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न मेरी वृद्धि हो सकती है, न मेरी क्षति हो सकती है।

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अष्टावक्र गीता (प्रकरण– 7, श्लोक– 2)
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परिचय
लाभ
संरचना

न मेरी वृद्धि हो सकती है, न मेरी क्षति हो सकती है।

पूरे सातवें प्रकरण का मर्म है आत्मा की मन और जगत से असंबद्धता। मन और जगत को ही द्वैत कहते हैं और इसे प्रकृति भी कहते हैं। प्रकृति अपनी जगह है और आत्मा अपनी जगह। मैं प्रकृति से जाकर लिप्त नहीं होता हूँ। प्रकृति का खेल चलता रहता है मगर मैं अस्पर्षित रहता हूँ। आगत सभी श्लोकों में भिन्न भिन्न दिशाओं से यही रस मिलने वाला है।

न मेरी वृद्धि हो सकती है, न मेरी क्षति हो सकती है। अष्टावक्र जी ने आपके सामने श्लोक के माध्यम से बात बिल्कुल सीधे तरीके से रख दी है। और पूरी बात इसके इर्द गिर्द ही घूमेगी।

समझिए, अद्वैत वेदांत मनुष्य के बल और और गरिमा का दर्शन है। अद्वैत वेदांत न तो आपके मन को बहलाने के लिए कोई झूठ देता है। न वो आपकी किसी भी समस्या को सत्यापित और स्वीकार करता है। न वो आपसे ज्यादा किसी को बड़ा और बली मानता है। अद्वैत वेदांत में कहानियों के लिए कोई जगह नहीं है। और तथाकथित प्रचलित धर्म वेदांत के विपरीत चलता है तो समझना और भी मुश्किल हो जाता है।

जानेंगे अद्वैत दर्शन और अष्टावक्र गीता को इस कोर्स के माध्यम से।

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