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आदतें छूटती क्यों नहीं है? || आचार्य प्रशांत (2015)

Author Acharya Prashant

आचार्य प्रशांत

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आदतें छूटती क्यों नहीं है? || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: “मन जब भी कुछ छोड़ना चाहता है तो ऊपर-ऊपर की ही बात होती है, अंदर कहीं ना कहीं वो शायद पकड़ कर ही बैठा है। ऊपर-ऊपर से लगता है कि काफी कुछ जान गया, पर अंदर से पता है कि झूठ कितना है, स्थिति वही है। प्रश्न मैं ये सही से नहीं पूछ पा रहा हूँ।”

आचार्य प्रशांत: तुमनें बिलकुल सही से पूछा है। लिख तो दिया ईमानदारी से। अब इसमे कुछ बचा नहीं है, बिलकुल ठीक लग रहा है जो तुम्हें लग रहा है। इसमें दिक्कत क्या है? चाहते हो ऐसा न हो?

श्रोता: अब इसमें ये है आचार्य जी कि, चाहता हूँ ऐसा हो, लेकिन वही है कि, जैसे बताया, अभी बोल रहा था कि, जो एकदम अंदर वाली बात है ना, वो छोड़ने दे नहीं रही है…

आचार्य जी: नहीं तो तुम उससे क्या उम्मीद कर रहे हो छोड़ने दें? अरे कुछ दया भाव रखो। मार ही डालोगे क्या उसको? ठीक है तुम जितना कर सकते हो कर रहे हो, तुम्हें ये बात पता है ना कि ऐसा है? ईमानदारी से लिखा है ना? बहत है। तुम्हे और कुछ नहीं करना है। तुम्हारे ऊपर कोई दायित्व नहीं है, कोई पवित्र उत्तरदायित्व, कि मुझे तो कुचल-कुचल के मार देना है माया को।

तुम्हें नहीं मिशन पर भेजा गया है। है, ऐसा ही है ठीक है, तुम्हें पता चल रहा है जब तक तब तक ठीक है। इस पता चलने को कायम रखो, बाकि और, बस ठीक है। जो तुमनें पैदा नहीं किए वो, तुम्हारा कर्तव्य थोड़ी बन जाएगा मारना। तुमनें पैदा किया था उसे? तो तुम काहे पीछे पड़े हो? है, दुनिया का चलन है, दस्तूर है, मन की सामग्री है, वो ऐसी ही होती है। ठीक है।

श्रोता: लेकिन, आचार्य जी जब मैं यहाँ के बारे में सोचता हूँ तो अंदर से भी लगता है कि मैं, आचार्य जी के साथ बेईमानी कर रहा हूँ, या अपने साथ भी बेईमानी कर रहा हूँ। मतलब दोनों बाते मन में चलती रहती है कि…

आचार्य जी: तो उसमे अचरज क्यों होता है तुमको? बेईमान तो हो तो क्या हो गया।

श्रोता १: खोखलापन लगता है ना फिर अंदर से।

आचार्य जी: खोखले हो, तो क्या हो गया? वो तो हो ही। इसमें अचम्भा क्या है? तुम्हें क्या लग रहा है कि हम लोग सोच रहे है कि नहीं हो? दिक्कत वही होती है ना, कि हमें शर्म आने लग जाती है। ये शर्म का आना भी यही बताता है कि अपने बारे में कोई ऐसी छवि बना रखी है तुमनें जो तुम हो नहीं। “मैं बेईमान हूँ।” हाँ, इस बात को जब साफ़-साफ़ देख पाते हो तो बस हो गया। वो तो हूँ हीं, खोखले तो है ही, हाँ। उसमें समस्या क्या है ये तो बताइये?

समस्या ये होती है कि उससे तादात्म्य बिठाते हो। समस्या ये होती है कि उसको जानते नहीं हो, उससे परिचित नहीं हो। इसके आकर्षण में बंधे हुए हो, बिना जाने। वो वैसी ही है। और उसके पास कोई विकल्प नहीं है वैसा न होने का। तुम उससे दूसरी उम्मीद क्यों रखते हो? क्योंकि तुम्हें अपनी एक सुंदर छवि बनानी है, है ना? कि नहीं हम तो बड़े साफ़-सुथरे है, हम खोखले नहीं है हम भरे-पूरे है। अरे भाई तुम कैसे हो जाओगे? मन का मतलब ही है अपूर्णता। मन का मतलब ही है खोखलापन। तुम अपवाद बनोगे? तुम कुछ नया काम कर के दिखा दोगे?

वहाँ तो यही है अमित, और कुछ भी नहीं है। तुम, जब वास्तव में उससे थोड़ा हट पाओगे, जब तुम्हारा तादात्म्य टूटेगा, तादात्म्य जानने पर ही टूटता है, तो ऐसा नहीं होगा कि वो तुम्हारी ज़िंदगी में कहीं होगा नहीं, कि माया बचेगी नहीं, कि तुमनें उसकी हत्या वगेराह कर दी होगी। बस इतना होगा कि वो होगी, तुम उसके रूप से पूरी तरह परिचित होओगे, और तुमने स्वीकार कर लिया होगा कि ये ऐसी ही है, मैं ऐसा नहीं हूँ। ये ऐसी ही है। वो ऐसी ही है, तुमने वैसी नहीं बनाई। वो वैसी ही है, तुम अपने आप को ज़िम्मेदार मत मानो। मैं तुम्हे कोई सांत्वना नहीं दे रहा हूँ, कि वो वैसी नहीं है, मैं तुमसे नहीं कह रहा हूँ।

अभी तो हालत ये है कि तुम पूरे तरीके से उसके कब्ज़े में हो। और वो कैसी है, वो खोखली है, वो दुर्गंधयुक्त है। तुम उसके कब्ज़े में हो, तो तुम भी कैसे हो? तुम भी उसके जैसे हो गए हो। अब तुम ये चाहते हो कि हम कब्ज़े में तो बने रहें उसके, पर हम खोखले न कहलाएँ। हम सड़े न कहलाएँ। उसकी प्रकृति है खोखला होना। उसकी प्रकृति है सड़ा होना, और वो वैसी ही रहेगी। तुम इतना ही कर सकते हो कि तुम उससे एक कदम दूर हो जाओ। और वो फिलहाल मेरे कहने भर से तुमसे नहीं होगा। वो एक कदम दूर होना तुम्हारे जीवन का फल होता है। वो कोई ऐसी बात नहीं होती कि हमने तय कर लिया कि आज से हम अलग हो गए। वो तो तुम हो जाते हो। जैसे फल लगता है पेड़ में। पेड़ तय थोड़ी करता है कि अब फल पैदा करना है। पेड़ में फल लगता है, वैसे ही मन की ये जो सारी वृत्तियाँ है, इनसे दूरी अपने आप बनती है। जब दूरी बनेगी, मैं दौराह रहा हूँ, वृत्तियाँ तब भी, रहेंगी भी और वैसी ही रहेंगी, कैसी?

श्रोता १: खोखली।

आचार्य जी: खोखली, क्योंकि वो उनके अलावा और कुछ नहीं हो सकती। वही उनकी प्रकृति है। वो वैसा ही रहेगा। तुम उससे दूर रहोगे। तुम उससे दूर रहोगे। दूर होने में साफ़-साफ़ सब चीज़े दिखाई पड़ती है, उनको जान भी पाते हो। गंदगी के बीच भी अनछुए रह जाते हो।

ईंसा भी जब चढ़ रहे है ना सूली पर, तो एक बार को बोल देते है, कि पिताजी हमें काहे को छोड़ दिया। दर्द हो रहा है शरीर में, चोट लग रहीं है, चारो तरफ घृणा का सैलाब दिखाई दे रहा है, पूरा एक शहर आतुर है, कि इस आदमी को मार दो। जीज़स, जीज़स इसीलिए नहीं है कि उनके भीतर, से ये वचन कभी उठता ही नहीं, जीज़स, जीज़स इसीलिए है क्योंकि ये वचन उठने के बाद भी वो कहते है, कि, कोई बात नहीं ये तो ऐसे ही है। जिस पिता से कहते है कि मेरे साथ ये क्यों होने दे रहे हो, मुझे छोड़ दिया क्या? उसी पिता से ये भी कहते हैं, कि जो लोग ये कर रहे है, उनको क्षमा करना। इन दोनों का एक साथ होना समझो, इन दोनों बातो का। इन दोनों बातो का एक साथ होना समझो। वृत्ति अपनी जगह, तुम अपनी जगह। ये कल्पना करना छोड़ो कि कभी कुछ बदलेगा, जो है सो रहेगा। हाँ, उनमे घर्षण नहीं रहेगा।

अभी तो तुम्हारी हालत ये है कि तुम शिकंजे में हो, छटपटाते भी हों, बाहर निकलना भी नहीं चाहते हो। और, हर तरह का उपद्रव चलता रहता है। बुद्ध ने भी कहा कि मुझे निर्वाण मिल गया। पैंतीस करीब अवस्था थी बोले, “निर्वाण मिल गया।” पर महापरिनिर्वाण तभी कहा, जब शरीर से भी नहीं रहे। जब तक शरीर है तो उसके साथ की चीज़े तो लगी रहेंगी। तुम क्यों उम्मीद करते हो कि कुछ और होगा।

श्रोता: माया जीतती दिखाई देती है, बहुत पॉइंट ऑफ़ टाइम(point of time) पर, तो बड़ी अंदर से हीन भावना भी आती है इस चीज़ को लेके। जिसको अभी मैंने खोखलापन भी कहा।

आचार्य जी: एक बात बताओ, कबीर माया के इतने गीत गाते है, कैसे पता उन्हें इतना कुछ माया के बारे में? ज़रा विचार करो, कबीर को माया के बारे में इतना कुछ पता कैसे चला? डाकिनी है, पापिनी है, कमीनी है., कैसे पता चला? बड़ी मुलाकात है… बात को समझो। तुम्हारी जितनी नहीं है उससे ज़्यादा कबीर की है। तुम लिख के दिखाओ दस दोहे माया के बारे में। उन्होंने दो सौ लिखे है।

माया के दो सौ रूप-रंग सब देखे है। कबीर, कबीर इसीलिए है क्योंकिं माया का एक-एक रूप जानते हुए भी कबीर हैं। इसीलिए नहीं कि अरे, माया है क्या हम तो जानते ही नहीं। हमें तो कभी कोई आकर्षण पता ही नहीं चलता। हमें तो कभी कुछ लुभाता नहीं। हमारे ऊपर तो कभी माया आक्रमण ही नहीं करती। न करती आक्रमण तो कबीर, इतने यकीन के साथ कैसे उसके बारे में ये सब कह पाते? बोलो… तुम्हें क्या लगता है कबीर दूसरो का अनुभव उधार ले रहे थे? कबीर पड़ोसियों से पूछने जाते थे कि हाँ भाई, तुझे माया सताती है क्या? और फिर लिख देते थे।

श्रोता २: फॉर्म भरवा रहे हैं।

आचार्य जी: हाँ, बाज़ार में निकल के, लोगो से पूछ रहे हैं, कि भाई तुम्हें लालच डराता है, सताता है? कैसे पता, कैसे पता? तो ये सब लगा रहेगा। इसके लगे रहने पर भी तुम अछूते रह जाओ। ये बड़ा संकरा रास्ता होता है।

श्रोता ३: आचार्य जी, क्या ये कहना सही रहेगा कि वो अहंकाररहित थे, मतलब, जैसे…

आचार्य जी: क्यों? क्यों, तुक्के मारने है? बस ये देखिये कि वो कुछ जान पाए, जो आप नहीं जान पाते क्योंकि जानने के लिए ज़रा सी, दूरी ज़रूरी है। थे हाड़-माँस के ही। थे इसी दुनिया के। जन्म हुआ, मृत्यु हुई, जिसको आप कबीर जानते हो वो तो व्यक्ति ही था। और आपकी ही भाषा में बात करी उन्होंने। अपने ज्ञान के अनुसार ही वचन बोले। ये जो एक बड़ी, फुलवारी सी हम सजा लेते है ना, कि संत तो वो है, जिसे, इन सब बातो से कोई मतलब ही नहीं होता, ये बड़ी मायावी बात है।

ये बात कि संत को माया से कोई मतलब नहीं होतो, ये बात बड़ी मायावी है। सच तो ये है कि माया संतो पर जितना आक्रमण करती है उतना आम आदमी पर नहीं करती। आम आदमी पर क्या आक्रमण करेगी? वो तो वैसे ही फुग्गु है। उसकी जेब में बैठा हुआ है माया की, उस पर आक्रमण क्या करना है? आक्रमण तो वो संतो पर ही करती है। और कहते हैं कबीर बार-बार, कि आ तू तुझे डंडा लेके मारूंगा।

नहीं पढ़ें हैं दोहे? “हाट में बैठी हुई है, सब को पकड़ लिया, तू कबीर को पकड़ के दिखा।” दौड़ती तो होगी कबीर के पीछे भी, ऐसा तो नहीं के नहीं दौड़ती होगी। दौड़ती है तभी ना चुनौती दे रहे है, “तू पकड़ के दिखा।” तो तुम्हारे भी पीछे अगर दौड़े, तो इसमें कोई अचरज नहीं। और जो माया तुम्हारे पीछे दौड़ेगी, वो तुम्हारे मन में ही बैठी है। तो तुम्हारा मन अगर बहकता है, तो इसमें शर्मसार मत हो। उसका काम है, माया का काम है यही करना। तुम तो ये देखो, तुम तो ये मनाओ कि एक दिन ऐसा आए कि इन सब के बीच भी, मैं साफ़ रह जाऊँ।

श्रोता ४: आचार्य जी, गलत सवाल है और काल्पनिक भी है… कि क्या उस स्थिति में भी विचार उठेगा, इर्ष्या का और इन सब चीज़ों का?

आचार्य जी: क्या करोगे जान के?

श्रोता ४: वही गलत है, लेकिन… क्योंकि इसीलिए जानना चाहता हूँ क्योंकि, जैसे इन्होंने कहा ना खोखलापन या ग्लानि, आत्म-घृणा जो भी है, तो हमारे में विचार उठा, उसको देखा, तो उससे जब हम अगला कदम लेते है आप, सेल्फ आत्म-घृणा, याग्लानि जो भी, वो हमेशा एक, एक दूसरी छवि की तुलना में होता है…

आचार्य जी: हाँ हाँ…

श्रोता ४: जैसे मान लीजिए कि मेरे में एक विचार उठा तो क्या आचार्य जी में भी ऐसा विचार उठता होगा? तो जवाब आया, “नहीं।” तो देखो तुम… ठीक है, ये गेम(game) हो गया सारा। तो, और इसी से फिर वो, होते-होते बहुत सारी चीज़े आ जाती हैं। तो, ये जानना इस सन्दर्भ में ज़रूरी है कि क्या उस स्थिति में भी…

आचार्य जी: देखो ज़रूरी तो कुछ नहीं है, पर तुम्हें जब लगे कि ज़रूरी है, मन बहोत उत्पात करे, तो उसको जवाब दे दो हाँ।

श्रोता ४: हाँ, किस सन्दर्भ में?

आचार्य जी: हाँ, उठता होगा। एक बार कोई आया था मेरे पास इस तरह के सवाल ले के…

श्रोता ४: नहीं मैं आपको व्यक्तिगत रूप से नहीं बोल रहा हूँ।

आचार्य जी: पूछने आया था कि आचार्य जी, आपको कभी तनाव होता है? मैंने कहा, “बहुत ज़्यादा होती है, इतनी तो तुम्हें नहीं होती, उससे ज़्यादा होती है।” वो बेचारा, सकपका गया। मैं तो यही कह रहा हूँ कि तुम जितने गए-गुज़रे हो मैं तो उससे कही ज़्यादा गिरा हुआ हूँ। तुम्हें थोड़ा तनाव होता होगा, मुझे तुमसे ज़्यादा होता है। पिछले एक साल में दाढ़ी पूरी सफ़ेद हो गई है, तुम्हारे तनाव से। पर फिर भी उसको बुरा लगा, क्यों? बात को समझना। वो मुझसे पूछने आया, आचार्य जी, आपको तनाव होता है? मैंने कहा, “मुझे बहुत ज़्यादा तनाव होता है।” और मैं झूठ नहीं बोल रहा था, मैं बिलकुल ठीक बोल रहा था। पर ये जवाब उसको रुचा नहीं। वो मुझसे क्या सुनना चाहता था?

श्रोता ५: कि नहीं होती।

आचार्य जी: वो मुझसे ये सुनना चाहता था कि मैं कहूँ, “तनाव! हम तो मुक्त गगन की चिड़ियाँ हैं।” पूरी छवि ख़राब हो गई। सारा खेल ही इस बात का था कि ये छवि बना सकें कि देखिये साहब वो, जो ज़्यादा थोड़ा पढ़े-लिखे लोग होते है, गुरु के जैसे, उनको तनाव-वनाव नहीं होता। मैं काहे को तुम्हारी छवि में योगदान दूँ? काहे को झूठ बोलूँ? है, पूरा तनाव है, जितना है उतना तुम झेल भी नहीं पाओगे।

हाँ, होता है, बिलकुल होता है तनाव। तो क्या दिक्कत है? क्या चाहते हो? कोई फरिश्तो सी छवि बनाना चाहते हो कि वैसा होता है। नहीं होता वैसा। तुम्हारी किसी छवि जैसा नहीं होता। इन्ही छवियों के कारण तुम अटके हुए हो, इन्हीं छवियों के कारण तुम फँसे हुए हो। तुम जितने दोष पूछोगे मैं कहूँगा सब होते हैं। तुम कहोगे फिर, फिर क्या रखा है? फिर क्या फ़ायदा है? बिलकुल साधारण बात होती है। कुछ भी ऐसा नहीं जो नहीं होता। और ये सब बताने के बाद मैं कह रहा हूँ कि अब तुम्हें मेरी बात में कोई सार दिखाई देता हो तो उसको लो। किसी झूठ, किसी बहकावे, किसी छवि, किसी प्रचार-प्रसार के प्रभाव में आके मेरी बात मत सुनना।

तुम मुझसे जितने दुर्गुण पूछोगे, मैं सब में हाँ कहूँगा। उसके बाद मेरी बात सुन सकते हो तो सुनो। क्योंकि उसके बाद यदि मेरी बात सुन पाओगे तो अकारण सुनोगे। अभी तो तुम्हारे पास कारण है, अभी तो तुम्हारे पास लालच है। तुम्हारी अधजगी आँखों ने मेरी कोई ऐसी छवि बना ली है, मुझमें कुछ ऐसा देख लिया है जो मुझमें है ही नहीं और तुम उसी चीज़ का पीछा कर रहे हो। तुम मुझसे वो पाना चाहते हो जो मैं तुम्हें दे ही नहीं सकता। है ही नहीं दूँगा कहाँ से? फिर तुम्हें वो मिलेगा नहीं तो तुम्हे निराशा भी होगी। पहली बात वो है नहीं, दूसरी, दिया नहीं जा सकता, तीसरी बात, उसमें कुछ ऐसा है भी नहीं, कोई कीमत नहीं, कि दिया जाए किसी को।

तुमनें बुद्ध जनों की जो छवियाँ बनाई है, वो बड़ी हास्यास्पद और बड़ी मनहूस छवियाँ है। कहीं पेड़ के नीचे बैठा देते हो, किसी को यूँ ही फ़ालतू नंगा घुमा देते हो। तुम उनसे पूछो अगर, आज वो हो, कि आप ऐसा होना चाहेंगे? वो कहेंगे, “माफ़ करो।” तुम्हारी उन छवियों की दो कौड़ी की कीमत नहीं है। तुम मुझसे जब भी पूछोगे, वैसा कुछ है? बिलकुल नहीं है। और ये नहीं कि किसी विधि के रूप में बोलूँगा, सच्ची बात बोलूँगा, नहीं है, कुछ भी नहीं है। उसके बाद भी अगर तुम्हें कुछ ऐसा दिखाई दे, जो कीमती है, तो सुनना। ये चुनौती है बिलकुल। और, तभी कीमत है सुन पाने की। ऐसे नहीं सुना कि, बाबाजी को सुनने गए है, क्यों? बाबाजी बड़े वरदानी है, बेटा पैदा करा देंगे। अरे बाबाजी नहीं करा सकते बेटा पैदा। अपना किया नहीं, तुम्हारा कहाँ से कराएँ?

कुछ नहीं, ये सब रहेगा। यही जीवन है। अंतर बस इतना है कि जीवन तुमसे खेल रहा है या तुम जीवन से खेल रहे हो? खेल तो रहेगा। खेल तो रहेगा। और अगर तुमनें खेल ख़त्म करने की सोच ली, तो फिर तो कब्रिस्तान, मुर्दा हो तुम। खेल ख़त्म करने की मत सोचना। खेल तो रहेगा।

श्रोता ५: आचार्य जी, बहुत दिन से माया के बारे में एक सवाल चल रहा था। कभी-कभी ऐसा समझ में आता है, कि माया बड़ी सही चीज़ है। जैसे हम रास्ते से हटते है, तुरंत डंडा बजा देती है? मतलब जितनी देर माया में है उतनी देर पिट ही रहे है। तो, और जब देख लिया, तो माया में हैं ही नहीं…

आचार्य जी: आनंदिता, कबीर का सूत्र है, अभी जो पूरी बातचीत हुई उसको समझना,

माया दो प्रकार की, जो जाने सो खाए।

एक मिलावे राम से, दूजी नरक ले जाए।।

अभी कहा ना खेल ख़त्म करने की मत सोचना, ये माया ही राम से मिलाएगी। माया बहुत बढ़िया चीज़ है, माया ज़िन्दगी है। बस उसकी जेब में मत बैठ जाओ। जिन कबीर ने, माया, को इतना भगाया, उन्होंने ही कहा, कि

माया दो प्रकार की, जो जाने सो खाए।

एक मिलावे राम से, दूजी नरक ले जाए।।

माया सुन्दर है, प्यारी है। दुनिया इसीलिए थोड़ी है कि बचे-बचे फ़िरो। मैंने किसी से कभी नहीं कहा कि कुछ भी वर्जित है कि उपेक्ष्नीय है, कि सीमाएँ बांधो, कि ये करो ये ना करो, कभी नहीं। और जब-जब तुम्हारे लिए मैंने कोई कायदा बनाया भी है, तो वो बस कुछ समय के लिये बनाया है। जैसे अस्पताल में मरीज़ सिर्फ कुछ समय के लिए आता है। कोई अस्पताल इसीलिए थोड़ी होता है कि तुम्हे उम्र भर उसी में डाले रहों।

पर ये बोलते हुए तुमसे फ़िर थोड़ा, संकुचाता हूँ। तुमसे बोला नहीं कि, माया बढ़िया है, प्यारी है, तुम कहोगे, “तभी तो उसकी जेब में है।” अरे वो इस तरीके से प्यारी है, जैसे प्रेमिका हो। इस तरीके से भी ठीक है कि जैसे दासी हो। ऐसे नहीं ठीक है कि जैसे मालकिन हो। कहते है ना कबीर,

पाँच सखी मिल करे रसोई, जी में मुनि और ज्ञानी, कहता है गुरु-ज्ञानी।

कि इन्द्रियाँ ऐसी हो जाएँ कि तुम बैठे, आसन लगा के, “परोसो भोजन।” और वो तुम्हारे लिए रसोई पका रही है। अनुचर है, सेविका है। भगा नहीं दिया है, रसोई में लगा दिया है। भगाने से क्या है? इतनी ऊर्जा है माया के पास, इतना प्रलोभन देती है, सजी-संवरी रहती है, भगाएँ काए-को? अच्छा है, आ! चल खाना बना।

क्या समस्या है? ठीक है। ये सब क्या है कि, ये नहीं, वो नहीं, ऐसा नहीं, वैसा नहीं, सब ठीक है, बढ़ियाँ है।

YouTube Link: https://youtu.be/RqaJOGeGqfU

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