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मैं तो शुद्ध चेतना मात्र हूँ

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अष्टावक्र गीता (प्रकरण– 7, श्लोक– 5)
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परिचय
लाभ
संरचना

अष्टावक्र मुनि कह रहे हैं कि, “मैं तो शुद्ध चेतना मात्र हूँ। यह जगत इंद्रजाल के जैसा है। तब मुझ में कहाँ और कैसे त्याज्य की या ग्रहण की कल्पना उत्पन्न हो सकती है?”

अद्वैत वेदांत आपको चार चीज देता है। पूर्ण गरिमा, पूर्ण स्वतंत्रता, जगत से स्वस्थ संबंध का विज्ञान और पूरी जिम्मेदारी। समूचा दर्शन ही जगत से स्वस्थ संबंध रखने के बारे में है।

कैसे पता चलता है कि संबंध ठीक नहीं है? दुख, संताप, बेचैनी, अवसाद। यदि दुखी हूँ तो न कारण बाहर है और न उपचार बाहर है। आपको अगर दुख से मुक्ति चाहिए तो केंद्र में जगत (इंद्रजाल) को मत रखिए। अपनी हस्ती को केंद्र में रखें और पूछें, ‘ कौन है जो भोग के लिए लालायित है? कौन है जो स्वयं को अधूरा समझ रहा है? कौन है जो अपने सुख के लिए दूसरों पर आश्रित है? क्या लालच है जो आप इतने कमजोर हुए जा रहे हैं।

वेदांत तो भीतरी विज्ञान है और इसके सूत्र पक्के हैं। सीखिए अष्टावक्र मुनि से वेदांत के सूत्र।

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