मैं समस्त भूतों में हूँ, समस्त भूत मुझमें हैं, ये ज्ञान है। इसका न त्याग करना है और न ग्रहण, बस इसके साथ एकरूप होना है।
कहीं कुछ अलग नहीं है। क्यों बताना पड़ रहा है ऋषि महाराज को ये? बताना इसलिए पड़ रहा है क्योंकि हम देखना नहीं जानते। जब हम देखना नहीं जानते तो हम दर्शन की अपेक्षा कल्पना पर चलते हैं। हम ज्ञान की अपेक्षा अनुमान पर चलते हैं क्योंकि भीतर एक बैठा हुआ है सहमा हुआ सा, काँपता हुआ जो ये मानने को क़तई राज़ी नहीं होता कि मैं नहीं जानता। उसके पास ज्ञान नहीं होगा तो वो अनुमान कर लेगा।
कोई पूछेगा, ‘क्यों कर रहे हो कुछ?’ आप कोई तर्क दोगे। ‘वो क्यों किया?’ उसमें कोई तर्क दोगे। अन्ततः अगर आप ज़िन्दगी सही जी रहे हो तो आपका आख़िरी तर्क ये होगा कि अरे! होने के लिए जी रहा हूँ, मैं इसलिए ये सबकुछ कर रहा हूँ। मुक्ति से प्रेम है न, इसलिए सबकुछ कर रहा हूँ।
तो आत्मा तर्कों का तर्क होती है, वो आख़िरी तर्क होती है। वो सब तर्कों की बुनियाद होती है। और जो आत्मा की तरफ़ नहीं जी रहा होता है, उसके तर्क ऊपर-ऊपर से कितने भी पैने लगें, वो सब होते बस कुतर्क हैं। मुनि आपको प्रेम करना सिखा रहे हैं वह आपको आत्मस्थ होना सिखा रहे हैं।
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