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कर्मफल की आशा से कर्म मत करना पार्थ

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 46–47 पर आधारित
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2 घंटे 30 मिनट
हिन्दी
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आजीवन वैधता
Contribution: ₹199 ₹500
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परिचय
लाभ
संरचना

इस कोर्स में जिस श्लोक को आप पढ़ेंगे वह जाति से जुड़ी मान्यताओं को समाप्त कर देगा। श्लोक में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट रूप से बताया है कि ब्रह्मण कौन है? कहते हैं कि ब्रह्मण वह नहीं है जिसने वेद पढ़े हैं, ब्रह्मण वह है जो वेदों का भी अतिक्रमण कर गया हो।

जब धरातल (प्रकृति) से आकाश (सत्य) तक जाना हो तो वेद सीढ़ी की तरह हैं। आकाश में पहुंचने के बाद अब सीढ़ी की क्या आवश्यकता? वह जो अब आकाश में ही स्थित है वह ब्राह्मण है।

मगर श्रीकृष्ण यह सब बात अर्जुन को क्यों बता रहे हैं जब इसके ठीक बाद वह बोलते हैं कि कर्मफल की आशा से काम मत करो पार्थ। वह इसलिए क्योंकि अर्जुन अभी भी वेदों के कर्मकांड को ही उच्च मान रहे हैं और यह बात हमनें पहले और दूसरे अध्याय में देखी थी। भूलिए नहीं कर्मकांड का आशय है कामना और अर्जुन के लिए कर्मकांड ही उच्चतम है।

श्रीकृष्ण की सीख तो यह है कि न कर्मफल को भोगने की आकांक्षा है, और ना कर्मफल के त्याग का हठ है। हमें तो प्रेम भर है। किससे? सार्थक कर्म से। सार्थक कर्म कर रहे हैं, उसके फल के लिए कर ही नहीं रहे। उसके फल से हमें इतनी अनासक्ति है कि हम उसके फल को ग्रहण क्या करेंगे, हम तो उसके फल का त्याग तक नहीं कर रहे। हमें उससे इतनी अनासक्ति है कि हम उसे ग्रहण क्या करेंगे, हम तो उसे अग्रहण तक नहीं कर रहे।

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