भजन की पहली पंक्ति – “अमरपुर ले चलो सजना” — आपके अतिरिक्त कोई नहीं हैं जिससे आप प्रार्थना कर सकें। 'और ये तो बहुत भारी अहंकार हो गया न, ख़ुद को ही नमन कर रहा है, ख़ुद से ही प्रार्थना कर रहा है।' न-न-न, अन्तर सूक्ष्म है, समझिएगा।
जब अहंकार ज़िम्मेदारी से बचना चाहता है तो वो कहता है, 'कोई और है।' जैसे ही कहा, 'कोई और है', तो फिर करने वाला भी कोई और है। ये बात पूरी कर्तव्यशीलता की है, 'करने वाला तो मैं ही हूॅं, करने वाला तो मैं ही हूॅं, कोई नहीं और है।' सत्य को प्रार्थना नहीं करूॅंगा, अपने ही उज्ज्वल पक्ष से आग्रह करूॅंगा। स्वयं से ही पूछूॅंगा, 'क्या तुम नहीं चल सकते अमरपुर की ओर? क्या समस्या है?' सत्य से सीधे आग्रह करना अनुपयोगी हो जाता है।
भजन की दूसरी पंक्ति – "अमरपुर की साॅंकर गलियाॅं।" 'साॅंकर गलियाॅं' से क्या मतलब है यहाँ? कोई और नहीं मिलेगा; तुम, तुम्हारी ज़िन्दगी, तुम्हारा प्यार, तुम्हारी ज़िम्मेदारी, तुम्हारा अकेलापन। प्रेमी से मिलने जत्था लेकर थोड़े ही जाते हो। रैली डेट, ऐसा करते हो क्या? अकेले जाना पड़ेगा, दूसरे के लिए वहाॅं जगह नहीं है। दूसरा अगर आ गया, पहला खो जाता है। दूसरा आ गया, पहला खो जाएगा।
यह कोर्स उनके लिए है जो जिंदगी में फैसले लेने में हिचकते हैं, अपनी जिम्मेदारियों से भागते हैं और अकेलेपन से घबराते हैं। सीखिए और जिंदगी का खुलकर स्वागत करिए।
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