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लेख
आप मत कहिये कि अहं झूठ है || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
6 मिनट
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प्रश्नकर्ता: एक बार एक संत से पूछा गया कि, "कर्ता और अकर्ता भाव में अंतर क्या है?” तो उनका उत्तर आया कि, "कर्ता और अकर्ता कोई है ही नहीं।" और अभी आपने बंधनों की बात कही। बंधन मेरे ही हैं और इन बंधनों से छूटना मुझे ही है। इन दोनों में क्या फ़र्क़ है, मुझे समझ नहीं आ रहा।

आचार्य प्रशांत: बस यही बात सही है, इसी को पकड़ लीजिए – आप बंधन में हैं, आपको बंधनों से छूटना है।

प्र: पर कर्ता है ही नहीं तो बंधन किसके लिए हैं?

आचार्य: आपके लिए नहीं है क्या कर्ता? आप तो हैं न कर्ता अपनी दृष्टि में?

प्र: हाँ।

आचार्य: तो फिर क्यों कह रहे हैं कि कर्ता नहीं है? वो मुझे कहने दीजिए। आप क्या कहेंगे?

आप ईमानदारी से अपने जीवन को देखेंगे तो क्या कहेंगे? “मैं सब कामों का कर्ता हूँ।” तो आप कर्ता हैं, और बंधन हैं, और आपको उनसे आज़ाद होना है। बस इतनी-सी बात, इसको पकड़ लीजिए।

बहुत बातें संतजन, ऋषिजन अपने हाल का ब्यौरा देते हुए कहते हैं। वो बात आपकी नहीं हो गई। उन्होंने कह दिया, “अहम् ब्रह्मास्मि”, भाई! वो अपनी बात कर रहे हैं। वो ब्रह्म हैं, आप नहीं ब्रह्म हो गए। ये उनकी चेतना का स्तर है कि वो कह पाए, “अहम् ब्रह्मास्मि”। और आपने कहा, “बढ़िया! अहम् ब्रह्मास्मि!” वो हैं ब्रह्म, आप नहीं हो गए। आप तो अभी ईमानदारी से यही कहिए कि, “अहम् भ्रमास्मि:, मैं भ्रम हूँ!”

(श्रोतागण हँसते हैं)

नहीं तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी—'भ्रम' अपने-आपको 'ब्रह्म' बोल रहा है, और मज़े ले रहा है ब्रह्म बोलने के। जैसे अभी आपने बोला, “कर्ता भी नहीं है, अकर्ता भी नहीं है।” अरे, कैसे नहीं है? खुले-आम है, साफ़-साफ़ है।

अध्यात्म का ये नहीं मतलब होता कि ज़मीनी हक़ीक़त को बिलकुल झुठलाने ही लग गए कि, “मैं हूँ ही नहीं! आचार्य जी, मैं तो माया हूँ। मैं हूँ ही नहीं।” तो ये पकौड़े कौन खा रहा है?

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये खूब चलता है अध्यात्म में, " आई डू नॉट एक्सिस्ट, ओनली ट्रुथ एक्सिस्ट्स " (मेरा अस्तित्व नहीं है, केवल सत्य का ही अस्तित्व है)।

प्र: आत्मा को सुख-दुःख से कोई लेना-देना नहीं होता, और शरीर से भी अगर चेतना निकाल दी जाए तो उसको भी कोई फीलिंग्स (अनुभव) नहीं होता। तो फिर ये सब जो अनुभव होता है सुख-दुःख का, वो अहम् से होता है?

आचार्य: अनुभोक्ता को होता है; अहम्।

प्र: हाँ, और देखा जाए तो अहम् भी सच नहीं है, झूठा है। मतलब वो स्वयं से प्रकट नहीं है।

आचार्य: (मुस्कुराते हुए) ऋषियों के लिए झूठा है, हमारे लिए नहीं।

हमारे लिए अहम् हमारी ज़िंदगी है, झूठा कैसे हो गया? जिन्होंने अहम् को साफ़-साफ़ झूठा जाना, उनकी निशानी ये है कि उनकी ज़िंदगी में अहम् अब नज़र नहीं आता। जिसकी ज़िन्दगी में नज़र ना आए सिर्फ़ उसको हक़ है कहने का कि, "अहम् झूठ है।" आपकी ज़िंदगी में अहम् है या नहीं है?

प्र: है।

आचार्य: तो आप क्यों कह रही हैं कि, "अहम् झूठ है"?

प्र: मैं ये...

आचार्य: (व्यंग्य करते हुए) “सैद्धांतिक तौर पर कह रही हूँ।”

प्र: नहीं, ये फील (महसूस) कौन कर रहा है, मैं वो जानना चाह रही हूँ।

आचार्य: क्या फील (महसूस) करना?

प्र: जो सुख-दुःख हमें फील होता है, वो सच में कौन कर रहा है? — ये जानना चाह रही हूँ।

आचार्य: शरीर को पीड़ा होती है। उस पीड़ा को अर्थ अहम् देता है। अहम् की एक ख्वाहिश है, क्या? पूर्णता मिल जाए। वो शरीर के माध्यम से पूर्णता पाना चाहता है, तो शरीर में जो भी घटना घटती है, वो अहम् के लिए सार्थक घटना होती है इस अर्थ में कि अहम् उसमें कुछ-न-कुछ अर्थ देखता है, मीनिंग (मतलब) देखता है। शरीर की हर पीड़ा अहम् को बुरी भी नहीं लगती। पीड़ा सदा दुःख नहीं बनती, कुछ पीड़ा सुख भी कहलाती हैं। और शरीर के सब सुख अहम् के लिए सुख नहीं बनते। कुछ चीज़ें जो शरीर को सुख देती हैं, अहम् कहता है, “नहीं, इनसे तो मुझे कुछ मिल नहीं रहा!”

अहम् अनुभोक्ता है। सब अनुभवों को वो अपने रंग में रंगता है।

अब ऐसे समझिए। अंतर समझिएगा पीड़ा और दुःख में। कोई युवा लड़की है, उसका अहम् बिलकुल किस बात से जुड़ा हुआ है? एक घिसा-पिटा उदाहरण ले रहे हैं, सब लड़कियों का नहीं जुड़ा होता, एक क्लीशेड (घिसा-पिटा) उदाहरण। उसका अहम् किससे जुड़ा हुआ है? देह से। "मैं कितनी ख़ूबसूरत दिख रही हूँ?" ठीक है? पीड़ा और दुःख का अंतर समझ रहे हैं, कि कैसे अहम् पीड़ा को दुःख में परिवर्तित करता है। वो कहीं फिसल कर गिर गई, उसको दो जगह खरोंच आयी। एक उसको खरोंच आयी है पीठ में, जहाँ कोई नहीं देखने वाला, थोड़ी-सी खरोंच, और दूसरी उसको खरोंच आयी है गाल पर। खरोंच दोनों जगह की बराबर की है, और दोनों ही जगह पीड़ा उसे बराबर की हो रही है। शारीरिक दृष्टि से दोनों जगह बिलकुल बराबर खरोंच आयी है, और दोनों जगह, शारीरिक दृष्टि से, उसे पीड़ा बराबर की हो रही है। दुःख कहाँ ज़्यादा हो रहा है?

प्र: गाल पर।

आचार्य: ये पीड़ा और दुःख का अंतर है।

अहम् ने अपने-आपको ये कह रखा था कि, "मुझे पूर्णता मिलेगी दूसरों की तारीफ़ से।" अहम् ने अपने-आपको क्या बता रखा था? "मैं अपूर्ण हूँ, और दूसरे आकर वाहवाही करेंगे, कहेंगे, 'कितनी सुंदर हो', तो मुझे पूर्णता मिल जाएगी।" ये जो यहाँ पर (गाल पर) हुआ है, इससे अहम् के इरादों पर चोट लगी, इसलिए उसे दुःख हो रहा है। इस दुःख का शारीरिक पीड़ा से बहुत लेना-देना नहीं है।

इसी तरीके से हो सकता है कि कोई साधक हो जो शारीरिक तल पर बड़ी पीड़ा झेल रहा हो, लेकिन वो पीड़ा उसे आंतरिक आनंद देती हो। पीड़ा वो शरीर की झेल रहा है, लेकिन उसे आंतरिक आनंद मिल रहा है उस पीड़ा के कारण।

तो ये जो अनुभोक्ता है, ये शरीर से अलग है। शरीर से जुड़ा हुआ है, लेकिन ये अपनी अलग सत्ता रखता है। तो शरीर में भी जो कुछ हो रहा होता है, ये उसमें अपने मुताबिक रंग भरता है।

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