हे महाबाहो! जो तत्त्वज्ञानी होते हैं, जो जानते हैं, वो कहते हैं कि सत, रज, तम – इन्हीं गुणों से उत्पन्न इन्द्रियाँ, इन्हीं गुणों से उत्पन्न रूप-रस आदि में बरत रही हैं, और ये जानकर वो फिर लिप्त भी नहीं होते और ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा अभिमान भी नहीं करते।3.28
जिंदगी में कुछ खो जाने का भय बना रहता है?
तनाव, और परेशानी से नींद नहीं आती?
मन भविष्य की कल्पनाओं में खो जाता है?
कुछ चल रहा हो ज़िन्दगी में, अपनेआप को ये जो तीन शब्द हैं, ये बोलिएगा — “गुणा गुणेषु वर्तन्त”, “गुणा गुनेषु वर्तन्त।“
कुछ और नहीं चल रहा है यहाँ पर। प्रकृति ही है जो जड़ और चेतन बन बैठी है। प्रकृति के ही गुण हैं। उसमें जिसको तुम कहते हो, ‘देखने वाला’, वो भी गुणों का खेल है और उसको जो कुछ दिखाई दे रहा है, वो भी बस गुणों का खेल है। और इस बात को जो समझ गया, वो फिर कभी मोहित नहीं होता।
अपने जीवन में जब हम कुछ चलता हुआ देखते हैं तो हम कहते हैं, ‘चल रहा है यदि कुछ तो चलाने वाला भी कोई होगा।’ और इस सिद्धान्त से भूलवश हम किसका निर्माण कर देते हैं? अहम् का। ठीक है? फिर हम पूरे ब्रह्मांड को देखते हैं और हम कहते हैं, ‘रचा हुआ है इतना कुछ तो रचाने वाला भी कोई होगा।’ और फिर उसी सिद्धान्त से भूलवश हम किसका निर्माण कर देते हैं? ईश्वर का।
श्रीकृष्ण समझा रहे हैं कि बस चल रहा है, चलाने वाला कोई नहीं है। बस चल रहा है, प्रकृति है, बस प्रकृति है। श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि गुणों का खेल है प्रकृति के, ‘मैं’ तो कुछ है ही नहीं। और तुम उस ‘मैं’ के लिए क्या अपनेआप को दुख दिये दे रहे हो! ‘मैं’ सोचता है कि मैं हूँ और ‘मैं’ की रक्षा के लिए मैं बड़ा परेशान हूँ।
देखिए यह तो श्लोक की झलक मात्र है पूरा समझना और जानना है तो आचार्य जी से जानिए इस श्लोक के माध्यम से।
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