घूँघट के पट खोल रे तुझे पिया मिलेंगे
भजन की दो पंक्तियाँ आप पढ़ेंगे तो आप को लगेगा साधारण प्रेम गीत है। मगर यही खासियत है संतों की, वह ऊँचे से ऊँची बात आपको आपकी साधारण भाषा में समझा देते हैं। जिससे एक खतरा यह भी बन जाता है कि यह साधारण प्रेम गीत न समझ लिया जाए।
इस भजन में तो कबीर साहब ने सीधे सीधे बोल दिया है कि दिक्कत तो ढूंढने वाले के तरफ से है; दिक्कत उस प्रेमी में है जो ढूँढ नहीं पा रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब वह प्रेम भी करता है, प्रेमी भी है: तो ढूंढ क्यों नहीं पा रहा है? सोचिए?
क्योंकि प्रेमी ने ही बहुत शर्त लगा रखी है। उसके अपने नियम हैं, ढर्रे हैं; यही तो घूँघट है। घूँघट है हमारा होना। प्रेमी की ऊर्जा, कामना, ईर्ष्या, उसका ममत्व और भय उसको ही संरक्षित करने में निकल जा रहा है। प्रेमी तो वो है, बस उसकी जिद्द है कि उसको पिया चाहिए है लेकिन अपने अनुसार।
कबीर साहब ने भजन नहीं जैसे हमारी जिंदगी ही लिख दी हो। एक तरफ हमें प्रेम भी चाहिए दूसरी तरफ हम अपनी ज़िद और हरकतों से ऊपर भी नहीं उठ पा रहे।
आपको उठाने के लिए एक का नहीं, दो का नहीं, बल्कि तीन का ज़ोर लगेगा। कबीर साहब और आचार्य जी जोर लगाएंगे आपको ऊपर खीचने में। ध्यान आपको रखना है कि आप भी ऊपर उठने के लिए ही ज़ोर लगाएं। अपना ज़ोर नीचे जाने के लिए मत लगा लीजिएगा।
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