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लेख
आओ, अपने दर्द से बात करें || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे आपने बताया कि पहले आप मूल दर्द से आँखें चार कीजिए। तो मैं समझता हूँ कि जो अपूर्ण अहम् है, आप उसकी ओर इशारा कर रहे थे। तो वो दिखता ही कुछ संयोगवश परिस्थितियों में है, वैसे दिखता नहीं है। तो ऐसा क्या किया जाए कि उन संयोगों पर निर्भर न रहना पड़े, उसको हम हर समय देखते रहें और कुछ कर पायें उसके बारे में।

आचार्य प्रशांत: जो ये फुटकर दर्द हैं, छुटभैये दर्द इनको सामने बैठा करके इनका इंटरव्यू (साक्षात्कार) ले लिया करो। सीधा साक्षात्कार। ठीक है? बोलो कि तुम बहुत शोर मचा रहे हो, तुम कह रहे हो, ‘अरे! अरे! अरे! दर्द हो रहा है, हम ही बहुत बड़े हैं, ये हो गया, वो हो गया।’ बोलो, ‘मान लो हम तुम्हारा उपचार कर भी दें, उससे तुम तो चले जाओगे, लेकिन दर्द चला जाएगा क्या?’

अगर बातचीत ईमानदारी से हो रही है तो तुम्हें जवाब मिलेगा, नहीं। तो ये छोटा दर्द था, इसने तुम्हें क्या जवाब दिया? ये कह रहा है, ‘मैं अगर चला भी गया तो दर्द नहीं जाएगा।’ इसका अर्थ क्या हुआ?

प्र: मूल दर्द है।

आचार्य: मूल दर्द तो कुछ और है, इस छोटे वाले के जाने पर भी वो क़ायम रह जाना है। जैसे ही यह बात दिखायी देगी, वैसे ही कहोगे कि अरे बाबा, जब तेरे जाने पर भी मूल दर्द तो क़ायम रह जाना है तो मैं तुझे भगाने में, तुझसे उलझने में अपनी ऊर्जा व्यर्थ करूँ ही क्यों!

काम वो करो न जिसके पूरा हो जाने पर लाभ होता हो। ये छोटा दर्द है, क्या? कि बाल झड़ रहे हैं। ये समस्या मैंने अगर सुलझा भी दी, तो क्या ज़िन्दगी मेरी भयमुक्त हो जाएगी, कष्टमुक्त हो जाएगी? नहीं हो रही न! इसको मैंने जीत भी लिया तो लाभ मुझे कुछ होने नहीं वाला, तो बताओ मैं इसे जीतने में श्रम लगाऊँ क्या? कहो।

ये जो छोटी समस्याएँ हैं जीवन की, इनको अगर हमने जीत भी लिया तो भी जीवन का जो केन्द्रीय दर्द है, अगर वो जाने नहीं वाला तो इन छोटी-छोटी चीज़ों से उलझने में कहिए, समय लगाएँ क्या? नहीं न। पर ये बात तभी स्पष्ट होगी जब उस छोटी चीज़ को पहले आप सामने बैठाकर के खुली चर्चा करोगे। आप कहेंगे, ‘ठीक है, तू शोर बहुत मचाता है। तू बार-बार मेरा ध्यान खींचता है कि अरे, अरे! ये समस्या, ये समस्या।’ छोटी समस्या यही करती है न?

वो तो बाद में लगता है छोटी हैं; जब होती है तो वही बहुत शोर मचाती है, बिलकुल आपका सारा ध्यान ले लेती है। तो मैं कह रहा हूँ उनसे बात करिए। उनसे कहिए, ‘ठीक है, हम तुम्हारा समाधान कर देते हैं। लेकिन तुम एक वादा करो, हम तुम्हारा समाधान करेंगे, तुम हमारा समाधान कर दोगे। तुम्हारे जाने के साथ ही हमारी ज़िन्दगी से सब कष्ट भी चला जाना चाहिए। कहो! कर सकते हो ये वादा?’

क्या बोलेगी समस्या? ‘नहीं, ये वादा तो हम नहीं कर सकते।’ आप कहिए, ‘ठीक है, मीटिंग ख़त्म।’ जब भाई, तुमसे उलझने से हमें कुछ मिलना ही नहीं है तो हम तुमसे उलझें क्यों? फिर हम अपनी ऊर्जा कहीं और लगाएँगे न! सब छोटे मुद्दों से ये पूछा करो, ‘तुम कितने बड़े हो?’ छोटा तो उन्हें अभी हम कह रहे हैं, जब वो सामने खड़े होते हैं तो कैसे लगते हैं?

प्र: बड़े।

आचार्य: बहुत बड़े लगते हैं न! तो उनसे पूछ लिया करिए शान्त हो करके। दो क्षण को संयत होकर पूछिए, ‘बैठिए, बैठिए बात करनी है। चाय पीजिए। ज़रा अपना आकार बताइए, आकार। आप कितने बड़े हैं? और आपके आकार का प्रमाण यह होगा कि जब आप नहीं रहेंगे, तो आपके साथ हमारी कितनी समस्याएँ नहीं रहेंगी।'

तो ये जो बाल-तोड़ या बाल झड़ने की समस्याएँ हैं — जीवन में इस आकार की छोटी-छोटी — ये जवाब देंगी, ‘देखिए साहब, हम अगर चले भी गये, तो भी आपके जीवन में दुख, दर्द, कष्ट, समस्या तो उतने ही रहेंगे, जितने अभी हैं।’ जैसे ही ये उत्तर मिलेगा, वैसे ही आप वो जो छोटी समस्या है उससे आज़ाद हो जाएँगे।

पूछा करो। छोटी लड़ाइयों में उतरने से पहले पूछा करो कि इस छोटू को अगर मैंने जीत भी लिया तो मुझे मिलेगा क्या। लेकिन इसको जीतने में मैं जो समय और ऊर्जा लगाऊँगा, वो मेरा बड़ा नुक़सान कर देंगे। ऐसी लड़ाई लड़ना चाहते हैं, जिसमें जीत गये तो कुछ पाएँगे नहीं, लेकिन जीतने की प्रक्रिया में काफ़ी कुछ गँवा देंगे? लड़नी है ऐसी लड़ाई?

ऐसी लड़ाइयों को क्या करना चाहिए? दायें-बायें कर देना चाहिए, उपेक्षा कर देनी चाहिए। जब ये सब छोटी चीज़ों की उपेक्षा करने लगोगे, तब वो सामर्थ्य जगेगी, तब वो दृष्टि उठेगी कि जो मूल समस्या होगी, सीधे उस पर निशाना लगा पाओगे। पुरानी लड़ाइयों में देखते नहीं थे? अब जैसे चक्रव्यूह था। चक्रव्यूह याद है न? चक्रव्यूह कौनसा?

प्र: महाभारत वाला।

आचार्य: महाभारत वाला। तो उसमें सब चक्र होते थे, उनको काटते-काटते अभिमन्यु आगे बढ़ रहा था और ये सब। तो बाहर चक्र बनाये जाते हैं, जिनके मध्य में कौन बैठा होता है? जो केन्द्रीय लक्ष्य होता है। और चक्रव्यूह बनाने वाले की, व्यूहरचना करने वाले की मंशा ये होती है कि वो जो विपक्षी है, वो उलझकर रह जाए बाहरी चक्रों में — छोटी-छोटी समस्याओं में उलझकर रह जाए, भीतर आने ही न पाये।

तुम्हें क्या लग रहा है, जो सबसे बाहरी चक्र है, उसमें महापराक्रमी, शूरवीर खड़े किये जाते हैं? उसमें कौन खड़े किये जाते हैं? सब अदने, पैदल, प्यादे, सिपाही इन्हें खड़ा कर दिया जाता है। इन्हें खड़ा कर दिया जाता है, ताकि तुम इन्हीं में उलझे रह जाओ। दूसरे दिन दुर्योधन वगैरह ने किया क्या था — अर्जुन ने तो शपथ उठा ली थी कि या तो आज सूर्यास्त होने से पहले मार दूँगा जयद्रथ को, नहीं तो ख़ुद जल मरूँगा — तो उन्होंने क्या करा था?

उन्होंने जयद्रथ को बिलकुल बीच में छुपा दिया था और सामने एक-एक करके जितने योद्धा थे, वो सब खड़े कर दिये थे। जिसमें सबसे पहले कौन मिला बाहर-बाहर? सबसे छोटा खिलाड़ी। जितना ये रोक सकता है अर्जुन को, यही रोक दे। फिर उसके बाद उससे बड़ा खिलाड़ी, फिर और बड़ा खिलाड़ी और बड़ा खिलाड़ी।

ऐसे में जानते हो कृष्ण क्या करवा रहे थे अर्जुन से? अब अर्जुन को जयद्रथ की ओर बढ़ना है, एक आँख सूरज पर भी लगी हुई है कि सूर्यास्त नहीं होना चाहिए भैय्या। अजीब इसने शपथ लूट ले ली है। तो भीष्म सामने आ गये, जाने द्रोण सामने आ गये — पढ़ लेना देख लेना कौन थे — अर्जुन तैयार हो गया कि उलझ ही जाएँ आज तो। शपथ ली हुई है कि पुत्र की मृत्यु का बदला लेना है, तो आज इनको छोडूँगा नहीं।

कृष्ण बोलते हैं, ‘चुपचाप नमस्कार करो और बगल से आगे निकालो। लड़ना नहीं है, उलझना नहीं है — बुलाती है, मगर जाने का नहीं — आगे बढ़ो, आगे बढ़ो। असली शिकार अन्दर बैठा है। असली शिकार अन्दर बैठा है।’

वही बात समझ लो। हम सब की ज़िन्दगी का भी सूरज कब अस्त हो जाए कुछ पता नहीं और जयद्रथ को उससे पहले निपटाना है। समय सबके पास सीमित है। तो ये छोटे-मोटे बिना काम के योद्धाओं से उलझना है क्या? इनको तो प्रणाम करके आगे बढ़ो। बोलो, ’तुमसे उलझ लिये तो वो जो असली शिकार बैठा है, वो बच जाएगा; उसको नहीं बचने देना है।’

आ रही है बात समझ में?

वो जो असली शिकार है, महाभारत में उसका नाम था जयद्रथ, अध्यात्म में उसका नाम है अहंकार। वही जो अन्दर वाला है, वो अपने बहुत सारे ये छोटे-मोटे सेवक-सावक और छोटे-मोटे दुमछल्ले भाई-बहन, ये सब प्यादे खड़े कर देता है; इनसे उलझने का नहीं। असली की ओर जाना है सीधे।

प्र: आचार्य जी, वो पकड़ में नहीं आता न! जैसे कभी कुछ परिस्थिति में वो दिखता है कि ये कारनामा उसका होगा। वैसे जो ज़िन्दगी चलती है, उसमें तो उसका कुछ पता लगता नहीं है। लगता है कि सब सही चल रहा है, पर कुछ ऐसा होता है तब लगता है कि ये कारनामा उसका है।

आचार्य: एक सवाल, एक सूत्र — तुझे सुलझा लूँगा तो क्या सब सुलझ जाएगा — बस, ये पूछना है। दोहराओ।

प्र: तुझे सुलझा लूँगा, तो क्या सब सुलझ जाएगा!

आचार्य: तुझे जीत लूँगा तो क्या सब जीत लिया? तब तक मत उलझो जब तक जवाब हाँ में न आ जाए। हर चीज़ जो उलझने के लिए आमन्त्रित करती हो, उससे बस यही पूछ लो, ‘तुझे पा लिया, तो क्या सब पा लिया; तुझे निपटा लिया, तो क्या सब निपटा लिया; तुझे जीत लिया, तो क्या सब जीत लिया; तुझे हल कर लिया, तो क्या सब हल हो गया!’

और अगर जवाब ना में आ रहा है तो उलझो मत आगे बढ़ते रहो, बढ़ते रहो!

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