हम अध्याय 2 के समापन की ओर बढ़ रहे हैं । आरम्भ होता है आत्मज्ञान के उपदेश से। अहंकार जो कि शारीरिक वृत्तियों और सामाजिक प्रभावों से उठता है उसके सब आम जन और यहाँ पर अर्जुन भी आत्मा माने रहते हैं। ग़लती की शुरुआत उस पहले भाव से हो जाती है जो मन में आता है, 'मैं', 'अहम्'। जिसको 'मैं' कह दिया वह 'मैं' है नहीं, जो 'मैं' है उसका कुछ पता नहीं। तो आत्मज्ञान का पूरा अर्थ यही है कि जो तुम हो नहीं उसको बार-बार 'मैं-मैं' कहना छोड़ो। आत्मज्ञान की बात जितनी शुद्ध है, जितनी सरल है, उतनी ही मुश्किल है पकड़ने में, ग्रहण करने में, स्वीकार करने में, ऐसों के लिए जिनमें मोह बहुत है और जिन्होंने मान्यताओं को और धारणाओं को ही जीवन भर जिया हो। आत्मज्ञान उनको बड़ा कष्टप्रद होता है, उन्हें ऐसे लगता है जैसे सबकुछ उनका छिना ही जा रहा है।
आत्मज्ञान आपसे वो नहीं माँगता जो आपके पास है, आत्मज्ञान आपसे वही माँग लेता है जो आप हैं। अब जो पास था वो तो गया ही, जिसके पास था वो भी गया। जो कुछ अभी आपको सम्पत्ति की तरह लगता है वो तो गया ही, भविष्य में भी कुछ पाने की संभावना ख़त्म हो गई। जब आप ही नहीं रहे तो पाएगा कौन? और ये बात और आगे जाती है, जब आप ही नहीं तो भविष्य किसका?
आचार्य प्रशांत हम जानेंगे अध्याय 2 सांख्ययोग की समाप्ति में श्रीकृष्ण ने दोबारा किन बातों पर जोर दिया है।
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