अष्टावक्र जी इस श्लोक में हमें जीवन की एक मूलभूत सीख दे रहे हैं। वह का रहे हैं सचमुच धनवान है वह मनुष्य जो जिजीविषा, बुभुक्षा, और बुभुत्सा त्याग दे।
यह कैसे शब्द हैं? और इनका क्या अर्थ है? जिजीविषा, बुभुक्षा, और बुभुत्सा।
यह तो आप सत्र में आचार्य जी से ही समझिएगा। आपको आज हम कुछ नहीं बताएंगे बस आपसे कुछ रोजमर्रा के जीवन के प्रश्न पूछेंगे। गौर कीजिएगा:
आज आप जैसे जी रहे हैं, अगर कोई बताने वाला न होता कि ऐसे ऐसे ही जीना है तो क्या तब भी ऐसे ही जीते?
कभी सोचा है कि हम जीवन में जितने सपने सजाते हैं ठीक वही सपने आपके पड़ोसी और रिश्तेदारों के भी होते हैं?
कभी सोचा है घर में हमारे जो क्लेश होता है वह भी एक सा ही होता है उसमें भी कुछ नया नहीं होता?
अध्यात्म उसके लिए है जो जीवन के इन सवालों के जवाब एक से पाता हो। जो बोल उठे कि बहुत ऊब है जीवन में। मुझे ऐसे नहीं जीना, मुझे ऐसी इच्छा नहीं करनी, मुझे ऐसी कामना नहीं रखनी। उनके लिए हैं अष्टावक्र।
इसी सत्र में आपको आचार्य जी दुर्गासप्तशती का द्वितीय चरित्र भी पढाएंगे। जहाँ महिषासुर भैंसे का रूप धारण करता है और प्रकृति को तहस नहस कर देता है। ठीक वैसे ही जैसे इंसान आज समुद्र, पहाड़, नदियाँ और हवा को प्रदूषित कर रहा है। जानेंगे कि महालक्ष्मी जी ने कैसे महिषासुर का वध किया और अंत में देवताओं को क्या सीख दी। चलिए अब बढ़ते हैं सत्र की ओर।
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