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लेख
अहंकार और सत्य में क्या अंतर है? || (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: इगो (अहंकार) में और सत्य में क्या अंतर है?

आचार्य प्रशांत: जितने अंतर हैं वह सब इगो में ही हैं। अंतर कुछ कर लो, समानताएँ और अंतर यह सब मानसिक परिकल्पनाएँ हैं। आत्मा में ना कोई भेद होता है, ना अभेद होता है। तुम अगर पूछोगे कि, "अहंकार और आत्मा में क्या भेद है?" तो यह बड़ा अहंकारित प्रश्न है, इसका क्या उत्तर दूँ?

आत्मा वह है जिसके ऊपर अहंकार बैठ सकता है। आत्मा वह है जिससे पोषित होकर ही अहंकार भी आत्मा का रूप धारण कर पाता है। अब इन दोनों में अंतर कैसा? सत्य वह नहीं है जो असत्य का विरपीत हो, सत्य वह है जो असत्य भी वास्तव में है। अगर सत्य और असत्य दो होते, फिर तो दो सत्य हो गए न? एक सत्य, सत्य और दूसरा सत्य, असत्य। दो नहीं होते। सत्य होता है और असत्य भी सत्य ही होता है।

जब तुमने सत्य को सत्य जाना तो वह सत्य है, और जब सत्य को तुमने कुछ और जाना तो वह असत्य है। असत्य वह है जो वास्तव में होता ही नहीं। अहंकार वह है जो आत्मा ही है पर जिसे तुम कुछ और समझे बैठे हो।

एक बार किसी ने पूछा था तो उन्होंने कहा था, ऐसे सवाल था कि, काम और राम में क्या अंतर है, तो मैंने कहा था राम को राम के अलावा कहीं तलाशना काम है। जब तुम काम में भी होते हो तो तलाश तो राम ही रहे होते हो।

अब दो तरह के लोग होते हैं। एक वह जिन्हें राम चाहिए तो सीधे राम के पास जाते हैं, और दूसरे वह जिन्हें राम चाहिए तो इधर-उधर भटकते हैं, काम में भटकते हैं। भटकना काम है, भटकना ही अहंकार है। अहंकार को भी अंत में चाहिए क्या? अहंकार को भी अंततः शांति ही चाहिए। मूर्खता उसकी ऐसी सघन है कि शांति वह सीधे नहीं पा लेता, वह शांति के लिए टेढ़े-तिरछे रास्ते अपनाता है। जहाँ खड़ा है वहीं पहुँचने के लिए पूरे संसार का भ्रमण करके आता है और इतना ही नहीं फिर कहता है कि, "अगर पूरी दुनिया का मैं चक्कर ना लगाया होता तो यहाँ तक पहुँचते कैसे?"

यह उस बेचारे का दुर्भाग्य है और यही उसकी अकड़ भी है। वह पाता है पर हमेशा तब जब खूब कर लेता है और कहता है, "देखो, हम यहाँ तक पहुँचे कैसे? चक्कर लगा-लगा कर। मेहनत करी है, ऐसे ही नहीं पहुँचे। अरे! किसी के बाप की अनुकंपा नहीं है, हमने अर्जित किया है।" यह अहंकार का वक्तव्य है। 'मैंने कमाया, मैंने पाया' और पाया क्या वो जो पहले से जेब में था, जो पहले से जेब में था उसको कमाने के लिए पूरी ज़िंदगी लगा दी यह अहंकार का काम होता है और उसके बाद भी पूरी ज़िंदगी लगा दी फिर भी यही कहा कि अभी कम पाया।

आत्मा को कुछ पाना नहीं है, उसने पाया ही हुआ है। अब यह तुम्हें देखना है जो तुम हो कि तुमको कर-कर के पाना है या पा-पा कर पाना है।

प्र: कर-कर के पाना कैसे होगा?

आचार्य: यह तो आपने पहले ही दुनिया घूमने के लिए पहला कदम बढ़ा दिया, "कैसे होता है?" जब दुनिया घूमी जाती है पाने की तलाश में तो उसमें पहला कदम यही होता है - कैसे पाएँ। सबसे पहले सवाल आता है कैसे पाएँ, फिर उसका कुछ उत्तर आता है और जो उत्तर आता है फिर उसको आप क्रियान्वित करते हो। हो गया बस, घूम ली। फिर आगे जाओगे फिर पूछोगे, "अब कैसे पाएँ?" अब यहाँ पहुँच गए, फिर वहाँ कोई उत्तर आएगा अब फिर क्रियान्वित करोगे। फिर और आगे बढ़ोगे, फिर और आगे बढ़ोगे। पाने का मतलब ही यही होता है कि 'कैसे पाएँ?' प्रश्न ही फिज़ूल है क्योंकि पाया ही हुआ है तो यह क्या सवाल है कि कैसे पाएँ?

पूछना हो तो यह पूछ लो कि, "कैसे यह भावना दूर हटाएँ कि नहीं पाया हुआ है?" उसकी विधि हो सकती है और उसकी विधि यह है कि पाने में स्थापित होकर के अपने जीवन को देखो। उसकी विधि में भी पहले पाना शामिल है क्योंकि डर कर यदि जीवन को देखोगे तो साफ़ दिखाई नहीं देगा। पूर्वग्रहग्रस्त होकर के अगर जीवन को देखोगे तो सब धुँधला दिखेगा, कुछ समझ नहीं आएगा।

अवलोकन के लिए, ऑब्जरवेशन के लिए भी आवश्यक होता है कि पहले तुम पूर्णता में स्थापित रहो। अपूर्णता भी अपूर्णता तब दिखाई देती है जब पहले तुम पूर्ण हो। तुम पूर्ण नहीं तो अपूर्णता को अपूर्णता नहीं देख पाओगे। फिर उसके अन्य कई नाम दोगे, चिकने-चुपड़े, साफ़-सुंदर, आकर्षक, सजाए हुए।

तो पहला कदम तो सदा एक ही है और वह एक अ-कदम है, एक नॉन-मूवमेंट है। वह कदम यह है कि जहाँ हो वहाँ आसीत रहो। दिल डर में धक-धक ना करता रहे। एक प्रबल विश्वास रहे। क्या विश्वास? वह नहीं पता पर यह पता है कि अविश्वास नहीं है यही विश्वास है।

जिस समय एक साहस का मौका मिले, जब उचित निर्णय का क्षण आए तो मुँह सूखकर इतना-सा ना हो जाए, कि थोड़ी देर पहले तो आम की तरह फूले हुए थे और चहक रहे थे, अभी ज़रा से साहस की माँग करी जीवन ने और मुँह इतना सा हो गया वह भी सूखा हुआ, "नहीं हिम्मत नहीं है, झेल नहीं पाएँगे।" यह हो रहा है अगर तुम्हारे साथ तो समझ लो कि गहरे में बहुत डरे हुए हो, अपूर्णता में जी रहे हो - पाप है।

कोई संत होगा तो कहेगा इस स्थिति के लिए तुम करुणा के पात्र हो। कोई दूसरा होगा तो वह यही कह सकता है कि इस स्थिति में अपने पापों के कारण हो, भोगो, कैसी करुणा? यह तुम्हारा सूखा हुआ मुँह है यही गवाही देता है तुम्हारे पापों की। ये जो अहम मौके पर तुम्हारी हवा निकल जाती है इसी से पता चलता है कि तुम कौन हो। गुब्बारे जैसा अस्तित्व, कोई भी आकर के सूई चुभो देता है और फुस्स। जहाँ कहीं भी जीवन ज़रा परीक्षा लेने लग जाए वहीं पता लगता है कि तुममे दम नहीं है। फिर तुम कहोगे, "कैसे दम पाएँ?" तुम दम-दमाते रहो, यही है। मैं कोई दम-वम नहीं दे सकता।

तुम वह हो जिसने पाप की क़सम उठा रखी है। तुम अपने ही पापों से बंधे हुए हो। तुम्हारी कौन मदद कर सकता है? झूठ तुम्हारी हड्डियों में बसा हुआ है। तुम्हें कौन सहारा देगा? पहले से पहला और बड़े-से-बड़ा झूठ यही है कि 'मैं कमज़ोर हूँ', 'मुझे मदद की ज़रूरत है', 'मैं कैसे पात्रता अर्जित करूँ?' यह जो कैसे का सवाल है न इससे बड़ा झूठ नहीं होता। 'मैं तुच्छ हूँ, निकृष्ट हूँ, क्षुद्र हूँ, मुझे बचाओ, मुझे संभालो'।

फ़िर कह रहा हूँ कोई संत ही होगा जिसको करुणा उठती होगी यह सब सुनकर। मुझे तो करुणा से पहले घृणा उठती है। तुम कैसे आ गए इस स्थिति में? और बिना अपने किए आ नहीं सकते क्योंकि विधाता किसी का अहित नहीं चाहता। वो हित भी नहीं चाहता पर अहित में तो उसकी विशेषतया कोई रुचि नहीं होती। उसने तो यह तय कर ही नहीं रखा कि तुम्हें वह बना दे जैसे तुम हो। उसके राज में सूखे हुए बेरों के लिए कोई जगह है नहीं। तो तुमने जो यह किया है हाल अपना यह तुम्हारी अपनी करनी है।

तुम्हारी अपनी करनी है क्योंकि तुमने स्वयं को विधाता से अलग माना, तुमने कहा, "मेरी करनी ज़रा अलग चलेगी। देखिए साहब! हमारे तरीके ज़रा अलग हैं, आई ऍम माय ओन मैन और वुमन , हम ज़रा अपने हिसाब से तय करेंगे।" वह तुमने ना किया होता तो तुम्हारी यह दुर्दशा हो नहीं सकती थी। और तुम्हारी इस दुर्दशा पर हम कैसे संतप्त हो जाएँ? तुम्हारी इस दुर्दशा पर हम कैसे आँसू बहाएँ? हम तो पहले यह जानना चाहते हैं कि तुमने यह किया कैसे? पहले यह बताओ तुम ऐसे हुए कैसे? और इसी में तुम्हारा निदान भी है, समाधान भी है। जैसे ही यह बताओगे न ईमानदारी से कि कैसे हुए ऐसे, वैसे ही इससे मुक्त हो जाओगे।

तुम वह बताना भी नहीं चाहते, तुम बड़े ढीठ हो। तुमने, जैसा कहा मैंने, क़सम ही उठा रखी है पाप की। तुम वही रहना ही चाहते हो जो तुम हो। तुम्हें दुःख में सुख मिलने लगा है। होता है, एक तरह की मनोदशा है - मानसिक बीमारी। कई लोग जिनको जितना दुःख होता है वो उतने आंतरिक उल्लास में। जिस दिन वो पीटे ना जाएँ, उत्पीड़न ना हो, कोई कष्ट ना मिले, कोई थप्पड़ ना मार दे, कहीं गिरे-पड़े ना हों उस दिन उनको लगता है, "अरे! कुछ सूखा-सूखा गया, बोनी ही नहीं हुई अभी तक। भाई, ज़रा लतियाना!"

देखो! कितना आनंद आया, हँसी फूट पड़ी, अभी जो इतनी बातें बोलीं, आई ही नहीं हँसी। और उसके बाद एक विधि और होती है - आई विल नोट फील गिल्टि (मैं ग्लानि अनुभव नहीं करूँगा/करुँगी)। जो आत्मा में केन्द्रित हो उसके लिए ग्लानि का भाव कुछ है ही नहीं, आएगा ही नहीं। तुम्हें तो बहुत सारी ग्लानि चाहिए, यू बैटर फील गिल्टि * । जीवन को देखो अपने और आँसू बहाओ। जाओ ज़रा रोओ कहीं बैठ कर, सिर पटको दीवारों पर। तुम्हें किसने हक़ दिया यह कहने का कि * नो गिल्ट ? तुम्हारे लिए तो गिल्ट औषधि है। तुम्हें यदि ग्लानि नहीं हो रही, तुम्हें यदि कष्ट नहीं हो रहा तो यह सिर्फ़ तुम्हारी ढिठाई है।

तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि तुम ज़्यादा डरे हुए हो या ज़्यादा मरे हुए हो। क्योंकि डर में भी कुछ जीवंत होता है, डर अक्सर तुम्हें स्पंदित कर देता है उठ बैठने के लिए। डर आँखें खोल देता है, तुम्हारी तो डर-डर कर भी आँखें नहीं खुलती। तुम मर ही गए हो क्या? लगातार डर में जिए जाते हो फ़िर भी उठ नहीं बैठते।

विधियाँ और पूछते हो, "डर कैसे हटाएँ? यह मुट्ठी कैसे खोलें? यहाँ अंदर एक बिच्छू है जो काटे ही जा रहा है ज़रा बताइए मुट्ठी कैसे खोलें?" अच्छा, बड़ा दुष्ट बिच्छू है। तुम्हारी बंद मुट्ठी के भीतर घुस गया है और वहाँ घुस कर तुमको काट रहा है। और तुम बड़े नेक नियत हो, तुम पूछने आए हो, "बताइए बंद मुट्ठी कैसे खोलें? वहाँ भीतर बिच्छू काट रहा है।" भूल गए तुम अभी कल ही खोली थी मुट्ठी और परसों भी खोली थी, और जितनी बार खोली उतनी बार तुमने दोबारा बंद की कहीं बिच्छू भाग ना जाए। क़सम खा रखी है न। फ़िर पूछते हो, "कैसे खोलें, विधि बताइए?" और बहुत दुकानें हैं जो विधियाँ बेच रही हैं, वहाँ मिल भी जाएँगी विधियाँ।

तुम्हें देखकर के तो मुझे कई बार इस पर शक़ होने लग जाता है कि परमात्मा से कोई ग़लती हो ही नहीं सकती। कौन बोलता है कि उत्कृष्टता, परफेक्शन उसका स्वभाव है? उत्कृष्ट से अंतकृष्ट कैसे पैदा हो गया? पूर्णता से यह क्षुद्रता कहाँ से आ गई? जैसा बाप होता है वैसा बेटा, वैसी बेटी। बाप तो ऐसा है यह बेटियाँ ऐसी कैसे हो गईं? सेब के पेड़ पर सूखे हुए बेर लटक रहे हैं, यह जादू हुआ कैसे? कोई जादू नहीं है। एक ही अपराध होता है, असमर्पित रहना, अपनी ढिठाई, अपनी अकड़ में चलना और वह तुम करे ही जा रहे हो।

इतने गहरे रूप से संस्कारित हो। हो तो हो, बने क्यों रहना चाहते हो ऐसा? जिन्होंने तुम्हारे मन को बिलकुल तहस-नहस कर दिया, जो तुम्हारे मन पर चढ़ कर बैठ गए, जिन्होंने तुमको इतना डरा दिया है, उन्होंने अपना काम किया, वो तुम्हारे हितैषी नहीं थे, तुम क्यों नहीं अपने हितैषी हो?

तुम्हारे साथ क्या हुआ यह बात बहुत सीधी है। बचपन से ही बड़ा अत्याचार हुआ है, वीभत्स कृत्य हुए हैं। समाज ने, संस्थान ने मन को बिलकुल मरोड़ दिया है। वह ऐसा विकृत हो गया है कि अपनी सहज, सुंदर स्थिति को भी प्राप्त नहीं कर पा रहा है। उन्होंने जो करना था उन्होंने किया। वो ख़ुद मूर्ख थे, वो ख़ुद बहके हुए थे, तुम क्यों अपने दुश्मन बने बैठे हो? तुम्हारी आँखों में वही बेबसी क्यों है जो तुम्हारे माँ-बाप की आँखों में थी, तुम्हारे चाचा-ताऊ की आँखों में थी, तुम्हारे पड़ोसी और शिक्षकों की आँखों में थी?

अपनी आँखों को देखो, यह बेबसी तुम्हारी नहीं है। तुम विशुद्ध, पूर्ण आत्मा हो, आत्मा बेबस नहीं होती। यह बेबसी आयातित है, यह उधार की है, यह पड़ोसियों ने दी है, यह माँ ने दी है। माँ ख़ुद मूढ़ थी, उसे नहीं पता था, उसने दे दी, तुम क्यों उसको लेकर के घूम रहे हो? यह तुम्हारा चेहरा नहीं है। आम के पेड़ पर सूखे बेर नहीं उगते। यह चेहरा क्यों ढो रहे हो? बड़ा आनंद है तुम्हें इसमें? बड़ा आनंद है? जैसे जी रहे हो उसमें बड़ी खुशी है? चैन से रहते हो? और बात यदि इतनी सीधी है कि जैसे हो उसमें चैन नहीं है तो वैसे जिए क्यों जा रहे हो? कौन रोक रहा है तुम्हें ख़त्म हो जाने से, कौन रोक रहा है तुम्हें नई शुरुआत से?

मुझे ऐसे मत देखो जैसे कि मैं कोई अचंभित कर देने वाली बात बोल दे रहा हूँ। मैं कुछ नया नहीं बोल रहा हूँ। तुम मुझे बताओ कि तुम यह अचंभा सार्थक कैसे कर देते हो? मैं जो कह रहा हूँ वह तो बात बहुत सहज है, तुम जो हो वह जादू है।

प्र: सहज लोग कम हैं, जादूगर ज़्यादा हैं।

आचार्य: जादूगर, जादू कर रहे होंगे, मैं इन्कार नहीं कर रहा उससे। बच्चों पर जादू चल जाता है, तुम बच्चे हो? अब क्या विवशता है यह बताओ? अब क्या विवशता है? मुँह पर लिखा हुआ है 'मैं मजबूर हूँ'? क्यों? और एक बात बताऊँ, तुम जितना रोना रोओगे न कि तुम मजबूर हो, उतना मजबूर बने रहोगे।

“नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो"। जो अपने आप को बलहीन कहता है उसको तो आत्मा का लाभ भी नहीं मिलता। आत्मा तक उसको मिलती है जो पहले अपने आपको निर्बल मानना बंद करे। संसार की चीज़ें तो छोड़ो, परमात्मा भी नहीं मिलेगा तुम्हें अगर तुम निर्बल ही बने रहो। यह मत सोचना कि वहाँ सब अंकंडीशनल (बेशर्त) है, वहाँ सब मुफ्त मिलता है। मुफ्त नहीं मिलता, एक शर्त वह भी रखता है कि पहले पात्रता दर्शाओ। जब तुम्हारा पात्र ही इतना बड़ा है, मजबूर कटोरा और उसमें भी छेद-ही-छेद। एक तो कौन सा कटोरा? मजबूर कटोरा और उस मजबूर कटोरे में भी अट्ठारह छेद, तो तुम्हें क्या मिलेगा? बोलो, क्या मिलेगा?

पहले तुम ज़रा मन तो कड़ा करो, पहले तुम तय तो करो कि, "नहीं हैं मजबूर!" पहले तुम तय तो करो कि जब भी सत्य और संसार में चुनाव करना होगा तो चुनाव करना ही नहीं है। फिर देखो कि तुम्हारा साथ देने के लिए कोई आता है या नहीं आता। वह देने के लिए सदा प्रस्तुत है, पूरा उत्सुक है, तुम अपनी ओर देख लो तुम लेने के लिए कितने उत्सुक हो। लेने के जब भी मौके आते हैं तो तुम अपना कटोरा आगे कर देते हो कि, "मैं मजबूर हूँ।" फिर ऊपर से वह बोलता है, "बेटा, तुमसे ना हो पाएगा।" पहले तुमने बोला, "पापा हमसे ना हो पाएगा।" तो इधर से प्रतिध्वनि आती है, गूँज, ठीक बेटा, तुमसे ना हो पाएगा।

कभी बोल कर देखो कि हो पाएगा और फ़िर देखो कि होता है कि नहीं। फ़िर अगर नहीं होता तो भी तुम जीते। बोलो तो सही न कि होगा, होगा कैसे नहीं? करेंगे। अब फ़र्क़ नहीं पड़ता के परिणाम क्या आएगा, तुम्हारी उद्घोषणा में इतना दम है कि तुम बदल गए। तुम बोलो तो। तुमसे बोला ही नहीं जाता, जब मौका पड़ता है तो लिलियाने लगते हो। जैसे भूखी चुहिया, आवाज़ ही नहीं निकल रही और फिर गायब हो जाए। कई बार बड़े-बड़े हाथी भी जिगर चूहे का ही रखते हैं, वो भी भूखे चूहे का।

भरोसा इतनी मुश्किल बात होती है क्या? किसी पर तुम्हें भरोसा नहीं है न? तुम्हें बस एक बात पर भरोसा है कि दुनिया बड़ी ख़तरनाक जगह है, तुम्हारा अनिष्ट कर डालेगी। है न? किस पर तुम्हें पूरा भरोसा है? इसपर तुम्हें पूरा भरोसा है कि अगर तुम अपनी मदद नहीं करोगे तो बड़ा अहित हो जाएगा तुम्हारा, इस पर पूरा भरोसा है।

तो भरोसा करना तो जानते हो बस भरोसा करने के लिए वस्तु, व्यक्ति ग़लत चुन रखा है। क़सम उठाना तो जानते हो, यह नहीं जानते हो किसकी उठानी हैं। अपने आपको जोड़ लेना तो जानते हो, प्रेम तो जानते हो, यह नहीं जानते प्रेम के काबिल कौन है। कहीं जाकर के किसी भी कुपात्र से जुड़े रहते हो। मन में कुछ भी जड़े जमाए बैठा है और तुमने उसको प्रश्रय दे रखा है।

यह सब विचार ही तो हैं न? चलते तो विचारों पर ही हो। कुछ ऐसा तो है नहीं कि आत्मा द्वारा चालित हो। इन विचारों को तुमने ही बैठा रखा है, पोषण दे रखा है। यह विचार ही पाँव की ज़ंजीर बनते हैं। यह तुम्हें दिखाई नहीं देता कि कुछ सोचा इसीलिए कुछ नहीं कर पाए? कुछ तो विचार कर ही रहे थे, कुछ तो होशियारी दिखा ही रहे थे, कुछ तो अक्ल लगाई थी।

अक़्लमंद और मंदअक्ल, कोई बहुत दूरी नहीं होती। यह खोपड़ा ख़ुद परेशान है, यह तुम्हें शांति कैसे दे देगा? दे सकता है? यह ख़ुद कभी शांत रहता है? और तुम्हें जब भी सलाह लेनी होगी तुम इसके पास जाते हो। तब फ़िर सब भूल जाता है, परमात्मा भी भूल गया, गुरु भी भूल गया। अभी तुम उनका नाम मत लेना, फ़ोन मत मिला देना। अभी सलाह किस से लेनी है? खोपड़े से लेनी है। अब यह तुम्हारा दोस्त बन जाता है। भैंस का इतना बड़ा खोपड़ा होता है, तो? बोलो?

छोटी-मोटी बातों के लिए जाएँगे, इधर-उधर पूछेंगे। "हम तो समर्पित हैं, आचार्य जी, बताइए रोटी खाएँ कि पराँठा?" ठूस लो जो ठूसना है, वैसे ही फूले हुए हो। और जहाँ कहीं भी कोई सार की बात होगी, कोई महत्वपूर्ण मुद्दा होगा वहाँ पर तुम्हारा हितैषी तुम्हारा खोपड़ा बन जाता है, वहाँ तुम बहुत होशियार हो जाते हो। वहाँ तुम्हें किसी से पूछने-ताछने की ज़रूरत नहीं है, वहाँ तुम्हारे अपने निर्णय चलेंगे। हमने तय किया है न अपने हिसाब से चलेंगे अब हम।

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