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कर्तृत्व भाव, कर्म, और कर्मफल प्रभु नहीं रचते हैं अर्जुन

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 14 पर आधारित
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2 घंटे 51 मिनट
हिन्दी
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पठन सामग्री
आजीवन वैधता
Contribution: ₹199 ₹500
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परिचय
लाभ
संरचना

वेदांत माने तर्क। वेदांत माने तर्क द्वारा तर्क की सीमा तक पहुंँच जाना और वहांँ मौन हो जाना। वेदांत में अतार्किक कुछ नहीं हो सकता है। तो गीता का उद्देश ही यही है कि आपको बार बार बताना कि आत्मा और अनात्मा में भेद है ।

सुख जब आपके सामने आता है तो वह सिर्फ सुख नहीं लगता बल्कि वह सही भी लगता है। कृष्ण आपको इस श्लोक में बता रहे हैं कि कैसे अहम अपनी ही चतुराई में फसता है और योग को प्राप्त होने से चूक जाता है। सुखी होने का और सही होने का आवश्यक संबंध नहीं है।

कृष्ण बताते हैं की चेतना को बल मिलेगा तो आत्मा से ही कि वह सही सुख को ध्यान से देखे और बोल उठे अनात्म।

तो फिर कर्म करे ही क्यों अगर कर्मफल दुख ही है?

सफाई के लिए वह कर्म करो जो तुम्हें साफ कर दे। मेहनत करो सही होने के लिए। गलत बने बने मेहनत करोगे और गलत हो जाओगे। यही आत्मस्थ होने की पहचान है। आत्मस्थ, स्थितप्रज्ञ, योगी को इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने प्रभु नाम से संबोधित किया है।

आगे हम इस कोर्स में जानेंगे कि कैसे श्रीकृष्ण अपनी प्रभुता के दर्शन इस श्लोक के द्वारा हमें देंगे।

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