‘अर्जुन, मेरे लिए तो कहीं कोई कर्तव्य नहीं है।‘ कर्त्तव्य उसके लिए होता है जिसको कुछ पाना अभी शेष होता है, कर्तव्य उसके लिए होता है जिसके भटकने की आशंका होती है; मेरे लिए क्या कर्तव्य? मेरे लिए कोई कर्तव्य नहीं है। लेकिन मुझे देखो, मैं तो सदा कर्म में ही लगा रहता हूँ, मैंने कभी कर्म छोड़ा? जब मैं नहीं छोड़ता तो तुम छोड़ने का विचार भी कैसे कर सकते हो?
आध्यत्मिक आदमी की ये छवि बिलकुल त्याग दीजिए कि वो रुका हुआ होता है। हम ऐसा ही कहते हैं न ‘जो रुक गया उसे मुक्ति मिल गई।’
कृष्ण बिलकुल उल्टी बात बता रहे हैं, कह रहे हैं कि जो लगातार चलता ही जा रहा है, वही मुक्त है। जो रुक गया उसके पाँव तो माया ने पकड़ लिए हैं। क्योंकि राह है मुक्ति की और अभी राह पर हो तो रुक कैसे गए भाई? तुम तो यात्रा पर हो, पथिक हो तुम, ये रुकने-रुकाने की क्या बात है? तुम्हें किसने अधिकार दे दिया रुकने का? तुम पहुँच गए हो क्या? तुम शिखर पर विराजे हो क्या? तुम चढ़ाई कर रहे हो, तुम कहाँ से रुक गए? रुक मत जाना।
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