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लेख
अध्यात्म के अभाव से होते अपराध || (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम स्वीकार करें। हाल ही में कश्मीर में एक छोटी बच्ची को बड़ी बर्बरता से मार दिया गया। मैं जब भी इस तरह की किसी घटना के बारे में सुनती हूँ तो बुरी तरह से बेचैन हो जाती हूँ और अपने-आप को असहाय, बेबस पाती हूँ, अवसाद में चली जाती हूँ। क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: तीन-चार कोटियों के लोग होते हैं, इनको सबको समझना।

एक कोटि उनकी जो इस तरह के अपराधों को स्थूल रूप से अंजाम देते हैं, जिन्हें समाज भी और कानून भी अपराधी के रूप में जानता ही है, कि “ये पाँच लोग, आठ लोग, दस लोग थे जिन्होंने ये अपराध किया, ज़ुल्म किया।” ये पहली कोटि के लोग हुए, जो अपराध में सीधे-सीधे ही स्थूल रूप से संलग्न थे।

दूसरी कोटि के लोग वो होते हैं जो इन स्थूल अपराधों का स्थूल ही तल पर विरोध करते हैं। वो यात्राएँ निकालेंगे, वो जुलूस निकालेंगे, वो नारे लगाएँगे, वो शोर मचाएँगे, वो मोमबत्तियाँ जलाएँगे। उन्होंने विरोध तो किया, पर स्थूल तौर पर।

तीसरी कोटि के वो लोग होते हैं जो दिल-ही-दिल में बुरा मानते हैं — जैसा तुमने लिखा — अपने-आप को बेबस, बेचैन पाते हैं, अवसाद में चले जाते हैं, दुखी हो जाते है, अकेले में आँसू बहाते हैं। ये तीसरी कोटि हुई।

चौथी कोटि हुई उदासीन लोगों की। इन्हें कोई मतलब नहीं, कोई मरे, कोई जिए। “घर में लड्डू है? है, ठीक!” जब तक घर में लड्डू है, दुनिया में कौन मर रहा है, कौन जी रहा है, कौन फ़िकर करे?

समाधान इनमें से किसी कोटि में नहीं है। इनमें से किसी भी वर्ग के लोग वास्तविक समस्या को देख ही नहीं पा रहे तो उसका समाधान क्या करेंगे!

जो हत्यारे, बलात्कारी और अपराधी हैं, उनकी तो बात ही क्या करनी, उन्होंने तो अपने गर्हित उद्देश्यों के लिए जो पाप करना था वो किया। पूछोगे उनसे, “क्यों किया?” तो उनके पास कोई जवाब होगा ज़रूर, किसी-न-किसी तरीके से उचित ठहराएँगे। निकृष्टतम अपराधी के पास भी अपने पक्ष में कोई बचाव, कोई दलील ज़रूर होती है; घटिया दलील होगी, असम्यक दलील होगी, विक्षिप्त दलील होगी, पर होगी ज़रूर। हर दलील यही कहती है कि यही उचित था, हर दलील यही कहती है कि “ये कर के कुछ ठीक होता, कहीं शांति आती, ये जो कृत्य था, धर्मोचित था।” इस कोटि के लोगों को एक तरफ़ रखते हैं। इनका अपराध जघन्य है, इनका मन विक्षिप्त है, ये सूक्ष्म हिंसा से क्या बचेंगे, इन्हें तो स्थूल हिंसा भी द्रवित नहीं कर पाई।

फिर आते हैं उस कोटि के लोग जिन्हें आप आंदोलनकारी, प्रदर्शनकारी, एक्टिविस्ट इत्यादि कह सकते हैं। ये शोर मचाते हैं, ये लेख लिखते हैं, ये कहते हैं कि हत्यारों को फाँसी दो, इत्यादि-इत्यादि। ये समझ ही नहीं रहे हैं कि असली समस्या कहाँ पर है, ये ‘घटना’ का विरोध कर रहे हैं। ये कह रहे हैं, “कठुआ में जो हुआ, उन्नाव में जो हुआ, वो ग़लत था।” इनकी दृष्टि कहाँ जा कर अटकी है? ‘घटना’ पर। ये ऐसी-सी बात है जैसे कोई विष-वृक्ष की एक पत्ती का विरोध कर रहा हो। एक पत्ती एक घटना है, एक इवेंट है, एक एपिसोड है, आप उसका विरोध कर रहे हो। आप देख ही नहीं रहे हो कि शाखाएँ कहाँ हैं, तना कहाँ है और अंततः जड़ कहाँ है। जड़ हर प्रकार के अपराध की एक ही होती है – सत्य का अभाव, अध्यात्म का अभाव। जहाँ अध्यात्म नहीं है, जहाँ सद्वचन नहीं है, जहाँ ग्रंथ और गुरु नहीं हैं, वहाँ मन की विक्षिप्तता तो पलित-पोषित होती ही रहेगी न। पर उसकी बात ये नहीं करेंगे, ये कहेंगे कि “समाज में उत्तेजना पैदा करने वाली और हिंसा पैदा करने वाली जितनी ताक़तें हैं वो बनी रहें, लेकिन उत्तेजना और हिंसा के जो फल आते हैं वो फल न आएँ बस।” तमाम तरीकों से लोगों के मनों में जो ज़हर भरा जा रहा है, उस ज़हर की चर्चा नहीं करेंगे, बस जब उस ज़हर के नतीजे आएँगे तो ये नतीजों का विरोध करेंगे, जैसे कि पत्तियों का विरोध करने से जड़ों को कोई फ़र्क पड़ जाता हो।

जब आपने पूरी व्यवस्था ही देह-आधारित बना दी है, और जब आपने ये तय कर लिया है कि जीवन का परम-लक्ष्य देह की संतुष्टि है, पदार्थगत रस है, तो अब अगर कोई देह की माँग के चलते बलात्कार करता है तो आपको ताज्जुब क्यों होता है? उपभोग को आप बड़े-से-बड़ा मूल्य देते हो, ऊँची-से-ऊँची वर्च्यू समझते हो। देश की तरक्की ही आप ऐसे नापते हो कि देश में अब उपभोग, कंज़म्पशन कितना हो रहा है। जितना उपभोग बढ़ रहा, आप कहते हो देश उतना आगे बढ़ा। हर साल आप आँकड़े छापते हो, कि कितने प्रतिशत उपभोग में वृद्धि हुई। उपभोग को आप इतना प्रोत्साहन दे रहे हो, उपभोग पदार्थ का ही होता है न, और देह ही भोगती है न? अब अगर लोगों का मन ऐसा हो जाए कि वो सिर्फ़ भोगना ही चाहें और भोगना और भोगना, तो तुम्हें ताज्जुब क्यों हो रहा है? भोग को वरीयता दी किसने? तुम्हारे विद्यालयों से ले कर तुम्हारे प्रधानमंत्री तक, सब बात कर रहे हैं विकास की; और विकास का क्या अर्थ है? क्या वो आंतरिक, आध्यात्मिक विकास की बात कर रहे हैं, क्या वो मानसिक शांति की बात कर रहे हैं? वो किस विकास की बात कर रहे हैं? जिस विकास में तुम्हारे पास और-और-और चीज़ें और सुविधाएँ हों, भौतिक सुख हो; और भौतिक सुख में तो कामवासना का बड़ा ऊँचा स्थान होता है!

जब तुम लोगों को सिखा ही यही रहे हो कि “भौतिक सुख बड़ी बात है,” तो भौतिक सुख के लिए किसी की देह पर हमला बोल दे, इसमें आश्चर्य क्या? जब लगातार शिक्षा ही यही दी जा रही है कि “आगे बढ़ो! विकास-विकास, और विकास। जी.डी.पी. , जी.डी.पी. , जी.डी.पी.। हर चीज़ क्या है? भोगने की है। पहाड़ों पर जाओ, पहाड़ों को भोगो। नदियों को छुओ, नदियों को भोगो। भोजन को भोगो।” तो अगर अब तुम स्त्रियों और पुरुषों की देहों को भी सिर्फ़ भोग की वस्तु की तरह देखते हो, तो ये तो होना ही था न? बोलो! लेकिन ये जो नारेबाज़ हैं और प्रदर्शनकारी हैं, ये कभी इस समूची व्यवस्था का विरोध नहीं करेंगे। जिस वेबसाइट पर बड़ा-बड़ा छपा हुआ है कि इतने प्रदर्शनकारी हैं, और वो तख्ते ले कर खड़े हैं, बैनर ले कर खड़े हैं, स्त्रियाँ ही खड़ी हैं, और वो कह रही हैं कि “देखो, ये बड़ा ग़लत हुआ है”, उसी वेबसाइट में ज़रा नीचे आओ तो नंगी स्त्रियों की ही तस्वीरें हैं। और हम इतने अंधे हैं कि हमें समझ में ही नहीं आ रहा कि ऊपर तुम जिस चीज़ का विरोध कर रहे हो, नीचे तुम उसी चीज़ को प्रोत्साहन और प्रश्रय दे रहे हो।

जब तक तुम स्त्री को भोग की वस्तु बनाए रखोगे, बताओ बलात्कार होगा कि नहीं होगा? बोलो!

प्र: होगा।

आचार्य: और जब तुम कार को भोगते हो, घर को भोगते हो, तो तुम नारी देह को भोगने से कैसे चूक जाओगे? टी.वी. खोलते हो, उसमें भोग के अलावा कुछ है? बोलो! और दुर्भाग्य ये है कि उस मूल्य को बहुत ऊँचा स्थान दे दिया गया है। अगर आप राष्ट्रवादी हैं तो आप काम करेंगे राष्ट्र के ‘विकास’ के लिए, और विकास तब है जब लोग और भोगें।

कौन-सा घर कितना आगे निकला? कब बोलते हो, कि “साहब! फलाने घर की तरक्की हो रही है”, कब बोलते हो?

प्र: जब ज़्यादा भोग होता है।

आचार्य: जब एक गाड़ी की जगह दूसरी गाड़ी भी आ जाए। जब दिखाई दे कि जितनी खिड़कियाँ हैं, उससे दूने ए.सी. (वातानुकूलित) लगे हुए हैं। कमरे हैं तीन, और ए.सी. लगे हैं छः, तब तुम कहते हो, “इनके घर पर बरकत है।” अब भले ही वो ए.सी. चला कर के अंदर कुछ भी कुकृत्य होता हो। जब भीतर गरमा-गरम काम होंगे तो एक की जगह दो ए.सी. तो चलाने ही पड़ेंगे भाई! पर तुम कहोगे, “नहीं साहब! ये विकास हो रहा है। ये देखिए विकास चल रहा है।”

और बड़े अफ़सोस की बात है कि अधिकांश लोग जो बुलंद स्वर में उत्पीड़न का, शोषण का, बलात्कार का विरोध करते हैं, ये वो लोग हैं जिनका अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं। किसी भी तरह की हिंसा को रोकने का साधन एक ही है – अध्यात्म, ध्यान, प्रेम, भक्ति। पर इन शब्दों को तो दकियानूसी करार दिया गया है न! तुम जा कर के बोलो, कि “जब तक समाज में भक्ति नहीं आती और ध्यान नहीं आता, और सत्संग नहीं है, और समर्पण नहीं है, तब तक अपराध रुकेंगे नहीं”, तो लोग कहेंगे, “ये देखो, दकियानूसी बात करने चले आए! अरे! अपराध रोकने के लिए बंदूक चाहिए, अपराध रोकने के लिए इंडिया-गेट पर मोमबत्तियाँ जलानीं चाहिए। अपराध रोकने में कृष्ण और अष्टावक्र और कबीर और उपनिषदों की क्या भूमिका?” तुम पागल हो! तुम्हें समझ में ही नहीं आता कि अतीत में भी ऋषियों को राजा प्रश्रय और प्रोत्साहन इसीलिए देते थे क्योंकि संतों के, ऋषियों के होने के कारण राज्य में आध्यात्मिक शांति बनी रहती थी। जिस-जिस गाँव से साधु गुज़र जाता था वो गाँव शांत हो जाता था। जिस गाँव में फ़कीर डेरा डाल लेता था, उस गाँव में अपराध कम हो जाते थे। सूफ़ियों, फ़कीरों, साधुओं के सामने संभव ही नहीं था कि किसी के मन में कुविचार उठें।

आज न साधु है, न सूफ़ी है; आज अपराध हैं, घाव हैं, रक्त है, बर्बर हिंसा है, भोग का, विकास का विक्षिप्त नाच है।

तीसरी कोटि, जो ये तो समझ गए हैं कि नारेबाज़ी से कुछ नहीं होने वाला, पर वो ये भी नहीं समझे हैं कि समाधान है कहाँ पर, तो वो बेचारे बस बेबसी में हाथ मलते हैं, एकांत में आँसू बहाते हैं। बेबसी में हाथ मलने से और एकांत में आँसू बहाने से भी कुछ नहीं होगा। हमें सक्रियता की ज़रूरत निश्चित रूप से है, हमें एक्टिविज़्म चाहिए, पर हमें वो सड़कों पर झंडे और तख्तियों वाला एक्टिविज़्म नहीं चाहिए, हमें आध्यात्मिक-सक्रियता चाहिए। हमें लोग चाहिए जो दुनिया को बता सकें कि “देखो तुम्हारे ढर्रे नकली हैं, इन-पर चल कर के न किसी को कुछ मिला है, न तुम्हें कुछ मिलेगा।” भीतर-भीतर अंगारा जल रहा है, आग किसी भी दिन लग सकती है। तुम झूठे विश्वास में जी रहे हो! ऊपर-ऊपर शांति है तो तुम्हें लग रहा है कि सब ठीक है, अचानक किसी दिन आग भड़केगी, फिर क्या करोगे? और बचने का तरीका सिर्फ़ एक है। कबीर से पूछा किसी ने, उन्होंने कहा, “कथा, कीर्तन, सत्संग।”

पर ये शब्द ही धर्म के बाज़ार में इतने विकृत हो गए हैं कि जैसे ही ये शब्द बोले जाते हैं, मन से विरोध-सा उठता है। मन कहता है कि “वो तो अपराधी हैं ही जो जघन्य कृत्य करते हैं, वो क्या कम अपराधी हैं जो आश्रम चला रहे हैं, जो कथाएँ कर रहे हैं, जो कीर्तन और भजन करते हैं? वहाँ तो और बड़े-बड़े अपराध देखने को मिलते हैं।” वहाँ बड़े अपराध देखने को मिलते ही इसीलिए हैं क्योंकि तुमने शिक्षा की मुख्य धारा से अध्यात्म को काट दिया है, तुमने शिक्षा की मुख्य धारा से अध्यात्म को बेदखल कर दिया है। तो अब घटिया, कोने वाली दूकानों में बाबाजी और स्वामीजी बैठ गए हैं और वहाँ धर्म के नाम पर धंधा चल रहा है। इसका अर्थ ये नहीं है कि धर्म ख़राब है, इसका अर्थ बस यही है कि धर्म के साथ तुमने जो सुलूक किया है वो ख़राब है। पानी नहीं ख़राब है, तुम कीचड़ वाला पानी पी रहे हो इसलिए तुम बीमार पड़ रहे हो। कीचड़ का पानी पी कर के तुम बीमार पड़ जाओ तो क्या तुम पानी को ही त्याग दोगे? धर्म के नाम पर तुम किसी व्यर्थ के अड्डे, डेरे, आश्रम में घुस गए, ये तुम्हारी चूक थी; अब तुमने अध्यात्म को ही बदनाम कर दिया, और वही एकमात्र समाधान था।

दुनिया की कोई भी समस्या हो, वास्तव में उसका समाधान आदमी के मन में ही है, और आदमी के मन को स्वस्थ रखने वाली चिकित्सा का नाम है अध्यात्म।

चौथी कोटि का कहना ही क्या! उन्हें दुनिया से कोई मतलब ही नहीं! वो कह रहे हैं, “मेरा घर ठीक चल रहा है न! मेरी बिटिया सुरक्षित है न! अब दुनिया में किसी बेचारी बच्ची के साथ कुछ होता हो, मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।” ये चौथी कोटि के लोग हैं, ऐसे भी बहुत हैं। ये कहते हैं, “जब तक मेरे घर में नहीं हुआ तब तक हुआ ही नहीं।” मैं इन्हें चेता रहा हूँ कि जब दुनिया-भर में आग लगेगी तो तुम्हीं नहीं बच जाओगे। और आग लगी हुई है, और जितने लोगों के साथ कुछ हो जाता है वो सब वही थे जो सोच रहे थे कि हमारे साथ तो हो ही नहीं सकता।

चुप बैठने का वक़्त नहीं है, सक्रियता दिखानी पड़ेगी, पर नारेबाज़ी वाली सक्रियता नहीं, जैसी आम पत्रकारिता में देखी जा रही है वैसी सक्रियता नहीं। टी.वी. वाली सक्रियता नहीं, वास्तविक सक्रियता, सच्ची सक्रियता, हार्दिक सक्रियता। सड़क पर निकलने से नहीं होगा। ज़रा साथ बैठो, पढ़ो, सत्चर्चा करो, सत्संग करो, समझने की कोशिश करो, ध्यान करो, और फिर देखो कि तुम्हारा मन किसी भी प्रकार की हिंसा से दूर-दूर स्वयं ही रहता है कि नहीं रहता।

जो वास्तव में चाहते हों अपराध-मुक्त समाज, उन्हें अध्यात्म का समर्थन करना ही पड़ेगा।

और अध्यात्म का समर्थन कर के तुम सिर्फ़ अपराध से मुक्ति नहीं पा रहे, जो हज़ार तरीके की दूसरी समस्याएँ भी हैं – आर्थिक, राजनैतिक, वैश्विक – सबका समाधान कर डालोगे; कुंजी एक है, समाधान एक है।

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