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लेख
अहंकार क्या है, और उसका शरीर से क्या सम्बन्ध है? || (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
15 मिनट
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आचार्य प्रशांत: ईगो (अहंकार) का सांकेतिक, शाब्दिक, आध्यात्मिक सब एक ही अर्थ होता है – ‘मैं’। ‘मैं’ की भावना को अहम्, ईगो कहते हैं।

प्रश्नकर्ता: तो क्या स्वयं को किसी भी पहचान से परिभाषित करना ही अहम् है?

आचार्य: अपनी हस्ती को अनुभव करना, यही ईगो है। ‘मैं हूँ', इसको अनुभव करना अहम् है।

प्र: पर अहम् से आगे जाने की बात भी तो स्वयं अहम् ही कर रहा है न!

आचार्य: ख़ुद अहम् कर रहा है क्योंकि ख़ुद से परेशान है। तुम ख़ुद से परेशान नहीं हो?

प्र: निश्चित रूप से हूँ।

आचार्य: बस। आत्मा को कोई परेशानी नहीं है, आत्मा को कुछ हासिल नहीं करना है। ना आगे जाना है, ना पीछे जाना है। सारी दिक़्क़तें किसके लिए हैं? अहम् के लिए हैं। और सारी दिक़्क़तें उसे किससे हैं? आत्मा तो किसी को दिक़्क़त देती नहीं। अहम् को ही दिक़्क़त है, और अहम् को अहम् से ही दिक़्क़त है।

प्र: यदि अहम् को समस्या है तो वो वह हल क्यों नहीं ढूँढ पा रहा है?

आचार्य: क्योंकि वो गोलू है। इतनी बुद्धि उसमें होती तो वो अहम् होता? इतनी समझ उसमें होती तो वो ईगो बन कर घूमता क्या?

प्र: यदि अहम् को इतनी परेशानी है तो वह अपने-आप को बार-बार स्मरण क्यों नहीं कराता?

आचार्य: उसका होना ही दिक़्क़त है, उसे याद दिलाने की ज़रूरत नहीं है। वो जब भी है, जहाँ भी है, जैसा भी है उसे लगातार दिक़्क़त है। वो अगर दाएँ जा रहा है तो भी उसे दिक़्क़त है, वो बाएँ जा रहा है तो भी उसे दिक़्क़त है। उसे बहुत खाने को मिल गया तो भी दिक़्क़त है, उसे कुछ नहीं मिला तो भी दिक़्क़त है। वो हार गया तो भी दिक़्क़त है, वो जीत गया तो भी दिक़्क़त है। उसका नाम ही दिक़्क़त है, उसकी हस्ती ही दिक़्क़त है।

प्र: तो फिर अहम् स्वयं को बचाना क्यों चाहता है?

आचार्य: क्योंकि वो गोलू है। उसने अपने-आपको ये बोल दिया है न ‘मैं हूँ'। उसने अपने-आपको एक झूठा नाम दे दिया है कि ‘मैं हूँ'। वो ‘मैं’ ‘मैं’ है ही नहीं, पर वो अपने-आपको क्या बोलता है? ‘मैं’। अब अगर वो मिट गया तो कौन मिट जाएगा? ‘मैं’। वो है क्या? वो मान लो ‘कै’ है। वो है तो ‘कै’ पर अपने-आपको बोलता है ‘मैं’, और उसने ये झूठ अपने-आपसे इतनी बार बोला है और इतने लम्बे समय से बोला है कि उसे ख़ुद ही यक़ीन हो गया है कि वो ‘मैं’ है।

अब उसे यक़ीन हो गया है कि वो ‘मैं’ है। उसे दिक़्क़त भी बहुत है अपने-आपसे। उसका नाम ही दिक़्क़त है। अगर दिक़्क़त मिटी तो कौन मिटेगा? वो मिटेगा, और उसका नाम है ‘मैं’। अगर वो मिटा तो फिर ‘मैं’ ही मिट जाएगा। ‘मैं’ माने हस्ती, ‘मैं’ माने होना। तो कहेगा, "फ़िर दिक़्क़त मिटाकर क्या फायदा अगर कोई बचेगा ही नहीं?"

भाई, तुम किसी डॉक्टर (चिकित्स्क) के पास जाओ और तुम्हारे पेट में बहुत बड़ा फोड़ा है। वो बोले, "फोड़ा तो हट जाएगा लेकिन साथ में तुम भी हट जाओगे।" तो तुम अपनी सर्जरी (शल्य-चिकित्सा) करवाओगे? तुम चाहते हो कि फोड़ा हट जाए, तुम बचे रहो। ये ही चाहते हो न? ‘मैं’ के साथ दिक़्क़त ये है कि वो ख़ुद ही दिक़्क़त है। दिक़्क़त हटी तो ‘मैं’ भी हटेगा। अब ‘मैं’ कहता है “हम फिर दिक़्क़त हटाएँ क्यों अगर दिक़्क़त के हटने के साथ हम भी मिट जाएँगे तो?”

बात ये है कि ‘मैं’ वो है ही नहीं। वो ‘कै’ है। तो ये ‘कै’ अगर हटेगा, ‘कै’ दिक़्क़त है, हमें क्या लग रहा है? कि दिक़्क़त ‘मैं’ है। ‘मैं’ नहीं है दिक़्क़त, दिक़्क़त क्या है? ‘कै’ है। तो दिक़्क़त हटेगी तो क्या हटेगा? ‘कै’ हटेगा। और फिर शेष क्या बचेगा? ‘मैं’। तो ये मज़े की बात होगी न।

पर ये बात गोलू को समझ में ही नहीं आती क्योंकि उसने एक मूल भूल कर दी है। क्या करी है? उसने ‘कै’ को ‘मैं’ कहना शुरू कर दिया। वो जो छोटा-सा झूठ है वो बहुत भारी पड़ रहा है उसको। तो इसीलिए हर आदमी डरा रहता है अध्यात्म से। उसको लगता है कि, "अध्यात्म में मैं ही मिट जाऊँगा फिर बचेगा क्या?" ना, ऐसा नहीं है। अध्यात्म में दिक़्क़त मिटती है, ‘कै’ मिटता है और फिर जो शेष रहता है वो असली ‘मैं’ है।

पर अहम् माने कैसे कि, "हमने झूठ बोला था"? अहम् माने कैसे कि पुरानी ग़लती करी थी? अपने-आपको देखो न, तुम्हें ग़लती मानना अच्छा लगता है कभी? तो तुम ही तो अहम् हो। अहम् को नहीं अच्छा लगता कि मान ले कि ग़लती कर दी। सारी ग़लतियाँ किसने करी हैं? ‘कै’ ने। सारी गड़बड़ी किसने करी है? ‘कै’ ने। तो हट जाने दो न। ये सब हटाओगे भी तो कौन हटेगा? ‘कै’ हटेगा, ‘मैं’ थोड़े ही हटेगा।

अहम् अपने-आपको आत्मा समझता है। अहम् क्या है? ‘कै’। आत्मा क्या है? ‘मैं’। पर अहम् अपने-आपको आत्मा समझता है, यही गड़बड़ हो गई है। तो अहम् जब अपने-आपको आत्मा समझता है तो सोचता है कि अगर अहम् हटा तो आत्मा भी हट जाएगी। नहीं बाबा, अहम् हटा तो आत्मा नहीं हटेगी, अहम् हटा तो अहम् ही हटेगा। ‘कै’ हटेगा तो ‘मैं’ नहीं हटेगा।

जैसे इस प्रसन्ना (पास बैठे एक श्रोता) को ये भ्रम हो जाए कि ये जो इसने टीशर्ट पहन रखी है ये इसकी खाल है। अब छः-सौ साल हो गए हैं और भयानक बदबू मार रही है टीशर्ट , ये उतारने को राज़ी नहीं है। क्यों नहीं उतार रहा? कह रहा है, "ये उतर गई तो मेरी खाल उतर जाएगी।" ‘कै’ और ‘मैं’ चिपक कर एक हो जा रहे हैं। गड़बड़ हो गई न। जबकि बात ये है अगर टीशर्ट उतरेगी तो दिक़्क़त उतरेगी, बदबू उतरेगी।

हम में से ज़्यादातर लोग इसीलिए अपनी सारी वृत्तियाँ और विकार कभी हटने नहीं देते क्योंकि हमें लगता है कि वही तो हम हैं। "अगर वो सब हमने हटा दिया तो फिर बचेगा क्या?" बहुत कुछ बचेगा, डरो मत।

और इसीलिए अध्यात्म में जब प्रवेश करते हो तो ऐसा लगता है जैसे मौत ही हो रही है। अनुभव किया है? ऐसा लगता है सब छिन गया, हाय हाय। केशव (पास बैठे एक श्रोता) भगा बहुत जोर से आश्रम से। "मर ही गए, भागो रे! बचेंगे नहीं अब।" अरे, ‘कै’ हट रहा था, ‘मैं’ थोड़े ही हट रहा था।

प्र: तो क्या इसीलिए धार्मिक ग्रंथों में ये वर्णित है कि मैं आत्मा हूँ?

आचार्य: तुम आत्मा हो? और क्या-क्या हो? परेश!

प्र: पर आत्मा ये स्वयं थोड़े ही बोलती है कि मैं आत्मा हूँ।

आचार्य: ‘कै’ से प्यार है बहुत ज़्यादा। उसको ‘मैं’ बनाने की पुरज़ोर कोशिश चल रही है।

प्र: क्या अहम् शरीर के संरक्षण के लिए आवश्यक है?

आचार्य: कैसा संरक्षण? किसका?

प्र: शरीर का।

आचार्य: जब सो जाते हो तो ईगो (अहम्) बचता है?

प्र: नहीं।

आचार्य: तो शरीर मर जाता है? तो कैसी बातें पूछ रहे हो! तुम तो बेहोश भी हो जाते हो तो शरीर नहीं ख़त्म हो जाता। बल्कि कई दफे तो तुम्हें बेहोश करना ज़रूरी होता है ताकि शरीर बचे। तुम्हारी सर्जरी (शल्य-चिकित्सा) होनी है और तुम्हें बेहोश ना किया जाए, तो तुम्हारा ‘मैं’ तो डॉक्टर (चिकित्स्क) की ही गर्दन पकड़ लेगा। कोई डॉक्टर (चिकित्स्क) तुमको बिना बेहोश किए, बिना एनेस्थेसिया (संज्ञाहरक) लगाए तुम्हारी सर्जरी (शल्य-चिकित्सा) करे, तुम देखो कैसे उचक कर उसकी गर्दन पकड़ते हो।

तो अहम् तुम्हारे शरीर के संरक्षण में मदद कर रहा है या अड़चन लगा रहा है?

श्रोतागण: अड़चन लगा रहा है।

आचार्य: अहम् को तो सुलाना पड़ता है कि अहम् सो जाए तो फिर शरीर की रक्षा की जाए। अहम् इतना होशियार है कि वो किसी की भी रक्षा कर सके? अपनी तो कर नहीं पाता। हाय, हाय। हर समय तो उसको चोट लगती रहती है, देखा है? अहम् से ज़्यादा घायल, चोटिल कोई देखा है? किसी भी बात पर उसको चोट लग जाती है। किसी ने उसको देख लिया, उसको चोट लग जाएगी, ‘मुझे ही देखा', और उससे ज़्यादा चोट तब लग जाएगी जब कोई उसे ना देखे, ‘कोई हमें देखता ही नहीं, हमें चोट लग गई'। ये इतने घायल हैं, किसी और की क्या रक्षा करेंगे?

प्र: क्या सही काम वही है जिसे करने में मन में किसी भी प्रकार का प्रतिरोध ना उठे?

आचार्य: मेरे पास कोई जवाब नहीं है। तुम शुरुआत ही यहाँ से करोगी कि “मैं मजबूर हूँ”, तो मैं आगे कोई जवाब नहीं दे पाऊँगा। शुरुआत ही झूठ है, मजबूर तुम हो ही नहीं। तुम शुरुआत में ही कहते हो कि, “हमसे कुछ अपेक्षाएँ रखी जाती हैं, हमें ये आवश्यक रूप से करना होता है अपनी कॉर्पोरेट जॉब में।" मैं इस बात को मानता होता तो तुम्हारे सामने बैठा होता? मैं भी गूगल में बैठा होता।

तो मेरा तुम्हारे सामने बैठना इस बात का प्रमाण है कि कोई मजबूरी नहीं होती कॉर्पोरेट जॉब वगैरह की, और फिर मुझसे ही कह रहे हो, “हम तो मजबूर हैं।" तो मैं कैसे मान लूँ? जब मैं मजबूर नहीं हूँ तो तुम मजबूर कैसे हो? कुछ नहीं है, वो तीस तारीख वाला मामला है।

प्र: तो क्या जॉब छोड़ देना चाहिए?

आचार्य: आप बस अपनी जॉब नहीं छोड़ सकते, ये असंभव होगा। अगर आप वो ही बने रहे जो आप हैं, तो आप कभी अपनी जॉब नहीं छोड़ पाएँगी। आपको बहुत कुछ छोड़ना पड़ेगा अपनी जॉब छोड़ने से पहले। अभी आप जैसे हैं, आप बहुत सारी चीज़ों से जुड़े हुए हैं और उसमें आपकी नौकरी भी शामिल है। अगर आप सौ चीज़ों से जुड़े हुए हैं और आपकी नौकरी उनमें से एक है, तो आप अपनी नौकरी कैसे छोड़ देंगे बिना बाकी निन्यानवे चीज़ों को छोड़े हुए? ये पूरा एक ढाँचा है। आप सिर्फ़ अपनी नौकरी से नहीं चिपके हुए हैं, और बहुत सारी चीज़ें हैं जिनसे आप चिपके हुए हैं। आप किसी एक चीज़ को नहीं छोड़ सकते। ये जीवन जीने की एक कला है।

प्र: तो क्या सब कुछ छोड़ दूँ?

आचार्य: आप सब कुछ नहीं छोड़ सकते जब तक आपके पास कुछ ऐसा नहीं है जो आपको आश्वस्ति दे, आप जिसकी शरण ले सकें, जिसमें आपकी श्रद्धा हो। ये जानिए कि आप अपना समय बर्बाद कर रहे हैं उन जगहों पर उपस्थित होकर जहाँ आपको नहीं होना चाहिए। और अगर आपको वहाँ होना ही है तो एक नई ऊर्जा के साथ उसको जारी रखें।

प्र: तो मैं सत्य पर विश्वास कर लूँ?

आचार्य: आप कभी पूर्ण को नहीं जान पाएँगे, जिस पर पूर्ण रूप से भरोसा किया जा सकता है। आपको शुरुआत वहाँ से करनी होगी जो कम-से-कम अपेक्षतया भरोसेमंद हो। आपको उस तक जाना होगा, और शायद फिर उसके भी पार जाना होगा। जब आप गाड़ी चला रहे होते हैं तो आप अपने गंतव्य पर नज़र नहीं टिकाए रखते, है न? आप क्या देखते हैं?

प्र: आसपास।

आचार्य: हाँ। आप ये नहीं कह सकते हैं कि, "जब मुझे मंज़िल पूरी तरह दिख नहीं जाती, तब तक मैं अपने हिलूँगा भी नहीं।" फिर तो आप कभी अपने स्थान से नहीं हिलेंगे। आप यहाँ से बैंगलोर कैसे जाएँगे? क्या आप यहाँ से पहले बैंगलोर की कल्पना करेंगे? नहीं न। आपको पहला कदम बढ़ाना है।

प्र: आचार्य जी, यदि शहर और जंगल या पहाड़ एक समान प्रकृति हैं, तो फिर पहाड़ या जंगल में जाने पर शान्ति क्यों महसूस होती है?

आचार्य: यहाँ सब परेशान करते हैं तुमको। वहाँ पर पेड़ तुमको कहने थोड़ी आता है कि, ‘चल, सैटरडे (शनिवार) हैं, दारु पीते हैं'! जो बातें सीधी हैं उनमें तुमको क्या नहीं समझ में आता?

प्र: तब तो फिर शांति के लिए जंगल में ही बस जाना चाहिए!

आचार्य: जाओ, चले जाओ। वहाँ रह लो।

प्र: तो इसका अर्थ हुआ कि जंगल में प्राप्त होने वाली शांति एक अल्पकालिक राहत मात्र है?

आचार्य: हाँ, पर तुम ये भूल जाते हो कि यहाँ पर भी लोग तुम्हें परेशान इसलिए कर पाते थे क्योंकि तुम परेशान होने को तैयार ही नहीं इच्छुक थे। ये तुम्हारे पीछे अभी पड़ा हुआ था, “दारु पी, दारु पी, दारु पी चल आज, सैटरडे नाईट (शनिवार रात) है”। पड़ा था न? और क्या? “ चिकन खा, चिकन खा”। वो तुम्हारे ही पीछे क्यों पड़ा था? क्योंकि तुम हो ऐसे कि वो तुम्हारे पीछे पड़ा था। तो तुम ऐसे हो जो परेशान होने को मात्र उपलब्ध ही नहीं है, वो परेशान होने को इच्छुक भी है।

ठीक है, उसने तुम्हें बहुत परेशान किया। एक बार को तुम जंगल भाग गए, पर तुम हो कौन? जो परेशान होने को बहुत इच्छुक है। तो अब तुम कुछ तो वहाँ ख़ुराफ़ात करोगे न। हिरण को पछिया लोगे, पेड़ को खोदोगे, कोई खरगोश होगा उस पर कूदोगे। वो सटक लेगा और तुम गिरोगे, भाड़! और जबड़ा टूट जाएगा तब कहोगे, “हाय! हाय! इससे ज़्यादा अच्छा तो ये था कि शनिवार की रात दारु ही पी लेते और चिकन ही खा लेते।”

फ़िर तुम वापस लौट आओगे तो वो तुमको दो गाली और देगा। कहेगा, “बड़े होशियार बनते थे। गए थे जंगल, मुँह तुड़वा कर लौट आए।” क्योंकि तुम हो कौन? वो जो परेशान होने को इच्छुक है, तभी तो वो तुम्हारे ऊपर चढ़ा बैठता था। जो परेशान होने को तैयार नहीं, कौनसी परेशानी उससे चिपक सकती है? उसको तुम परेशान करोगे तो वो भग लेगा। और मसीहा तो तुम हो नहीं कि जानबूझ कर परेशानियाँ मोल लो क्योंकि तुम्हें दूसरों की परेशानियाँ दूर करनी हैं।

परेशानी में आम-आदमी भी पाया जाता है और परेशानी में जीसस भी पाए गए थे। पर आम-आदमी इसलिए परेशान है क्योंकि उसे परेशानियों में एक विकृत मज़ा मिलता है। और कोई अवतार, कोई संत परेशानियों में इसलिए पाया जाता है क्योंकि वो परेशानियों में गया है परेशानियों की सफ़ाई करने के लिए। अब परेशानियों की सफ़ाई के लिए तो तुम हो नहीं परेशानी में। तुम्हें तो परेशानी में थ्रिल (रोमांच) मिलता है।

प्र: आजकल तो अधिक परेशान रहने को सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रेरणा का सूचक बताया जाता है।

आचार्य: उनमें से कई जब बिलकुल विक्षिप्त हो जाते हैं और अपने ही बाल नोच लेते हैं, तो तुम्हारे आचार्य जी के पास भी आते हैं। ऍम टी ऍम (मीट द मास्टर) जानते हो न? ऐसे कइयों का हो चुका है। बहुत बड़े-बड़े लोग। जैसे फिर पंख नोचा मुर्गा हो। उसका मुँह सोचो, उसकी हालत सोचो। उस हालत में आकर बैठ जाते हैं, ‘बर्बाद हो गए'। वो बर्बाद हुए तो हुए, दिक़्क़त ये है कि उस प्रक्रिया में, अपनी बर्बादी की प्रक्रिया में न जाने उन्होंने कितने और लोगों को बर्बाद किया।

फिर, जब तक वो सफल हो रहे थे, तब तक तो वो बुलंदी के साथ घोषणा करते थे कि, "हमें देखो, हम आदर्श हैं, हम रोल मॉडल हैं।" लेकिन जब वही तनाव में जाते हैं, अवसाद में, डिप्रेशन में जाते हैं, ज़िन्दगी उनकी बिखर जाती है, आत्महत्या को तैयार हो जाते हैं, तो ये बात फिर किसी मीडिया में नहीं छपती। ये बात बिलकुल छुपा दी जाती है कि हश्र देखो इसका, अंजाम देखो।

वास्तव में अंजाम बाद में भी नहीं आता, उनकी ज़िन्दगी तब भी तबाह होती है जब वो तुम्हारे सामने ‘कूल डूड' बनकर घूम रहे होते हैं। उनकी ज़िन्दगी तब भी तबाह ही होती है। बस तुम्हारे सामने एक प्रकार का स्वांग रचा जाता है। तुम्हे धोखा देने के लिए एक नाटक किया जाता है।

प्र: पर थोड़े ही समय में वास्तविकता सामने आ ही जाती है।

आचार्य: उनको दोष मत दो, वो बेचारे ख़ुद पीड़ित हैं। उनसे पूछता हूँ कि जब इतनी तुम्हारी ख़राब हालत है तो निकल क्यों नहीं आते? तो एक ही उत्तर देते हैं, “परिवार वालों का क्या करें? ये नहीं छोड़ने देते। हम तो आज छोड़ दें, ये घरवाले नहीं छोड़ने देते।"

प्र: इसके अतिरिक्त होम-लोन या अन्य लोन (क़र्ज़) चुकाने के कारण लोग फँसे रहते हैं।

आचार्य: जिस तल की तुम बात कर रहे हो, वहाँ पर लोन नहीं बचता है। वहाँ फिर दूसरी बातें आ जाती हैं। वहाँ फिर लाइफस्टाइल कंसर्नस (जीवनशैली से सम्बंधित मुद्दे) आ जाते हैं। और उसमें भी ज़्यादातर ये नहीं होता है कि, "हमारी लाइफस्टाइल (जीवनशैली) का क्या होगा?" घरवाले। कमा एक रहा होता है, उससे लाभ तो तीन-चार को हो रहा होता है न। तो वो तीन-चार कैसे बर्दाश्त करेंगे कि हमें जो लाभ हो रहा है वो लाभ होना बंद हो जाए? बच्चों को आदत लग जाती है। बच्चे पैदा ही अय्याशी में हुए होते हैं। अब उनको आदत लग गई है। बच्चों को कैसे बताओगे कि इंटरनेशनल स्कूल से हटकर सीबीएसई स्कूल में जाना पड़ेगा?

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