद्धिजीवी यही कहते हैं कि रिलीजन इज़ वन ऑफ़ द फॉरमोस्ट सोर्सेस ऑफ़ स्ट्राइफ़ एंड कॉन्फ्लिक्ट (धर्म झगड़े और संघर्ष के सबसे प्रमुख स्रोतों में से एक है)।

आप जिसको रिलीजन बोलते हो उसमें क्या-क्या आता है? उसमें सबसे पहले तो एक बिलीफ़ सिस्टम (विश्वास प्रणाली) ही तो आता है, और एक व्यक्ति आता है। उसको आप बोलते हो ‘द फाउंडर।‘ अब एक व्यक्ति और दूसरा व्यक्ति तो अलग-अलग हैं। इस व्यक्ति के प्रति आपकी निष्ठा है, तो दूसरे के प्रति कैसे होगी!

वेदान्त इसीलिए आपको किसी व्यक्ति के प्रति निष्ठा रखने को नहीं बोलता, एकदम नहीं। साकार व्यक्ति के प्रति निष्ठा जहाँ होगी, वहाँ लड़ाई होगी। इसीलिए साकार-सगुण जहाँ भी चल रहा होगा, वहाँ समझ लो कट्टरता आनी-ही-आनी है। वहाँ पर ये होगा-ही-होगा कि दूसरे को नीचा दिखाओ। ये अपने आसपास देख लीजिए।

बात सिर्फ़ किसी एक धर्म या मज़हब की नहीं है। सब में यही पाएँगे आप। जहाँ मामला साकार हो जाता है वहाँ सीमित हो जाता है। जहाँ सीमा खिंच गयी वहाँ लड़ाई शुरू हो गयी। कोई ये नहीं कि एक धर्म के दूसरे वालों से ही लड़ जाते हैं। आप अगर सनातन में ही देख लीजिए तो वैष्णवों की शैवों से नहीं पटी कभी। और जो वैष्णव वाले होंगे वो कुछ-न-कुछ करके शिव का मज़ाक उड़ाते रहेंगे। वो शिव का मज़ाक उड़ा रहे हैं।

इतना ही नहीं है, जो वैष्णव वाले हैं उनमें भी राम वालों और कृष्ण वालों में भी आपस में ठन जाती है, ये लो! राम और कृष्ण वाले ही ठन गये आपस में। जहाँ कहीं भी मान्यता होगी और व्यक्ति खड़ा होगा — रिलीजन में होता ही यही है, सबसे पहले एक संस्थापक होता है, जो एक व्यक्ति होता है, फिर एक विश्वास प्रणाली होती है, फिर एक होलीबुक होती है, किताब होती है, और फिर कर्मकांड होता है, माने रिचुअल्स होती हैं। और ये सब-के-सब विघटनकारी हैं। इनमें सबमें परस्पर मनमुटाव होगा ही होगा। क्योंकि आपकी जो रिचुअल्स हैं, वो किसी दूसरे से मेल खाएगी ही नहीं। एक पूरब की ओर मुँह करके कर रहा है प्रार्थना, एक पश्चिम की ओर करके कर रहा है। एक माला ऐसे (सीधी) फेर रहा है, एक माला ऐसे (उल्टी) फेर रहा है। एक ऐसे (दोनों हाथों से जल अर्पण) कर रहा है, और एक ऐसे कर (दुआ माँगने वाली अवस्था) रहा है। तुम कैसे इन दोनों में आपस में समायोजन करोगे! कर ही नहीं सकते। तो धर्म का मतलब ही इसीलिए हो गया है मार-पिटाई!

धर्म एकता का स्रोत सिर्फ़ तब हो सकता है, जब वो व्यक्ति को सब विभाजनों से दूर — विभाजन सारे कहाँ पाये जाते हैं? प्रकृति में — जब वो व्यक्ति को प्रकृति से दूर आत्मा में ले जाये। इसीलिए मैं बोलता हूँ, ‘वेदान्त ही एक अकेला है शायद जो ग्रेट यूनिफ़ायर है‘ बाक़ी तो सब तोड़-फोड़ के अड्डे हैं।

सबका यही रहता है कि दूसरे को बंद कर दो। दूसरे को बंद करके क्या चलाओगे? अच्छा, कर दिया सबको बंद, क्या चलाओगे? सत्य चलाओगे? अगर सत्य चलाना है तुम्हें दूसरों को बंद करके तो स्वागत है। ‘नहीं, दूसरे को बंद करके हम अपनी कहानी चलाएँगे; सारी कहानियाँ बंद कर दो।‘ ये वैसी सी बात है कि जितनी भी पिक्चरें आयी हैं, सब बंद कर दो ताकि जो मेरी रिलीज़ हो रही है, वो सुपरहिट हो जाये। ये क्या है! सबकी दुकानें बंद कर दो ताकि सिर्फ़ मेरी चले — ये क्या है? है तो तुम्हारी भी कहनी ही न। तुम्हारी भी पिक्चर ही तो है उसमें, कोई यथार्थ तो है नहीं। वो भी तो ऐसे ही है बस, फ़िल्मी कथा!

धर्म फ़िल्मी कथाओं पर चलने का नाम नहीं है। ऐसा हुआ, फिर ऐसा हुआ, फिर ऐसा हुआ, फिर धरती फाड़कर के फ़लाना वो निकला, फिर उसने ऐसा बोला; फिर ये हो गया, फिर फ़लाना हो गया; फिर नारियल गिरा, फिर रेत उड़ी। ये क्या है! ये धर्म है!

आप सनातन धर्म के बारे में ये नहीं बोल पाओगे कि उसे किसी ने शुरू करा, बोल पाओगे? फाउंडर (संस्थापक) बताओ? इसीलिए मैंने अभी जो बात कही थी, वो जो पूछा था प्रिंट (अख़बार) वालों ने, मैंने कहा था, 'धर्म का मतलब ही है सनातन, और सनातन का मतलब ही है धर्म।' बाक़ी सब जो क़िस्से-कहानियाँ हैं, वो क़िस्से-कहानियाँ ही हैं।

बताओ सनातन धर्म किसने शुरू करा? कोई फाउंडर है ही नहीं, इसीलिए फिर मार-पिटाई की सम्भावना कम है। किसी व्यक्ति की बात है ही नहीं। पर्सनैलिटी कल्ट थोड़े ही है कि एक व्यक्ति है उसने करा, उसी को पूजे जा रहे हो; फिर उस व्यक्ति से विपरीत कोई बात होती है, तो बड़ा बुरा लगता है। उस व्यक्ति से हटकर कोई बात होगी, तो बड़ा बुरा लगेगा फिर। यहाँ कोई व्यक्ति है ही नहीं।

बाद में आप कृष्ण को अवतार वगैरह कह लें, पर आप ये थोड़े ही कहोगे कि कृष्ण सनातन धर्म के प्रवर्तक हैं, ये थोड़े ही कहोगे आप। कोई होलीबुक तो है न। आप बोलते हो, 'वेदान्त, वेदान्त में तो होलीबुक्स तो हैं ही उपनिषद् वगैरह।' वो जो होलीबुक्स हैं, वो ख़ुद कहती हैं कि जब बाद में समझ जाओ तो हमें आग लगा दो। वो अपनेआप को ही इतना ज़्यादा अनुपयोगी बोलती हैं। बोलती हैं कि जिस दिन समझ जाओ, हमने क्या कहा है, उस दिन हमें ‘काक विष्ठा’ की तरह मानना। ‘काक विष्ठा’ माने कौवें की टट्टी। दम है किसी और किताब में कि अपने बारे में ये बात बोल सके?

तो होलीबुक कह ही नहीं रही हैं कि मैं होली हूँ। तो न तो तुम्हें किसी व्यक्ति के प्रति आस्था रखनी है, न तुम्हें किसी किताब की अंधभक्ति करनी है। और न तुम्हें कोई कर्मकांड, रिचुअल वगैरह में घुसे रहना है। ये वेदान्त है, पूर्ण मुक्ति, नहीं तो धर्म ही बन्धन है फिर। जो किताब आपको स्वयं से भी मुक्त न कर पाये, वो किताब मुक्ति कैसे हुई? बाँधे-बाँधे फिर रहे हैं किताब को।

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