तन सम्बन्धित जो कर्म हैं, वो तो चलो चलते रहेंगे। ठीक है, उसकी बहुत चिंता हम करते भी नहीं। लेकिन हमें सताते जो हैं वो तन के कर्म नहीं हैं, मन के ही कर्म हैं। मन कर्म करता है ताकि कर्ता बन करके फिर भोक्ता बन सके। मन होता है 'अज्ञानी' वो जानता ही नहीं कि वो कौन है, अतः कौनसा कर्म उसके लिए उचित है। तो वो जिस परिणाम की आशा में कर्म करता है, वो परिणाम उसको निश्चित रूपेण उल्टा ही पड़ता है और इस तरह जीव निरंतर दुख भोगता रहता है; सुख की आशा, दुख का भोग।
वेदान्त बार-बार सिखाता है कि चुनाव का विकल्प आपके पास है। ताकि जो स्थिति अभी चल रही है, आप इसके आगे ख़ुद को मजबूर न समझो और मजबूरी के पक्ष के जितने बहाने हैं, इसीलिए कृष्ण उनको बार-बार गिना दे रहे हैं। अर्जुन ने ये बहाने सामने नहीं रखे, कृष्ण ने स्वयं ही गिना दिए। कृष्ण को पता है कि अर्जुन के अंदर यही बहाने हैं। तत्परता की कमी है, जो पता है उसको जी नहीं रहे। श्रद्धा की कमी है, संशय बहुत है, इंद्रिय-संयम नहीं। अर्जुन स्वयं नहीं बोलेंगे न कृष्ण को पता है कि यही तो है माया सामने, और ये सब माया के तरीके हैं।
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